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रात से ही सिर भारी था। सुबह देर से नींद खुली और बच्चों को भी नहीं उठाया पढ़ने के लिए, जो बिना जगाए कभी जागते नहीं। उन्हें कोई परवा नहीं जब तक सिर पर माँ है। पता है, पिता होकर भी नहीं। एक वही है जो घर बाहर सब दूर खट रही है...। पर बच्चे तो बच्चे ठहरे, उन्हें इतनी समझ कहाँ? उसने सोचा और दौरे की दुष्कल्पना कर फिर से बहन के मामा श्वसुर का नम्बर डायल कर दिया! भरत मेश्राम, एक नम्बर जो अब नाम था, स्क्रीन पर चमकने लगा। और जैसे ही फोन उठा, बात करते उसकी साँस फूलने लगी, जी, नमस्ते!
जी, कहें! अपना मान कर कहें सब कुछ, घबराएँ नहीं।
जी, वो, रवान, सिंधुजा सीमेंट फाउन्डेशन के जीएम साब दुर्रानी जी से आप कह दीजिए!
साॅरी! आप उन्हें जानते हैं क्या?
दुर्रानी! हाँ जी, बिल्कुल! क्या कहना है, बताएँ!
जी यही कि इंस्पेक्शन के बहाने बेवजह नोटिस वगैरह न दें!
ऐसा लगता है, आपको!
हाँ!
क्यों?
हम सरप्लस हैं तो किसी बहाने से भगा देना चाहते हैं!
आप जूनियर हैं या सीनियर?
जी, सीनियर!
फिर तो मुश्किल है... और अपने कुलीग से एज में!
जी, छोटे!
तब रास्ता निकल सकता है...
जी, और इसलिए भी कि हम तो खाली पोस्ट पर ही आए, बाद में कटनी बीसीसी फाउन्डेशन से एक और प्रोजेक्ट अफसर यहाँ ट्रान्सफर लेकर आ गई तो पोस्ट सरप्लस हो गई!
लेकिन बीसीसी से कैसे, सिंधुजा और वो तो अलग-अलग कम्पनी हैं!
जी! अलग ही थीं, पर पिछले महीने ही बीसीसी, सिंधुजा में मर्ज हो गई और ये मुसीबत का पहाड़ हम पर ही टूट पड़ा...
अरे-हाँ, मुझे तो खयाल ही नहीं रहा, इनका विलय हो गया!
कहो, छँटनी हो जाए, कहते उसकी आवाज भीग गई।
ऐसे कैसे हो जाएगी, कितने साल हो गए?
जी, तेरह!
घबराएँ नहीं, कुछ न बिगड़ेगा...कोर्ट किसलिए है?
जी, वो तो है पर सुना है, जयपुर और कटनी में तो सततर-अस्सी लोगों की छँटनी हो गई!
कह कर वह रोने लगी तो भरत को जवाब न सूझा। पर थोड़ी देर बाद उसने ढाढ़स बँधाया, दुर्रानी से मैं बात करता हूँ और शाम तक वहाँ आने का प्रयास करूँगा...तुम अपना प्रेजेंटेशन ठीक से देना!
