Saugandh - 5 in Hindi Classic Stories by Saroj Verma books and stories PDF | सौगन्ध--भाग(५)

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

Categories
Share

सौगन्ध--भाग(५)

मनोज्ञा ने भी जैसे ही लाभशंकर को देखा तो बोल पड़ी....
तुम वही हो ना!जिसने उस मृग को मूर्छित कर दिया था,
जी!वो तो भूलवश हुआ था मुझसे,मैं तो केवल लक्ष्य साधकर ये ज्ञात करना चाहता था कि मैं इस योग्य हूँ या नहीं,लाभशंकर बोला।।
मुझे तुम पर विश्वास नहीं है,मनोज्ञा बोली।।
पुत्री मनोज्ञा!तुम्हें इसे जानने में कोई भूल हुई है,देवव्रत बोला।।
अच्छा!तो आपका नाम मनोज्ञा है,लाभशंकर बोला।।
नहीं!रक्त पीने वाली पिशाचिनी नाम है मेरा,मनोज्ञा बोली।।
पुत्री!इस पर इतना क्रोध मत करो?देवव्रत बोला।।
परन्तु!काका श्री!आप इसे नहीं जानते,ये अत्यधिक निर्दयी व्यक्ति है,इसने मृग को मूर्छित किया था,मनोज्ञा बोली।।
पुत्री!मैं इसे बाल्यकाल से जानता हूँ,ये मेरा भान्जा लाभशंकर है,भूलवश इसने ऐसा किया होगा,देवव्रत बोला।।
आप कहते हैं तो आप पर विश्वास कर लेती हूँ,मनोज्ञा बोली।।
अब तो आप समझ ही गई होगीं कि मैं निर्दोष हूँ,लाभशंकर बोला।।
ठीक है ,परन्तु अब मुझे जाना होगा,अत्यधिक समय हो गया है,रात्रि होने वाली है एवं रात्रि को मेरा शिवमंदिर में नृत्य है,मनोज्ञा बोली।।
नृत्य....तो क्या आप नर्तकी हैं?लाभशंकर ने पूछा।।
नहीं!मैं एक देवदासी हूँ और केवल मंदिरों में ही देवी-देवताओं के समक्ष ही अपना नृत्य प्रस्तुत करती हूंँ,मनोज्ञा बोली।।
ये तो अत्यधिक अद्भुत है,लाभशंकर बोला।।
पुत्री!तुम किस राज्य से सम्बन्ध रखती हूँ,देवव्रत ने पूछा।।
क्षमा कीजिए!काका श्री !मुझे अपने विषय में अधिक जानकारी देनी की अनुमति नहीं है,मैं केवल देवदासी हूँ और अपना समस्त जीवन देवी-देवताओं को अर्पित कर चुकी हूँ,मेरा सांसारिक जीवन से अब कोई नाता नहीं है,मुझे कहीं बाहर जाने की अनुमति भी नहीं है,वो तो मैं वनविहार हेतु अपनी इच्छा से आती हूँ,कहीं मेरे पिता को ये सब ज्ञात हो गया कि मैं यहाँ आई थी तो वें तो मुझ पर कड़ी दृष्टि रखना आरम्भ कर देगें,मनोज्ञा बोली।।
ओह....यदि ये बात है,तो तुम्हें शीघ्र ही प्रस्थान करना चाहिए,देवव्रत बोला।।
जी!तो अब मुझे आज्ञा दें,मैं जाती हूँ और इतना कहकर मनोज्ञा वहाँ से चली गई....
मनोज्ञा के जाते ही लाभशंकर ने देवव्रत से कहा....
चलिए ना मामा श्री!हम दोनों भी मनोज्ञा के पीछे पीछे चलते है,हमें भी ज्ञात हो जाएगा कि वो किस राज्य से सम्बन्ध रखती है,
ना!शंकर!जब मनोज्ञा नहीं चाहती तो हमें भी उसके राज्य के विषय में कुछ भी ज्ञात करने का प्रयास नहीं करना चाहिए,देवव्रत बोला।।
ओहो...आप भी मेरी मनोदशा नहीं समझ रहे हैं,शंकर बोला।।
मैं सब समझता हूँ,किन्तु उसके हृदय में केवल प्रभु ही विराजमान है वो तुम्हें अपने हृदय में स्थान नहीं दे सकती,देवव्रत बोला।।
ठीक है तो आप घर जाइए,मैं उसके पीछे जा रहा हूँ,लाभशंकर बोला।।
ऐसी भूल मत करो लाभशंकर!ऐसा करके तुम्हें केवल अपमान ही मिलेगा,देवव्रत बोला।।
आप कुछ भी कहिए,मैं तो जा रहा हूँ और इतना कहकर लाभशंकर मनोज्ञा के पीछे पीछे चल पड़ा,लाभशंकर के पास उसका अश्व तो था नहीं जो वो सरलता से मनोज्ञा के पीछे पीछे चला जाता इसलिए उसने मनोज्ञा के अश्व के पद्चिह्नों को देखना प्रारम्भ किया एवं उन्हीं अश्व के पद्चिह्नों के सहारे वो मनोज्ञा के राज्य तक पहुँच गया और इधर देवव्रत ने मन में सोचा....
