साँझ हो चुकी थी,अँधेरा गहराने लगा था,झोपड़ी के भीतर शम्भू की पत्नी माया अपने पुत्र लाभशंकर की प्रतीक्षा कर रही थीं,उसने शम्भू से लाभशंकर के विषय में पूछते हुए कहा....
ए..जी!शंकर तुमसे भी कुछ कह कर नहीं गया कि कहाँ जा रहा है?
मुझसे तो कुछ भी नहीं बताकर गया,इतनी क्यों विचलित हुई जाती हो पगली?अभी आ जाएगा?जाओ...बाहर जाकर उसके मामा देवव्रत से क्यों नहीं पूछती कि उसका लाड़ला भान्जा कहाँ गया है?शम्भू बोला।।
हाँ!उसे देवव्रत भ्राता ने ही बिगाड़ रखा है,मैं उन्हीं से जाकर पूछती हूँ,माया बोली।।
और माया झोपड़ी से बाहर आई तो उसने देखा कि देवव्रत उदास सा एक वृक्ष के तले बैठा कुछ सोच रहा है,माया ने उसे पहले भी कई बार यूँ उदास बैठे देखा है,वो देवव्रत से कई बार पूछ भी चुकी है कि उदासी का कारण क्या है?किन्तु देवव्रत कहता उसे स्वयं ज्ञात नहीं है कि वो क्यों उदास है?
माया देवव्रत के समीप जाकर बोली....
क्या हुआ भ्राता!क्या सोंच रहें हैं?
कुछ नहीं!माया बहन!यूँ ही बैठा था,कोई कार्य ही नहीं था करने को,ऊपर से लाभशंकर भी ना जाने कहाँ चला गया,उसी की प्रतीक्षा कर रहा हूँ कबसे?देवव्रत बोला....
अच्छा तो आपको भी नहीं ज्ञात कि शंकर कहाँ गया है?माया बोली।
ना !माया बहन!मुझसे कुछ कहकर ही नहीं गया,देवव्रत बोला।।
मैं क्या करूँ इस लड़के का ,इतना असजग है कि उसे किसी की चिन्ता ही नहीं,तनिक ये ही सोच लेता कि घर में बूढ़ी माँ उसकी प्रतीक्षा कर रही होगी,किन्तु नहीं ये सोच लेगा तो महान नहीं बन जाएगा,लौटने दो वापस ,ऐसा डाँटूगी कि जीवन भर याद रखेगा,माया क्रोधित होकर बोली।।।
माया बहन!आप इतनी क्रोधित ना हो,लौट ही रहा होगा,देवव्रत बोला।।
कैसे क्रोधित ना हूँ भ्राता? वो मेरी सन्तान है,उसका बुरा भला सोचने का अधिकार तो हैं ना मुझे,बड़े जतन से पालपोस कर बड़ा किया है उसे,ये सब तो आपने भी देखा है,तो मैं कैसें उसके प्रति इतनी असहज हो सकती हूँ,माया बोली।।
आप व्यर्थ ही चिन्तित हो रहीं हैं माया बहन! कुछ क्षण में ही आ जाएगा शंकर,देवव्रत बोला।।
आप कहते हैं तो ठीक है किन्तु उसे कहीं जाना था तो बताकर जाता ना!माया बोली।।
तभी दूर से ही देवव्रत को लाभशंकर आता हुआ दिखा तो वो माया से बोला....
बहन!लीजिए!आ गया आपका प्रिय पुत्र!अब जो भी पूछना है आप उसी से पूछिए,देवव्रत बोला।।
लाभशंकर को देखते ही माया प्रसन्न हो गई किन्तु दूसरे ही क्षण वो क्रोधित भी हो गई,जब लाभशंकर उसके समीप आया तो वो उससे बोली...
