समय बीत रहा था और संग संग वसुन्धरा की प्रतीक्षा भी,उसे अभी भी विश्वास था कि कदाचित देवनारायण का हृदयपरिवर्तन हो जाएं और वो उसके पास लौट आएं,वसुन्धरा कभी अश्रु बहाती तो कभी विचलित हो उठती,ज्यों ज्यों उसके गर्भ में शिशु का आकार बड़ा हो रहा था त्यों त्यों उसकी चिन्ता बढ़ती जाती,वो कभी कभी अपने जीवन से निराश भी हो उठती थी,किन्तु जब शिशु उसके गर्भ में भाँती भाँति की गतियाँ करता तो वो प्रसन्नता से रो पड़ती,वो सोचती यदि इस समय देवनारायण उसके पास होता तो वो शिशु की गतिविधियों के विषय मेँ उससे चर्चा करती,वो भी कितना प्रसन्न होता मुझे प्रसन्न देखकर,वो ये सब सोचकर पीड़ा से कराह उठती क्योंकि ये तो केवल एक स्वप्न था,देवनारायण तो सदैव के लिए उसे छोड़कर जा चुका था,जीवन में वो सब कुछ कभी नहीं मिलता जो हम चाहते हैं,कभी कभी स्वयं को ऐसा कहकर समझाना पड़ता है कदाचित वो वस्तु या व्यक्ति हमारे योग्य नहीं था इसलिए हमें नहीं मिला ऐसा झूठा दिलासा देकर हम में पीड़ा सहने की क्षमता बढ़ जाती है ,ये जीवन से एक प्रकार का समझौता होता है,
और यही समझौता अब वसुन्धरा अपने जीवन के साथ कर चुकी थी,ऐसे ही सुख और दुख के भावों को लेकर वसुन्धरा ने कुछ माह पश्चात एक शिशु कन्या को जन्म दिया,कन्या के जन्म के पश्चात वसुन्धरा अचेत अवस्था में थीं तब उसकी बुआ चन्द्रावली ने अपने अग्रज वीरबहूटी के कहने पर वसुन्धरा के सचेत हो जाने पर उससे ये कहा कि उसने एक कन्या को जन्म दिया था किन्तु वो मृत थी,ये सुनकर वसुन्धरा बोली....
परन्तु!वो है कहाँ?
बेटी!मृत कन्या का तू क्या करती ?तुझे कष्ट ही होता उसे देखकर ,इसलिए हमने पहले ही उसे धरती के तले उसके यथास्थान पर पहुँचा दिया,वसुन्धरा की बुआ चन्द्रावली बोली।।
किन्तु!मुझे एक बार तो उसे देखने दिया होता,वसुन्धरा क्रोध से चीखी।।
तू उसे देखकर अश्रु बहाती,इससे तेरे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता,इसलिए मैनें उसे तुझसे दूर कर दिया,चन्द्रावली बोली।।
ये सुनकर वसुन्धरा गहरे शोंक में डूब गई,वो अब ना हँसती थी और ना ही किसी से बोलती थी,वो अब अपने राजमहल भी लौट आई थीं,किन्तु यहाँ आकर भी उसके मुँख पर हँसी का बसेरा नहीं हुआ था,वीरबहूटी ने अत्यधिक प्रयास किया कि उनकी पुत्री वसुन्धरा प्रसन्नचित हो जाएं किन्तु कोई परिणाम सामने ना आया,तब उन्होंने उसे आखेट हेतु वन ले जाने का विचार बनाया और वें अपने सैनिकों,दास-दासियों समेत वन को अपने पुत्री वसुन्धरा के साथ निकल पड़े....
वन में उन्हें अभी दो ही दिन बीते थे कि वहाँ पर चन्दनगढ़ के राजकुमार नीलेन्द्र भी आ पहुँचें एवं राजकुमारी वसुन्धरा को उदास देखकर उदासी का कारण पूछा....
तब वसुन्धरा ने उन्हें सबकुछ बता दिया,ये सुनकर राजकुमार नीलेन्द्र बोलें....
