Saugandh-Part(14) in Hindi Classic Stories by Saroj Verma books and stories PDF | सौगन्ध--भाग(१४)

Featured Books
  • रहस्य - 4

    सकाळी हरी आणि सोनू गुजरात ला पोचले आणि पूढे बस ने संध्याकाळ...

  • आर्या... ( भाग १ )

    आर्या ....आर्या ही मुलगी तिच्या आई वडिलांची एकुलती एक मुलगी...

  • गया मावशी

    गया मावशी ....    दिवाळी संपत आली की तिची आठवण हमखास येते…. ...

  • वस्तीची गाडी

    वसतीची  गाडी     

       
                 जुन 78 ते  जुन 86 या  का...

  • भुलाये न बने

                  भुलाये न बने .......               १९७0/८0 चे...

Categories
Share

सौगन्ध--भाग(१४)

प्रातः हुई एवं सभी जागे एवं सभी के मध्य वार्तालाप चलने लगा,तभी वार्तालाप के मध्य भूकालेश्वर जी बोलें....
देवव्रत जी ने राजमहल में बसन्तवीर के समक्ष इतना बुरा अभिनय किया था कि किसी भी क्षण लग रहा था कि बस अभी पकड़े...अभी पकड़े,यदि उस समय बसन्तवीर ने पहचान लिया होता ना जाने क्या परिणाम होता,देवव्रत से अच्छा अभिनय तो मैं ही कर लेता हूँ...
भूकालेश्वर जी की बात सुनकर सभी हँस पड़े,तब लाभशंकर बोला.....
चंचला बनकर मेरी तो बुरी दशा हो रही थीं,ना जाने युवतियाँ कैसें इतना श्रृंगार कर लेतीं हैं....
लेकिन लाभशंकर तुम बहुत सुन्दर लग रहे थे चंचला बनकर,वसुन्धरा बोलीं...
सच!माया बहन !आप लाभशंकर को उस रूप में देखतीं तो आपको ऐसा प्रतीत होता कि आपकी पुत्री लाभशंकरी आ गई है,देवव्रत बोला....
ऐसे ही सभी के मध्य वार्तालाप चल रहा था तभी वसुन्धरा के मुँख से निकल गया,देवनारायण तुम यहाँ कैसें पहुँचें थे उस रात,कुछ याद है या भूल गए?
तभी माया ने वसुन्धरा से पूछा...
रानी वसुन्धरा!आपकी बातों का क्या तात्पर्य है एवं आपने देवव्रत भइया को देवनारायण क्यों कहा?
तब देवव्रत बोला....
इन्हें कदाचित कोई भूल हो गई है मेरा नाम लेने में एवं मैनें ही तो इन्हें बताया था कि आपलोगों ने ही मेरे प्राण बचाएं थे...
ओह....तो ये बात है,माया बोली...
जी!मुझसे ही भूल हो गई इनका नाम लेने में,वसुन्धरा ने अपनी भूल स्वीकार करते हुए कहा....
ऐसे ही सभी के मध्य वार्तालाप चलता रहा,कुछ समय पश्चात सभी स्नानादि के लिए बाहर गए एवं कुछ समय के पश्चात वापस घर लौटें और भोजन करने बैठें,रात्रि की भाँति माया एवं मनोज्ञा ने ही भोजन तैयार किया था,सभी ने भोजन किया एवं वसुन्धरा घर के बाहर मैदान पर लगें वृक्ष के तले जा बैठी तब लाभशंकर उनके पास जाकर बोला....
राजमाता!मैं आपको कुछ दिखाना चाहता हूँ,क्या आप मेरे संग उस स्थान तक चलेगीं....
अवश्य!मैं भी यहाँ बैठ कर ऊब रही थी,तुम मुझे कहीं ले चलोगे तो अच्छा रहेगा,वसुन्धरा बोलीं.....
तब लाभशंकर बोला....
मैं माँ से कहकर आता हूँ कि मैं और राजमाता नदी के उस ओर टहल कर आते हैं,ताकि वें चिन्तित ना हों...
तुम अपनी माँ से अत्यधिक प्रेम करते हो ना!वसुन्धरा ने लाभशंकर से पूछा...
जी!वें भी तो मुझे प्रेम करतीं हैं,लाभशंकर बोला...
प्रेम तो मैं भी अपने पुत्र से करती हूँ किन्तु वो मुझे प्रेम नहीं करता,वसुन्धरा दुखी होते हुए बोली....
ऐसा ना कहें राजमाता!अभी राजकुमार आपके प्रेम को नहीं समझ रहें हैं किन्तु एक दिन अवश्य समझेगें एवं जब तक आप मुझे ही अपना पुत्र मान सकतीं हैं,लाभशंकर बोला....
तुम्हें तो मैनें पहले ही अपना पुत्र मान लिया है,वसुन्धरा मुस्कुराते हुए बोली....