शंकर ब्यर्थ ही मनोज्ञा के पीछे गया,वो उसका प्रेम कदापि नहीं स्वीकारेगी क्योंकि वो एक देवदासी है,अब लाभशंकर का हृदय टूटेगा,जो मुझसे भी असहनीय होगा,देवव्रत इसी सोच-विचार के मध्य कुछ लकड़ियाँ लेकर घर पहुँचा,उसे अकेला देखकर माया ने पूछा....
शंकर कहाँ है भ्राता?
बहन!वो किसी कार्यवश वन में ही रूक गया है,देवव्रत बोला।।
आपके कहने का तात्पर्य क्या है?रात्रि को वो वन्यजीवों के मध्य रहेगा,माया बोली।।
ना!बहन!वहाँ वन में किसी बूढ़ी माँ की झोपड़ी थी,बूढ़ी माँ का स्वास्थ्य अच्छा ना था,तो वो उनकी देखभाल के लिए वहीं ठहर गया और मुझे ये संदेश देने यहाँ भेज दिया,देवव्रत ने असत्य बोला।।
ओह....मेरा पुत्र कितना दयालु है,अपनी चिन्ता नहीं रहती उसे,केवल दूसरों के ही विषय में सोचता रहता है,माया बोली।।
जी!ठीक कहा आपने,देवव्रत बोला।।
और उधर लाभशंकर अन्ततः मनोज्ञा के राज्य पहुँच ही गया,वहांँ पहुँचकर उसने राज्य के लोगों से ज्ञात किया कि वो मंदिर कहाँ है जहाँ देवदासी निवास करती है,लोगों ने मंदिर के विषय में लाभशंकर को बता दिया,गाँव के लोगों ने ये भी बताया कि आज रात्रि देवदासी का नृत्य है,ये तो लाभशंकर को ज्ञात था क्योंकि मनोज्ञा यही कारण बताकर तो वन से वापस आई थी,लाभशंकर अत्यधिक ललायित था मनोज्ञा का नृत्य देखने हेतु एवं वो यथास्थान पहुँचा एवं नृत्य प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा करने लगा,
उसने देखा कि जिस स्थान पर नृत्य होने वाला था,उस स्थान पर विभिन्न प्रकार के पुष्पों से सजावट की गई थी,स्थान स्थान पर स्तम्भों में अग्निशलाकाओं को लगाया गया था कि जिससे कि प्रकाश उचित प्रकार से बिसरित हो,जिस शिव की प्रतिमा के समक्ष मनोज्ञा नृत्य करने वाली थी तो उस शिव की प्रतिमा को भी भाँति भाँति प्रकार से सजाया गया था,अत्यधिक लोंग उपस्थित थे वहांँ पर,कुछ समय के पश्चात ही मनोज्ञा वहाँ उपस्थित हुई,उसने केवल श्वेत वस्त्र ही धारण किए थे,पुष्पों के आभूषण उसकी सुन्दरता को और भी बढ़ा रहे थे,इतनी सौम्यता देखकर लाभशंकर अपना हृदय थामकर रह गया.....
मनोज्ञा का नृत्य प्रारम्भ हुआ...
मनोज्ञा की भावभंगिमाओं ने सभी को अपनी ओर आकर्षित कर लिया,वो शिवभक्ति में मगन होकर नृत्य कर रही थी,उसका नृत्य ऐसा प्रतीत हो रहा था कि साक्षात नटराज सबके समक्ष नृत्य प्रस्तुत कर रहे हों,उसके शरीर में दामिनी सी स्फूर्ति थी,नृत्य करते करते वो बेसुध हो चुकी थी,उसके केश खुलकर बिखर गए थे,उसके शरीर का अंग अंग थिरकर रहा था,आँखों में ज्वाला थी और ललाट पर समस्त संसार का भार,उसकी एक एक मुद्रा इस बात का प्रमाण थी कि वो भक्तिमय होकर इस संसार से परे हो चुकी है,वो कोई स्त्री या नर्तकी नहीं केवल देवदासी है,उसका जन्म केवल देवों की सेवा के लिए ही हुआ है,नृत्य समाप्त हो चुका था लेकिन नृत्य इतना अच्छा था कि लोगों को ये लगा कि इतनी शीघ्र ही समाप्त हो गया,लाभशंकर ने तो अपनी पलकें ही नहीं झपकाईं और उसका मुँख भी खुला का खुला रह गया.....
