भाग 16
‘‘जॉय, यह गिलास में रखा ब्लैक रोज़ कहां से आया?’’
उसने देखा कि एक ब्लैक रोज़ (काला गुलाब) गिलास में लंबी डंडी के साथ रखा है और कुछ उसके साथ बारीक पत्तियोंवाली डंडिया। बांस की बनी छोटी-सी एक टोकरी में काले फल।
‘‘हां सर, पारो आई थी। यह जामुन हैं, जो अपने इर्द-गिर्द वाले पेड़ों से बटोर लाई है।’’
‘‘यू मीन ज़मीन से उठाकर?’’ रॉबर्ट ने पूछा।
‘‘यस सर, इन पेड़ों पर बिच्छू होते हैं। इसलिए इन पर चढ़कर कोई नहीं तोड़ता। लेकिन इन्हें लंबे बांस से हिलाया जाता है। जब फल नीचे गिरते हैं तो बटोर लेते हैं। इन पर नमक छिड़ककर खाते हैं।’’ जॉय ने कहा।
‘‘ठीक है। इन पर नमक छिड़को।’’
लेकिन जयकिशन ने सब पहले से ही करके रखा था। ‘‘खाएं सर।’’
रॉबर्ट ने एक जामुन उठाकर मुँह में डाला। उसे सचमुच अच्छा लगा।
‘‘यह मद्रास, बेंगलोर में तो नहीं था।’’
‘‘जी सर, वहाँ शायद नहीं मिलता।’’
रॉबर्ट जामुन खाता रहा। फिर पूछा-‘‘अरे यह ब्लैक रोज़, तुमने बताया नहीं जॉय कहां से आया?’’
‘‘पारो लाई थी सर। उसके बगीचे की बाड़ी में कई तरह के रोज़ लगे हैं। सर, ब्लैक रोज़ दुर्लभ (रेयर) हैं।’’
‘‘कल 9.30 पर हम लोग एलोरा की तरफ जाएंगे। वहाँ घूमेंगे। तुमको चलना है तो चलना। और कल पारो आए तो उसे रोक लेना। मैं उसका गाँव भी घूमना चाहता हूँ। हम लोग बात कर लेंगे कि वहाँ कब जाएं।’’ रॉबर्ट ने कहा।
अर्थात एलोरा की तरफ वह रॉबर्ट के साथ नहीं जा सकता। रॉबर्ट को वह जानता है। इनडायरेक्ट वे में ‘नो’ है। रॉबर्ट को मना करना होता है तो ऐसे ही वाक्यों का प्रयोग करता है।
जयकिशन ने स्वीकृति में सिर हिलाया और वहाँ से हट गया। उसके चूल्हे से मछली पकने की गंध आने लगी।
............
दूसरे दिन सुबह-सुबह ही वह घोड़े पर बैठकर बारादरी से औरंगाबाद की ओर निकला। कन्हैया सुबह ही आ गया था। बाकी कर्मचारी उस ओर जाती बैलगाड़ी पर बैठकर उसे वहाँ मिल गए, जहाँ मिलना तय हुआ था। कन्हैया भी किसी घोड़ा गाड़ी पर बैठकर मुफ्त में ही एलोरा की तरफ निकल गया। रॉबर्ट ने बहुत तेज़ घोड़ा दौड़ाया और लगभग चार घंटों में वह एलोरा पहुँच गया।
एलोरा की गुफाएं 30 मील औरंगाबाद शहर से दूरी पर हैं। और यह पहाड़ चारानानदरी (उँं१ंल्लंल्ल१्रि) कहलाते हैं। और इन्हीं पहाड़ियों की वादी में एलोरा की गुफाएं हैं। और यह 2.5 मील के दायरे में फैली हैं। यह हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्म को मानने वाले लोगों का पवित्र धार्मिक स्थल है। यह अब तक रॉककट टैम्पल में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
जैसा कि इस बारे में शोध द्वारा पता चला है, यह ईसा पूर्व 700 ई.से 900 ई.की शताब्दी में बनाई गई थी। और इतिहासकारों के अनुसार इन गुफाओं का निर्माण इलापुरा नाम से हुआ तो इसका नाम एलोरा पड़ गया, जो कि राष्ट्रकुट वंश की राजधानी का केन्द्र था। कहा जाता है कि ये लोग अजंता गुफाओं के कलाकारों, भित्तिकारों के वंशज थे। ईसा के पूर्व यह क्षेत्र वाकाटक के शासन में ही था। अजंता की तरह ही एलोरा पत्थरों को काट कर बनायी गई है। यहाँ बौद्ध धर्म से शुरू होकर जैन धर्म तक के चित्रों से अद्भुत गाथाएं कहीं गई हैं।
अजंता की जितनी केव्ज़ उसने अभी तक विस्तार से देखी हैं, पत्थरों पर खुदाई, चित्रों को उकेरा जाना, उनमें रंगों का संयोजन, लगभग एलोरा जैसा ही है। यहाँ की शिल्पकला में अलग-अलग थीम हैं, जो अजंता से थोड़ा इसे अलग रूप प्रदान करती है। यहाँ पर तीन मंजिला केव्ज़ भी हैं।
रॉबर्ट को लौटना था। कर्मचारियों के चेहरे पर भय था क्योंकि अंधेरा होने पर वहाँ तक जाने के लिए कोई बैल गाड़ी भी नहीं मिलेगी और रास्ता भी पेड़, कंटीली झाड़ियों से भरा हुआ था। जंगली जानवर तो कभी भी आ सकते थे। उन लोगों के पास मोटे-मोटे डंडे ही थे, जो वे लोग सुरक्षा की दृष्टि से साथ रखते थे।
दूर से बैलगाड़ी आती दिखाई दी, जिसकी लालटेन की रोशनी अस्त होती सूर्य की रोशनी में अपनी टिमटिमाहट को जीवित रखे हुई थी।
कन्हैया समेत सभी कर्मचारियों ने रॉबर्ट से आज्ञा माँगी और बैलगाड़ी रुकवा कर उस पर चढ़ गए। रॉबर्ट ने कुछ सिक्के बैलगाड़ी वाले को देने के लिए कन्हैया के हाथ में रखे। वे सभी सिक्कों को देखकर अपार खुशी से भर उठे।
’’’