वसुन्धरा!एक बात कहूँ,
जी कहिए,वसुन्धरा बोली।।
जीवन में अल्पविराम तो लेना चाहिए किन्तु पूर्णविराम भूलकर भी नहीं लेना चाहिए,,नीलेन्द्र बोला।।
मैं आपका आशय नहीं समझी,वसुन्धरा बोली।।
मेरे कहने का तात्पर्य है कि अब आपको विवाह कर लेना चाहिए एवं अपने अतीत को बिसरा कर नए जीवन में प्रवेश करना चाहिए,कब तक आप अपने अतीत को लेकर अश्रु बहातीं रहेगीं,ये संसार अत्यधिक सुन्दर है तो आप उस संसार में रमने का प्रयास करें,जीवन बहुत बड़ा है इसे प्रसन्नतापूर्वक जिएंगी तो जीवन सारहीन नहीं लगेगा,राजकुमार नीलेन्द्र बोला।।
मैं किसी भी व्यक्ति के संग विश्वासघात करके विवाह नहीं कर सकती और जिसे भी मेरी सच्चाई ज्ञात हो जाएंगी तो वो भला मुझ से विवाह क्यों करना चाहेगा,क्योंकि मैं तो अपवित्र हो चुकी हूँ,वसुन्धरा बोली।।
यदि मैँ आपसे आपके विषय में ज्ञात होने के पश्चात भी विवाह करना चाहूंँ तो क्या आप मुझे इसकी अनुमति देगीं,राजकुमार नीलेन्द्र बोलें।।
आप क्यों मुझसे विवाह करना चाहते हैं?मैं आपके योग्य नहीं हूँ,वसुन्धरा बोली।।
मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता कि आप मेरे योग्य नहीं है,भूल सबसे हो जातीं है लेकिन उसका पश्चाताप भी तो किया जा सकता है,नीलेन्द्र बोला।।
मेरी भूल क्षमा के योग्य नहीं है ,वसुन्धरा बोली।।
परन्तु आप तो मेरे योग्य हैं,मेरे लिए यही अत्यधिक है,नीलेन्द्र बोला।।
मुझे तनिक समय दीजिए,वसुन्धरा बोली।।
इसके पश्चात वसुन्धरा ने नीलेन्द्र से विवाह हेतु अत्यधिक सोच-विचार किया,अन्ततः वो इस विवाह हेतु सहमत हो गई,इससे राजा वीरबहूटी अत्यधिक प्रसन्न हुए एवं कुछ दिनों के भीतर ही यह विवाह सम्पन्न भी हो गया,वसुन्धरा नीलेन्द्र के संग विवाह करके चन्दनगढ़ उसकी रानी बनकर आ गई...
वीरबहूटी इस विवाह से अत्यधिक प्रसन्न थे,विवाह के कुछ समय पश्चात वसुन्धरा अपने पति नीलेन्द्र के संग वापस अपने पिता वीरबहूटी से मिलने पहुँची,वीरबहूटी ने अपनी पुत्री और उसके पति के स्वागत हेतु विशिष्ट प्रबन्ध किए थे,वसुन्धरा अत्यधिक प्रसन्न थी नीलेन्द्र का संग पाकर,उसे देवनारायण का लालच और कायरता का जब भी स्मरण आता तो उसका मन उसके प्रति घृणा से भर जाता,किन्तु जब वो नीलेन्द्र की ओर देखती तो उसका मन उसके प्रति प्रेम एवं कृतज्ञता से भर जाता,उसकी दृष्टि में नीलेन्द्र एक महापुरुष था.....
तभी एक रात्रि वीरबहूटी के कक्ष मेँ.....
महाराज!मैनें आपके आदेश पर आपकी पुत्री से विवाह तो कर लिया,अब आप शीघ्र ही अपना समस्त राजपाठ मुझे सौंपकर वन को प्रस्थान कीजिए,नीलेन्द्र बोला।
किन्तु!मुझे कुछ और समय दीजिए,राजकुमार नीलेन्द्र!वीरबहूटी बोलें।।
किन्तु मेरे पास और अधिक समय नहीं है,नीलेन्द्र बोला।।
ये तो आप मुझ पर दबाव डाल रहें हैं,ये उचित नहीं है,वीरबहूटी बोलें...
और जो आपने किया,क्या वो उचित था,यदि मैनें आपकी पुत्री को आपकी सारी सच्चाई बता दी तो उसकी दृष्टि में आपका स्थान गिर जाएगा,नीलेन्द्र बोला।।
आप ऐसा कुछ भी नहीं करेगें,वीरबहुटी बोलें।।
तो शीघ्र ही मुझे इस राज्य का उत्तराधिकारी बना दीजिए,नीलेन्द्र बोला।।
जी!मैं शीघ्र ही इस कार्य को सम्पन्न करता हूँ, आप इस समय निश्चिन्त होकर अपने कक्ष में जाएं,वसुन्धरा आपकी प्रतीक्षा करती होगी,वीरबहूटी बोलें।।
और नीलेन्द्र अपने कक्ष में वापस लौट गया,इधर वीरबहूटी चिन्तामग्न होकर अपने कक्ष में टहल रहे थें तभी उनकी बहन चन्द्रावली ने उनके कक्ष में प्रवेश किया,चन्द्रावली को देखकर वीरबहूटी बोलें...
चन्द्रावली!तुम यहाँ क्यों आईं? किसी को संदेह हो गया तो।।
तब चन्द्रावली बोली....
भ्राता! संदेह तो मंदिर के पुजारी को हो गया था,जब उसने कन्या को राजसी वस्त्रों में लिपटा हुआ देखा,वो मुझसे पूछने लगा कि तुम ये किस की कन्या को मुझे सौंप रही हो,तब मैनें कहा कि ये तो मुझे मार्ग में झाड़ियों में मिली....
