भाग 10
रॉबर्ट सामान वगैरह सहेजने लगा।
‘‘इतनी जल्दी क्या है, रॉबर्ट? पूरे पंद्रह दिन बाद तुम्हारा जहाज है।’’
‘‘हां!’’ रॉबर्ट अचकचा गया। ‘‘ठीक कहते हो।’’
दोनों उठकर खड़े हो गए। ‘‘चलो थोड़ा टहलते हैं। अच्छा नहीं लग रहा है, घर के भीतर।’’ रॉबर्ट ने कहा।
‘‘फ्लावरड्यू चली गई इसलिए?’’ टैरेन्स ने कहा।
रॉबर्ट चौंक पड़ा। फ्लावरड्यू या लीसा उसने अपने आप से पूछा। टैरेन्स समझ गया। बोला- ‘‘लीसा को भूल जाओ रॉबर्ट। समय के साथ चलो। ज़िंदगी के हर मोड़ पर कोई सुखद या दु:खद घटनाएं होती रहती हैं। लीसा की घटना सुखद थी या दु:खद। यह तुम तय करो पर यह स्पष्ट है कि लीसा को तुम्हें भूलना होगा।’’
रॉबर्ट ने टहलते हुए ट्राउजर्स की जेब में हाथ डाल लिया। अंदर पॉकिट में सिगार की तंबाखू थी। सोचा लौट कर पिएगा।
‘‘जवाब नहीं दिया तुमने रॉबर्ट?’’
‘‘क्या जवाब दूं टैरेन्स। मन दु:खी है। सचमुच लीसा को धोखा दिया है। अब इंडिया जाना है। लगता है इंडिया में कहीं कुछ है जो मुझे पुकारता है।’’
टैरेन्स हंसने लगा-‘‘इंडिया? वहां जाकर भी किसी प्रेम प्रसंग में तुम उलझोगे जरूर। सीधे इंसान तो हो नहीं।’’ ऐसा कहते हुए टैरेन्स ने सड़क पर पड़े एक गोल पत्थर को जोर की ठोकर मारी। फिर स्वयं ही उछलने लगा।
‘‘लग गया दोस्त।’’ टैरेन्स ने कहा।
‘‘किसी को यूं गाली दोगे तो लगेगा ही। वैसे तुम बहुत सीधे हो। डोरा स्मिथ तो तुम्हारी ज़िंदगी में आई ही नहीं थी। है ना?’’ रॉबर्ट ने कहा।
सामने कैंटीन दिखने लगा था। ‘‘चलो कुछ खाएंगे और ड्रिंक भी करेंगे। वैसे फ्लावरड्यू काफी छोटी है, एकदम बच्ची-सी।’’ टैरेन्स ने कहा। दोनों कैंटीन में आकर बैठ गए।
अब दोनों सिगार भी पी रहे थे। और कुछ न कुछ कुतरते हुए ड्रिंक भी कर रहे थे। रॉबर्ट उदास था। लेकिन गंभीर बना हुआ था।
‘‘मेरे विवाह में आओगे न?’’ टैरेन्स ने पूछा। रॉबर्ट चौंक पड़ा।
‘‘क्या दादी ने कोई लड़की पसंद कर रखी है।’’
‘‘नहीं! लेकिन कर ही लेगी। वे किम कूरियन अंकल से बात कर रही थीं। शायद किम अंकल ने कोई राय दी हो।’’
‘‘इतनी जल्दी तू ठीक कैसे हो गया टैरेन्स? अभी तो डोरा के लिए मर रहा था।’’ रॉबर्ट ने कहा।
‘‘यही तो समय है। मैं ठीक नहीं हुआ। लेकिन ज़्यादा नहीं सोचूंगा। इधर दर्द होता है। उसने सीने पर हाथ रखा। डोरा ने एक पत्र भेजा था।
‘‘तुमने मुझे नहीं बताया?’’