नृत्य के पश्चात भोग वितरित हुआ,लाभशंकर भी इसी का लाभ उठाकर पंक्ति में सम्मिलित हो गया,उसने भरपेट भोग गृहण किया और मंदिर के ही पास एक वृक्ष के तले जा लेटा...
रात्रि का दूसरा पहर बीता ही था कि लाभशंकर के मन में मनोज्ञा से मिलने की इच्छा प्रकट हुई,किन्तु वो किस प्रकार मनोज्ञा तक पहुँचे ,यही विचार करने लगा,पहले उसने सोचा कि ये देखना आवश्यक है कि मनोज्ञा का कक्ष कौन सा है,वो मंदिर के समीप बने उसके आलय में पहुँचा एवं हर एक कक्ष के वातायन(खिड़की) से उसने झाँककर देखा कि कदाचित उसे मनोज्ञा अपने बिछौनें पर विश्राम करती हुई दिख जाएं और उसका यह अनुमान सच में सही हो गया,एक कक्ष के वातायन से दीपक के प्रकाश में उसे मनोज्ञा दिख गई,उसने धीरे से मनोज्ञा को पुकारा....
मनोज्ञा....मनोज्ञा...सो रहीं हैं क्या आप?
एकाएक मनोज्ञा की आँख खुली और सोचा कि ये उसे पुकारने का स्वर कहाँ से आया?वो उठकर यहाँ वहाँ देखने लगी,तभी शंकर बोला....
अपने कक्ष के वातायन की ओर देखिए...
मनोज्ञा ने अपनी दृष्टि वातायन की ओर डाली तो वहाँ लाभशंकर को देखकर बोली....
तुम...यहाँ..कैसें पहुँचे?
बस!आपसे मिलने की इच्छा हुई तो चला गया,लाभशंकर बोला....
कहीं तुम्हारा मस्तिष्क असतुन्लित तो नहीं हो गया है,मनोज्ञा बोली।।
हाँ!आपके रूप ने मेरे मन मस्तिष्क को असन्तुलित कर दिया है,मुझे आपसे प्रेम हो गया है मनोज्ञा!लाभशंकर बोला।।
मैं एक देवदासी हूँ,तुम्हारे मन में मेरे प्रति ऐसा विचार भी कैसे आया?मनोज्ञा बोली।।
प्रेम का विचार तो किसी के भी मन में आ सकता है,वैसे ही मेरे मन में भी आ गया,लाभशंकर बोला।।
किन्तु ! मैं ऐसा विचार अपने मन में कभी नहीं लाऊँगी,मनोज्ञा बोली।।
मुझे इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता मनोज्ञा!आप मुझसे प्रेम करें या ना करें,मैं आपसे प्रेम करता हूँ और यही मेरे लिए पर्याप्त है,लाभशंकर बोला।।
हट मत करो ,अपना जीवन यूँ ब्यर्थ मत करो,मनोज्ञा बोली।।
अब तो ब्यर्थ हो ही गया है मेरा जीवन,यदि आपने मेरा प्रेम स्वीकार तो अच्छा है ,नहीं तो यूँ सदैव आपकी प्रतीक्षा करता रहूँगा,कदाचित कभी तो आप मेरा प्रेम स्वाकारेगीं,लाभशंकर बोला।।
ये कैसीं बातें कर रहे हो तुम,मैं ऐसा कार्य कदापि नहीं कर सकती,मैं विवश हूँ,मुझे समझने का प्रयास करो,मनोज्ञा बोली।।
समझने का प्रयास आप कीजिए,मैं भी विवश हूँ अपने हृदय के आगें,लाभशंकर बोला।।
तुम्हें मुझसे भी सुन्दर कन्या मिल जाएगी,जो तुम्हें और तुम्हारे मन को समझने का प्रयास करेगी,मनोज्ञा बोली।।
मुझे समझने का प्रयास तो आप भी कर सकतीं हैं,लाभशंकर बोला।।
ऐसा कभी नहीं हो सकता,मैं अपना सम्पूर्ण जीवन ईश्वर के चरणों में समर्पित कर चुकी हूँ,मनोज्ञा बोली।।
ईश्वर की भक्ति और किसी से प्रेम ,दोनों में कोई अन्तर नहीं है,प्रेम से ही भक्ति सम्भव है और भक्ति में ही प्रेम समाहित है,दोनों को विलग करना सम्भव नहीं,लाभशंकर बोला।।
मुझे तुमसे ऐसा ब्यर्थ का वार्तालाप नहीं करना,मनोज्ञा बोली।।
किन्तु अभी मेरा वार्तालाप पूर्ण नहीं हुआ,लाभशंकर बोला।।