बिटिया सात में पढ़ती थी, बेटा तीन में। दोनों रवान स्थित फाउन्डेशन के स्कूल में ही भरती कराए थे। जबकि मकान उसने बलौदा बाजार की जैन कॉलोनी में ले रखा था। स्कूल बस बच्चों को सुबह ले जाती और दोपहर में छोड़ जाती। वह भी अपनी स्कूटी उठा कर नियमित सुबह आठ बजे अपने रवान स्थित दफ्तर में पहुँच जाती। सो, जल्दी से बच्चों को उठा, उल्टा-सीधा नाश्ता बना उन्हें विदा कर दिया और खुद देह पर उल्टा-सीधा पानी डाल, झटपट कपड़े पहन जल्दी से निकल पड़ी।
दिमाग में पूर्ववत् हलचल मची हुई थी। पिछली समस्याएँ और आॅफिसियल टेंशन तो था ही, एक नया झंझट यह भी कि बहन के मामा श्वसुर शाम को आ सकते हैं। मानों आ गए और छह के बाद आए तो सीधे घर ही आएँगे। किराए का घर, दो कमरे, जिसमें फ्रिज और सोफा तक नहीं, कितनी शर्म लगेगी उसे। और मानों रात को रुक गए तो घर में तो कोई गेस्टरूम भी नहीं! कहाँ ठहराएगी उन्हें? इतने बड़े अफसर और मान्य! कैसी भद्द होगी...। बड़ी आई प्रोजेक्ट अफसर! बहन की भी आँख नीची होगी, न। यही करेगी कि प्रेजेंटेशन देते ही फोन लगा कर बोल देगी, सब अच्छे से निबट गया। आप यहाँ आकर परेशान न हों, दुर्रानी साब ही कभी भिलाई या रायपुर जाएँ तो मिल लें, बता दें, हमारी रिश्तेदार हैं! तो फिर कभी तंग न करेंगे।
पर मीटिंग में बहुत खींचतान हुई। इतनी कि कई बार वह रोने को हो आई। नीलिमा उसे देख देख मुस्काती रही। उसका प्रेजेंटेशन तो बहुत बढ़िया रहा बड़ी शाबाशी मिली उसे। पर आरती को सौ झिड़कियाँ। बीच में दबी जुबान यह भी कह दिया दुर्रानी ने कि पेपरवर्क के अलावा, फील्डवर्क भी देखेंगे किसी दिन।
तब उसकी हिम्मत नहीं रही कि भरत जी को ओके रिपोर्ट देकर आने से रोक दे। क्लेश में लंच भी न लिया। चार बजे उसका फोन आया तो उसने कह दिया कि- देख लीजिए, आपको परेशानी न हो तो आकर समझा दीजिए! मिल लीजिए उनसे, प्रेजेंटेशन तो अच्छा नहीं रहा।
साढ़े पाँच पर जब दफ्तर बंद होने लगा, नीली कार परिसर में दाखिल हो गई। वह सीधा जीएम के पास पहुँचा और आरती को वहीं बुला लिया। पहली बार अपने अफसर के केबिन में बैठ कर कोल्डड्रिंक्स ली और अपनी मेहनत बताई कि सर आप फील्ड में चल कर अवश्य देखिए। क्षेत्र की कितनी महिलाओं को जागरूक किया है, आत्मनिर्भरता हेतु प्रेरित किया है, कितने कार्यक्रम कराए हैं और...
देख लेंगे, देख लेंगे, रिलेक्स प्लीज! दुर्रानी ने मुस्कराते हुए कहा।
आरती सोचने लगी कि क्या यह वही अधिकारी है जो दोपहर में बाल की खाल खींच रहा था! बहनोई के मामा के प्रति उसका दिल एहसान से भर गया। केशव का फोन आया था दिन में, उसने कहा था, दीदी आप टेंशन न लो, मामा निबटा देंगे! उनके लिए ये कोई बड़ा काम नहीं। पर उसे यकीन नहीं हुआ था।
केबिन से दोनों साथ निकले तो भरत ने कहा, चलिए, आपके ऑफिस चल कर बैठते हैं, फिर निकल जाएँगे।
आरती ने घड़ी देखी, सवा छह बज चुके थे।
ऑफिस तो बंद हो गया! वह बोली।
फिर असमंजस में वह अपनी गाड़ी की ओर घूमा तो वह हिचकिचाती हुई बोली, घर चलिए, बच्चों से मिल कर चले जाइएगा...
ठीक है, चलिए उसने कार की ओर इशारा किया।
मेरे पास स्कूटी है, उसने सोचते हुए कहा, ऐसा करते हैं, आप हमारे पीछे-पीछे आ जाइए!
