Sehra me mai aur tu - 20 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | सेहरा में मैं और तू - 20

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सेहरा में मैं और तू - 20

( 20 )
एकांत में बने उस शानदार बंगले में प्रवेश करते ही श्रीकांत, कबीर और रोहन की तबीयत जैसे बाग- बाग हो गई। इस सज्जित आवास में केवल कुछ गिने- चुने कर्मचारी ही दिखाई दे रहे थे।
इसका चौरानवे वर्षीय मालिक पीछे की ओर बने अपने कक्ष में था। बाहर लॉन के इर्द- गिर्द कुछ बेहद खूबसूरत पंछियों और अद्भुत दुर्लभ प्रजातियों के जानवर अपने एक से एक आकर्षक पिंजरों में बंद थे। कुछ एक छोटे जीव हरे भरे बगीचे में भी टहल रहे थे।
किसी रोबोट की तरह कर्मचारियों का इधर- उधर आना जाना था। एक नीरव सन्नाटा चारों ओर पसरा था।
बाहरी कक्ष में आदरपूर्ण आवभगत के साथ एक युवक मेहमानों को मेजबान से मिलवाने के लिए लेने के लिए आया।
संकोच के साथ तीनों उठे और उस युवक के पीछे- पीछे यंत्रचालित पुतलों की तरह चल दिए।
दो लंबे गलियारे पार करके सामने एक छोटा सा लॉन था और उसके बीच से निकल कर ही सामने वो सुसज्जित कक्ष था जिसमें अत्यंत बुजुर्ग वो महाशय एक कोच में धंसे बैठे हुए थे जिन्हें वह कर्मचारी युवक प्रिंस सर कह कर संबोधित कर रहा था। तीनों ने अदब से सिर झुका कर महाशय प्रिंस सर का अभिवादन किया और उनके इशारे पर वे तीनों एक ओर रखे सोफे पर बैठने के लिए आगे बढ़े।
इससे पहले कि वो तीनों अपना स्थान ग्रहण करते महाशय प्रिंस सर ने बैठे - बैठे ही कुछ पीछे मुड़ कर उनके पीछे स्थित खिड़की का बड़ा सा पर्दा एक डोर के सहारे खींचा। मानो वो कमरे में कुछ नैसर्गिक बाहर का उजाला करना चाहते हों जहां अब शाम का हल्का धुंधलका हो जाने से अंधेरा सा हो गया था। रात के लगभग आठ बज जाने पर भी सूरज अभी पूरी तरह डूबा नहीं था। किंतु पीछे दिखाई देते ठाठें मारते हुए सागर में उसने जाने के लिए छलांग ज़रूर लगा दी थी।
इसी के साथ कमरे में एक चमकदार प्रकाश हुआ और तीनों ही एकसाथ हतप्रभ रह गए। वे अपने स्थान से उठ कर खड़े हो गए।
महाशय प्रिंस सर ने नाटकीय ढंग से जो पर्दा अभी अभी लाइट जल जाने के बाद खींचा उसके पीछे एक आदमकद तैलचित्र जगमगा रहा था।
ये राजमाता साहिबा का वही चित्र था जिसकी छोटी प्रति कृति भारत में उन लोगों की अकादमी के परिसर में लगी हुई थी।
तीनों के जैसे रोंगटे खड़े हो गए। विस्मित होकर तीनों उठ कर उस चित्र को अवाक देखते रह गए जिस के सामने खड़े होकर रोहन और कबीर राजमाता को प्रणाम किया करते थे।
उनका विस्मय देख कर महाशय प्रिंस सर धीरे से मुस्कुराए और इस मुस्कान के साए में उन तीनों को ये समझते हुए पल भर की भी देर नहीं लगी कि सामने बैठे वयोवृद्ध सज्जन और कोई नहीं बल्कि उनकी अकादमी के वही आदि पुरुष हैं जिन्होंने अपनी संपत्ति - मिल्कियत दान देकर अपनी मां राजमाता की याद में उनकी अकादमी बनवाई है।
स्वयं इन प्रिंस सर की कहानी भी उन सभी की सुनी हुई थी कि किस तरह एक बार एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में विजेता रहने के बाद भी उन्हें जलील होना पड़ा था जब उनका पुरस्कार वापस ले लिया गया था।
उन्होंने कभी ये जलालत केवल इसलिए उठाई थी क्योंकि उनका अपने एक कोच से चला आ रहा आकर्षण समलैंगिक प्यार में बदल गया था। उनके इस आकर्षण को उस समय अपराध मान कर उनसे तमाम सम्मान वापस ले लिया गया था।
आज इतने वर्षों बाद समय ने जैसे अपने आप को फिर दोहराया था।
ख़ुद उन्हीं की स्थापित की गई अकादमी में एक युवा खिलाड़ी का अपने कोच के साथ प्रेम परवान चढ़ा था और उन दोनों ने अपनी ज़िंदगी साथ में गुजारने का निर्णय लिया था।
प्रिंस सर ने एक विशालकाय गुलदस्ता भेंट करके कबीर और श्रीकांत का स्वागत किया। साथ ही रोहन को भी उन्होंने एक बेहद बोल्ड फ़ैसला लेने के लिए अपना आशीर्वाद दिया।
तीनों को इस बात का भारी अचंभा हुआ कि प्रिंस सर को उन लोगों की सारी कहानी कैसे और कब मालूम हुई।
रात का खाना हुआ। प्रिंस सर ने शैंपेन की बोतल खोलकर श्रीकांत और कबीर की नई जिंदगी के लिए उन्हें शुभकामनाएं दीं।
अगले दिन सुबह ही उन्हें अपने देश वापस लौटना था। बेहद प्रफुल्लित मन और मीठी हैरानी के साथ तीनों देर रात वापस लौटे।
इस वीरान से बंगले के तमाम कर्मचारी उस समय चकित रह गए जब उन्होंने देखा कि मेहमानों ने जाते समय उनके मालिक के चरण स्पर्श किए और मालिक ने उन्हें आशीर्वाद दिया।