रॉबर्ट लौटा तो बाहर जयकिशन को इंतज़ार करते पाया। तभी दौड़ता हुआ मेहमूद आ गया। वह झुककर रॉबर्ट को गुडइवनिंग करने लगा। जयकिशन ने रॉबर्ट के हाथ से घोड़े की रस्सी ले ली और उसे अस्तबल की ओर ले जाने लगा। रॉबर्ट ने पूछा भी नहीं लेकिन मेहमूद उसके पीछे-पीछे कमरे में आ गया। उसने रॉबर्ट का कोट उतारा और उसे यथास्थान टाँग दिया। बैठकर जूते उतारने लगा। ‘‘सर, मैं सुबह ही आया। उधर हैदराबाद में बच्चा पैदा हुआ। थोड़ा रुकना पड़ा।’’
‘‘कितने नंबर का बच्चा है।’’ रॉबर्ट ने पूछा।
‘‘सर नौवां।’’
तुम वहाँ कब जाते हो जो बच्चे पर बच्चे पैदा होते जाते हैं।’’
पांवों में चप्पल डालकर रॉबर्ट फ्रेश होने चला गया। मेहमूद हंसने लगा। सोचा-‘‘साहब भी...।’’
’’’
रात को खाना खाते समय रॉबर्ट ने प्रश्नसूचक नज़रों से जयकिशन की ओर देखा।
‘‘नहीं। सर आज पारो नहीं आई।’’
रॉबर्ट ने उत्तर नहीं दिया। चुपचाप खाता रहा।
सुबह फिर अजंता की ओर... आज मेहमूद ने घोड़े फैन्टम को नहलाया था। कन्हैया वहीं खड़ा था।
हॉर्स शू वैली के पास फिर सभी मिले।
वे लोग घाटी में उतरने लगे। आज हवा में ज्Þयादा ठंडक थी। रॉबर्ट अन्य कर्मचारियों के साथ केव नं. 10 के सामने खड़ा था। यह चालीस स्तंभों वाला मंदिर है। उसने ट्राउजर के पॉकेट से वह पेपर निकाल लिया। पढ़ा-दसवीं गुफा हिनायना मंदिर कहा जाता है। स्तंभ बहुत सुंदर, तराशे गए हैं।’’ अन्य केव्ज़ के पिलर्स से अधिक सुंदर यहाँ के पिलर्स हैं।’’ रॉबर्ट ने सोचा। यहाँ पर एक स्तूप दिखाई दे रहा है। राइटअप के अनुसार स्तूप पर पाली भाषा की ब्रह्म लिपि में कुछ लिखा गया है। अनुमान के अनुसार यह केव टू सेंचुरी बिफोर क्राइस्ट की है। आगे जिसने भी यह भाषा पढ़ी होगी उनके अनुसार इसमें अंकित है कि बांस और ईमारती लकड़ी बेचने वाले व्यापारी ने इसका प्रवेशद्वार स्तंभों सहित बनवाया था। पूरी केव व्यापारी ने नहीं बनवाई थी।
रॉबर्ट के दिमाग में चित्र की रूपरेखा बन चुकी थी। शीघ्र ही वह सारी केव्ज़ देख लेना चाहता था ताकि चित्रों का काम शुरू किया जा सकें। ग्यारहवीं केव का सभाकक्ष बहुत बड़ा है। पत्थरों की बनी केव में बहुत ठंडक थी। अंदर गॉड बुद्ध की दीवाल पर आकृति खोदी गई थी।
केव बारह में पत्थरों के पलंग दिखाई देते हैं। तेरह, चौदह, पंद्रह में उसे कुछ खास दिखाई नहीं दिया।
हां, पंद्रह नंबर की केव में नीचे जाकर बुद्ध भगवान की पत्थर पर उकेरी गई मूर्ति है।
केव सोलह उसे बहुत महत्वपूर्ण लगी। उसने हाथ में पकड़े पेपर को पढ़ा। उल्लेख था कि इस गुफा में जो घटनाएं दर्शाई गई हैं इसमें लेफ्ट हैंड साइड बुद्ध के कज़िन ब्रदर (चचेरे भाई) नंद भी हैं जो अपना राजसी जीवन छोड़कर भिक्षु (संन्यासी) बन गए। वहीं पर एक दृश्य है जिसमें नन्द की माता शायद उनके भिक्षु होने के निर्णय से बेहोश पड़ी हैं। और एक नर्स उनकी देखभाल कर रही है। राइटअप के अनुसार और रॉबर्ट देखकर भी अचंभित है कि 7वीं आठवीं शताब्दी में बने इन बौद्ध स्थलों में नर्स की ड्रेस वैसी ही है जैसी 18वीं शती के अंत में भी दिखाई देती है। भीतर पूजास्थल है, जिनमें बुद्ध की विशाल आकृति है। कथकली नृत्य करते हुए नृत्यांगनाएं हैं और नर्तक भी हैं। छत पर भी जैसे किसी ने बहुत मनोयोग और धैर्य से चित्र बनाए हैं। मानो जैसे कोई कैनवस पर बनाता है। हाथी, घोड़ा, मगरमच्छ के चित्र हैं।
अब आगे का चित्र गॉडेस बुद्ध की मदर (माता) का है। इस चित्र में वे अपने पति को कोई सपना सुना रही हैं। और सामने बैठा एस्ट्रॉलॉजर (ज्योतिषी) उस सपने का मीनिंग (मतलब) बता रहा है।
रॉबर्ट को आश्चर्य हुआ ऐसा काम जो पत्थर पर हुआ है वह लकड़ी पर किया जाता है इतना बारीक, सुंदर कटाव नक्काशीदार। यहाँ पर संभवत: बुद्ध के बचपन के यह चित्र खुदे हैं, जो अलग ही अपना आकर्षण रखते हैं।
रॉबर्ट अब बारादरी में लौटना चाहता है। उसने अपने दिमाग में यह बात तय कर ली है कि इस केव का वह भव्य चित्र बनाएगा। यह केव उसे बहुत सुंदर और अर्थपूर्ण लगी।
वह चुप था। इस देश को अन्य देशों के लोग जितना अशिक्षित समझते हैं वैसा यह नहीं है। ये लोग अपनी संस्कृति को हमेशा जीवित रखना चाहते हैं। दफन हो चुकी संस्कृति भी इनके यहाँ जीवित है। यहाँ के रॉककट टेम्पल पूरे वर्ल्ड में फेमस हैं। आज गॉडेज बुद्ध को हर शिक्षित-अशिक्षित व्यक्ति जानता है इन्हीं धरोहरों के कारण...। और एलोरा केव्ज़। वहाँ का भी वह बारीकी से अध्ययन करेगा। फ्लावरड्यू और टैरेन्स को बताएगा कि वहाँ के टैम्पल में क्या है।