मेश्राम सहज ही तैयार हो गया। और परिसर से वह सफेद स्कूटी पर निकली तो नीली कार उसके पीछे लगा दी। संयोग से वह नीले सूट में, नीली गाड़ी में था और आरती सफेद लेगी-कुर्ती में, सफेद स्कूटी पर। और यह बहुत सहज और स्वाभाविक ही था जो दोनों अपने-अपने वाहन ड्राइव करते हुए एक-दूसरे की छवि अपने मन में बसाए हुए चल रहे थे।
बलौदा बाजार वहाँ से आठ-नौ किलोमीटर दूर था, सड़क बहुत खराब थी, पर वे पलक झपकते ही पहुँच गए, तो यह करिश्मा ही था। एक नई शुरूआत थी दोनों के लिए। क्योंकि पति के होते परित्यकताओं सा जीवन जीती आरती संसार में अकेली खट रही थी तो पत्नी के होते भरत चार साल से एकाकी जीवन व्यतीत कर रहा था, जिसकी पत्नी अपने माइके चली गई थी, कभी न आने के लिए।
गली से आती स्कूटी की आवाज सुन और खिड़की से देख बच्चों ने गेट खोल दिया। स्कूटी चढ़ाते-चढ़ाते उसने समझाया कि एक अंकल आए हैं, ठीक से नमस्ते करना। तब तक कार आ गई जिसे मेश्राम ने साइड में लगा दिया। उतर कर लॉक की तब तक आरती भी स्कूटी अंदर रख कर बाहर आ गई। पहले से तैयार दोनों बच्चों ने हाथ जोड़ और मुस्करा कर नमस्ते किया। इस बीच बेटे को उसने पाँव छूने का इशारा किया और वह झुका तो भरत ने उठा कर गले से लगा लिया। वह कुछ समझता नहीं था, पूछा, माँ, ये पापा हैं!
आरती सकपका गई, वह कुछ कहती इससे पहले ही भरत ने उसका गाल चूमते हुए कहा, हाँ, बेटा, पापा ही समझो!
पर लड़की को पापा का चेहरा याद था। उसने उसे पापा नहीं समझा।
संकोच में डूबी आरती उनके साथ ही अंदर आ गई।
पापा को बाहर नहीं बिठाया जाता, इसी अधिकार के तहत बेटा उसका हाथ खींचता उसे बेडरूम में ले आया। बिटिया सहज संकोच से भरी किचेन में माँ के पास चली गई। दोनों ने एक-दूसरे की ओर बिना देखे पोहे का नाश्ता और चाय तैयार कर ली।
एक घंटे तक सभी के साथ मधुर आत्मीय बातें कर भरत मेश्राम वापस चले गए। आरती ने रोका नहीं।
उसके जाने के बाद वह फिर से अपने अतीत में डूब गई।
सभी सहपाठी लड़कियों की प्रिय बन गई थी वह। वे सभी उसकी दोस्त बनना चाहतीं। कक्षा में वे उसके पास बैठना चाहतीं। कॉलेज का कोई कार्यक्रम उसके बिना पूरा न होता। यहाँ तक कि कक्षा के बाहर छोटी मोटी अंताक्षरी खेलते समय भी उसे ढूँढ़़ा जाता। पढाई पर ध्यान देना उसका, गाना, कविता और साथ में शांत व्यवहार सभी को पसन्द था।
कॉलोनी के कई लड़के उसके पीछे घूमते, पर उसका लक्ष्य निश्चित था। वह हमेशा यही कहती कि मुझे किसी लफड़े में नहीं पड़ना। मेरी परिस्थितियाँ मुझे इन सब हरकतों की इजाजत नहीं देतीं। मेरे तीन छोटे भाई बहन हैं, मुझे उनके लिए मिसाल बनना है। अगर मैं ही प्रेम-प्यार के चक्कर में पड़ी तो उन पर गलत असर होगा। लोग कहेंगे कि पापा की तबीयत खराब होने के कारण लड़की बिगड़ गई।
बात दोस्ती तक आती और दोस्ती तक रह जाती या दोस्ती भी टूट जाती। उसे न दोस्त मिलने की खुशी होती, न दोस्ती टूटने का दुख। जहाँ कोई लड़का दोस्ती के ऊपर की बात करता, अत्यधिक रुचि दिखाता, प्रेम जैसा कुछ प्रदर्शित करता, आरती को उससे चिढ़ हो जाती और रही सही दोस्ती भी टूट जाती।