कहाँ गया था तू?मैं कब से तेरी राह देख रही हूँ,तुझे ज्ञात है कि मैं कितनी चिन्तित थी?माया बोली।।
माँ!आज तो मैं अत्यधिक बड़ी विपत्ति में फँस गया था,लाभशंकर बोला।।
मेरे लाल तुझे कुछ हुआ तो नहीं,कौन थी वो विपत्ति?माया ने पूछा।।
माँ!उसने अपना नाम ही नहीं बताया,लाभशंकर बोला।।
विपत्ति का नाम,ये क्या कह रहा है तू?माया बोली।।
हाँ!माँ!वो विपत्ति इतनी सुन्दर थी कि मैं उसे देखता ही रह गया,लाभशंकर बोला।।
ये प्रहेलिका सी क्यों बुझा रहा है?ठीक से बता कि क्या बात है?माया बोली।।
हाँ!माँ!वो एक युवती थी,जो अत्यधिक सुन्दर थी,किन्तु वो मुझे कुछ घमण्डी सी लगी,क्या पता उसे अपने रूप पर इतना गर्व हो कि वो किसी से वार्तालाप करना ही पसंद ना करती हो,लाभशंकर बोला।
उसे अपने रूप पर गर्व है तो रहा करें,मेरा पुत्र भी क्या किसी से कम है?मेरा पुत्र भी तो किसी राजकुमार की भाँति सुन्दर है,माया बोली।।
बहन!पहले उसकी बात का आशय तो समझें कि वो क्या कहना चाहता है?देवव्रत बोला।।
भ्राता!आप ही कहें कि ये क्या कहना चाहता है?माया बोली।।
उसके कहने का आशय ये है कि कदाचित उसे उस अपरिचित युवती से प्रेम हो गया है,अब हमारा लाभशंकर बड़ा हो गया है,देवव्रत बोला।।
ये सुनकर माया हँसी और बोली.....
अच्छा!मैं अब समझी...
बेचारा!इतनी देर से वो यही कहने का प्रयास तो कर रहा है,देवव्रत बोला।।
हाँ!माँ!वो इतनी सुन्दर थी कि आप इसका अनुमान ही नहीं लगा सकतीं,वो किसी राजकुमारी की भाँति लग रही थी,लाभशंकर बोला।।
चल रहने दे अपनी राजकुमारी को,उसके विषय में वार्तालाप करने हेतु सम्पूर्ण रात्रि पड़ी है,मैं भोजन बनाने जा रही हूँ,आप सभी शीघ्र ही भोजन हेतु घर में आ जाएं,इतना कहकर माया घर के भीतर चली गई....
तब लाभशंकर देवव्रत से बोला....
देख रहे हैं ना मामा जी आप!माँ को मेरी चिन्ता ही नहीं है,वें केवल मेरी चिन्ता करने का अभिनय करतीं हैं,
ऐसा नहीं पुत्र!देवव्रत बोला।
तो उन्होंने उस युवती की बातों में कोई रूचि क्यों नहीं दिखाई?लाभशंकर बोला।।
अरे!सभी सासों की यही स्थिति है पुत्र!कदाचित होने वाली बहु के विषय में सोचकर भयभीत हो गईं होगीं तुम्हारी माता,तभी तो भोजन पकाने वाली बात पर ब्यस्तता दिखाकर चलीं गईं,देवव्रत बोला।।
देवव्रत की बात सुनकर लाभशंकर एवं देवव्रत उच्च स्वर में हँस दिए,तब देवव्रत बोला...
शंकर!मुझे तुम्हारे वार्तालाप में अत्यधिक रूचि है और उस युवती के विषय में जानने की उत्सुकता भी है,तुम्हारी माँ नहीं सुनती है तो ना सुने ,मैं तो हूँ ना तुम्हारी बातें सुनने के लिए...
चलिए तो आपसे सब कहूँगा,भोजन के उपरान्त,यहीं नदी किनारे बैठकर वार्तालाप करेगें,लाभशंकर बोला।।
ऐसे ही भोजन के उपरांत लाभशंकर एवं देवव्रत के मध्य अत्यधिक समय तक वार्तालाप हुआ,लाभशंकर ने अपने हृदय की सारी बातें देवव्रत से कह दीं,अर्द्धरात्रि ब्यतीत हो चुकी थी तो देवव्रत ने लाभशंकर से कहा...
