देवव्रत का स्वर सुनकर लाभशंकर बोला....
मनोज्ञा!अब मुझे जाना होगा,कदाचित मामाश्री मुझे पुकार रहे हैं...
ठीक है तो अब तुम जा सकते हो,मनोज्ञा बोली...
इसके उपरान्त लाभशंकर बाहर आ गया एवं उसकी दृष्टि देवव्रत पर पड़ी ,जो कि अत्यधिक चिन्तित दिखाई दे रहे थे,लाभशंकर ने उनके समीप जाकर पूछा....
क्या हुआ मामाश्री?आप इतने चिन्तित क्यों दिखाई पड़ रहे हैं?
पुत्र!हम दोनों को इसी समय राजमहल जाकर रानी वसुन्धरा से मिलना होगा,नहीं तो मैं चिन्ता से मर जाऊँगा,मुझे उनसे ही अपने प्रश्नों के उत्तर मिल सकते हैं,देवव्रत बोलें...
किन्तु इस समय राजमहल जाने पर उन्हें कोई आपत्ति तो नहीं होगी,लाभशंकर बोला।।
अब जो भी हो,परन्तु मुझे तो वहाँ जाना है,नहीं तो रात्रि को मुझे निंद्रा आने वाली नहीं,देवव्रत बोलें...
ठीक है आप इतने विचलित ना हों,मैं ले चलूँगा आपको वहाँ पर,लाभशंकर बोला...
अन्ततः दोनों ने राजमहल की ओर प्रस्थान किया,कुछ समय पश्चात दोनों राजमहल पहुँचे और द्वारपालों से विनती की कि उन्हें रानी वसुन्धरा से अतिआवश्यक कार्य है,उन्हें रानी से मिलने की अनुमति दी जाएं,उनकी बात सुनकर एक द्वारपाल रानी वसुन्धरा के कक्ष में उनका संदेशा लेकर गया और उसने रानी से कहा....
राजमाता!दो लोंग आपसे मिलने आएं हैं एवं उन्हें अति शीघ्रता है आपसे मिलने की,कहते हैं कि वें कुछ प्रश्नों के उत्तर चाहते हैं आपसे....
मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है,मैं किसी से नहीं मिलना चाहती,वसुन्धरा बोली।।
किन्तु उन्होंने विनती की है,उनमें एक तो आपसे मिलने हेतु अति व्याकुल है,द्वारपाल बोला...
कौन हैं वें लोंग,कुछ परिचय दिया उन्होंने,वसुन्धरा ने द्वारपाल से पूछा।।
जी!हाँ!नवयुवक का नाम लाभशंकर है और जो वृद्ध है उसने अपना नाम देवव्रत बताया है,द्वारपाल बोला।।
ठीक है तो दोनों को राजमहल के भीतर आने की अनुमति दे दो,उनसे कह दो वें वाटिका में ठहरें ,मैं उनसे मिलने वहीं आती हूँ,वसुन्धरा बोली...
इसके उपरान्त द्वारपाल रानी वसुन्धरा का संदेश लेकर राजमहल के द्वार पर आया और दोनों से बोला...
भाग्यशाली हैं आप दोनों,राजमाता अभी भी जाग रहीं थीं और आप दोनों से मिलने के लिए तत्पर है,आप दोनों वाटिका में ठहरें वें अभी वहाँ पहुँचती होगीं...
द्वारपाल की बात सुनकर दोनों अत्यधिक प्रसन्न हुए एवं शीघ्रता से वाटिका में जा पहुँचें एवं वहाँ रानी वसुन्धरा की प्रतीक्षा करने लगें,वाटिका में अनेकों स्तम्भों पर अग्निशलाकाएं लगी थी,जिसके प्रकाश से पूरी वाटिका प्रकाशमान थी,कुछ समय पश्चात रानी वसुन्धरा वाटिका में पहुँची एवं अपने समक्ष देवनारायण को देखकर बोल पड़ी....
देवनारायण!तुम जीवित हो,यदि तुम अब तक जीवित थे तो लौटें क्यों नहीं?कहाँ थे अभी तक?
रानी वसुन्धरा के प्रश्नों को सुनकर लाभशंकर बोला....