कोर्स का दूसरा वर्ष प्रारम्भ हो गया था। कॉलेज ऐसी जगह था जहाँ आसपास कई दुकानें थीं और जहाँ जरूरत की हर सामग्री मिल जाती थी, जैसे, स्टेशनरी, फोटो कॉपी, ग्रीटिंग कार्ड, एसटीडी-पीसीओ, फुटपाथी बैग, कपड़े, चप्पल आदि सबकुछ। तो वे सब सहेलियाँ अक्सर जब कुछ लेना होता वहीं से खरीद लेतीं। सहेलियाँ उसे साथ लिए बिना न जातीं! उसकी पसंद का ही सामान खरीदने के लिए लालायित रहतीं।
बस, वहीं कॉलेज के बाहर एक स्टेशनरी और एसटीडी-पीसीओ की दुकान थी। उन दिनों मोबाइल नहीं होते थे सो एसटीडी-पीसीओ से ही फोन करना पड़ता। लड़कियाँ अक्सर वहीं जातीं। दुकान पर एक हमउम्र लड़की बैठी होती। बार-बार जाते रहने से उस लड़की से आरती की दोस्ती सी हो गई। बात करने पर पता चला कि वो यहाँ मासिक वेतन पर काम करती है।
लड़की का नाम निम्मी था। आरती सहेलियों के संग जाती, उससे बातें करती, फोन करती, कापी पेन कुछ लेना होता, लेती। अब वो दुकान खासा परिचित हो गई थी। कभी-कभी कुछ न लेना होता तब भी वह निम्मी से यों ही मिलने चली जाती। वे दोनों यूँ ही बातें करती रहतीं। निम्मी अपने मालिक के बारे में भी बताती कि भैया बहुत अच्छे हैं, कभी डाँटते नहीं, छुट्टी माँगो तो मना नहीं करते। वगैरह-वगैरह।
और वो इतना भैया-भैया करती कि आरती ने भी सोच लिया कि, देखेंगे भई तुम्हारे भैया को।
फिर एक बार वह दुकान पर गई तो निम्मी नहीं मिली, उसकी जगह कोई अजीब सा नशीली आँखों वाला लड़का था। वह समझ गई कि यही दुकान का मालिक होगा।
कुछ दिन बाद निम्मी मिली। तो आरती ने उससे कहा, मैंने तुम्हारे भैया को देखा, इतने तो कुछ खास नहीं लगे।
वो बोली, देखने से नहीं पता चलता, पर भैया अच्छे हैं।
मम्मी को उन दिनों जहाँ अच्छा सजातीय लड़का दिखता, लगता उसकी शादी कर दी जाय।
बात भी चलती कई जगह, किंतु दहेज की माँग और पापा की तबीयत देख लड़के वाले पीछे हट जाते।
वह बहुत सामान्य सी दिखने वाली लड़की थी। सामान्य लम्बी, रंग साफ- न गोरा न काला, मतलब ठीकठाक, बाल लम्बे और घने। पर उसमें कुछ खास था जो उसे समझ नहीं आता कि, जब वह किसी शादी-ब्याह या पारिवारिक कार्यक्रम में जाती और पीछे से कोई रिश्ता लेकर आ जाता, कि लड़की पसन्द है शादी करना चाहते हैं! कई लड़कों की माँएँ उसे अपनी बहू बनाना चाहतीं। लड़कियाँ अपनी भाभी। कॉलेज की सजातीय लड़कियाँ बहाने से उसे अपने घर ले जातीं, अपने परिवार और भाई से परिचय करातीं। कई जगह बात होती भी पर आगे न बढ़ती, कारण वही दहेज। मम्मी भी कई जगह बात आगे बढ़ाने गईं पर कहीं कुछ जमा नहीं।
उसे मम्मी का यूँ लड़के वालों के घर जाना और फिर ये कहते हुए लौट आना कि उनकी माँग बहुत है, वो एक लाख नगद और सब सामान माँग रहे हैं, जो दिया नहीं जा सकता, एक ही बेटी की शादी में सब खर्च कर दिया तो बाकी का क्या होगा, दुख देता।
सोचती कि लोग पहले तो ये दिखाते हैं, लड़की बहुत पसंद है, फिर पैसे के लिए अड़ जाते हैं! तो फिर उनका पसन्द करना भी क्या पसन्द करना है?