पुत्र!अब तुम्हारे विश्राम करने का समय हो चुका है,
किन्तु आप भी तो विश्राम कीजिए,लाभशंकर बोला।।
मुझे अभी अपना कार्य समाप्त करने जाना है,देवव्रत बोला।।
कौन सा कार्य मामा जी?लाभशंकर ने पूछा।।
वही कार्य जो मैं रात्रि को जाग जागकर पूर्ण किया करता हूँ,देवव्रत बोला।।
वही मूर्तियांँ बनाने का कार्य,जिन मूर्तियों को आपने उस पास वाली कन्दरा में छुपाकर रखा है,लाभशंकर बोला।।
हाँ!ना जाने क्यों मन एवं मस्तिष्क से विवश होकर मैं वो मूर्तियांँ गढ़ने लगता हूँ , वें मूर्तियांँ केवल एक ही युवती की हैं एवं ना जाने कौन है वो स्त्री ,जो मेरे मन मस्तिष्क में इस प्रकार बसी है कि मैं केवल उसी को ही गढ़ पाता हूँ,ना जाने कौन है वो?मैं कबसे उसे खोज रहा हूँ,देवव्रत बोला।।
हो सकता हो कि आपकी प्रेयसी रही हो पिछले जन्म में,लाभशंकर बोला।
हा...हा...हा...हा....तुम भी परिहास कर रहे हो मुझसे,जीवन तो मुझसे उपहास कर ही बैठा है तभी तो मुझे पिछला सब कुछ बिसर गया है,देवव्रत बोला।।
क्या मैं आपकी उन मूर्तियों को देख सकता हूँ?लाभशंकर बोला।।
आज नहीं,और कभी देख लेना,देवव्रत बोला।।
आप कहते हैं तो ठीक है,मैं तो चला विश्राम करने,यदि आप का कार्य पूर्ण हो जाएं तो आप भी विश्राम करने आ जाइएगा,नहीं तो माँ ने देख लिया कि मामा भान्जे दोनों ही लुप्त हैं तो ईश्वर भी हमें उनके क्रोध से नहीं बचा सकते,लाभशंकर बोला।।
हाँ....हाँ....मुझे ज्ञात है,तुम चलो मैं कुछ समय पश्चात आता हूँ,देवव्रत बोला...
ठीक है किन्तु आ जाइएगा,सुबह तक प्रतीक्षा मत करवाइएगा और इतना कहकर लाभशंकर वहाँ से चला आया,वो अपने बिछौने पर विश्राम हेतु लेटकर उस सुन्दर युवती के विषय में सोचने लगा,सच में वो अत्यधिक सुन्दर थी,उसने ऐसी सुन्दरी आज तक अपने जीवन में नहीं देखी थी,सुन्दरी के विचारों में खोए हुए लाभशंकर को कब निंद्रा ने घेर लिया उसे ज्ञात ही नहीं हुआ.....
प्रातः खगों के कलरव से उसकी निंद्रा टूटी,उसने आँखें खोली तो उसके समक्ष उसकी माँ माया क्रोधित अवस्था में खड़ी थी,माया को देखते ही शंकर बिछौने से झट से उठ गया और माया से पूछा....
क्या हुआ माँ!आप इतनी क्रोध में क्यों लग रहीं है?
प्रिय पुत्र !तुम्हारे मामा जी कहाँ है?कदाचित वें रात्रि में वापस नहीं लौटें,इसलिए मैं क्रोध में हूँ,कल भान्जा लुप्त था और आज मामा लुप्त है,ये सब तुम दोनों के मध्य क्या चल रहा है,तनिक मुझे बताने की कृपा करोगे,माया क्रोधित होकर बोलीं।।
क्या कहती हो माँ?रात्रि मामा नहीं लौटें,किन्तु उन्होंने मुझसे तो कहा था कि वें शीघ्र ही लौटेगें,शंकर बोला।।
अभी बिछौने से उठो और उन्हें खोजकर लाओ,माया बोली।।
और अपनी माँ माया के आदेश पर शंकर अपने मामा देवव्रत को खोजते हुए उसी कन्दरा में जा पहुँचा,जहाँ देवव्रत अपनी कल्पनाओं को मूर्तियों के रूप में ढ़ालता था,शंकर ने देखा कि देवव्रत अभी कन्दरा के भीतर धरती पर सोया हुआ है एवं उस कन्दरा में चारों केवल मूर्तियांँ ही मूर्तियांँ रखी हैं जो केवल स्त्री की हैं किन्तु सभी के मुँख को ही देवव्रत ने ढ़क रखा है,केवल धड़ ही खुला है,शंकर को उत्सुकता हुई कि वो उन मूर्तियों का मुँख खोलकर देखें कि ये कौन हैं? किन्तु जैसे ही शंकर ने उन मूर्तियों का मुँख देखना चाहा तो देवव्रत जाग उठा और बोला.....
क्या हुआ शंकर?तुम अब तक घर नहीं गए?
देवव्रत की बात सुनकर लाभशंकर बोला.....
ओहो....मैं घर नहीं गया कि आप रात्रि भर घर नहीं पहुँचें,माँ आपकी प्रतीक्षा में हैं,आपको मुझे खोजने भेजा है,यदि आप घर ना पहुँचे तो मैं कुछ नहीं कर सकता,माँ चण्डी का रूप धारण करके आपकी प्रतीक्षा में बैठी है...