किन्तु उसे तब भी विश्वास ना होता था इसलिए मैनें उसे सारी सच्चाई बता दी कि ये राजकुमारी वसुन्धरा की अनचाही पुत्री है,किन्तु तुम इस विषय में किसी से कुछ मत कहना,मैनें उससे वचन लिया और वो मान भी गया,
ये उचित नहीं हुआ चन्द्रावली!भविष्य में कहीं ये सच्चाई वसुन्धरा के जीवन में भूकंप ना ला दें,वीरबहूटी बोलें।।
ऐसा कुछ नहीं होगा भ्राता!आप निश्चिन्त रहें एवं मैं अपना उपहार .....लेकर जाऊँगी,इतना बड़ा भेद जो छुपाया है मैनें,चन्द्रावली बोली।।
वीरबहूटी ने विवश होकर चन्द्रावली को सोने की मोहरें एवं बहुमूल्य आभूषण देते हुए कहा....
ये भेद कभी भी उजागर नहीं होना चाहिये,नहीं तो तुम जानती ही हो कि इसका परिणाम क्या होगा?
जी!मुझे ज्ञात है,चन्द्रावली बोली।
एवं ये भी याद रहें कि भविष्य में तुम मुझसे मिलने का प्रयास भी नहीं करोगी,वीरबहूटी बोलें।।
भ्राता!जब धन समाप्त हो जाएगा तो विवश होकर याद करना ही पड़ेगा,चन्द्रावली बोली।।
मैं धन तुम्हें पहुँचा दिया करूँगा परन्तु तुम्हें यहाँ आने की आवश्यकता नहीं,वीरबहूटी बोलें।।
जी! ये तो बहुत ही अच्छा होगा और इतना कहकर चन्द्रावली वहाँ से चली गई,इधर वीरबहूटी चिन्तित थे क्योंकि वें अपने ही बुने हुए जाल में बुरी तरह फँस चुके थें?
और उधर कुछ मछुआरों को मछलियाँ पकड़ते हुए एक व्यक्ति मिला था,जिसे एक मछुआरा शम्भू अपने संग अपनी झोपड़ी में ले गया,उसने उसका उपचार करवाया,सचेत होने पर शम्भू ने उस व्यक्ति से पूछा....
आप कौन हैं महाशय?एवं कहाँ से आएं हैं?
ये सुनकर वो व्यक्ति बोला....
जी!मुझे कुछ भी याद नहीं,वो देवनारायण था एवं जीवित था एवं वो अपना अतीत भूल चुका था,कदाचित उसके मस्तिष्क में गहरी चोट लगी थी।।
कोई बात नहीं,आप मेरे साथ मेरी झोपड़ी में रहिए,शम्भू के संग उसकी झोपड़ी में उसकी पत्नी माया और उसका पुत्र लाभशंकर रहतें थें,समस्त परिवार ने शीघ्र ही देवनारायण को अपने परिवार का सदस्य मान लिया ,वो अब उन सभी के संग रहने लगा,चूँकि देवनारायण को अपना नाम याद नहीं था इसलिए शम्भू उसे देवव्रत कहकर पुकारने लगा,
समय इसी प्रकार ब्यतीत हो रहा था ,वसुन्धरा के विवाह को चार माह बीत चुके थे किन्तु नीलेन्द्र को अभी भी वीरबहूटी ने अपने राज्य का उत्तराधिकारी नहीं बनाया था,इसलिए वो इस बात से क्रोधित था और एक दिन वो पुनःवीरबहूटी के कक्ष में पहुँचा और उनसे बोला....
महाराज!मैं अब और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकता।।
तो मत करों,वीरबहूटी बोलें।।
ये आप क्या कहते हैं?नीलेन्द्र बोला।।
वही जो मैं कहना चाहता था,वीरबहूटी बोलें।।
आप अपने वचन से मुँख मोड़ रहे हैं,आपको अपनी पुत्री की तनिक चिन्ता है या नहीं,उसके गर्भ में मेरी सन्तान पल रहीं है और आप मुझसे ऐसी बातें कर रहे हैं,नीलेन्द्र बोला।।
इसी समय की तो मैं प्रतीक्षा कर रहा था,वीरबहूटी बोलें।।
मैं कुछ समझा नहीं,नीलेन्द्र बोला।।
अब मेरे राज्य का उत्तराधिकारी आने वाला है,मुझे अब तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं,वीरबहूटी बोलें।।
गर्भ में पल रही सन्तान पुत्री हुई तो,नीलेन्द्र बोला।।
तो भी कोई बात नहीं,वीरबहूटी बोलें।।
तो क्या अब मैं आपके राज्य का उत्तराधिकारी नहीं बनूँगा,नीलेन्द्र ने पूछा।।
कदापि नहीं!वीरबहूटी बोलें।।
तो मैं अब आपको क्षमा नहीं करूँगा ,आपने मुझे झूठा आश्वासन देकर अपनी पुत्री से विवाह हेतु सहमत किया और इतना कहकर नीलेन्द्र ने अपनी तलवार निकाल ली।।
क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....