देवव्रत निरन्तर ही वसुन्धरा के मुँख की ओर निहारे जा रहा था किन्तु उसे कुछ याद नहीं आ रहा था कि उसने पहले उन्हें कहाँ देखा है,वो इसी अन्तर्द्वन्द्व में उलझा हुआ आगें बढ़ गया,जब धर्मशाला पहुँचा तो वो अत्यधिक चिन्तित था,उसने जैसे ही धर्मशाला के कक्ष में प्रवेश किया तो उसके विचारमग्न मुँख को देखकर लाभशंकर ने पूछा....
क्या हुआ मामाश्री! माँ ने कुछ कहा है क्या है जो आप इतने चिन्तित प्रतीत हो रहे हैं?
ना पुत्र!ऐसा कुछ भी नहीं है,देवव्रत बोला।।
तो आप इतने गम्भीर क्यों दिख रहे हैं?लाभशंकर बोला।।
ना जाने क्यों मार्ग में राजमाता वसुन्धरा को देखकर मन कुछ विचलित सा हो गया,देवव्रत बोला।।
ऐसा क्यों?वो आज पुनः मिलीं थीं क्या आपको?लाभशंकर ने पूछा।।
हाँ!मिलीं थी, वही तो मैं भी सोच रहा हूँ कि उन्हें देखकर मैं इतना अधीर सा क्यों उठा?आखिर मेरा उनसे ऐसा कौन सा नाता है जिसने मेरे हृदय को अस्थिर सा कर दिया है,देवव्रत बोला।।
ये तो मुझे भी समझ नहीं आ रहा है कि राजमाता वसुन्धरा को देखकर आपकी दशा ऐसी क्यों हो गई है?लाभशंकर बोला।।
हो सकता है कि मैं कदाचित अत्यधिक थक चुका हूँ इसलिए ऐसा हुआ हो,तनिक विश्राम कर लूँगा तो स्थिर हो जाऊँगा,देवव्रत बोला।।
तो ठीक है मैं कक्ष से बाहर जा रहा हूँ ,आप तनिक विश्राम कर लें और इतना कहकर लाभशंकर धर्मशाला के कक्ष से निकल कर बाहर आ गया एवं वहाँ भ्रमण करने लगा,वो भ्रमण करते करते धर्मशाला की वाटिका की ओर जा पहुँचा,वहाँ उसकी दृष्टि मनोज्ञा पर पड़ी जो पंक्षियों को अपने पास बुला बुलाकर आनन्दित हो रही थीं,वो उन पंक्षियों के संग अत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव कर रही थी,उसे ऐसे आनन्द में मग्न देखकर लाभशंकर भी आनन्दित हो रहा था,तभी एकाएक मनोज्ञा की दृष्टि लाभशंकर पर पड़ी तो वो एकदम से स्थिर एवं शांत हो गई और वहाँ से जाने लगी तो लाभशंकर ने उससे कहा.....
अभी तो आप उन पंक्षियों को देखकर बड़ीं आनन्दित हो रहीं थीं,मुझे देखते ही आप तो ऐसे शांत हो गईं कि किसी मक्षिका (मक्खी) ने छींक दिया हो.....