17 नं. की केव के समक्ष रॉबर्ट खड़ा था। पिछली केव की तरह इस केव में भी गॉडेज़ बुद्ध के जीवन की कई घटनाएँ और कथाओं के द्वारा चित्र उकेरे गए हैं। इन्हें जातक कथाएँ कहते हैं। सभी कक्ष सुंदर हैं और पूजा स्थल में गॉडेज़ बुद्ध की आकृति है। एक ओर बुद्ध के पिछले जन्म का दृश्य है। यह सारी जानकारी उसके पास राइटअप में है। पिछले जन्म के दृश्य में एक हाथी है और उसकी कई सारी सूंड दर्शायी गई हैं। पेड़ की आकृति में चीटियाँ पेड़ पर चढ़ी हुई हैं। कुछ पंक्तिबद्ध पेड़ पर चढ़ रही हैं। इस जातक कथा में बुद्ध बंदर के जन्म में हैं। अन्यत्र जो चित्र है वह एक दयालु राजकुमार का है। यह एक भावुक चित्र है, जिसमें वह परिवार से मिल रहे हैं। वह समय होता है कि वे सांसारिक भौतिक संसार की वस्तुओं को छोड़ चुके हैं। और भी अधिक भावुक चित्र है कि वे अपनी पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल से भीख माँगते हुए दिखाए गए हैं। स्वयं बुद्ध एक विशाल शरीर धारण धारण किए हुए हैं। राजा और उनके मंत्री बरहादेव अपने हाथों में बुद्ध के सामने दीपक लिए खड़े हैं जिसका अर्थ यह प्रतीत होता है कि वे संसार को बुद्ध के विचारों से प्रकाशवान करेंगे।
रॉबर्ट ने जब छत की ओर निगाह डाली तो वह आश्चर्यचकित रह गया और इस छत की सुंदरता में ही खो गया। उसे लगा यह कोई बड़ा कपड़ा है जिसमें चारों ओर किनारा लगा है और उसमें परियों की कथाएं चित्रित की गई हैं। इस गुफा के बरामदे में भी चित्र हैं। इन चित्रों में जीवन की अनेकता के दर्शन होते हैं। एक चित्र हाथी का और है जिसे कथा के अनुसार देवदत्त गॉडेज बुद्ध को मारने के लिए लाया था। लेकिन गॉड बुद्ध ने उस हाथी को भी वश में कर लिया है ऐसा दिखाई पड़ता है। वहीं एक खूबसूरत अप्सरा का चित्र भी है।
इस सत्रह नंबर की गुफा ने भी रॉबर्ट का मन मोह लिया। कैसी-कैसी कथाएं हैं भारतीय संस्कृति की। सत्य कथाएं, कैसे सारे सुख छोड़कर ये लोग जंगलों में चले जाते थे और ईश्वर में लीन हो जाते थे।
’’’
फ्लावरड्यू का कहना है कि बच्चे यहाँ के मौसम में स्वस्थ नहीं रह पाते। तब रॉबर्ट हंसने लगता था कि बच्चे तो यहीं पैदा हुए हैं फिर यहाँ के मौसम में... उन लोगों ने ब्रिटेन का मौसम ही कब देखा है। तब फ्लावरड्यू चिढ़ जाती थीं। लेकिन घुमाफिराकर वह दो-चार दिन में यह बात कह ही देती थी जिससे शायद रॉबर्ट मान जाए और हम लोग वापिस चले जाए।
रॉबर्ट ने कन्हैया से कहा-‘‘कनाई, अब हम लोग कल आएंगे। अभी लौटते हैं।’’
कन्हैया घाटी में नीचे घोड़ा लेने दौड़ा। तब तक रॉबर्ट पत्थर की पगडंडी पर चलने लगा। सच ही तो है परिवार ने कब साथ दिया। फ्लावरड्यू यहाँ होती और बच्चे होते तो शायद वह इन केव्ज़ को देखने यहाँ तक आते। बच्चों को काले जामुन कितने पसंद आते।
ऊपर जहाँ पर सड़क का निर्माण होना था वहाँ जाकर रॉबर्ट रुक गया। कन्हैया घोड़े की रस्सी पकड़े दौड़ता हुआ आता दिखा। रॉबर्ट के नज़दीक आकर वह रुक गया। वह इतना हांफ रहा था उसके मुँह से कोई बोल नहीं निकला। अंग्रेज साहब है। कब क्या सजा मिल जाए पता नहीं। घोड़े के गले में बंधे मशक से रॉबर्ट ने पानी पिया।
उसने घोड़े पर बैठकर कन्हैया से कहा तुम लोग गाँव की तरफ मिलो, मैं वहीं जा रहा हूँ।
घोड़ा हवा से बातें कर रहा था। कन्हैया अपने सभी साथियों के साथ अजंता ग्राम की ओर चल दिया।
धूप थी लेकिन शरीर में चुभने वाली नहीं। वैसे भी इस ओर बड़े-बड़े दरख्त और घना जंगल था।
बहुत आगे जाकर रॉबर्ट ने देखा कि एक लड़की कीकर झाड़ियों में जिसमें कांटे ही कांटे हैं, अपनी साड़ी के आंचल को जो कांटों में फंसी है निकाल रही है। उसने नज़दीक जाकर घोड़ा रोक दिया। अरे, यह तो पारो है।
दोनों ने एक दूसरे को देखा। रॉबर्ट घोड़े से उतर पड़ा। उसने कांटों में फंसे पारो के आंचल को छुड़ाया और हाथ पकड़कर बाहर निकाला।
‘‘तुम यहाँ क्या कर रही हो पारो?’’ रॉबर्ट ने पूछा।
‘‘साब, मैं अपने बाबा के लिए निर्गुन्डी के पत्ते लेने आई हूँ।’’
‘‘इससे क्या होगा, बाबा इन लिव्ज़ का क्या करेगा?’’ रॉबर्ट ने फिर पूछा।
‘‘यह निर्गुन्डी का पेड़ है साब, यह आयुर्वेदिक औषधि है। इसे मिट्टी के तवे पर गरम करते हैं। इनकी पत्तियों को फिर जहाँ दर्द होता है, घुटना, कोहनी, हाथ, पैर, कमर, पिंडली, पीठ वहाँ इसे गरम-गरम बांध लेते हैं, रातभर... धीरे-धीरे दर्द दूर हो जाता है।’’
उसका आंचल कांटों से छूट चुका था। वह पेड़ पर से पत्तों को उचक-उचक कर तोड़ रही थी। रॉबर्ट को बहुत मजा आया। वह भी थोड़ा-सा कूदता और पेड़ की एक डाल को नीचे झुका लेता और फिर पारो उसमें से पत्तियां तोड़ लेती। पारो का लाया थैला पत्तियों से पूरा भर चुका था।