मुझे तुम्हारी इन बातों में कोई रूचि नहीं,तुम यहाँ से जा सकते हो और इतना कहकर मनोज्ञा ने वातायन के किवाड़ भीतर से लगा लिए और पुनः अपने बिछौने पर विश्राम करने लगी।।
और इधर लाभशंकर उदास होकर मनोज्ञा के कक्ष के वातायन से लौट आया एवं पुनः उसी वृक्ष तले आकर विश्राम करने लगा,कुछ क्षणों तक उसके मन में विचारों का आवागमन चलता रहा और उसे निंद्रा ने घेर लिया,रात्रि का तीसरा पहर बीत चुका था,
मनोज्ञा का मन भी खिन्न था उसने जैसा व्यवहार शंकर के संग किया था उस बात के लिए,उसका हृदय भी ये करके प्रसन्न ना था,उसने कुछ क्षणों तक कुछ सोचा और अन्ततः अपने शरीर को एक ऊष्ण वस्त्र से ढ़ँककर,हाथ में एक दीपक लेकर अपने कक्ष से बाहर आई एवं दीपक के प्रकाश में लाभशंकर को खोजने लगी,अत्यधिक खोजने के उपरांत उसे लाभशंकर दिखा जो कि वृक्ष के तले शीत से सिकुड़ा हुआ लेटा था,उसे इस स्थिति में देखकर मनोज्ञा को उस पर दया आ गई और उसने अपने ऊपर डला हुआ ऊष्ण वस्त्र लाभशंकर के शरीर पर डाल दिया एवं स्वयं वहाँ से पुनः अपने कक्ष की ओर चली आई,कुछ समय अपने बिछौने पर लेटकर कुछ सोचती रही अन्ततः उसे निंद्रा ने घेर लिया....
प्रात:काल हो चुकी थी, सूर्य की हल्की हल्की लालिमा धीरे धीरे चहुंँ ओर पसरने लगी थी, खगों ने भी अपने कोटर छोड़ दिए थे, एकाएक मनोज्ञा अपना कलश लेकर झरने की ओर निकली, उसके सुंदर केश खुले हुए थे, अपने कंधे पर उसने कुछ वस्त्र रखें हुए थे कदाचित वो स्नान करने जा रही थी,
लाभशंकर विचारमग्न सा मंदिर के समक्ष चिंतित अवस्था में विचरण कर रहा था, उसने मनोज्ञा को देखा और देखता ही रह गया, उसके खुले केश, पतली कमर, सुडौल बांँहे, उसका श्वेत वर्ण और चंचल-चितवन ने उसके मन को मोह लिया,आज उसने मनोज्ञा का ऐसा रूप पहली बार देखा था
मनोज्ञा झरने के समीप पहुंँची, उसने अपने कंधे से वस्त्र हटाए और टीले पर रख दिए, झरने के आस-पास का दृश्य बहुत ही मनमोहक था, झर-झर की ध्वनि करता हुआ झरने का जल, सूर्य के प्रकाश से और भी श्वेत प्रतीत होता था, सुंदर और रंग-बिरंगी तितलियां मंडरा रही थी, लताओं और बेलों पर सुंदर पुष्प शोभायमान थे, मनोज्ञा झरने में स्नान करने लगी, उसकी गीली काया, जल पड़ने से कौशेय दिख रही थी,
मनोज्ञा का स्नान पूर्ण हो गया तो उसने कलश में स्वच्छ जल भरा और झरनें से बाहर आ गई, भरे हुए कलश को भूमि पर रखकर जैसे ही उसने अपने सूखे वस्त्र उठाए, उसी समय लाभशंकर एकाएक मनोज्ञा के समक्ष उपस्थित होकर बोला.....
कल रात आपने मुझे अपना ऊष्ण वस्त्र क्यों ओढ़ाया?
मानवतावश,ये तो मेरा धर्म था,मनोज्ञा बोली।।
मानवतावश या प्रेमवश,लाभशंकर बोला।।
मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहती,मनोज्ञा बोली।।
आपको देना ही होगा मेरे प्रश्न का उत्तर,लाभशंकर क्रोधित होकर बोला।।
मनोज्ञा को भी क्रोध आ गया और उसने लाभशंकर के गाल पर एक थप्पड़ लगाते हुए कहा...
ये है मेरा उत्तर....
इतना कहकर वो आगे बढ़ गई और लाभशंकर उसे जाते हुए देखता रहा...

क्रमशः....
सरोज वर्मा.....