Saugandh-Part (7) in Hindi Classic Stories by Saroj Verma books and stories PDF | सौगन्ध--भाग(७)

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सौगन्ध--भाग(७)

देवव्रत राजमाता एवं राजकुमार के पीछे पीछे सैनिकों के साथ चल रहा था,उसने जब राजमाता वसुन्धरा को उस समय केवल दूर से ही देखा था,अब वो उनके पीछे पीछे चल रहा था,लगभग दो घंटे की यात्रा के पश्चात उन सभी ने राज्य में प्रवेश किया,अब देवव्रत ने उस सैनिक से उनका संग छोड़ने की आज्ञा माँगकर राज्य के आगें की ओर प्रस्थान किया...
देवव्रत राज्य के भीतर की ओर चला गया एवं उसने वहाँ के वासियों से पूछा कि क्या यहाँ कोई देवदासी मनोज्ञा रहतीं हैं?वहाँ के वासियों ने देवव्रत को हाँ में उत्तर दिया,ये सुनकर देवव्रत प्रसन्न हुआ,उसे लगा यदि मनोज्ञा इसी राज्य में रहती है तो सम्भवतः लाभशंकर भी इसी राज्य में ही होगा,इसके पश्चात उसने वहाँ के वासियों से ज्ञात किया कि मनोज्ञा का निवासस्थान कहाँ है?ये भी वहाँ के निवासियों ने उसे बता दिया,अब देवव्रत ने बिलम्ब ना करते हुए वहाँ पहुँचने की शीघ्रता दिखाई...
एवं सायंकाल के पश्चात वो वहाँ पहुँच गया,वो मंदिर के निकट पहुँचा एवं लाभशंकर को खोजने लगा उसे लाभशंकर कहीं नहीं दिखा तब उसने मंदिर के आस पास उपस्थित व्यक्तियों से लाभशंकर के विषय में ज्ञात किया,तब उसे ज्ञात हुआ कि लाभशंकर तो मंदिर की धर्मशाला में ठहरा हुआ है एवं देवव्रत वहाँ पहुँचा,उसने देखा कि देवव्रत अपने बिछौनें पर विश्राम कर रहा था,तब देवव्रत उसके निकट पहुँचा और बोला....
तो राजकुमार जी यहाँ विश्राम कर रहें हैं?
देवव्रत के वाक्यों को सुनकर लाभशंकर ने देवव्रत को पहचान लिया एवं शीघ्रता से आँखें खोलकर बोला...
मामाश्री!आप और यहाँ!कैसें पधारें,किसने बताया कि मैं यहाँ हूँ?
बस...बस....धैर्य धरो बालक!सब बता रहा हूँ,तेरे सभी प्रश्नों के उत्तर भी दूँगा,पहले प्यास बुझाने के लिए तनिक जल तो लाओं,कितनी दूर से चला आ रहा हूँ तुझे खोजते हुए,देवव्रत बोला।।
हाँ...हाँ...मैं अभी जल लेकर आता हूँ,लाभशंकर बोला।।
और जब देवव्रत ने जल पीकर अपनी प्यास बुझा ली तब उसने लाभशंकर से कहा...
अब पूछो!जो भी पूछना है।।
तब लाभशंकर बोला....
आप यहाँ तक कैसें पहुँचे और किसने बताया कि मैं यहाँ हूँ?
जैसे तुम मनोज्ञा के पीछे पीछे यहाँ तक चले आएं,वैसें ही मैं भी तुम्हारे पीछे पीछे चला आया,जहाँ चाह,वहाँ राह,देवव्रत बोला।।
ये आपने अच्छा किया जो आप यहाँ आएं?लाभशंकर बोला।।
मेरी छोड़ अपनी सुना कि तेरी प्रेमकहानी कहाँ तक पहुँची?देवव्रत बोला।।
वो तो मानती ही नहीं,ऊपर से गाल भी लाल कर दिया,लाभशंकर उदास होते हुए बोला।।
लाभशंकर की बात सुनकर देवव्रत हँसा और बोला....