ये क्या निर्रथक सी बात कह रहे हो,मक्षिका को देखा है तुमने कभी छींकते हुए,मनोज्ञा बोली।।
मक्षिका को छींकते तो नहीं देखा परन्तु क्रोध करते अवश्य देखा है,लाभशंकर बोला।।
तुम्हारे कहने का आशय क्या है कि मैं कोई मक्षिका हूँ?मनोज्ञा बोली।।
और क्या तभी तो प्रेम से बात नहीं करतीं आप.....बस....जब देखो तब....भिन..भिन....,लाभशंकर बोला।।
अब तुम उदण्डता कर रहे हो,मनोज्ञा बोली।।
जी,मैं उदण्डता ही कर रहा हूँ और बोलिए...,लाभशंकर बोला।।
कौन तुम्हारे मुँह लगें,तुम्हारा तो मानसिक संतुलन बिगड़ गया है,मनोज्ञा बोली।।
आप ही है वो कारण हैं जिसके कारण ही मेरा मानसिक संतुलन बिगड़ा हुआ है,लाभशंकर बोला।।
ये तुम्हारी भूल है,मनोज्ञा बोली।।
ये मेरी भूल नहीं है,आपका हृदय स्वीकार नहीं कर रहा है कि आप मुझसे प्रेम करतीं हैं,लाभशंकर बोला।।
ये तुम्हारा संशय है,ऐसा कुछ भी नहीं है,मैं एक देवदासी हूँ मैं उस दिशा की ओर क्यों जाऊँगी जिसका मैं त्याग कर चुकी हूँ,मनोज्ञा बोली।।
आपको ये नहीं लगता कि ये आपके मन का भ्रम है,आपको ईश्वर ने स्त्री रुप देकर इसलिए भेजा है कि आप किसी की पुत्री,बहन,प्रेयसी या पत्नी बन सकें ना कि देवदासी,सांसरिक जीवन निभाते हुए भी तो आप ईश्वर की भक्ति कर सकतीं हैं,ईश्वर की भक्ति करने के लिए देवदासी बनना आवश्यक नहीं है,आप स्वयं सोचकर देखें जो मार्ग आपने स्वयं के लिए निर्धारित किया है,क्या वो सही है,लाभशंकर बोला।।
तुम कौन होते हो मुझे ये बताने वाले कि मुझे कौन सा मार्ग चुनना चाहिए और कौन सा नहीं,तुम मेरे जीवन को निर्धारित करोगें जिसे स्वयं के विषय में ही कुछ ज्ञात नहीं है कि उसे क्या करना चाहिए,तुम दिशाहीन होकर मेरी दशा के विषय में वार्तालाप कैसें कर सकते हो?मनोज्ञा बोलीं।।
आपको तो समझाना ही निर्रथक है,लाभशंकर बोला।।
तो क्यों समझा रहे हो मुझे?मैं कुछ नहीं समझना चाहती,मनोज्ञा जाते हुए बोली।।
हाँ...हाँ...तो चली जाइए यहाँ से,जिसका हृदय पाषाण हो चुका हो तो उसके समक्ष प्रेमभरी बातें करना ही अपने मस्तिष्क को पाषाण पर पटकना है,लाभशंकर बोला।।
तो क्यों पटक रहे हो अपने मस्तिष्क को मेरे समक्ष?मैनें तो तुमसे ऐसा करने को नहीं कहा,मनोज्ञा बोली।।
हाँ....मुझे भी आपसे वार्तालाप करने में कोई रूचि नहीं है,मैं ही यहाँ से जा रहा हूँ और ऐसा कहकर लाभशंकर वाटिका से चला आया और मनोज्ञा उसे जाते हुए देखती रही....
मुँख पर क्रोध के भाव लेकर लाभशंकर ने धर्मशाला के कक्ष में प्रवेश किया और शांतिपूर्वक वो देवव्रत के समीप जा बैठा,उसके मुँख को देखकर देवव्रत ने अनुमान लगाया कि लाभशंकर किसी से द्वन्द करके आया है,इसलिए उसने लाभशंकर से पूछा....
क्या हुआ पुत्र?व्यथित हो,
जी!हाँ!वो है ना जो मेरा प्रतिदिन रक्त जलाती रहती है,लाभशंकर बोला।।
कौन....?कहीं तुम मनोज्ञा की बात तो नहीं कर रहे,देवव्रत बोला।।
जी!हाँ!वही,लाभशंकर बोला।।
सही कहा,वो हैं ही पिशाचिनी,देवव्रत बोला।।
ऐसा मत कहिए,वो पिशाचिनी नहीं है,वो तो विवश है इसलिए मेरा प्रेम स्वीकार नहीं कर रही,लाभशंकर बोला।।
अब आ गई ना बात समझ में,देवव्रत बोला।।
हाँ!मैं समझ गया,उसने देवदासी बनकर सौगन्ध ली है कि वो सांसरिक जीवन नहीं जिएगी और मैं उसकी प्रतिज्ञा तुड़वाना चाहता हूँ,लाभशंकर बोला।।
अब तुम सब समझ गए,इसलिए क्रोध छोड़ो,चलो कुएँ पर चलकर हाथ मुँह धुलकर आते हैं,देखों तो रात्रि होने को है मनोज्ञा भोजन लेकर आने वाली होगी,देवव्रत बोला....
