Kimbhuna - 3 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | किंबहुना - 3

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किंबहुना - 3

3

सात-आठ दिन शांति से कट गए। इस बीच वाट्सएप पर रोज सुबह भरत जी की ओर से जिन्हें तमाम कोशिश के बावजूद वह मामा जी नहीं कह पाई, सर जी और जी सर ही बोलती, फूलों का गुलदस्ता आ जाता। जानबूझ कर काफी देर बाद वह गुडमार्निंग सर बोलती। लेकिन रात में फिर सोने से पहले गुड नाइट आ जाती और जुड़े हुए गेहुँआ हाथ तो वह गुडनाइट सर लिख कर छुट्टी पा लेती। लेकिन जब मैनेजमेन्ट ने उसे बताया कि मुम्बई से विजिटिंग अफसर दौरे पर आ रहे हैं, वे आपके फील्ड का भी दौरा करेंगे तो फिर से उसके हाथ-पाँव फूल गए।

यों फील्ड वर्क में कच्ची नहीं थी वह। बालिका दिवस हो चाहे गणतंत्र, महिला, कठपुतली, जल संरक्षण, क्षयरोग, विश्व स्वास्थ्य, मलेरिया, श्रमिक, रेडक्रास, प्रोद्योगिकी, बाल रक्षा, पर्यावरण, रक्तदान, नशामुक्ति, स्वतंत्रता, साक्षरता, पोलियो और एड्स दिवस; फील्ड में मजमा लगा देती। बचपन से ही बच्चों और महिलाओं के लिए कुछ करने का जज्बा जो था। क्योंकि अपनी माँ, छोटे भाई-बहनों और खुद को बेसहारा देखा था। इसीलिए जब डॉक्टर, पेथोलोजिस्ट, टीचर कुछ नहीं बन सकी तो बीए के बाद समाज कार्य में एमए कर लिया। और जो सपना देख-देख कर बड़ी हुई, जब सिंधुजा में उसी कार्य के लिए नियुक्त हो गई तो बेसहारा महिलाओं को सहारा देना शुरू कर दिया। अब तक कई एक महिलाएँ जागरूक होकर, और हुनर पाकर अपना भविष्य बनाने में सफल हो चुकी हैं। कई और उसका लक्ष्य हैं जिनकी कहानी बड़ी दुख भरी और दर्दीली है। उसका प्रयास है कि ये महिलाएँ इस काबिल बन जाएँ कि वे अपना अच्छा बुरा खुद सोच सकें, अपना भविष्य खुद बना सकें।

महिलाओं के हकों के लिए समर्पित आरती अक्सर एक अनोखे जुनून से भरी होती है। गाँव-गाँव बनाए महिला समूहों में अक्सर वह एक ही बात बोलती है कि महिला न असमानता सहेगी न हिंसा। शोषण हरगिज बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। सम्पत्ति, शिक्षा और निर्णय ही नहीं; हम स्वास्थ्य और प्रजनन के अधिकारों के लिए भी अनवरत लड़ेंगे।

गाँव-गाँव वह महिला अधिकार यात्रा रैली निकालती है। यात्रा में सिर्फ महिलाएँ नहीं, अधिकार की लड़ाई में कंधे से कंधा मिला कर चल रहे प्रबुद्ध पुरुष भी साथ होते हैं।

हिंसा के विरोध की आँच बिखेरते रिकार्डेड भाषणों को लोग ध्यान से सुन रहे होते हैं। बैनरों, पोस्टरों पर लिखे नारों को लेकर महिलाओं के खिलाफ हिंसा का अंत करती यात्रा एक गाँव से दूसरे गाँव पहुँचती है। भागीदार सभी महिलाएँ वहाँ शोषण के समग्र प्रतिकार की शपथ लेती हैं।

वह अक्सर कहती है कि महिलाओं के प्रति हिंसा, शोषण और गैर-बराबरी लगातार बढ़ती जा रही है। लेकिन इसी रफ्तार में प्रतिरोध भी पनप रहा है। हम महिलाओं के हकों को अंजाम देने के लिए ही निकले हैं। आरती का जनम तो इसी के लिए हुआ है।

आधा समय दफ्तर में कामकाज निबटाने के बाद वह हेलमेट पहन और स्कूटी पर सवार हो, फील्ड के लिए निकल जाती है। खाने की उसे परवाह नहीं और न मौसम की। गर्मी में भुन-भुन कर ऐसी तप गई है कि उसे कूलर या एसी में जुकाम हो जाता है। लंच उसने कभी तीन बजे से पहले नहीं ले पाया। जबकि घर से बमुश्किल एक चाय और आधी कटोरी पोहा जल्दी सल्दी गटक कर निकलती है। जो कुछ ले जाती है रोटी-पराँठा, फील्ड में ही खा पाती है, किसी कार्यकर्ता के घर या बीच कार्यक्रम में किसी महिला के याद दिलाने पर कि दीदी, खाना लिए हो कि नहीं!