‘‘क्या बताता। यही कि उसने स्वयं मना कर दिया। वह स्टॉक ब्रोकर के खिलाफ कितनी ही लड़ाई लड़े, जीत नहीं पाएगी। वे निष्ठुर हैं। औरतों की ज़िंदगी को निम्न समझने वाला वह कभी नहीं मानेगा। एक तो यह सैनिक की ज़िंदगी... फिर तुम जा रहे हो एक अन्जान देश... मैं अकेला हो जाऊंगा यहां। डोरा का इन्कार करना... कितना लड़ूँ आखिरकार अपने आप से? हार गया हूं मैं... बचपन में माँ को खोया। उसकी वो पथरायी खुली आँखें जिन्हें मैं जीवित आँखें समझता था आज भी आँखों के सामने आती हैं। जानते हों रॉबर्ट आँखें कभी नहीं मरतीं। वह सब कुछ देखती हैं। माँ की खुली आँखों ने सब कुछ देखा था। वे देख रही थीं, अपनी मृत्यु... वे कंचे जैसी सफेद आँखें... रॉबर्ट कभी भी देखना गलत नहीं हो सकता। शायद डैड उन आँखों को सहन नहीं कर पाए थे तभी डैड ने उनकी पलकों को बंद किया था। और मैं माँ को झिंझोड़ रहा था। ‘‘उठो माँ, माँ... माँ!’’ लगा टैरेन्स रो पड़ेगा। या वह सूनी आँखों से सचमुच रो रहा था। मृत्यु और उसको भुगतना कितना कठिन होता है मेरे दोस्त... क्यों जा रहे हो तुम...। डैड का आँखें बंद करना उसको अच्छा नहीं लगा था। वह दौड़कर उस डायरी को उठा लाया था, जो माँ ने उसे दी थी। उसने माँ की एक आँख की पलक उठाई थी-‘‘देखो माँ, यह डायरी मैं लिखता हूं ना? तुमने कहा था लिखा करो। साथ में खड़े उसके कज़िन चाचा ने उसे दूर हटाया था और यथार्थ से अवगत कराया था-‘‘टैरेन्स योअर मदर इज नो मोर... ’’
‘‘नो... नो... नो ऐसा तुम नहीं कह सकते अंकल। मैं डायरी फाड़ दूंगा... सब-कुछ तोड़-फोड़ डालूंगा। मुझे माँ चाहिए... मेरी माँ।’’ फिर वह हताश सा वहीं स्टूल पर बैठ गया था।
‘‘तुमने गलत नौकरी चुनी टैरेन्स। तुम्हें फिलॉसफी पढ़नी थी और थिंकर बनना था।’’ रॉबर्ट ने कहा।
‘‘हां! सचमुच! मुझे रिसर्च करना पसंद था। डैड ने सैनिक स्कूल में डाल दिया तो वही सही। माँ होती तो शायद कुछ अलग फैसला भी देतीं।’’
दोनों चुप हो गए। रॉबर्ट को न जाने क्यों लगा कि टैरेन्स से ज्यादा वह उसकी माँ को जानता है।
’’’
कितने दिन बीत गए थे। टैरेन्स के बंगले से लाया हुआ वह किट ज्यों का त्यों रखा था। बस निकाली थीं तो उसने लीसा के वे स्कैच, जो उसने बनाए थे। पेन्टिंग भी थीं। जब टैरेन्स के माँ की बात चली थी तो उसे याद आई वह कपड़े की लाल पोटली... पोटली नहीं बल्कि पोटली नुमा बैग।
‘‘टैरेन्स तुमने जो बुक्स बोली थीं वह तो मैं लाया ही हूं। एक और चीज है जो शायद तुम्हें हैरत में डाल दे।’’ रॉबर्ट ने कहा।
‘‘वह क्या? और तुमने मुझे अबी तक बुक्स क्यों नहीं दीं?’’ टैरेन्स ने पूछा।
‘‘बस! लीसा, डोरा... और फिर लौटने के बाद कुछ दिन तक लीसा का मोह... फिर लीसा का आना... मैं प्रेम में जकड़ता ही गया और सब कुछ छूट गया। और फिर लीसा और डोरा के प्रेम प्रसंगों का आहत होना। क्या यह सब कुछ इतना सहज था।’’ उठते हुए रॉबर्ट ने कहा।
वह अपने कमरे से किट उठा लाया। उसने बुक्स निकाल कर दीं। टैरेन्स बुक्स उलटने-पलटने लगा।
‘‘लो यह बैग।’’ उसने लाल रंग का पोटलीनुमा बैग टैरेन्स की ओर बढ़ा दिया।
‘‘क्या है इसमें?’’ टैरेन्स ने पूछा।