मैं देवनारायण नहीं!मैं तो लाभशंकर हूँ....
तुम नहीं!ये जो तुम्हारे संग हैं वो देवनारायण हैं,रानी वसुन्धरा बोली....
जी!आपसे कोई भूल हो रही है राजमाता!ये तो मेरे मामाश्री देवव्रत हैं,लाभशंकर बोला।।
मैं अपने देव को पहचानने में कैसें भूल कर सकती हूँ भला,मैं वर्षों से इनकी प्रतीक्षा कर रही हूँ,ये एक प्रसिद्ध मूर्तिकार थे एवं मेरी मूर्तियांँ बनाया करते थे,हम दोनों में गहरा प्रेम था परन्तु मेरे पिताश्री को हम दोनों के प्रेम से आपत्ति हुई तो उन्होंने देवनारायण की हत्या करवाकर नदी में बहा दिया,मैं उस समय माँ बनने वाली थी एवं मैं देवनारायण की प्रतीक्षा करती रही,परन्तु देवनारायण ना लौटें,मैनें तब एक कन्या को जन्म दिया,किन्तु हाय!मेरा दुर्भाग्य वो भी जीवित ना बची,तब मेरे जीवन में राजकुमार नीलेन्द्र आएं एवं मैनें उनसे विवाह कर लिया.....
ओह....तो अब मुझे समझ में आया कि मैं आपकी मूर्तियाँ क्यों बनाया करता था? इसका तात्पर्य है कि मैं देवव्रत नहीं देवनारायण हूँ,देवव्रत बोला।।
हाँ!तुम मेरे देव हो,वसुन्धरा बोली...
इसलिए जब भी मैनें आपको देखा तो मेरा मन विचलित हो गया,अब मुझे समझ में आया कि मेरा आपसे क्या नाता है,अब मुझे अपने सभी प्रश्नों के उत्तर मिल गए और इतना कहकर देवव्रत ने लाभशंकर से वापस धर्मशाला चलने को कहा....
तब वसुन्धरा बोली....
ठहरो !देव!इतने वर्षों बाद मिले हो,क्या ऐसे ही चले जाओगे...
मैं केवल देवव्रत हूँ,रानी वसुन्धरा!आपका देवनारायण तो कब का मर चुका है,यदि इस संसार को ये ज्ञात हो गया कि हमारा क्या नाता था तो मेरा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा किन्तु आपका नाम धूमिल हो जाएगा,क्योंकि आप एक राजमाता हैं और इस राज्य के प्रति आपके कुछ कर्तव्य हैं,मैं इतना स्वार्थी नहीं हो सकता रानी वसुन्धरा कि अपना प्रेम पाने हेतु आपके सम्मान पर धब्बा लगा लगा दूँ,इसलिए आपका देवनारायण ना कभी था और ना कभी होगा,मैं तो केवल देवव्रत हूँ और सदैव देवव्रत ही रहूँगा.....
और इतना कहकर देवव्रत ने लाभशंकर का हाथ पकड़ा और राजमहल के बाहर निकल गया और वसुन्धरा उसे जाते हुए देखती रही...
मार्ग में लाभशंकर देवव्रत से बोला....
मामाश्री!आपको कदापि ऐसा नहीं करना चाहिए था,वर्षों के उपरान्त आपका प्रेम आपको मिला था और आपने उसे अस्वीकार कर दिया....
तुम्हारे मस्तिष्क का संतुलन तो ठीक है ना!तुम्हें ज्ञात भी है कि तुम क्या कह रहे हों?वो एक रानी है और मैं भिखमंगा,जिसके रहने का ना कोई ठिकाना है और ना ही खाने का एवं इस अवस्था में मैनें उनका प्रेम स्वीकार भी कर लिया तो ये संसार हँसेगा मुझ पर और उन पर भी,देवव्रत बोला।।
वें आपसे अब भी प्रेम करतीं हैं,लाभशंकर बोला।।
किन्तु मैं उनसे प्रेम नहीं करता,देवव्रत बोला...
परन्तु क्यों?लाभशंकर ने पूछा...