और अब आपका चित्त शान्त हुआ या अभी भी विचलित है,लाभशंकर ने पूछा।।
वो तो अब राजमाता वसुन्धरा से मिलकर ही चित्त शान्त होगा,देवव्रत बोला।।
तो इसमें इतना दुःखी होने की आवश्यकता नहीं है,कल रात्रि आपकी ये इच्छा पूर्ण हो जाएगी,लाभशंकर बोला।।
वो किस प्रकार,मैं भी तो सुनूँ तनिक,देवव्रत ने पूछा।
कल रात्रि राजमाता वसुन्धरा अपने पुत्र बसन्तवीर के संग मंदिर के प्रांँगण में उपस्थित होगीं,जहाँ उनके स्वागत में मनोज्ञा ईश्वर के समक्ष नृत्य करेगीं तथा राजमाता ये घोषणा भी करने वालीं हैं कि अब से बसन्तवीर ही इस राज्य के उत्तराधिकारी होगें,वहाँ आपका कार्य पूर्ण हो सकता है,लाभशंकर बोला।।
इसी प्रकार वार्तालाप करते हुए दोनों धर्मशाला के कुएंँ के समीप पहुँचे वहाँ दोनों ने हाथ पैर धुले और वापस धर्मशाला के कक्ष में प्रवेश किया तो उन्होंने देखा कि मनोज्ञा दोनों का भोजन लेकर वहाँ बैठी है,उस दिन मनोज्ञा ने देवव्रत से केवल उसकी यात्रा के विषय में पूछा,इससे अधिक उसने कोई भी वार्तालाप नहीं किया और चुपचाप दोनों को भोजन खिलाकर वापस आ गई....
उसने अपने गृह में प्रवेश किया तो भूकालेश्वर जी वहाँ पहले से ही उपस्थित थे,उन्हें वहाँ उपस्थित देखकर मनोज्ञा ने उनसे कहा....
पिताश्री!मैं भोजन परोस रही हूँ,आप पाकशाला आकर भोजन गृहण कर लीजिए....
पुत्री!आज जी कुछ अच्छा नहीं है,भूकालेश्वर जी बोलें....
परन्तु क्यों?क्या हुआ आपके स्वास्थ्य को?मनोज्ञा ने चिन्तित होकर पूछा।।
बस ऐसे ही कुछ अच्छा नहीं लग रहा है इसलिए आज मैं भोजन नहीं करूँगा,मैं विश्राम करने जा रहा हूँ,तुम भी भोजन करके विश्राम करना,कल रात्रि तुम्हारा नृत्य है ना!भूकालेश्वर जी बोले।।
जी!मुझे याद है,मनोज्ञा बोली।।
बहुत अच्छा! और इतना कहकर भूकालेश्वर जी विश्राम करने चले गए और इधर मनोज्ञा की मनोदशा कुछ ठीक नहीं थी इसलिए उसने भी भोजन नहीं किया और वो भी चुपचाप अपने कक्ष में आकर बिछौने पर लेट गई एवं लाभशंकर के विषय में सोचने लगी....
उसने मन में सोचा कितना प्रेम झलकता है उसकी आँखों में मेरे प्रति और मैं निष्ठुर होकर उसे सदैव अस्वीकार कर देती हूँ,मेरे व्यवहार से उसका हृदय विदीर्ण हो जाता होगा,जो भी कन्या लाभशंकर की जीवनसंगिनी बनेगी वो तो उसे पाकर धन्य हो जाएगी और इन्हीं सोच विचारों के मध्य उलझी मनोज्ञा की आँख कब लग गई उसे पता ही नहीं चला.....
एवं इधर भूकालेश्वर जी भी अत्यधिक चिन्तित थें,उन्हें भलीभाँति ज्ञात था कि मनोज्ञा उनकी पुत्री नहीं है,यदि नृत्य करते समय राजमाता वसुन्धरा ने उसे पहचान लिया कि वो उनकी पुत्री है तो क्या होगा क्योंकि मनोज्ञा के नैन-नक्श राजमाता वसुन्धरा अत्यधिक मिलते जुलते हैं,मैनें आज ही उन्हें राज्य में देखा था तभी से मेरा मन विचलित है,मैं क्या करूँ यदि मुझसे किसी ने कुछ पूछा तो मैं क्या उत्तर दूँगा?अपने ही किए गए प्रश्नों के उत्तरों को भूकालेश्वर जी खोज नहीं पा रहे थे.....तभी भूकालेश्वर जी के मन में विचार कौंधा कि ये तो राजमाता को ज्ञात ही नहीं है कि उनकी पुत्री जीवित भी है....किन्तु यदि मनोज्ञा को देखकर उनके मन में कुछ शंका उठी तो....इसी प्रहेलिका में उलझे भूकालेश्वर जी कब सो गए उन्हें ज्ञात ही नहीं हुआ.....