‘‘तुम्हारी माँ का पत्र है और कुछ कीमती जूलरी।’’ रॉबर्ट ने कहा।
‘‘कीमती जूलरी? लेकिन तुम्हें कैसे मिली। मैं तो माँ की मृत्यु के बाद कितनी ही बार उस बंगलो में रहने गया हूं। मुझे तो नहीं मिला।’’ टैरेन्स उस लाल बैग को हाथ में रखे आश्चर्य से पूछे जा रहा था।
‘‘मुझे मिली, बल्कि अप्रत्याशित रूप से, तुम्हारी माँ ने यह सौगात (उपहार) तुम्हारे लिए दी।’’ आश्चर्य से टैरेन्स उसे देखे जा रहा था।
‘‘जानते हो टैरेन्स? न हवा थी न आंधी-पानी लेकिन किताबें निकालने के बाद यह अपने आप सरकती हुई अलमारी के ऊपर रखी हुई सामने की ओर आई। मानो यह कोई मुझे दे रहा हो। मैंने यह उठा ली।’’ रॉबर्ट ने कहा। टैरेन्स ने बैग खोला, उसमें माँ का लिखा पत्र भी था। ‘‘यह सब टैरेन्स के लिए।’’
टैरेन्स,
मेरे जाने के बाद जब तुम बड़े हो चुके होगे। यह पत्र तुम्हारे हाथ में होगा। हो सकता है, तुम्हारे डैड मेरे प्रति कोई गलत खाका तुम्हारे समक्ष खींचे। लेकिन तुम्हारे डैड ने मुझे कभी प्यार नहीं किया। उन्होंने सदैव मुझे अपमानित किया और मारा-पीटा। पहले वे मेरे गुनहगार रहे। मेरे होते जीनिया को अपनी पत्नी बनाया। मेरे एक मात्र सहारा... मुझे नहीं मालूम था तुम कैसे होगे? लेकिन मैं तुम्हें बेहताशा प्यार करने लगी। जब तुम पैदा हुए तो मैं आश्चर्य से भर उठी... तुम वही थे मेरे बेटे मेरी कल्पनाओं में... तुम्हें देखकर मैं जीने लगी। लेकिन तुम्हारे डैड तब भी मुझे अपमानित करते रहते। जबकि मैं उनसे दूर हो चुकी थी। हां टैरेन्स... कभी तुम अपने डैड से या ग्रैंड मदर से सुनोगे कि मैं बेवफा थी... लेकिन टैरेन्स मैं बेवफा नहीं थी। लेकिन तुम्हारे डैड ने मुझे बेवफा बना दिया। मैं तो सम्पूर्ण तुम्हारे डैड में डूबी थी... लेकिन टैरेन्स मैं प्यार चाहती थी। ... इज्जत चाहती थी। मेरी कोई परवाह करे इन सबकी मैं चाहत रखती थी। मैं अवहेलना बर्दाश्त न कर पाई और किसी दूसरी राह निकल गई। मेरे बच्चे मुझे गलत नहीं समझना, जब यह पत्र तुम्हारे हाथ में होगा तब तक तुम जवानी की दहलीज पर कदम रख चुके होंगे। मुझे समझोगे... और अपनी ज़िदगी का निर्णय स्वयं करोगे। टैरेन्स, तुम यह मेरी जूलरी मेरी तरफ से अपनी पत्नी को देना। और उसे सदैव प्रेम करना। एक औरत प्यार की भूखी होती है यह सदैव याद रखना।
- तुम्हारी माँ
’’’
टैरेन्स घुटनों में मुंह छुपाकर रो पड़ा। ‘‘माँ तुम कहां हो?’’ कितने वर्ष बीत गए लेकिन टैरेन्स माँ को सदैव अपने नजदीक ही पाता है।
रॉबर्ट ने किट खाली किया। अभी भी उसमें उसके सॉक्स पड़े थे, जो गीले थे और उनमें से बदबू आ रही थी। रूमाल, गंदे कपड़े और एक छोटा-सा रूमाल...ओह! यह तो लीसा का है। उसने रूमाल को अपनी हथेलियों में कठोरता से दबा लिया कि कहीं वह भी उसे छोड़ कर न चला जाए। हां, अगाथा की लिखी पर्चियां वह टैरेन्स से छुपा गया। इन्हें वह जहाज पर पढ़ेगा, उसने सोचा।