तब भी मुसीबत में पड़ गई आरती, क्योंकि नीलिमा पीछे पड़ी है। जगह तो एक ही है। सीट पर आरती बैठी है इसलिए उस पर कोई चार्ज नहीं। एजीएम की सहायिका है नाम भर के लिए। और उसे कुछ करना नहीं, उस पर कोई जिम्मेदारी नहीं, तो उसकी क्या माॅनीटरिंग! आरती टारगेट भी पूरा करे और नोटिस भी झेले कि कार्य संतोषजनक नहीं। इसी कारण इस साल इंक्रीमेंट नहीं लगा। और नीलिमा का वेतन उससे ज्यादा हो गया।

हारकर उसने भरत जी को फिर फोन लगाया और अपनी विपत्ति बताई।

वह बोला, शांति से सो जाओ, सुबह आ जाऊँगा।

नहीं, आप न आएँ, आप हमारे लिए यों कब तक दौड़ेंगे! उसने दर्दीली आवाज में कहा।

इतना तो फर्ज बनता है, हम आपके रिश्तेदार हैं। अपना समझें, कोई बोझ न मानें और शांति से सो जाएँ, सुबह फील्ड में तो खटना ही पडेगा।

जी! पर नींद नहीं आ रही।

क्यों नहीं आ रही, अच्छा... कुछ गा गुनगुना लीजिए।

तो थोड़ी हिचक के बाद उसने गाया, जीवे तेरी यारी, ओ-रब्बा...

गीत के बोल और दर्दीली आवाज सुन भरत बहुत मुतास्सिर हुआ। उसने बेहद आजिजी से कहा, वश नहीं है, वरना अभी आ जाते!

अरे... वाक्य उसने अधूरा छोड़ दिया।

हाँ!

सो-जाइए!

कैसे, नींद तो हमें भी नहीं आ रही।

क्यों?

पता नहीं क्यों, फिर रुककर बोला, ऐसा पहली बार हुआ।

अच्छा...

हाँ!

अरे- सो जाइए, हम भी सोते हैं। ओके गुड नाइट!

गुडनाइट!

फोन उसने काट दिया। बेटी-बेटा आपस में गुत्थमगुत्थ सो रहे थे। वह भी लेट गई, पर नींद को तो सुर्खाब के पर लग गए थे।

डिप्लोमा टीचिंग का था, सो परीक्षा परिमाण आने पर शिक्षक बनने की कवायद शुरू हुई। कुछ प्राइवेट स्कूलों से सम्पर्क किया। पर प्राइवेट स्कूल के शिक्षक को पाँच सौ से छह सौ तक ही तनख्वाह मिलती और काम दिन भर। सो जमा नहीं। यूँ ही करते चार-छह महीने बीत गए। इस बीच निम्मी से मिलना और दुकान जाना नहीं हो सका। वह लगभग भूल सी गई निम्मी को।

शिक्षक की नौकरी नहीं मिली तब हार कर एक कंपनी में नौकरी कर ली। काम ऐसा था कि जिसमें ऑफिस में कम और फील्ड में अधिक रहना होता। यहीं उसकी सोनम से दोस्ती हो गई। दोस्ती हुई तो ऐसी कि क्या सगी बहनों में प्रेम होता होगा, जितना उन दोनों में था। दिन भर साथ रहना, साथ घूमना, साथ खाना।

इस बीच प्रवेश अपने प्रयास में लगा था और वो उसे मनाने का कोई अवसर छोड़ना ही नहीं चाहता था। एक दिन शाम को घर आ गया बात करने। बोला, आज मेरे घर वाले लड़की देखने जा रहे हैं, पसन्द आने पर सगाई भी कर सकते हैं। घर पर गाड़ी खड़ी है, जल्दी बोलो, इसके बाद मौका नहीं मिलेगा।