ये प्रेम इतनी सरलता से मिलने वाली वस्तु नहीं है मेरे भांजे,इसके लिए तपस्या एवं त्याग की आवश्यकता होती है,देवव्रत बोला।।
और कौन सी तपस्या करूँ?कौन सा त्याग करूँ कि वो मेरा प्रेम स्वीकार कर लें,लाभशंकर ने पूछा।।
प्रेम में धैर्य की अत्यधिक आवश्यकता होती है जो कि तुम्हारे पास नहीं है,देवव्रत बोला।।
और कितना धैर्य रखूँ?लाभशंकर ने पूछा।।
इतना धैर्य रखो कि वो स्वयं विवश होकर तुम्हारा प्रेम स्वीकार कर ले,देवव्रत बोला।।
आप तो ऐसी बातें कर रहे हैं जैसे कि आपको इसमें दक्षता प्राप्त हो,लाभशंकर बोला।।
ये तो मुझे याद नहीं!क्योकिं मैं तो अपना भूतकाल बिसरा चुका हूँ,यहाँ तक कि मुझे तो अपना पुराना नाम भी याद नहीं,मेरा ये नाम तो तुम्हारे माता पिता का दिया हुआ है,हो सकता है कि मैनें भी अपने भूतकाल में किसी से अत्यधिक प्रेम किया हो,तभी जो थोड़ा बहुत अनुभव मेरे पास हो और वही अनुभव मैं तुम्हें दे रहा हूँ,अब इससे अधिक की आशा तुम मुझसे मत रखना,देवव्रत बोला।।
अब मैं क्या बोलूँ और क्या सुनूँ?मामाश्री!मेरे तो मस्तिष्क ने ही कार्य करना बंद कर दिया है,लाभशंकर बोला।।
और हृदय...वो तो कार्यरत है ना!देवव्रत ने पूछा।।
हृदय में तो बस मनोज्ञा ही समाई है,इसलिए तो कार्यरत है....
लाभशंकर की बात सुनकर देवव्रत हँसा पड़ा और साथ में लाभशंकर भी हँस पड़ा...
वो विवश हैं पुत्र!वो एक देवदासी है,उसने अपना समस्त जीवन ईश्वर के चरणों में समर्पित कर दिया है,देवव्रत बोला।।
ये तो अन्याय है,लाभशंकर बोला।।
किसके साथ अन्याय है,तुम्हारे साथ या उसके साथ,देवव्रत ने पूछा।।
जी!हम दोनों के साथ,ऐसा कौन सा ईश्वर है जो कहता है कि प्रेम ना करो,गृहस्थी ना बसाओ,किसी की पत्नी ना बनों,इस संसार में रहो परन्तु सांसारिक जीवन मत जिओं,ये भक्ति नहीं ये तो दण्ड है ,लाभशंकर बोला।।
तुम जैसा अज्ञानी ही ऐसी बात कर सकता है,देवव्रत बोला।।
मैं अज्ञानी नहीं,मैं तो प्रेमी हूँ,लाभशंकर बोला।।
परन्तु तुम्हारा ये प्रेम एकल ओर का ही है,प्रेमी तो तुम तब बनोगे जब तुम्हारा प्रेम कोई स्वीकार कर लेगा,देवव्रत बोला।।
कब आऐगा वो दिन?लाभशंकर बोला।।
संघर्ष करते रहो,एक ना एक दिन अवश्य उत्तीर्ण होगे,देवव्रत बोला।।
ये सब छोड़िए,ये बताइए कि आप यहाँ पहुँचे कैसें?लाभशंकर ने पूछा।।
इस राज्य की राजमाता एवं राजकुमार आ रहे थे तो मैं भी उनकी सेना के साथ साथ चला आया,देवव्रत बोला।।
अच्छा! एवं माँ...बाबा...कैसें हैं?लाभशंकर ने पूछा।।
मत पूछ,तेरी माँ की दशा अच्छी नहीं थीं,उन्होंने तो मुझसे तुझे शीघ्र ही साथ लाने को बोला है,देवव्रत बोला।।
किन्तु ! मैं अभी नहीं जा सकता,कुछ दिन और यहाँ रहना चाहता हूँ,लाभशंकर बोला....