क्यों किं मैं उनका आदर करता हूँ एवं मुझे मर्यादाओं का भी ध्यान है और जब तक प्रेम मर्यादित रहता है तो उसमें पवित्रता रहती है किन्तु जब प्रेम मार्यादाओं की सीमाएं लाँघने लगें तो समझो उसकी पवित्रता नष्ट हो गई और मैं ये नहीं चाहता कि वर्षों पहले हमारे मध्य जो प्रेम था उसकी पवित्रता नष्ट हो,देवव्रत बोला....
किन्तु!उनके हृदय पर इस समय क्या बीत रही होगी तनिक उसका भी ध्यान कीजिए,लाभशंकर बोला।।
तो क्या मेरा हृदय पीड़ा से नहीं फटा जा रहा?मैं भी तो पीड़ित हूँ ये जानकर कि हम दोनों की सन्तान भी हुई थी जो अब इस संसार में नहीं है,ये वर्षों का वियोग जिससे मैं अज्ञात था,जिसकी पीड़ा का अनुभव मुझे आज हो रहा है,मैं व्यथित हूँ ये अपार दुःख मुझे ना मिलता यदि मैं वसुन्धरा से ना मिला होता,मैं क्यों उससे मिला,कदाचित मेरी मति भ्रष्ट हो गई थी,अब ये सन्ताप असहनीय है मेरे लिए....और इतना कहते कहते देवव्रत रोते हुए धरती पर घुटनों के बल बैठ गया....
उठिए!मामाश्री!मैं समझ सकता हूँ कि इस समय आपके हृदय को अत्यधिक पीड़ा का अनुभव हो रहा है,जिसने प्रेम किया हो वही आपकी पीड़ा समझ सकता है,मैनें प्रेम किया है इसलिए मैं आपकी पीड़ा को भलीभाँति समझ सकता हूँ...लाभशंकर बोला...
मैं अपने अतीत को भूला रहता तो ही अच्छा था,देवव्रत बोला।।
कोई बात नहीं मामाश्री!अब होनी को कौन टाल सकता है? कभी ना कभी तो आपको ये ज्ञात होना ही था, नहीं तो नियति आपको खींचकर इस राज्य में ना लाती,लाभशंकर बोला।।
कदाचित तुम ठीक कह रहे हो,देवव्रत बोला।।
तो अब क्या करें ?हम दोनों अपने नगर वापस लौट चलें,लाभशंकर ने पूछा...
नहीं!पुत्र! मैं तो अपने प्रेम को ना पा सका,कदाचित यहाँ रहकर तुम्हारा प्रेम ही तुमको मिल जाएं,देवव्रत बोला।।
अच्छा!चलिए अत्यधिक रात्रि हो गई है,धर्मशाला चलकर विश्राम करते हैं ,लाभशंकर बोला....
और दोनों धर्मशाला की ओर चल पड़े....
इधर बसन्तवीर को भी निंद्रा नहीं आ रही थी,उसके नैनों में तो केवल मनोज्ञा ही समाई थी,उसने निश्चय किया कि वो कल मनोज्ञा को अवश्य भेंट देकर आएगा....
प्रातःकाल हुआ सभी अपने अपने कार्यों में ब्यस्त थे,क्योंकि मंदिर की स्वच्छता अत्यधिक आवश्यक थी,क्योंकि रात्रि के कार्यक्रम के कारण मंदिर के प्राँगण में अत्यधिक अस्वच्छता फैली थी,जो भूकालेश्वर जी वहाँ के स्वच्छताकर्मियों से करवा रहे थें.....
मनोज्ञा भी स्नान करने के पश्चात रसोईघर में लगी हुई थी,उसने भोजन पकाया और सर्प्रथम वो भोजन लेकर धर्मशाला पहुँची,वहाँ उसने देवव्रत को अत्यधिक दुखी देखा तो उनसे पूछ बैठी...
क्या हुआ काकाश्री आप तो अत्यधिक चिन्तित दिखाई पड़ रहे हैं,क्या कारण है आपका स्वास्थ्य तो ठीक है ना!!
हाँ!पुत्री !मैं स्वस्थ हूँ,बस कुछ सोचकर चिन्ता में पड़ गया,देवव्रत बोला...