और उसने फिर मना कर दिया तो वो आँख में आँसू लिए चला गया। वे आँसू वह कभी नहीं भूल सकती। उनमें शायद, कोई बद्दुआ छुपी थी! बाद में पता चला कि प्रवेश की सगाई हो गई। पर उसे कोई फर्क नहीं पड़ा। पड़ता भी क्यों, उसे प्रवेश से रत्ती भर भी प्यार नहीं था।

नौकरी लगी तो दिन उसी के काम में निकल जाता। वह और सोनम ऑफिस जातीं फिर कुछ देर में फील्ड में निकल जातीं। दिन भर घूम-घूम कर कंपनी का काम करतीं। सोनम से उसकी बहुत अच्छी दोस्ती हो गई थी। समय बिताने के लिए कभी-कभी वे दोनों मेम के घर चली जातीं, कभी किसी और सहेली के घर। दिन भर धूप में घूमतीं, सो टाइम पास करने इधर उधर घूमा करतीं।

इसी तरह समय बिताने के चक्कर में कभी-कभी वे दोनों निम्मी के पास दुकान में जाकर भी बैठ जातीं। निम्मी से बात बात करतीं और कुछ देर रुक कर वापस काम पर निकल जातीं। सोनम की भी निम्मी से अच्छी दोस्ती हो गई। निम्मी दुकान में अकेली बोर होती तो उनका आना उसे भी अच्छा लगता। कभी-कभी दुकान के मालिक से भी मिलना होने लगा। पर ऐसा हमेशा नहीं, कभी-कभी होता था। निम्मी से ही पता चला कि दुकान मालिक का नाम आलम शाह था। उसके पिता नहीं हैं, माँ हैं, और एक बहन है।

वह और सोनम हफ्ता-पंद्रह दिन में दुकान चली ही जातीं। अब आलम से भी थोड़ी बहुत बात होने लगी थी। सोनम स्वभाव से कुछ अधिक ही बातूनी थी, वो खूब बात करती, जबकि आरती अधिक बात करना पसंद नहीं करती, तो सुनती रहती।

कुछ समय बाद एक दिन वे दोनों दुकान पर पहुँची तो निम्मी नहीं थी पर चूँकि अब आलम से ही परिचय हो गया था तो आलम ने कहा, बैठिए! और वे बैठ गईं। कुछ बातचीत की और वापस आ गईं। कुछ दिन बाद फिर जब दुकान गईं तब भी निम्मी नहीं थी, दुकान पर आलम ही था। तब पता चला कि निम्मी ने काम छोड़ दिया। पर अब आलम से ही थोड़ी बातचीत हो जाती थी, इसलिए वे दोनों कभी-कभी दुकान में चली जातीं।

यों बार-बार आते हुए अब आलम से भी अच्छी बात होने लगी थी। आलम को भी बहुत बात करने की आदत थी। वो अपने परिवार के बारे में बताता रहता।

बहुत सारी बातें:

जैसे, उसके पिता जब हार्ट अटैक से स्वर्गवासी हुए तब वह सिर्फ तेरह साल का था। पिता की मृत्यु के सदमे से उसकी माँ का दिमागी सन्तुलन खो सा गया है।

वो बताता रहता कि-

पिता की मृत्यु के बाद पूरे घर की जिम्मेदारी मेरे ऊपर आ गई। मेरे भाई जो दस और ग्यारह साल के थे, वे पैसा उधार लेकर भाग गए और उनका कर्ज मैं चुका रहा हूँ।

तब आरती और सोनम दोनों ही अक्सर बात करतीं कि बेचारे आलम ने बहुत दुख झेला है!

उसे आलम पर दया सी आने लगी।

ऐसे ही आते-जाते कोई छह-आठ महीने बीत गए। अब आलम की बातों का असर उस पर होने लगा था। जब भी आलम अपने परिवार की बात और दुख दर्द कहता, तो उसे भी दुख होने लगता। वह बताता कि माँ की मानसिक स्थिति ठीक नहीं और बहन का दिमाग पूर्ण विकसित नहीं, इसलिए घर के काम में बहुत तकलीफ होती है! माँ बहुत मुश्किल से काम कर पाती है।