धर्मशाला के कक्ष में लाभशंकर भी अत्यधिक विदीर्ण था,उसकी मनोदशा अस्थिर थी,वो मनोज्ञा को समझाना चाहता था कि अपनी सौगन्ध को भूलकर मेरा प्रेम स्वीकार कर लो,परन्तु उसे अभी तक इस कार्य में पराजय ही मिली थी किन्तु उसने आशा अभी छोड़ी नहीं थी,उसे स्वयं में विश्वास था कि वो इस कार्य में कभी ना कभी अवश्य सफल होगा.....
देवव्रत को भी निंद्रा नहीं आ रही थी ,वो वसुन्धरा के विषय में सोच रहा था कि वसुन्धरा को देखकर उसे वो अपनी सी क्यों लगी?क्या वो कभी उससे मिला है लेकिन कब उसे तो याद नहीं पड़ता,कहीं ये तो नहीं उसकी स्मरणशक्ति को भूलने से पहले वसुन्धरा उसकी कोई रही हो....कोई सम्बन्धी....या फिर....प्रेयसी....यदि ऐसा ना होता तो उसने उसकी ही मूर्तियों को बनाकर कन्दरा में क्यों छुपा रखा है,उसने केवल वसुन्धरा की मूर्तियांँ ही क्यों बनाईँ?यदि उसकी स्मरणशक्ति खो चुकी थी तो उसकी स्मृतियों में वसुन्धरा ही क्यों शेष बची?उसे और कुछ स्मरण क्यों नहीं रहा.....केवल वसुन्धरा ही विस्मृत नहीं हो पाई,मैं ये बात किसी से कह भी नहीं सकता,यहाँ तक कि मैनें शंकर को भी तो अभी तक सबकुछ नहीं बताया,क्या उसे बता दूँ कि उसने मेरी बनाईं हुईं मूर्तियांँ जो कन्दरा में देखीं थीं वो सभी वसुन्धरा की थीं.....और यही सोचते सोचते देवव्रत भी अन्ततः सो गया....
प्रातःकाल हुई,मनोज्ञा जागी एवं अपने कार्यों में लग गई,तभी भूकालेश्वर जी ने मनोज्ञा से कहा....
पुत्री!आज तुम गृहकार्य मत करो,केवल विश्राम करों,मैं घर के कार्य किसी और से करवा लेता हूँ,भोजन भी मैं स्वयं पका लूँगा....
मेरे रहते आप भोजन पकायेगें,भला मुझे ये शोभा देगा,मनोज्ञा बोली।।
पुत्री!तुम थक जाओगी,भूकालेश्वर जी बोले...
आप चिन्ता ना करें,मैं सब कर लूँगी,वैसें भी आज रात्रि का भोजन तो मंदिर में ही होगा,मनोज्ञा बोली।।
जैसी तुम्हारी इच्छा और मैं मंदिर में जा रहा हूँ,वहाँ की साज-सज्जा एवं ब्यवस्था देखने ,समय लग सकता है ,भोजन के लिए मेरी प्रतीक्षा मत करना,मैं वहीं प्रसाद गृहण कर लूँगा और इतना कहकर भूकालेश्वर जी ने मंदिर की ओर प्रस्थान किया....
घर के कार्यों से निवृत्त होकर मनोज्ञा ने भोजन पकाया और थालियाँ परोसकर धर्मशाला की ओर बढ़ चली....
वो धर्मशाला पहुँची और उसने दोनों से कहा कि अभी तो मैं आप लोगों का भोजन ले आई किन्तु आप लोगों के आज रात्रि के भोजन की ब्यवस्था मंदिर में रहेगी,राजमाता पधार रही हैं तो सम्पूर्ण राज्य के लोंगों का भोज आज मंदिर में ही होगा,आप दोनों भी आनन्द उठाएं.....
तब देवव्रत बोला....
अवश्य पुत्री!तुम्हारा नृत्य देखने का अवसर भी तो मिलेगा....
जी!मनोज्ञा बोली....
इसी प्रकार के वार्तालाप के मध्य दोनों का भोजन समाप्त हुआ,दिन ऐसे ही बीत गया ,सायंकाल के उपरान्त रात्रि के समय राज्य की शोभा देखते बनती थी,यथास्थानों पर स्तम्भों पर अग्निशलाकाओं(मशाल) का प्रकाश प्रज्ज्वलित था,राज्य को किसी वधु की भाँति सजाया गया था.....
क्रमशः.....
सरोज वर्मा....