Behaya - Vinita Asthana in Hindi Book Reviews by राजीव तनेजा books and stories PDF | बेहया- विनीता अस्थाना

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बेहया- विनीता अस्थाना

आमतौर पर जब भी कोई लेखक किसी कहानी या उपन्यास को लिखने की बात अपने ज़ेहन में लाता है तो उसके मन में कहानी की शुरुआत से ले कर उसके अंत तक का एक ऐसा रफ़ खाका खिंचा रहता है। जिसमें उसके अपने निजी अनुभवों को इस्तेमाल करने की पर्याप्त गुंजाइश होती है या फ़िर किताब की तैयारी से पहले उसने, उस लिखे जाने वाले विषय को ले कर ज़रूरी शोध एवं मंथन किया हुआ होता है। बाक़ी फिलर का काम तो ख़ैर वो अपनी कल्पना शक्ति के सहारे भी पूरा कर लेता है। उदाहरण के तौर पर 300 से ज़्यादा थ्रिलर उपन्यास लिख चुके सुरेन्द्र मोहन पाठक जी ने अपने एक लेखकीय में लिखा था कि उनके 'विमल' एवं 'जीत सिंह' सीरीज़ के अधिकांश उपन्यासों की पृष्ठभूमि मुंबई रही है जबकि इन सीरीज़ के अधिकांश उपन्यासों के लिखे जाने तक उन्होंने कभी मुंबई की धरती पर कदम नहीं रखा था।

इस सारी जानकारी के लिए उन्होंने मुंबई और उसके आसपास के इलाकों के नक्शे का गहन अध्ययन करने के साथ साथ वहाँ की सड़कों के एवं व्यक्तियों के आकर्षक मराठा नामों की बाकायदा लिस्ट बना कर रखी हुई थी। ख़ैर..कहने का मंतव्य बस यही कि आज मैं निजी तजुर्बे..शोध एवं कल्पना से लैस जिस उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ उसे 'बेहया' के नाम से लिखा है विनीता अस्थाना जी ने।

कॉर्पोरेट जगत को पृष्ठभूमि बना कर लिखे गए इस उपन्यास में मूलतः कहानी है बहुराष्ट्रीय कंपनी 'बेंचमार्क कंसल्टेंट्स प्राइवेट लिमिटेड' में बतौर कंट्री हैड बेहद सफ़ल तरीके से काम करने वाली, उस दो बच्चों की माँ, सिया की जिसका बेहद शक्की प्रवृति का अरबपति पति, यशवर्धन राठौर एक अय्याश तबियत का आदमी है और जिसे अपनी बीवी पर झूठे.. मिथ्या लांछन लगाने..उसे मानसिक एवं शारिरिक तौर पर प्रताड़ित करने में बेहद मज़ा आता है। इसी उपन्यास में कहानी है सिया के अधीनस्थ काम कर रही उस तृष्णा की जिसके सिया के पति के भी अतिरिक्त अनेक पुरुषों से दैहिक संबंध रह चुके हैं और वह दफ़्तर में रह कर सिया के पति, यशवर्धन के लिए उसकी पत्नी की जासूसी करती है। जिसकी एवज में उसे यशवर्धन से शारीरिक सुख के अतिरिक्त इस जासूसी के पैसे भी मिलते हैं।

साथ ही इस उपन्यास में कहानी है प्यार में विश्वास खो चुके उस अभिज्ञान की जिसे ऑस्ट्रेलिया से ख़ास तौर पर बेंचमार्क कम्पनी की छवि एवं गुडविल में बढ़ोतरी के इरादे कम्पनी के मालिकों द्वारा भारत भेजा गया है। इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ तृष्णा को अभिज्ञान के रूप में एक नया साथी..एक नया शिकार दिखाई देता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ अभिज्ञान शुरू से ही सिया के प्रति आकर्षित दिखाई देता है जबकि पति के दिए घावों को गहरे मेकअप की परतों में छिपाने वाली सिया के लिए वह महज़ एक कुलीग..एक अच्छे दोस्त से ज़्यादा कुछ नहीं है। अब देखने वाली बात ये है कि किताब के अंत तक पहुँचते पहुँचते..