ओह....तो क्या माया बहन अत्यधिक क्रोधित है,देवव्रत ने पूछा।।
हाँ....आप पहुँचिए तो फिर देखिएगा वो आपके संग संग मुझ पर भी गरजेगी,शंकर बोला।।
परन्तु घर तो चलना ही होगा,देवव्रत बोला।।
तो चलिए इतना विचार क्यों कर रहे हैं?शंकर बोला।।
बस,तुम्हारी माँ के क्रोध से भय लगता है,देवव्रत बोला।।
कोई बात नहीं,चलिए दोनों मिलकर उनका क्रोध सह लेगें,शंकर बोला।।
और दोनों जब घर पहुँचे तो माया ने दोनों से अत्यधिक क्रोध जताया और बोली....
जाओ..दोनों स्नान करके भोजन करो और वन से कुछ लकड़ियाँ लेकर आओ,मैं कब तक ईधन लाती रहूँगीं,तुम लोगों के पास कोई कार्य नहीं होता इसलिए घर से लुप्त रहते हो,
जी!हम ये कार्य कर देगें,शंकर बोला।।
इसके उपरांत दोनों ने स्नान करके भोजन किया और चल पड़े वन की ओर ईधन लाने,शंकर ने देवव्रत से कहा....
मामा जी!हम उसी स्थान पर चलते हैं जहाँ कल मैनें उस युवती को देखा था,
ऐसा आवश्यक तो नहीं कि वो आज भी वहाँ आएं,देवव्रत बोला।।
वो आएगी....अवश्य आएगी....मेरा हृदय कहता है,शंकर बोला...
तो चलो,तनिक मैं भी तो देखूँ तुम जिस अप्सरा की बात कर रहे हो वो वैसी दिखती है या नहीं,देवव्रत बोला।।
आप उसे देखेगें ना तो आपकी आँखें चौंधिया जाएगीं,शंकर बोला....
ठीक है तो उसी दिशा की ओर चलते हैं,देवव्रत बोला....
दोनों चल पड़े उसी स्थान की ओर,मार्ग में देवव्रत बोला....
मैं तो थक गया हूँ,मैं इसी वृक्ष के तले बैठा हूँ तुम ही चले जाओ अपनी अप्सरा को देखने,मेरे तो वश की बात नहीं,
ठीक है तो आप यहीं विश्राम करें,यदि वो मुझे मिली तो मैं उसे आपके पास लेकर आऊँगा,इतना कहकर शंकर चला गया,देवव्रत वृक्ष के तले विश्राम कर रहा था तभी एकाएक उसके ऊपर फलों की वर्षा होने लगी,उसी वृक्ष के फल निरन्तर उस पर गिरे जा रहे थें,कुछ ही देर में जब फलों की वर्षा रूकी तो उसने देखा कि एक नवयुवती धनुष काँधे पर डाले उसकी ओर बढ़ी चली जा रही है,उसके संग बहुत से वन्यजीव हैं,ऐसा दृश्य देखकर देवव्रत भयभीत हो गया,उसे लगा कि कदाचित वो युवती उसके प्राण हरने वाली है....
किन्तु जब वो युवती देवव्रत के समीप आई और उससे बोली....
क्षमा करें काका!मेरे कारण आपको कष्ट हुआ,मुझे ज्ञात नहीं था कि आप इस वृक्ष के तले विश्राम कर रहे हैं,
कोई बात नहीं पुत्री!मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ,देवव्रत बोला।।
आप यहाँ किसी कारणवश आएं हैं,उस युवती ने पूछा।।
हाँ!मैं और मेरा भान्जा लकड़ियाँ लेने आएं थे,परन्तु मैं थक गया और उसके संग ना जा सका,देवव्रत बोला।।
कोई बात नहीं काका!आप विश्राम कीजिए,मैनें ये फल इन जीवों के लिए तोड़े थें,अपने बाणों द्वारा,बेचारे सभी भूखे थे,युवती बोली।।
ये तो उपकार वाली बात है,तुम बहुत दयालु हो,किन्तु तुम्हारा नाम क्या है पुत्री?देवव्रत ने पूछा।।
मेरा नाम मनोज्ञा है,मनोज्ञा बोली।।
पुत्री!तुम अत्यधिक सुशील और गुणवान हो,मुझे तुमसे मिलकर प्रसन्नता हुई,देवव्रत बोला...
मुझे भी प्रसन्नता हुई आपसे मिलकर ,मनोज्ञा बोली...
ऐसे ही दोनों के मध्य वार्तालाप चल ही रहा था कि तभी वहाँ लाभशंकर आ पहुँचा और वहाँ अपने स्वप्नों की राजकुमारी को देखकर प्रसन्न हो उठा....
क्रमशः....
सरोज वर्मा......