अन्ततः लाभशंकर अपनी माँ माया से अनुमति लेकर आया और लाभशंकर वसुन्धरा के साथ नदी के उस पार उस कन्दरा की ओर चल पड़ा,जहाँ देवव्रत ने वसुन्धरा की मूर्तियाँ बनाकर रखीं थीं,लाभशंकर चाहता था कि वसुन्धरा ये देखे कि उसके मामा देवव्रत उनसे कितना प्रेम करते थे,अपनी स्मृतियों को भूल जाने के उपरान्त भी वसुन्धरा उनकी स्मृतियों में जीवित थी एवं कुछ समय चलने के पश्चात लाभशंकर वसुन्धरा को लेकर उस कन्दरा की ओर पहुँच भी गया...
लाभशंकर वसुन्धरा को उस कन्दरा के भीतर ले गया,वसुन्धरा ने देखा कि वहाँ तो केवल मूर्तियाँ ही मूर्तियाँ हैं एवं वो केवल स्त्रियों की हैं,तब लाभशंकर ने वसुन्धरा से कहा....
राजमाता!अब इन सभी मूर्तियों के मुँख से आपको ही इन वस्त्रों को हटाना है....
परन्तु क्यों?मैं ही क्यों ये विशेष कार्य करूँ,किसी को आपत्ति हुई तो,वसुन्धरा बोली....
मैं हूँ ना!किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी,लाभशंकर बोला...
तब वसुन्धरा ने पहली मूर्ति के मुँख से वस्त्र को हटाया तो उसने पाया कि ये मूर्ति तो उसी की है,इसके उपरान्त उसने दूसरी मूर्ति के मुँख से वस्त्र हटाया तो वो भी उसकी ही छाया थी,इस प्रकार वसुन्धरा ने सभी मूर्तियों के मुँख से वस्त्रों को हटा दिया,तब उसने लाभशंकर से कहा....
ये मूर्तियाँ निश्चित ही देवनारायण ने बनाईं हैं ना,उसके अलावा ये कार्य दूसरा और कोई कर ही नहीं सकता...
जी!राजमाता! वें अपनी स्मृति भूल चुके थे किन्तु उनकी विस्मृतियों में आप तब भी जीवित थीं,वें आपसे अब भी उतना ही प्रेम करते हैं,लाभशंकर बोला...
क्या ये सत्य है?,देवनारायण की स्मृतियों में अभी भी जीवित हूँ,वसुन्धरा बोली...
जी!साक्षात प्रमाण आपके समक्ष है,आपको विश्वास करना ही होगा,लाभशंकर बोला...
तो उसने स्वीकारा क्यों नहीं?वसुन्धरा बोली...
क्योकिं आप एक राजमाता हैं एवं एक पुत्र की माता भी हैं,वें नहीं चाहते कि समाज में आपका नाम कलंकित हो,लाभशंकर बोला....
मैं तो केवल ये चाहती हूँ कि वो केवल एक बार अपने मुँख से कह दे कि वो ही मेरा देवनारायण है,वसुन्धरा बोली...
कदाचित वें कभी ये नहीं कह पायेंगे?लाभशंकर बोला...
परन्तु क्यों?मैं यूँ ही जीवन भर तरसती रहूँगी ,वसुन्धरा बोली....
राजमाता!आप यूँ दुखी ना हो,देखिएगा वें स्वयं एक दिन कहेगें कि वें आपको अब तक भूले नहीं हैं,लाभशंकर बोला...
ऐसे ही वसुन्धरा एवं लाभशंकर के मध्य वार्तालाप चलता रहा और उधर लाभशंकर के निवासस्थान पर देवव्रत ने मनोज्ञा और भूकालेश्वर जी से पूछा कि रानी वसुन्धरा और लाभशंकर कहाँ है?तो मनोज्ञा बोली कि मुझे तो इस विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है,कदाचित आप भीतर जाकर माताश्री से पूछिए,तब देवव्रत भीतर गया तो उसने माया से लाभशंकर के विषय में पूछा तो माया बोली कि वें दोनों तो कहीं टहलने गए हैं,अब देवव्रत को संदेह हुआ कि हो ना हो लाभशंकर वसुन्धरा को लेकर उसी कन्दरा की ओर गया है जहाँ वो मूर्तियाँ बनाया करता था और वो क्रोधित होकर उस ओर चल पड़ा,उसे क्रोधित होता देखकर मनोज्ञा ने पूछा कि....
काकाश्री!आप कहाँ जा रहें हैं?
किन्तु देवव्रत ने कोई उत्तर ना दिया,तब मनोज्ञा को लगा कि हो सकता है कोई संकट आन पड़ा हो इसलिए देवव्रत काका कहीं जा रहे हो तो उसने भूकालेश्वर जी से कहा.....
पिताश्री!हमें भी काकाश्री के पीछे पीछे जाना चाहिए,ना जाने क्या बात है ,उन्होंने मेरे प्रश्न का उत्तर ही नहीं दिया....
मनोज्ञा की बात सुनकर भूकालेश्वर एवं मनोज्ञा देवव्रत के पीछे पीछे चल पड़े,कुछ समय पश्चात देवव्रत भी कन्दरा के समीप जा पहुँचा एवं कन्दरा के भीतर चला गया,पीछे पीछे भूकालेश्वर एवं मनोज्ञा भी कन्दरा के भीतर जा पहुँचें,देवव्रत अत्यधिक क्रोध में था उसने कुछ भी नहीं देखा और लाभशंकर के गाल पर जोर का थप्पड़ मार दिया और बोला...