‘‘बस साब, मैं घर जाऊंगी। यह बहुत हैं पत्तियां। कई दिन चलेंगी।’’ पारो ने कहा।
वह कूदकर घोड़े पर बैठ गया। उसने चाहा कि पारो भी घोड़े पर बैठ जाए लेकिन वह मना करेगी रॉबर्ट जानता था। वह धीमे-धीमे घोड़े पर चलता रहा। पारो ने मुस्कुराकर रॉबर्ट को देखा और काफी आगे निकल गई। पीछे कन्हैया और उसके साथी नज़दीक आ गए थे।
पारो के लिए ही तो उसे अजंता विलेज जाना था। अब जब वह यहीं मिल गई तो उसने गाँव जाना स्थगित कर दिया और तेज़ गति से घोड़ा दौड़ाता हुआ बारादरी पहुँच गया।
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क्या अजंता केव्ज़ देखने पारो चलेगी? उसने सोचा।
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केव नं. अट्ठारह के सामने रॉबर्ट खड़ा था। आज कन्हैया और मेहमूद साथ आए थे। बाकी चारों कर्मचारी छुट्टी पर थे।
यह आयताकार गुफा थी। इसमें अष्टकोणाकार दंड है अर्थात अंदर के कक्ष की ओर जाती दीवार यह उसे बहुत छोटी लगी।
केव नं. 19 यह एक हॉर्स शू के आकार का (घोड़े की नाल के आकार का) मंदिर है। यहाँ पर बुद्ध की आकृतियां उकेरी गई हैं। दूसरी ओर नाग राजा अपनी पहली पत्नी समेत दिखाई दे रहे हैं। इसके सामने की दीवार पर गॉडेज बुद्ध अपनी पत्नी और पुत्र से भिक्षा लेते दिखाई दे रहे हैं। यहाँ पर तीन छतरियां हैं। उन पर एक स्तूप है और इस स्तूप पर बुद्ध की आकृति तराशी गई है।
अगली गुफा बीस नंबर की है इसमें पूजा स्थल बना है, जिसमें बुद्ध प्रचार करते हुए दिखाए गए हैं। स्तंभों पर अलग-अलग ढंग के चित्र तराशे गए हैं। छत पर भी चित्र हैं।
रॉबर्ट आगे बढ़ गया। यह केव 21 नंबर की है। यह कुछ अधूरी-सी लग रही है उसे। लेकिन स्तंभों में बहुत सुंदर कलाकृतियां तराशी गई हैं। अस्पष्ट किन्तु सुंदर चित्र हैं जहाँ गॉडेज बुद्ध धार्मिक प्रवचन देते दिखाई पड़ रहे हैं। बरामदे के किनारों पर देवी हरिति को बड़े परिश्रम से तराशा गया मालूम होता है। जैसा कि रॉबर्ट ने राइटअप में पढ़ा था। यह खुशी की देवी मानी जाती है। देवी की आकृति के एक ओर कुछ सेवक खड़े हैं और दूसरी ओर नागराज का दरबार का चित्रांकन है अर्थात उसी पत्थर की दीवार पर तराशा गया चित्र।
केव नं. 22 और 23 अधूरे हैं लेकिन इनकी दीवारों पर भी सुन्दर चित्रण है, जिसमें गॉडेज बुद्ध के सात अनुयायी बोधि वृक्ष के नीचे खड़े हैं। इनके स्तंभों पर अद्भुत कलाकारी है।
केव्ज़ 24, 25, 26 भी अधूरी ही लगी। केव नं. 24 सभी केव्ज़ से सुंदर होती यदि यह अधूरी न होती। रॉबर्ट ने सोचा और यह भी पाया कि क्षेत्रफल में यह अन्य केव्ज़ से बहुत बड़ी है। और केव नं. 4 से यदि देखा जाए तो यह दूसरे नं. पर है। इसकी भव्यता और कला अनूठी है। रॉबर्ट इसके सामने देर तक खड़ा रहा।
केव नं. 25 यह भी अधूरी है और यह एक विहार है। इसमें कोई पूजा स्थल नहीं है। ना ही कोई कमरा बस सामने एक खुला हिस्सा है, जिसे हिन्दी में आँगन कहते हैं।
हां, केव नं. 26 में भीतरी भाग में बारीक नक्काशी से गॉडेज बुद्ध की आकृतियां हैं। मुख्य स्तूप में मंडप है और उसमें बैठी हुई मुद्रा में बुद्ध की विशाल प्रतिमा है। बायीं ओर की दीवार पर दो कथाओं का चित्रण है।
पहले चित्र में काम देवता मारा का प्रलोभन तथा बुद्ध की विशाल मूर्ति लेटी हुई मुद्रा में तराशी गई है। यह बुद्ध के हिन्दू धर्म के अनुसार जन्म-मरण के चक्र से मोक्ष अर्थात महापरिनिर्वाण को व्यक्त करती है। इसके नीचे बुद्ध के शिष्य अपने गुरू के देहावसान के कारण शोक में दर्शाए गए हैं। जबकि देवलोक अर्थात स्वर्ग में बुद्ध के मोक्ष से हर्ष (खुशी) और आनंद छाया दिखाई देता है।
बारीक नक्काशी और अद्भुत कथाओं से युक्त यह केव है।
रॉबर्ट सोचता सा बैठ गया। इतनी बड़ी दुनिया में कितना कुछ है करने को लेकिन प्रत्येक इंसान अपने स्वयं तक सीमित होता जा रहा है।
पीतल की एक छोटी थाली में मेहमूद ने नाश्ता निकाला। यह पोहा था, जिसमें मूंगफली, आलू, प्याज डालकर मेहमूद ने ही बनाया था। डिब्बा में कपड़ा लिपटे रहने के कारण यह गरम भी था। रॉबर्ट को भूख तो लगी थी लेकिन वह कुछ सोचता हुआ खा रहा था। दूर बैठे मेहमूद और कन्हैया भी पराठे के साथ सब्जी इत्यादि लेकर खा रहे थे।
रॉबर्ट के खा लेने के पश्चात डिब्बे में बचा हुआ पोहा अब मेहमूद और कन्हैया दुबारा खाने लगे। रॉबर्ट गिरते झरने और बहती नदी के पास एक काली चट्टान पर बैठ गया था।
क्या आज फिर पारो मिलेगी?