किन्तु क्या?मैं जान सकती हूँ,मनोज्ञा ने पूछा।।
बस,ऐसे ही कुछ भूली स्मृतियाँ मस्तिष्क को व्यथित कर रहीं थीं,देवव्रत बोला....
ओह...तो ये बात है,अच्छा!पहले आप भोजन कर लीजिए,इसके पश्चात चिन्ता में डूबिएगा,मनोज्ञा बोली...
और मनोज्ञा उन दोनों का भोजन रखने लगी तभी धर्मशाला में किसी व्यक्ति ने प्रवेश किया और मनोज्ञा से बोला....
देवदासी मनोज्ञा!आपसे राजकुमार बसन्तवीर मिलना चाहते हैं,वें बाहर ही खड़े हैं...
उनसे कहो,मैं अभी आती हूँ और इतना कहकर मनोज्ञा धर्मशाला के बाहर गई एवं वहाँ उपस्थित राजकुमार बसन्तवीर से पूछा....
जी!कहें राजकुमार!आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों किया?
जी!मैं चाहता हूंँ कि आज रात्रि आप मेरे राजदरबार में नृत्य करके उसकी शोभा बढ़ाएं,बसन्तवीर बोला...
ये आप क्या कह रहे हैं?मैं कोई राजनर्तकी नहीं ,जिसे आप कहीं भी नृत्य करने का आदेश सुना दें,मैं एक देवदासी हूँ ,केवल ईश्वर के समक्ष ही अपना नृत्य प्रस्तुत करती हूँ,मनोज्ञा बोली....
मैं आपको इस कार्य हेतु मूल्यवान भेंट दूँगा,बसन्तवीर बोला....
क्या आपने मुझे लोभी समझ रखा है जो धन के लोभ में कुछ भी करूँगी,मनोज्ञा बोली।।
तुम मेरी अवहेलना कर रही हो,बसन्तवीर चिल्लाया....
हाँ!कर रही हूँ अवहेलना,मैं कोई ऐसा कार्य नहीं कर सकती जिसे करने के लिए मेरी अन्तरात्मा ना कहें,मनोज्ञा बोली....
तुम्हारा इतना साहस,तुम मेरी आज्ञा मानने से मना कर रही हो....,बसन्तवीर बोला...
हाँ!नहीं माननी मुझे आपकी आज्ञा,मनोज्ञा बोली.....
तभी दोनों के मध्य हो रहे वार्तालाप को सुनकर उस स्थान पर सभी आ पहुँचें,साथ में देवव्रत और लाभशंकर भी भोजन छोड़कर धर्मशाला के बाहर आ गए और लाभशंकर ने मनोज्ञा से पूछा....
क्या बात है?
तब मनोज्ञा बोली....
ये मुझे राजदरबार में नृत्य करने का आदेश दे रहे हैं और मैनें मना कर दिया......
ये तो असम्भव हैं,आप तो एक देवदासी हैं और राजदरबार में कैसें नृत्य कर सकतीं हैं,लाभशंकर बोला।।
यही तो मैं भी कह रही थी,मनोज्ञा बोली....
तुम कौन हो ?और मुझे तुम इस राज्य के नियम समझा रहे हो,बसन्तवीर बोला।।
मुझे लगा कि कदाचित आप इस राज्य के नियमों से वंचित हैं इसलिए आपको यहाँ के नियम समझा रहा था....,लाभशंकर बोला।।
दुस्साहसी.....तुम्हें ज्ञात है ना कि मैं कौन हूँ?बसन्तवीर बोला....
जी!इस राज्य के उत्तराधिकारी ,जिसे ये भी ज्ञात नहीं कि स्त्रियों का सम्मान कैसें किया जाता है?लाभशंकर बोला....
तुम अपनी सीमाएं भूल रहे हो,बसन्तवीर दहाड़ा....
मैं तो केवल अपनी सीमा भूला ही हूँ किन्तु आप तो अपनी सीमा लाँघ गए,लाभशंकर बोला....
लाभशंकर की बात सुनकर बसन्तवीर ने अपनी तलवार निकाल ली....
क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....