मेरे अनुमति के बिना तुम रानी वसुन्धरा को यहाँ क्यों लाएं?
मैं तो केवल उन्हें ये अनुभव दिलाना चाहता था कि अब भी आप उनसे प्रेम करते हैं....,लाभशंकर अपना गाल सहलाते हुए बोला....
इसकी क्या आवश्यकता थी,जब मैनें तुमसे पहले ही कह दिया था कि मैं इस स्थिति में नहीं हूँ कि वसुन्धरा का प्रेम स्वीकार कर सकूँ,देवव्रत क्रोधित होकर बोला....
प्रेम को जताने के लिए स्थितियों की आवश्यकता नहीं होती मामाश्री! लाभशंकर बोला....
सभी तुम्हारे भाँति नहीं होते,किसी ना किसी के संग कोई ना कोई विवशता जुड़ी होती है,देवव्रत बोला...
प्रेम में विवशताओं को स्थान भी हम लोंग ही देते हैं,लाभशंकर बोला...
ये कैसीं बातें कर रहे हो तुम?देवव्रत बोला...
सत्य ही तो कह रहा हूँ,प्रेम जैसा पावन तो कुछ भी नहीं होता संसार में,तो प्रेम में विवशता कैसीं,लाभशंकर बोला....
लाभशंकर! तुम शांत हो जाओ,अभी देवव्रत का मस्तिष्क संतुलित नहीं है,वसुन्धरा बोलीं....
वहाँ खड़े भूकालेश्वर जी और मनोज्ञा भी लगभग सारी बात को समझ चुके थे किन्तु वें अब भी चाहते थे कि कोई उन्हें सारी बात विस्तार से बताएं....
तभी भूकालेश्वर जी ने लाभशंकर से पूछा....
लाभशंकर क्या हुआ? देवव्रत यहाँ आएं तो हम भी उनके पीछे पीछे चले आएं,हमें ऐसा प्रतीत हुआ कि कोई संकट आन पड़ा है,वैसे कुछ कुछ तो हमें समझ आ रहा है किन्तु यदि तुम सारी बात विस्तार से बता दोगे तो हम दोनों की शंका दूर हो जाएगी....
मैं आपको सारी बात विस्तार से बताता हूँ पुजारी जी!देवव्रत बोला....
नहीं...देवव्रत !मैं नहीं चाहती कि तुम किसी से कुछ भी कहो,वसुन्धरा बोली....
किन्तु!अब ये बात रहस्य ना ही रहें तो ही अच्छा,देवव्रत बोला...
क्या बात है काकाश्री?कहिए ना! मनोज्ञा बोली.....
तब देवव्रत बोला.....
पुत्री मनोज्ञा!मैं देवव्रत नहीं ,देवनारायण हूँ एवं जब मैं युवक था तो रानी से मेरा प्रेमसम्बन्ध था,परन्तु वसुन्धरा के पिताश्री को हमारे सम्बन्ध से आपत्ति थी, वें उनका विवाह किसी राजकुमार से करवाना चाहते थे,मुझ मूर्तिकार से नहीं,इसलिए उन्होंने मेरी हत्या करवाकर नदी में डलवा दिया ,किन्तु मुझे लाभशंकर के पिता ने प्राणदान दे दिए,उन्होंने मेरा उपचार किया एवं कुछ दिनों पश्चात मैं स्वस्थ हो गया किन्तु उस दुर्घटना में मैं अपनी स्मृति भूल गया,यहाँ तक कि मुझे अपना नाम भी याद नहीं रहा,तब लाभशंकर के पिता शम्भू जी बोले मैं उन्हें गंगा में मिला हूँ इसलिए मैं गंगा मैया का पुत्र हूँ,तब उन्होंने मेरा नाम देवव्रत रख दिया,मुझे अपनी स्मृतियों में कुछ भी याद नहीं रहा किन्तु वसुन्धरा याद रही एवं मैं एकान्त में उन्हीं की मूर्तियाँ बनाया करता किन्तु मुझे स्वयं समझ नहीं आता था कि मैं एक ही स्त्री की मूर्तियाँ क्यों बनाता हूँ,जब तुम्हारे राज्य लाभशंकर को खोजते पहुँचा,तब मुझे वहाँ वसुन्धरा दिखी एवं एक रात्रि मैं लाभशंकर के संग उनसे मिलने राजमहल पहुँचा तब मुझे ज्ञात हुआ कि मैं देवनारायण हूँ,किन्तु मुझे लगा कि मैं देवव्रत ही बना रहूँ तो ही ठीक होगा,इसलिए मैनें ये बात और किसी से नहीं कही....
तब वसुन्धरा बोलीं....
पुत्री मनोज्ञा!हमारी एक पुत्री भी हुई थी,तब मैं विवाहिता नहीं थी,किन्तु वो जीवित नहीं रही....
तभ भूकालेश्वर जी बोलें....
ये आपसे किसने कहा था कि आपकी पुत्री जीवित नहीं....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....