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और! सचमुच पारो उसी जगह मिल भी गई। यह एक महज इत्तेफाक था या पारो उसी से मिलने आई थी। आज पीले शेवंती के फूलों की वेणी उसने अपने जूड़े में लगाई थी और पीली ही फूलों वाली साड़ी पहनी थी। आज उसने फिर चाँदी जैसी धातु के ज़ेवर पहने थे। पैरों में पायल थी।
रॉबर्ट ने उसके पास जाकर घोड़ा रोक दिया। वह मुस्कुराई। रॉबर्ट ने पूछा-‘‘क्या तुम्हारे बाबा के घुटनों का दर्द ठीक नहीं हुआ, जो आज फिर पत्तियां लेने आई हो?’’
‘‘नहीं साहब, दर्द तो ठीक है। पत्तियां भी बहुत रखी हैं। लेकिन आज हमारी सुमन काकी गड्ढे में गिर गई। बाबा ने देखा और बताया कि उनकी हड्डी कहीं से चिटख गई है। कल रात गरम पानी में नमक डालकर सेकी। आज बाबा ने मुझे हड़जोड़ की पत्तियां और पेड़ की छाल लाने को कहा। वे स्वयं आते लेकिन उनके घुटनों में वापिस दर्द न हो जाए तो मैं लेने आ गई।’’ इतनी लंबी बातचीत पारो ने की।
‘‘यह हड़जोड़ क्या है?’’ रॉबर्ट ने पूछा।
‘‘साहब, यह जड़ी और छाल 40 दिन के लिए टूटी हड्डी पर बांधी जाती है। हड्डी जुड़ जाती है।’’ पारो ने कहा।
‘‘ओह! सचमुच?’’ रॉबर्ट ने कहा।
तब तक मेहमूद और कन्हैया वहाँ पहुँच गए थे। वे रॉबर्ट से कुछ दूरी बनाकर खड़े हो गए।
रॉबर्ट ने उन्हें जाने का इशारा किया। वे दोनों आगे निकल गए और थोड़ा आगे जाकर एक दूसरे की ओर देखकर मुस्कुराने लगे।
‘‘अब महावीर कोली क्या करेगा?’’कन्हैया ने कहा।
‘‘महावीर कोली कौन?’’ मेहमूद ने पूछा।
‘‘पारो की शादी उसके बाबा ने महावीर के साथ तय कर दी है। साखरपुड़ा (सगाई) भी हो गई है।’’ कन्हैया ने बताया।
‘‘तुम्हें कैसे मालूम?’’ मेहमूद ने पूछा।
‘‘अरे हम वहीं तो रहते हैं, क्या हमें नहीं मालूम होगा?’’ कन्हैया ने कहा।
पीछे से घोड़े की टप-टप सुनाई दी। दोनों चुप हो गए।
रॉबर्ट के पीछे घोड़े पर पारो बैठी थी। वह बार-बार रॉबर्ट की पीठ पर गिर जाती थी। उसके सख्त वक्षस्थल रॉबर्ट की पीठ से चिपके थे। उसने रॉबर्ट को दोनों हाथों से कमर से पकड़ लिया था।
रॉबर्ट ने जो महसूस किया क्या वह पारो भी महसूस कर रही थी।
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घोड़े पर से उतरकर पारो नज़दीक खड़ी हो गई।
‘‘क्या तुम कल मेरे साथ अजंता केव्ज़ चलोगी?’’ रॉबर्ट ने पारो को सिर से पैर तक निहारते हुए पूछा।
‘‘अजंता लेणी! जो आपने ढूंढ़ी हैं?’’ पारो ने पूछा।
‘‘हां, वहीं।’’
‘‘देखती हूँ साब, बाबा हां कहेगा तो ही आ पाऊंगी।’’
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केव नं. 27... रॉबर्ट अकेला खड़ा है। आज सभी कर्मचारी साथ हैं। कन्हैया उनका मुखिया बन चुका है, अपने आप ही। क्योंकि वह रॉबर्ट के यहाँ नौकरी करने लगा है। गुफा साफ हो चुकी है।
यहाँ पर भी गॉडंज बुद्ध के जीवन पर आधारित दो चित्र हैं। बाईं ओर के पहले चित्र में गॉडेज बुद्ध का सम्पूर्ण चित्रण है। वे महापरिनिर्वाण की मुद्रा में बैठे हैं। दूसरे चित्र में ‘मारा’ है और वही गॉडेज बुद्ध एक पेड़ के नीचे बैठे दिखाई देते हैं। मारा अपनी दुष्ट (निगेटिव) शक्तियों के साथ वहाँ पहुँचता है। और अपनी पुत्री को गॉडेज बुद्ध के पास आकर्षण के जाल में फंसाने के लिए वहाँ भेजता है। लेकिन दूसरे ही दृश्य में वह हारकर वापिस जाता दिखाई दे रहा है। रॉबर्ट के हाथ में राइटअप है। मि. जॉन स्मिथ ने इसे समझने के लिए कितने ही मायथोलॉजिस्ट का सहारा लिया होगा। कितने-कितने नाम और उदाहरण दिए हैं। तभी तो सारा कुछ स्पष्ट है सामने। बाहर आकर वह आगे चट्टान पर चढ़ गया। काफी ऊंचाई पर दो केव्ज़ और मिलीं। इसमें देखने लायक ऐसा कुछ नहीं था। इसमें सामने पैसेज है, जिसे आँगन कहते हैं और दूसरी केव्ज़ में खुदाई ही दिखाई दे रही है। यहाँ इन केव्ज़ पर पहुँचने के लिए सीढ़ियां भी नहीं हैं। कूदता फलांगता रॉबर्ट नीचे उतरने लगा।
जहाँ से ऊपर चढ़कर सड़क से केव्ज़ दिखाई देती हैं, वहाँ रॉबर्ट ठहर गया। घोड़ा भी खड़ा था। उसने सोचा शायद आगे चलकर पारो दिखाई दे।
कन्हैया ने उसकी आँखों की उत्सुकता को पढ़ लिया। कहा-‘‘सर, आज पूर्णिमा है। गाँव में एक छोटा-सा मेला लगा हुआ है। यहाँ पर पारो का नृत्य होगा। गाँव की और भी लड़कियां नाचेंगी। महावीर मृदंग बजाएगा। ये लोग नाटक भी करते हैं। नाचने-गाने से इन लोगों की कमाई होती है।’’
‘‘अच्छा! कौन आता है देखने?’’