सोनम उससे कुछ ज्यादा समझदार थी, शायद! इसीलिए उसने कुछ बातें आरती से पहले समझ लीं। उसने उसे एक दो बार टोकते हुए कहा भी कि- लगता है, कुछ बात है, तुम आलम की बातें सुनते हुए कुछ सोचने लगती हो, कहीं खो सी जाती हो।

और वह समझाती, पागल है, यार! ऐसा कुछ नहीं है! असल में मैंने अपने घर में पापा को बीमार हालत में देखा है, इसलिए उसके दुख का अंदाजा कर पाती हूँ।

बात आई गई हो जाती।

पर उसके मन में आलम की वही बातें घूमती रहतीं। जैसे, मेरे को सँभालने वाला कोई नहीं है। काश! कोई घर को थोड़ा सँभाल लेता। कि मैंने तेरह साल की उम्र में अपने पिता की दुकान सँभाली थी। तब से मैं पैर पर खड़ा हुआ, पैसा कमाया घर चलाया। कभी-कभी ऐसे दिन भी आते, जब घर में आटा लाने एक पैसा भी नहीं रहता था। कभी-कभी सब कुछ रहने पर माँ बीमार रहतीं और घर में खाना ही नहीं बन पाता। मैं बिना कुछ खाए दुकान पर आ जाता, दिन भर भूखा रहकर दुकान चलाता और घर जाता तो घर पर भी कुछ खाने को न रहता।

ऐसी अनगिनत बातें वो बताता कि वह और सोनम दोनों ही दुखी हो जातीं। लेकिन सोनम ने उसे फिर एक दिन टोका, ये क्या चल रहा है तुम्हारे मन में... मुझे समझ आ रहा है! तो आरती बोली, नहीं सोनम! ऐसी बात नहीं, आलम के दुख से दुख होता है, बस। मुझे लगता है कि काश, ये दुख मैं दूर कर पाती।

मन के अंदर उपजी इस सहानुभूति ने ही शायद, उसकी बर्बादी की बुनियाद रखी!

एक दिन आलम की माँ दुकान आई। आलम ने परिचय कराते हुए बताया कि- ये मेरी माँ है। माँ को उसका परिचय दिया कि- ये मेरी दोस्त है। माँ ने उसे ध्यान से देखा मुस्कुराई पर कुछ कहा नहीं।

दूसरे दिन आलम ने बताया कि- माँ कल तुमसे मिली तो उसे गलतफहमी हो गई की तुम मेरी गर्ल फ्रेंड हो।

आरती ने उससे कहा कि- आपने बताया क्यों नही कि ऐसी कोई बात नहीं।

तब उसने सीधा शांत सा उत्तर दिया कि- माँ इस बात पर बहुत खुश हो गई है और कल रात उसे बिना नींद की गोली खाए ही नींद आ गई थी। मैं उसका दिल नहीं तोडना चाहता था, इसलिए कुछ नहीं बताया।

यही वो दिन था जब कुछ चल पड़ा था मन में।

ये कुछ जो मन में चला, यह उसकी समझ के परे रहा।

इतने दिनों तक आते जाते, मिलते जुलते आलम उसके घर की स्थिति भी जान गया था। उसे पता था कि पापा की तबीयत खराब है। उनकी याददाश्त ठीक नहीं। वे चार भाई बहन हैं। वो सबसे बड़ी है। बहनों और भाई की भी पढ़ाई और शादी की उसे भारी चिंता है।

आरती की चिंता में शरीक आलम बार-बार एक ही बात कहता कि- हम दोनों के जीवन में दुख परेशानियाँ कुछ ज्यादा ही रही हैं।

उन दिनों में आलम की बातें कुछ अच्छी सी लगने लगी थीं। उन बातों पर विचार भी होने लगा। सोनम से उसकी चर्चा होने लगी। आलम जिन कपड़ों को सुंदर कहता वे ही पहनने का मन होता। जिन कपडों को खराब कहता, वे खराब लगते।

हठात् एक दिन आलम ने पूछा, तुम मेरी इतनी बात क्यों मानती हो?

आरती बोली, बस ऐसे ही।

उसने कहा, दोस्त समझ कर मानती हो तो दूसरे भी दोस्त हैं, मेरी ही क्यों?

उसे कुछ समझ नहीं आया क्या कहे? तो कहा, कोई दोस्त अधिक भी हो सकता है!