किन्तु!तुम्हारी तुम्हारी माता को तुम्हारी चिन्ता है,इसलिए तो उन्होंने मुझे तुम्हें लेने के लिए भेजा है,देवव्रत बोला।।
तो अब मैं क्या करूँ?लाभशंकर ने पूछा।।
मेरा सुझाव तो ये रहेगा कि तुम एक बार माता को बता आते कि तुम्हें यहाँ कोई कार्य मिल गया,इसलिए तुम अब से यहीं रहोगें,कभी कभी उनसे मिलने आ जाया करोगें? देवव्रत बोला।।
किन्तु ये तो असत्य होगा,लाभशंकर बोला।।
तुम्हारे असत्य को मैं सत्य बनाएं देता हूँ,मुझे बस ये ज्ञात हो जाएं कि इस राज्य में किसी मूर्तिकार की आवश्यकता तो नहीं,तब मैं वहाँ मूर्तिकार बन जाऊँगा और तुम मेरे सहायक,तुम्हारा कार्य इस प्रकार सरल हो जाएगा,देवव्रत बोला।।
ये तो आपने अच्छा सुझाव दिया मामाश्री!किन्तु आप जिस स्थान पर मूर्तिकार बन सकें,मैं वो स्थान कहाँ ढूढ़ू?लाभशंकर बोला।।
जिस कारण तुम यहाँ आएं हो उससे जाकर पूछो,देवव्रत बोला।।
किन्तु मामाश्री!वो मुझे द्वार से ही लौटा देगी,लाभशंकर बोला।।
मेरा नाम लोगे तो नहीं लौटाएगी,देवव्रत बोला।।
ठीक है तो आप कहते हैं तो मैं एक प्रयास करके देख लेता हूँ,लाभशंकर बोला।।
तो पहले कौन सा कार्य करोगे?माता को यहाँ रूकने की सूचना दोगे या मनोज्ञा से पूछने जाओगे कि मूर्तिकार के योग्य कौन सा स्थान है?देवव्रत बोला।।
आप ही बताइए कि पहले क्या करूँ?लाभशंकर ने पूछा।।
पहले माता को सूचना देना अति आवश्यक है कि तुम यहाँ हो?देवव्रत बोला।।
परन्तु!सूचना देने जाने में तो अत्यधिक समय लग जाएगा,लाभशंकर बोला।।
कोई समय नहीं लगता,मैं भी तो कल प्रातः चला था देखो यहाँ आज सायंकाल तक आ पहुँचा,तुम भी कल प्रातःकाल निकल जाओ तो दूसरे दिन तक वापस आ जाओगे,देवव्रत बोला।।
नहीं!आप ही जाइएं एवं माता को सूचित करके वापस आइएं,लाभशंकर बोला।।
मैं क्यों भला?देवव्रत ने पूछा।।
क्योंकि आप ही सबकुछ जानते हैं इसलिए,यदि मैं यहाँ से चला गया तो मनोज्ञा के मन में मेरे प्रति ना जाने कौन से विचार उठने लगे,लाभशंकर बोला।।
तो आज रात्रि तो ठहर सकता हूँ यहाँ कि अभी इसी समय लौट जाऊँ,देवव्रत क्रोधित होकर बोला।।
आप तो क्रोधित होने लगें मामाश्री!लाभशंकर बोला।
क्रोधित क्यों ना हूँ?तू मुझ बूढ़े को सता रहा है,तुझे लज्जा नहीं आती,मैं सूचना देने जाऊँ और तू यहाँ विश्राम करें,देवव्रत बोला।।।
आप तो बुरा मान बैठें,मेरा वो आशय नहीं था,लाभशंकर बोला।।
ठीक है ...ठीक है....मैं ही उन्हें सूचित करने चला जाऊँगा,देवव्रत बोला।।
अच्छा!क्रोध ना करें ,मैं ही चला जाऊँगा,अब आप पहले कुएंँ पर चलकर हाथ मुँह धो लें,सूरज ढ़ल चुका है,रात्रि होने को है मनोज्ञा रात्रि का भोजन लेकर आ रही होगी,लाभशंकर बोला।।
तुम तो कह रहे थे कि उसने तुम्हारा प्रेम स्वीकार नहीं किया,तो ये भोजन वो किस प्रसन्नतावश तुम्हें देने आती है,देवव्रत बोला।।
अरे.....वो तो उसके पिताश्री ने कहा उससे इसलिए आ रही है,उसके पिता इस मंदिर के पुजारी है,मुझे अपना अतिथि मानते है इसलिए उन्होंने मनोज्ञा को आदेश किया कि वो ही मेरा भोजन लाया करेगी,लाभशंकर बोला।।
अच्छा!तो ये बात है,देवव्रत बोला।।
जी!चलिए!आप मंदिर के प्राँगण के कुएंँ पर चलिए,मैं कुएंँ से जल निकाल देता हूँ और आप अपने हाथ पैर धुल लीजिए,लाभशंकर बोला।।
इसके उपरांत दोनों कुएंँ पर गए और दोनों हाथ पैर धोकर धर्मशाला के भीतर आएं तभी मनोज्ञा वहाँ पहले से भोजन लेकर बैठी थी,उसने लाभशंकर के साथ देवव्रत को देखा तो आश्चर्यचकित होकर बोली....