‘‘हम सभी साब। दौलताबाद, औरंगाबाद और आसपास के लोग भी आते हैं। ये खानाबदोश लोग नाचने, गाने, नाटक से और पत्थर की सिल चक्की आदि बनाते हैं, बेचते हैं। बस यही उनका रोज़गार है।
रॉबर्ट ने अपनी बारादरी की ओर घोड़ा दौड़ा दिया। अच्छा हुआ आज जल्दी ही केव्ज़ देखने का कार्य हो गया। वह पारो के गाँव जाएगा। नृत्य तो देखना ही है और पूछना भी है कि पारो ने उसे एक दिन पहले क्यों नहीं बताया। निमंत्रित भी नहीं किया।
लेकिन, बारादरी पहुँचकर उसे खुशी हुई। जब जयकिशन ने उसे बताया कि पारो आई थी।
कहा-‘‘साब, उसका नृत्य देखने ज़रूर आएं।’’ साथ ही एक काला गुलाब लम्बी डंडी के साथ रखा था। उसने आज तक कहीं नहीं देखा था काला गुलाब।
’’’
काफी उजाला था जब रॉबर्ट पारो के गाँव की ओर घोड़े पर रवाना हुआ। वैसे वह पैदल ही जाना चाहता था, लेकिन कन्हैया ने आग्रह किया था-‘‘सर लौटने में देर हो सकती है। घोड़े पर ही आएं।’’ मेहमूद और जयकिशन भी गाँव की ओर चले गए थे। जयकिशन ने एक लालटेन साथ में ले ली थी। बगैर मोटे डंडे के वे दोनों शाम या रात को घर से बाहर निकलते ही नहीं थे। वैसे जंगली जानवरों के भय से प्रत्येक के हाथ में मोटा डंडा होता ही था। दूर से ही गाँव में लगे पंडाल दिखाई देने लगे थे। उसके अंदर एक सुसज्जित मंच कागज़ों की झालर की बंदनवार लिपे पुते घड़े जिन पर विविध देवी-देवता बने थे और सबसे विशेष अनेक रंगों से सजाया हुआ ज़मीन पर विशाल चौक (रांगोली) जो पिसे हुए रंग-बिरंगे चावलों से बना था। वह घोड़े से उतरकर खड़ा हो गया। उसकी आँखें पारो को ढूंढ़ रही थीं। तभी पारो का पिता महादेव एकदम सामने आकर खड़ा हो गया। ‘‘नमस्ते साहब! अच्छा हुआ आप आ गए। आज हमारा त्यौहार है। हम नाच-गाना करते हैं।’’
महादेव ने एक बड़े लकड़ी के तख्त की ओर इशारा किया। ‘‘बैठें साहब।’’
उस तख्त पर गुलाबी रंग की चमकीली कढ़ाई वाली चादर बिछी थी और रंग-बिरंगे तकिए रखे थे।
रॉबर्ट मुस्कुराकर बैठ गया। यह एक बड़ा प्रांगण था। जहाँ दरियां बिछाई गई थीं। रंग-बिरंगी साड़ियों एवं कपड़ों से पूरे प्रांगण को एक बड़े कमरे का रूप दिया गया था। बीच की खाली जगह पर जिन्हें भी यह नाटक या नृत्य देखना था पैसे देकर आकर बैठ गए थे। जहाँ रॉबर्ट बैठा था, उसकी दूसरी ओर तखत पर मृदंग बजाने के लिए महावीर कोली अपने अन्य साथियों के साथ बैठा था। जिसने अजीब सी नज़रों से रॉबर्ट को देखा था... खड़ा हुआ था। सभी ने दोनों हाथ जोड़कर रॉबर्ट का अभिवादन किया था और बैठ गए थे। अब मृदंग की आवाज़ वातावरण में गूंजने लगी थी। तभी मंच पर सखियों ने प्रवेश किया और घुंघरू की धुन से सभी दर्शक खुशी से झूम उठे। रॉबर्ट एक लम्बे ऊंचे तकिए से टिका बैठा था। तभी तेज़ गति से उछलते हुए पारो ने प्रवेश किया। वह काली साड़ी पहनी थी, जिस पर चमकीले सुनहरे रंग के मोर कढ़े थे। उसने चाँदी के ऐसे गहने पहने थे, जिनमें हैदराबादी काले मोती चमक रहे थे। उसने कनखियों से रॉबर्ट को देखा। दोनों मुस्कुरा दिए। इधर महावीर ने पारो को इस अंग्रेज की तरफ मुस्कुराते हुए देख लिया। वह एक अजीब-सी झुंझलाहट से भर उठा। वह और उसके साथी ज़ोर-ज़ोर से मृदंग पर थाप देने लगे। नृत्य अपने पूरे शबाब पर था। एक ओर खड़ी लड़कियां जो लाल सुनहरे रंग से काढ़ी हुई साड़ियां पहने थीं वे गीत गाने लगीं।
गीत मराठी में था, जो रॉबर्ट को बिल्कुल समझ में नहीं आया। वैसे जयकिशन और मेहमूद भी कहां समझ पा रहे थे। लेकिन ऐसा नृत्य देखकर वे बहुत खुश थे।
यह भूला बाई गीत था-‘‘कन्हैया बता रहा था- यह गीत अविवाहित किशोरियों में भगवान के प्रति श्रद्धा पैदा करने के लिए गाया जाता है। वैसे तो सभी भगवान के प्रति श्रद्धा रखते ही हैं परन्तु इस समारोह में लड़कियां परंपरा के अनुसार अदृश्य मूर्ति के समक्ष गोल घेरा बनाकर नृत्य करती हैं। और भगवान को आमंत्रित करने के लिए मिलकर सामूहिक रूप से गीत गाती व नृत्य करती हैं।
गाना अपनी लय खींचता ऊपर-ऊपर उठता जा रहा था-
बाजे चौघड़ा रुन सुन, आला ग हदगा पावला दारी तुलस...
