दोनों बच्चे और उनके अब्बू तबस्सुम को ख़यालों की उड़ान से वापस धरातल पर नहीं लाना चाहते थे इसलिए वो चुपचाप उनकी बातें सुन रहे थे वो बिना रुके बोले जा रही थीं - "मैं और फूफी खूब बातें करेंगे उससे पाकिस्तान की अपने इस्लामाबाद की। भाई नए जमाने की लड़की है सब जानती होगी इस्लामाबाद के बारे में.... कितना बदल गया होगा इस्लामाबाद शफीक मियां की रबड़ी की दुकान के कारण सब हमारी गली को रबड़ी वाली गली कहते थे और गुट्टन चाचा की चाट और पानी पताशे। अहा! कितना मज़़ा आता था। पता नही अब गुट्टन चाचा है भी कि नहीं.......! "
Bअम्मी को लगातार बोलते देख किसी का मन उन्हें चुप करवाने का नहीं हुआ वो लोग उन्हें उनकी यादों से बाहर नहीं लाना चाहती थी। उसकी हिम्मत नहीं हुई माँ का ख्वाब तोड़ने की ।
" शब्बों बड़ी खुश होगी वहाँ जाकर!" वो शबनम की तरह देखते हुए कहती है -" शब्ब्बो तुझे पता है यहाँ की तरह जब वहाँ भी देशभक्ति के नग़में बजते हैं तो लोग झूमने लगते हैं। हर मदरसे, हर स्कूल में, हमारी किताबें, हमारे वतन के किस्सें सुनाती हैं। हमारी इमारतें हमारे इतिहास के नग़में गाती है। आने दो सभी को खूब बातें करूंगी सबसे!" .....
खानसाहब भी नहीं चाहते थे तब्बस्सुम के सपनों को तोड़ना… पर वो नहीं चाहते थे उस देश से बेटी का रिश्ता जोड़ना। वो अपने जिगर के टुकड़े को हर हाल में अपने आस-पास देखना चाहते थे इसीलिए वो उन्होंने बेटी के सुखद भविष्य को ध्यान में रखते हुए तबस्सुम की बातों का जवाब देते हुए थोड़े भावुक होकर बोले -
" बत्तीस साल हुए मुझे आपको इसतरह देखते हुए, बहुत खुशी होती है कि बहुत प्यार करती हैं अपने वतन से । इतने सालों में शायद एक पल भी आप अपने मुल्क को भुला नहीं पाईं।"
खानसाहब की बात सुनकर तबस्सुम मुस्कुराकर बोली -
" जी बिल्कुल अपने वतन, अपने घर को भी भला कोई भूल सकता है...! "
ये सुनकर खानसाहब बोले -
"एक बात कहें आपसे…! "
"हाँ.. हाँ कहिए। "
" आप तो बात कर लेंगी अपनी फूफी से, अपनी भतीजी से। पर....... पर हमारी शबनम परदेस में किसे सुनाएगी अपने वतन के किस्से आप ही बताइए किस कोने में बैठकर सुनेगी ये अपने देशभक्ति के नगमे, किस किताब में लिखे होंगे इसके देश और देश-प्रेम के किस्से।
बेगम आपके दिल में आज भी अपने वतन की यादें, बातें, हर किस्से महफूज है तो आप ही बताइए क्या शबनम भूल पाएगी अपनी माटी की महक ?
जिस मुल्क में हमारे मुल्क का नाम लेना ही गुनाह समझा जाता है वहाँ कौन इज्ज़त करेगा हमारी बेटी की भावनाओं की । क्या शब्ब्बो हर महीने, हर साल आ सकेगी हमारे पास हमसे मिलने ?’’
अचानक खानसाहब के बदले हुए सुर देखकर तब्बस्सुम आवाक़ रह गई , पर उनकी बातें तबस्सुम के दिल को लग जाती है। उनके मुँह पर उदासी का भाव दिखने लगता है।
खानसाहब फिर कहते है- ‘‘परिंदों की तरह उड़ने वाली अपनी बेटी के पर कैसे बांधू बेग़म, कैसे छीन लूं अपने गुलाब से इसकी माटी महक ! कैसे उखाड़ फैंकूं इसे इसकी जड़ों से, मुरझा जाएगा ये गुलाब अपनी जड़ों से अलग होकर.....! "
क्रमशः...
सुनीता बिश्नोलिया