काका श्री!आप!कब आएं?
बस कुछ समय पहले ही यहाँ पहुँचा,देवव्रत बोला।।
मैं तो केवल एक ही थाली भोजन लाई थी,आप ठहरिए मैं बस कुछ समय पश्चात ही दूसरी थाली भी लेकर आती हूँ और इतना कहकर मनोज्ञा भोजन लेने चली गई,कुछ ही समय पश्चात वो भोजन लेकर पुनः धर्मशाला में उपस्थित हुई,दोनों भोजन करने तब मनोज्ञा ने देवव्रत से पूछा....
प्रसन्नता हुई आपको यहाँ देखकर, तो कब तक हैं यहाँ आप?
बस,प्रातः ही लौट जाऊँगा,देवव्रत बोला।
परन्तु!क्यों?मनोज्ञा ने पूछा।।
ये है ना मेरा भाँजा,ये ऐसा चाहता है,इसकी माँ को सूचित करने जाना होगा कि ये यहाँ है एवं उसके लिए दो दिन तो लग ही जाऐगें,देवव्रत बोला।।
दो दिन नहीं लगेगें,मैं आपके लिए अश्व की ब्यवस्था कर देती हूँ तो आप प्रातः ही निकल जाइएं एवं सायंकाल तक लौट आइएं,मनोज्ञा बोली।।
तुम इतना कष्ट क्यों उठाओगी पुत्री?देवव्रत बोला ।।
पुत्री भी बोलते हैं और कष्ट की बात भी करते हैं,मनोज्ञा बोली।।
ठीक है जैसा तुम्हें उचित लगें,परन्तु एक कार्य और था तुमसे,देवव्रत बोला।।
जी कहिए,मनोज्ञा बोली।।
क्या मुझे यहाँ इस राज्य में मूर्तिकार का कार्य मिल सकता है?देवव्रत ने पूछा।।
जी!अवश्य!आप लौट आइए तो दूसरे दिन ही मैं आपको मूर्तिकार शिवनरेश के यहाँ ले चलूँगी,उन्हें एक मूर्तिकार की अत्यधिक आवश्यकता है,मनोज्ञा बोली।।
ऐसे ही मनोज्ञा एवं देवव्रत के मध्य वार्तालाप चलता रहा,दोनों के भोजन करने के पश्चात मनोज्ञा थालियांँ लेकर वापस चली गई एवं दूसरे दिन उसने देवव्रत के लिए अश्व की ब्यवस्था भी करवा दी,सायंकाल तक देवव्रत सूचना देकर वापस भी आ गया,वो राज्य की सीमा पर ही पहुँचा था कि उसके सामने से राजमाता वसुन्धरा अपने रथ पर सवार होकर निकल रहीं थीं,उसने वसुन्धरा को देखा तो एकाएक उसे ऐसा लगा कि उसने राजमाता वसुन्धरा को कहीं देखा है,उसने मन में सोचा कि कल तो राजमाता को देखा था परन्तु उनका मुँख दूर से कुछ समझ नहीं आ रहा था किन्तु आज उन्हें इतनी समीप से देखकर मेरे मन में कुछ विचित्र से भाव क्यों उठ रहे हैं?
देवव्रत अत्यधिक भीड़ में था तो राजमाता वसुन्धरा की दृष्टि उस पर पड़ी ही नहीं....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....