आगे कोई बात नहीं हुई।

दो दिन बाद आलम ने एक चाबी का छल्ला दिया जिस पर आई लव यू लिखा था।

उसे कुछ समझ नहीं आया, क्या कहे!

तब उसने समझाया कि- तुम्हारे घर में भी इतनी तकलीफ है, मैं सब जानता हूँ। मैं सब का खयाल रखूँगा। सब परेशानियाँ दूर करने को कोशिश करूँगा। तुम भी मेरे परिवार को सँभाल सकोगी। हम दोनों एक दूसरे को अच्छे से जानते हैं। इसलिए जीवन अच्छे से चल सकेगा। जब से मेरी माँ ने तुम्हें देखा है, वो भी तुम्हें अपने घर की बहू बनाना चाहती है।

फिर उसने कहा, तुम अच्छे से सोच लो, आरती! एक दो दिन में बता देना।

ये एक दो दिन बड़े कठिन रहे। निर्णय कैसे लेती और क्या लेती! उसकी भीष्म प्रतिज्ञा का क्या होगा जो उसने ले रखी है कि मैं कोई ऐसा काम नहीं करूँगी जिससे परिवार पर कोई और परेशानी आए! मेरे भाई बहनों का भविष्य खराब हो, बहनों की शादी में दिक्कत हो! क्योंकि आलम भी उसकी जाति का न था! और उसे तो पढ़ लिख कर परिवार का सहारा बनना था, अपना अलग घर नहीं बसाना था!

तो, कभी ये खयाल आता कि मैं अकेले क्या कर पाऊँगी। मेरी शादी के लिए मम्मी बहुत परेशान हैं। एक न एक दिन मेरी शादी तो होगी ही! और मम्मी उसी के लिए कितनी परेशान हो रही हैं। आर्थिक स्थिति तो पहले ही बहुत अच्छी नहीं। पापा किसी लायक नहीं। अकेली मम्मी का हम बहनों की शादी के लिए भाग-दौड़ कर लड़का देखना कितना मुश्किलों भरा काम है। ऊपर से सभी के लिए दहेज की व्यवस्था करना। ये सब वे अकेली कैसे कर पाएँगी? बिना दहेज के शादियाँ हो नहीं सकेंगी! समाज की रीति ही कुछ ऐसी है कि समझदार से समझदार, पढ़ा लिखा और धनी आदमी तक, दहेज का लालच रखता है। इसे अपनी इज्जत मान कर चलता है।

और यह भी सोचती कि- मैंने आलम का प्रस्ताव माना तो समाज में प्रेम विवाह, वह भी अंतर्जातीय, उसके कारण बहुत बदनामी झेलनी होगी। इसके दुष्परिणाम मेरी बहनों को झेलने होंगे, उनकी शादी में समस्या आएगी।

पर एक मन कहता कि आलम की बात मान लेना चाहिए! इससे परिवार को एक सहारा मिल जाएगा। आलम भी अपने जीवन में तकलीफें झेल चुका है तो वो हमारे घर की तकलीफ अच्छे से समझ सकेगा। मम्मी को लड़का देखने के लिए

इधर उधर भटकना नहीं पड़ेगा। दहेज देने के लिए पैसे जुटाने की चिंता नहीं करनी पड़ेगी। मुझे भी पता नहीं कैसा परिवार मिले? कहीं दहेज के लालची ही मिले तो! कहीं ऐसे लोग मिले जो मुझे मेरे परिवार के लिए कुछ करने ही न दें, तब? आलम का साथ बहुत-सी समस्याओं का समाधान कर सकता है।

फिर आलम उसे पसंद भी है, तो क्यों न उसकी बात मान ली जाए?

दो दिन इसी उधेड़बुन में बीत गए। आलम से मिलना हुआ तो उसका फिर वही सवाल था, उसका फैसला क्या है?

वह क्या कहती!

पर चूँकि आलम की बातों का असर पहले से ही था तो निश्चित तौर पर उसी की जीत होनी थी।

उसके सवाल पर उसका एक सवाल था कि- क्या आप मेरे घर परिवार की मदद करोगे? क्या तुमसे मेरे मम्मी पापा को कोई सहयोग मिलेगा?

और उसका पूर्व निश्चित उत्तर कि- मैं तुम्हारे मम्मी पापा का दामाद नहीं बेटा बन कर रहूँगा!

यों वह एक जबरदस्त धोखे की शिकार हो गई!

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