इस सब के साथ-साथ उसकी पढाई भी चल रही थी। वह तो अपने कॉलेज और पढाई में मस्त रहती। कभी पेंटिंग करती, कभी सिलाई, कभी कुछ और हर वक्त किसी न किसी काम की सनक लिए रहती। बीच-बीच में निम्मी से मिलना हो जाता था। पर उसके दुकान-मालिक से मिलना कम ही हुआ। एक बार नमस्ते हुई, हल्का-फुल्का परिचय। कॉलेज की पढ़ाई खत्म होने तक उसे उसका नाम भी पता नहीं चला।
घर के पास ही उसकी एक सहेली रश्मि रहती थी, जिसके घर रोज का आना-जाना था। रश्मि का एक बड़ा भाई जिसका नाम शील था, आरती को अपनी बहन की तरह ही मानता। उसका एक दोस्त था, प्रवेश। जिसने उससे कभी बात नहीं की थी। वह सरकारी मुलाजिम था। आरती को वह अपने कॉलेज के आसपास कई बार दिखाई दिया! तब उसे लगता कि उसका यहीं कहीं कुछ काम होता होगा, तभी आता होगा।
पर शील ने एक दिन अचानक कहा कि, आरती! प्रवेश को आपसे बात करनी है।
उसे कुछ खास नहीं लगा, सहजता से हामी भर दी। रश्मि की छत पर ही प्रवेश से बात हुई। तब उसने बताया कि, मैं तुम्हें सालों से पसन्द करता हूँ, पर कभी कहा नहीं।
उसे ताज्जुब हुआ, पर बोली कुछ नहीं। तो वह आगे बोला, मुझे कोई चक्कर नहीं चलाना न मैं तुम्हारे साथ घूमना फिरना चाहता हूँ। मैं शादी करना चाहता हूँ।
उसकी इस बात पर तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ। क्योंकि, प्रवेश की एक भी हरकत से कभी नहीं लगा कि वह ऐसा सोच भी सकता होगा। वह तो उसकी नजर पड़ते ही शर्म से अपना चेहरा झुका लेता। आज वही लड़का सीधे शादी का प्रस्ताव रख रहा था। जिसने कभी नजर उठा कर नहीं देखा!
तब बड़ी-बूढ़ियों की तरह प्रवेश को समझाया उसने, देखो हमारी जातियाँ अलग-अलग हैं! हम कायस्थ, तुम सुनार! ये शादी नहीं हो पाएगी और फिर मैंने तो कभी ऐसा सोचा भी नहीं!
लेकिन प्रवेश नहीं माना। जब भी मौका पाता, उसे मनाने में लगा रहता। कभी-कभी तो गिड़गिड़ाने सा लगता। पर वह भी क्या करती, किसी भी सूरत प्रेम विवाह का इरादा न था।
हठात् प्रवेश एक दिन रास्ते में मिला और बोला, मेरी शादी के लिए घर वाले लड़की देख रहे हैं। तुम हाँ कहो तो मैं घर में मना करूँ। हाँ कह दो। मैं किसी और से शादी नहीं कर सकता।
उसने फिर उसे समझाया, कि- देखो हमारी शादी कैसे होगी? जाति के अंतर को न हमारे घरवाले स्वीकारेंगे न तुम्हारे।
वो बोला, मैं सब को मना लूँगा, तुम हाँ कहो।
पर उसने हाँ नहीं किया। शायद, दुर्भाग्य प्रतीक्षा कर रहा था।
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