• क्या तृष्णा कभी अपने शातिर मंसूबों को पूरा कर पाएगी?
• क्या अपने पति के अत्याचारों को चुपचाप सहने वाली सिया को उसके दुराचारी पति से कभी छुटकारा मिल पाएगा?
• क्या अभिज्ञान और सिया कभी आपस में मिल पाएँगे या फ़िर महज़ अधूरी इच्छा का सबब बन कर रह जाएँगे।

इस उपन्यास में कहीं उच्च रहन सहन और दिखावे से लैस कॉरपोरेट वर्ल्ड और उसकी कार्यप्रणाली से जुड़ी बातें दिखाई देती हैं। तो कहीं शारीरिक संबंधों से दूर एक ऐसे प्लेटोनिक लव की अवधारणा पर बात होती नज़र आती है जिसमें शारीरिक आकर्षण एवं दैहिक संबंधों की ज़रूरत एवं महत्त्व को दरकिनार किया जा रहा है। इसी उपन्यास में कहीं अपना खून ना होने की बात पर झूठे ताने दे खामख्वाह में अपना तथा बच्चों का डीएनए टैस्ट तक होता दिखाई देता है। तो कहीं इस उपन्यास में कहीं जीवन दर्शन से जुड़ी बातें गूढ़ पढ़ने को मिलती हैं। कहीं ये उपन्यास हमें अन्याय से लड़ने..उसके विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित करता दिखाई देता है।

धाराप्रवाह लेखन से जुड़े इस उपन्यास की कहानी के थोड़ी फिल्मी लगने के साथ साथ इसमें ट्विस्ट्स एण्ड टर्न्स की भी कमी दिखाई दी। अगर प्लेटोनिक लव की बात को छोड़ दें तो कहानी भी थोड़ी प्रिडिक्टेबल सी लगी। कहानी में जीवन दर्शन से जुड़ी बातों में एकरसता होने की वजह से बतौर पाठक मन किया कि ऐसे बाद के हिस्से को पढ़ते वक्त स्किप करने का भी मन किया। प्रभावी एवं सशक्त लेखन के लिए ज़रूरी है कि इस तरह की कमियों से बचा जाना चाहिए।

इस उपन्यास में एक दो जगह प्रूफरीडिंग की कमियाँ दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर

पेज नंबर 40 पर लिखा दिखाई दिया कि..

" तुम गे हो नाम्या?"

"शटअप! नो!"

"सही में? मेरा मतलब है... जिस तरह से तुम सिया की हमेशा तारीफ किया करती हो, मुझे शक होता है।" उसने बात को बदल दिया और अपने कैबिनेट की तरफ चला गया।

यहाँ अभिज्ञान ने नाम्या को सिया की तारीफ़ करते हुए देख कर उससे पूछा कि.. " तुम गे हो नाम्या?"

यहाँ ये बात ग़ौरतलब है 'गे' शब्द को पुरुषों के लिए इस्तेमाल किया जाता है जबकि महिलाओं के लिए 'लेस्बियन' शब्द का प्रयोग किया जाता है। अतः सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

" तुम लेस्बियन हो नाम्या?"

इसके बाद पेज नम्बर 99 पर सिया को याद कर अभिज्ञान ने गाना लिखा जो कि अँग्रेज़ी में। हिंदी उपन्यास में होने के नाते अगर अँग्रेज़ी की जगह अगर वह गीत हिंदी में होता तो ज़्यादा प्रभावित करता।

बतौर पाठक एवं खुद भी एक लेखक होने के नाते मेरा मानना है किसी भी कहानी या उपन्यास का प्रभावी शीर्षक एक तरह से उस कहानी या उपन्यास का आईना होता है। इस कसौटी पर अगर कस कर देखें तो यह शीर्षक मुझे प्रभावी लेकिन कहानी की नायिका, सिया के बजाय एक छोटे गौण करैक्टर 'तृष्णा' पर ज़्यादा फिट होता दिखाई दिया। ऐसे में उसके उत्थान से ले कर पतन तक की कहानी को ज़्यादा बड़ा..फोकस्ड और ग्लोरीफाई किया जाता तो ज़्यादा बेहतर होता।

अंत में चलते चलते एक ज़रूरी बात कि..हाल ही में प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री सुभाष चन्दर जी ने भी ज़्यादा पढ़ने की बात पर ज़ोर देते हुए कहा कि..

"लिख तो आजकल हर वह व्यक्ति लेता है जिसके शब्दकोश में पर्याप्त शब्द हों एवं उसे भाषा का सही ज्ञान हो। मगर ज़्यादा पढ़ना हमें यह सिखाता है कि हमें क्या नहीं लिखना है।"

पाठकों को बाँधने की क्षमता रखने वाले इस 155 पृष्ठीय रोचक उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।