इस गीत में भगवान की पूजा करने के लिए उसने अलग-अलग फूलों की माला बनाई है। इस लोकगीत को अलग खड़ी लड़कियों का समूह भी गा रहा है और पारो व अन्य लड़कियां गा रही हैं... नृत्य कर रही हैं। सभी मुग्ध हैं मृदंग की थाप रुकती है तो सारंगी बजने लगती है। करीब चालीस-पचास मिनट का नृत्य है। जिन्होंने अंदर प्रवेश नहीं पाया है वे प्रांगण में बंधे कपड़े से अंदर झाँक रहे हैं।
सारंगी घुमक्कड़ (जिप्सी) जातियों का वाद्य है।’’ ऐसा कन्हैया बता रहा था। ‘‘यह सौ प्रकार की धुनों को निकाल सकता है।’’
नृत्य समाप्त हो चुका था। पारो अन्य लड़कियों के साथ आकर रॉबर्ट के समक्ष खड़ी हो गई। रॉबर्ट ने सभी के नृत्य की तारीफ की। रॉबर्ट के लाल कोट में पारो का दिया काला गुलाब एक पिन के सहारे अटका हुआ था। महावीर ने काले गुलाब को देखा और फिर पारो की तरफ... आज पारो के आँगन में अन्य गुलाबों के साथ यह काला गुलाब भी तो खिला हुआ था।
महादेव कोली ने विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ एक बड़ी पीतल की थाली में रॉबर्ट के समक्ष रखे।
रॉबर्ट बहुत खुश होकर सभी चीज़ें खाने लगा।
‘‘साब! यह ठेसा है, तीखी लाल मिर्च और लहसुन का।’’ महादेव ने कहा।
‘‘अरे, सर यह नहीं खाएं, बहुत तीखा है।’’ जयकिशन ने कहा। तब तक रॉबर्ट रोटी के एक कौर के साथ बहुत सारा ठेसा मुँह में रख चुका था। और फिर सी-सी करता आँखों में आँसू लिए बहुत शीघ्रता से पानी पीने लगा। पास खड़ी पारो हंसने लगी तो रॉबर्ट भी हंसा... तभी उसको हंसता देख सभी हंस पड़े।
महादेव ने बताया-‘‘साब! हम यह त्यौहार पूरे पंद्रह दिन मनाते हैं। मेला भरता है, दूकानें सजती हैं और प्रतिदिन नाटक और नृत्य होते हैं। लेकिन भूला गीत उत्सव रोज़ ही होता है। फिर नारियल और शक्कर का प्रसाद उसने रॉबर्ट की हथेली में रखते हुए कहा यह बांटा जाता है। इसे ‘खिरापत’ कहते हैं।
रॉबर्ट लौट रहा था। उससे पहले मेहमूद और जयकिशन डंडा फटकारते तेज़ गति से बारादरी की ओर लौट रहे थे।
’’’
कुछ तैयारी भी करनी होगी। कौन-कौन से कलर्स हैं, कौन-से नहीं यह सारी जानकारी जयकिशन रखता है। नहीं होंगे तो बॉम्बे से मंगवाने होंगे। रॉबर्ट के दिमाग में अजंता केव्ज़ घूमने लगीं। रॉबर्ट ने जयकिशन को आवाज़ दी। ‘‘देखो जॉय, शायद आफ्टर डे टुमारो मैं पेंटिंग स्टार्ट कर ही दूंगा। कितने कैनवस हैं, क्या नहीं हैं उनकी लिस्ट बनाओ। कैनवस मुझे एकदम छह ही लगेंगे। बॉम्बे से आने में ही छह दिन लग जाएंगे। अत: क्विक हरी...अप... जयकिशन ने हां में सिर हिलाया। और वह भागा... उसने लकड़ी की बड़ी संदूक खोली। बड़े ब्रश जो लंदन से आए थे, वह रखे थे। कैनवस, कलर्स, आॅइल अभी तो पर्याप्त थे। आगे मंगवाने के लिए उसने सूची तैयार कर ली।
सरकारी आदेश पत्र का उत्तर देते हुए रॉबर्ट ने लिफाफा जॉय की तरफ बढ़ा दिया। कल मेहमूद को औरंगाबाद भेजकर यह पत्र और सामान की सूची बॉम्बे भेजी जाएगी। रॉबर्ट के नाम आई हुई डाक भी वह ले जाएगा। रॉबर्ट का हर आदेश सख्ती भरा होता था।
होठों में पाइप लगी थी, जिसकी तंबाखू तो थी लेकिन वह बुझ चुकी थी। जयकिशन छोटी-सी एक लकड़ी चूल्हे से लेकर आया और उसकी पाइप की तंबाखू को जला दिया।
नाक, मुँह से धुआं उड़ाता रॉबर्ट अजंता की पेन्टिंग में खो गया।
उसके दिमाग में लगातार पेन्टिंग की थीम बन-बिगड़ रही थी।
उसने आँखें मूंद लीं। पाइप की आग फिर बुझ चुकी थी। लीसा के घुंगराले बालों में लगे चाँदी के क्लिप के घुंघरू बज उठे। संभवत: उसने ही बालों को छुआ होगा। उसने आँखें खोल दीं। हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट थी। पर्दा धीरे-धीरे गिर रहा था। वह पसीने से भीगा बैठा था।
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आज रॉबर्ट अच्छे से आराम कर लेना चाहता था। कल से स्कैच और पेन्टिंग की शुरूआत करनी है। लेकिन शाम होते तक वह ऊब चुका था। उसने थोड़े-से सूखे मेवे कुतरे, ब्लैक कॉफी पी और अपने घोड़े पर सवार होकर निकल पड़ा। अभी काफी उजाला था और तकरीबन 2 घंटे वह इधर-उधर घूम सकता था। वह अजिंठा ग्राम के किनारे की पगडंडियों पर घोड़ा दौड़ाता रहा। मन में कहीं था कि पारो दिख जाए। सामने से महावीर आता दिखा। उसके साथ तीन-चार लड़के और थे। वे किसी सूखे पेड़ की शाखाएं अपने कंधे पर टाँगे थे। उसने पेड़ के नीचे घोड़े को रोका। वे लोग भी आगे आकर रुक गए। सभी ने उसे अभिवादन किया और लकड़ियों का गट्ठर नीचे उतारकर सीधे खड़े हो गए। महावीर ने अनिच्छा से उसे अभिवादन किया था। उनमें से एक लड़के ने कहा-‘‘साब, सामने ही हमारा घर है, चलिए न, चाय पिएं।’’
रॉबर्ट शायद यही चाहता था। वह एक झलक पारो की देख लेना चाहता था। उसने स्वीकृति में सिर हिलाया और उस ओर बढ़ लिया।
सामने के गोबर से लिपे घर के आँगन में बैठी पारो,चौक (रंगोली) बना रही थी। उसका घोड़ा वहीं आकर रुका। घोड़े की टाप की आवाज़ से पारो ने अपना चेहरा ऊपर उठाया और रॉबर्ट को देखकर उठकर खड़ी हो गई। रॉबर्ट उसके आँगन में भीतर आ गया। वह भागकर रस्सियों से बुना एक स्टूल लेकर आई। उसके पायलों के घुंघरू बज उठे। उसने पारो के पैरों की तरफ देखा। उसके पैरों में सफेद धातु की घुंघरू वाली पायलें चमक रही थीं।
पारो असमंजस की स्थिति में थी। आँगन के बीच में अधूरी बनी रंगोली पर पैर रखे महावीर खड़ा था। रॉबर्ट को भला किसकी परवाह? लेकिन महावीर की आँखों में आग के अंगारे दहक रहे थे। महावीर का मित्र रॉबर्ट के लिए अपने घर से चाय बनाकर ले आया था।
उसने पारो के हाथ से ठंडे पानी का गिलास लेते हुए चाय रखने का इशारा किया। महावीर के पैरों से रंगोली के रंग फैल चुके थे।
‘‘आज ब्लैक रोज़ कहां है पारो?’’ रॉबर्ट ने कहा। शायद वह कुछ ठीक से समझती उससे पहले ही रॉबर्ट ने अपने लाल कोट की ओर इशारा किया... जहाँ रोज़ फ्लावर लगाया जाता है। वहाँ छोटा-सा पीतल का सेफ्टी पिन लटक रहा था।
वह भागकर पिछवाड़े की ओर गई और अधखिला काला गुलाब लंबी डंडी के साथ तोड़ लाई।
उसने कोट की ओर इशारा किया। पारो फूल लेकर रॉबर्ट के नज़दीक गई और पिन में फूल अटकाने लगी।
महावीर को इच्छा हुई कि पहले रॉबर्ट का गला घोंट दे फिर पारो का। और उसकी मुट्ठियां बंधी और फिर खुल गईं। वह अपने पाजामे में पसीजते हाथों को पोछने लगा।
उसकी हालत देखकर उसके पास खड़े उसके मित्र ने उसका हाथ पकड़ लिया और ‘नहीं’ में सिर हिलाया।
रॉबर्ट और पारो की सांसे फूल लगाते समय आपस में घुल-मिल रही थीं।
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आज रॉबर्ट के साथ मेहमूद भी था। आज कार्य प्रारंभ करना था। सभी लड़के कुछ न कुछ सामान कंधे पर टाँगे थे। कन्हैया ने कैनवस बोर्ड टाँगा हुआ था। वह कभी इस कंधे पर कभी दूसरे कंधे पर बोझ को बदल रहा था। रॉबर्ट ने कहा था सीधे छह नंबर की केव पर जाकर कैनवस लगा देना। वह अजंता ग्राम की ओर से होता हुआ अजंता केव्ज़ की ओर जाने लगा। महावीर दिखा, जिसने रॉबर्ट को देखकर मुँह फेर लिया मानो देखा ही न हो। पारो कहीं नज़र नहीं आई। अनमना होकर वह तेज़ गति से घोड़ा दौड़ाता हुए हॉर्स शू पॉइन्ट की ओर बढ़ गया। वहाँ पर मेहमूद खड़ा था। रॉबर्ट घोड़े से उतर गया। मेहमूद ने घोड़े की रस्सी पकड़ ली। रॉबर्ट तेज़ गति से गुफाओं की ओर बढ़ने लगा।
गुफा नं. 6 पर कैनवस लग चुका था। एक छोटा स्टूल रॉबर्ट के बैठने के लिए रख दिया गया था। पास ही एक लकड़ी के ऊंचे से बैंचनुमा फट्टे पर रंग, तेल, ब्रश, पेन्सिल रखी थी।
रॉबर्ट ने पेन्सिल उठाई और दोपहर तक केव की पूरी रूपरेखा कैनवस पर उतर गईं। यहाँ बुद्ध की पद्मासन मुद्रा में एक बड़ा चित्र था। वे दोनों हाथ पालथी लगाकर घुटनों पर रखे ध्यान में बैठे थे। रॉबर्ट ने चित्रित किया 28 पिलर्स... एक बड़ा मीटिंग हॉल और प्रवेश द्वार पर मगरमच्छ और फूलों की सुंदर आकृतियां।
मेहमूद ने आकर पूछा- ‘‘कुछ खाएंगे सर?’’
रॉबर्ट ने ‘नहीं’ में सिर हिला दिया। तैलीय रंग इतनी जल्दी नहीं सूखते। मेहमूद ने एक बड़ा अमरूद काटकर प्लेट में रखकर बैन्च पर रख दिया। रॉबर्ट नमक डाले अमरूद को खाने लगा। क्या उसे सचमुच ही भूख लगी थी?
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अक्टूबर की शुरूआत है, लेकिन आसमान काले बादलों से भर गया है। आज अजंता केव्ज़ आते कई दिन बीत चुके हैं। पेन्टिंग का सारा सामान लाते कन्हैया और मेहमूद थक चुके हैं। रॉबर्ट क्या चाहता है उन्हें समझ में नहीं आता था। वह पेन्टिंग की पूरी तैयारी कर लेता है और किसी चट्टान से टिककर बैठ जाता है। दुपहर की डूबती धूप जो तेज़ी से अस्ताचल की ओर जाती दिखाई देती है क्योंकि इस क्षेत्र में घना जंगल है। शाम अपने समय पर ही होगी, सूर्य अपने समय पर ही अस्त होगा। रॉबर्ट उदास है क्योंकि अभी तक टैरेन्स की ओर से कोई सूचना नहीं है। वे लोग जहाज में बैठ चुके हैं। तीन चार दिन से पारो भी नहीं मिली है।
रॉबर्ट ने आसमान में बादलों को देखा और नीचे उतरने लगा। साथ आए सभी समझ गए आज पेन्टिंग नहीं बनेगी। घने काले बादलों को देखकर मेहमूद और कन्हैया ने कलर्स, ब्रश और कैनवस संभाल लिए। बाकी लड़कों ने और भी सामान रख लिया। मेहमूद ने रॉबर्ट को घोड़े की तरफ उतरते देखा तो वह भागा। लेकिन तब तक रॉबर्ट घोड़े को लेकर ऊपर आ गया था। हमेशा हॉर्स शू पॉइन्ट से ही रॉबर्ट घोड़े पर बैठता था क्योंकि रास्ता पथरीला और खतरनाक था लेकिन आज वह यहीं से घोड़े पर बैठ गया। घोड़ा कभी इधर छलांग लगाता, कभी उधर, वह ऊपर चढ़ने लगे। ऊपर पहुँचते ही उसने घोड़े की लगाम संभाली। घोड़ा सरपट दौड़ा।
मेहमूद, कन्हैया और अन्य लड़के अभी ऊपर ही चढ़ रहे थे।
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