सामान में क्या था जो उसे ले जाना था? बस, पेन्टिंग्ज, पेन्टिंग का सामान, कुछ बरसों से रखी चीजें, जैसे पिता की निशानी के तौर पर एक बड़ा पीतल का लैम्प था, जिसमें बहुत बारीक सुंदर नक्काशी थी। यह उसकी पढ़ाई के लिए लाया गया था। माँ की तो ऐसी कोेई भी निशानी नहीं थी। बस, एक नीला गुदगुदा कम्बल था, जिसमें माँ ने पीले भरे हुए रेशम के धागों से कशीदाकारी की थी। और कम्बल के चारों ओर रेशम के कपड़े का बॉर्डर लगाया गया था। और भी छोटे-बड़े नगों की अंगूठियां, चांदी का ब्रेसलेट, चांदी का गिलास, कटोरी जो उसने फादर को दे दी थीं कि वह किसी गरीब लड़की की शादी में दे दें। फादर ने एक बहुत सुंदर गोल्ड का क्रास उसे दिया था। जब वे आखिरी बार मिले थे, भेंटस्वरूप जो उसने बहुत श्रद्धा – विश्वास से ले लिया था। अपने कपड़े और माँ-पिता की अंतिम निशानियां यह सब उसने एक बड़े कार्टन में पैक कर लिया था। हां! अपने साथ लटकाने वाले बैंग में उसने टैरेन्स की दी ढेर सारी किताबें भर ली थीं, जो जहाज में उसके काम आएंगी। उसने टैरेन्स के बंगलो में माँ की किताबों की अलमारी में मिली थीं। वह उन पर्चियों से अपना लोभ संवरण नहीं कर पा रहा था। न जाने क्यों उसे सब कुछ जानने की इच्छा थी।
टैरेन्स बहुत भावुक हो रहा था। उसने खाने-पीने का एक बहुत बड़ा कार्टन पैक करवाया था। फ्लावरड्यू की माँ भी जहाज के लिए बहुत सारा नाश्ता दे गई थीं। जाने का समय सामने था। एक दिन बीच में था। फिर परसों सुबह 8.30 बजे जहाज लंदन से निकलेगा। बहुत सारे सैनिक और कई परिवार जहाज में होंगे। सारी कार्यवाही पूरी करते-करते उसे समय लगेगा। इसलिए 5 बजे सुबह वहां पहुंच जाना पड़ेगा। कल का सारा दिन वह टैरेन्स के साथ लंदन की सड़कों पर रखड़ेगा। सब कुछ भूल कर दोनों मस्ती करेंगे। ऐसा टैरेन्स ने कहा है।
’’’
टैरेन्स लगातार साथ था। जहाज में चढ़ने की कार्रवाईयां पूरी करने में दोनों जुटे थे। सामान ज्यादा नहीं था, फिर भी था। कोई भी सैनिक पहचान का नहीं दिख रहा था। छोटे बच्चों की चीख-चिल्लाहट साथ में मची थी। कई अंग्रेज महिलाएं चिढ़ी हुई थीं कि उनके पति को इंडिया भेजा जा रहा है। वे परिवार सहित अपने देश को छोड़ रहे थे। बिल्कुल मेले जैसा माहौल था। रॉबर्ट खड़ा सोचता रहा, सबके पास कितना सामान है। बात करने को परिवार, पत्नी-बच्चे हैं। जो अकेले होंगे, शायद उनके मित्र साथ हो। जिनके परिवार साथ थे उन्हें केबिन दिया जा रहा था। वह जनरल में जा रहा था। टैरेन्स का हृदय बार-बार भर रहा था।
फादर रॉडरिक सामने खड़े थे। उनके हाथों में धार्मिक पुस्तक थी। वे जानते थे रॉबर्ट यह सब नहीं पढ़ेगा। अत: उन्होंने उस पुस्तक को रॉबर्ट के सामने किया। रॉबर्ट ने पुस्तक पर माथा टेका। पिता की उम्र से भी बड़े फादर ने उसके सिर पर हाथ फेरा। रॉबर्ट ने देखा कि उनकी आँखें मोती जैसे स्वच्छ आँसुओं से भरी हुई थीं। वे कुछ देर उसे देखते रहे। आँसुओं को उन्होंने लुढ़कने नहीं दिया। अपने कांपते बूढ़े हाथों से रॉबर्ट के दोनों हाथों को पकड़ा। हाथ कांपे। फिर उन्होंने हाथों को छोड़ दिया और बिना पलटकर देखे चले गए। रॉबर्ट की आँखें भी भर आईं। वह दूर जहाज के ऊपरी पिलर पर लगा ब्रिटिश कंपनी साम्राज्य का झंडा देखने लगा।
‘‘तुम्हारी इच्छा थी रॉबर्ट तुम इंडिया जा रहे हो। यदि मुझे भेजा जाता तो मुझे सचमुच तकलीफ होती।’’ टैरेन्स के शब्द हल्के कांपे और फिर ऐसा लगा कि वह रो पड़ेगा।
एकदम थके कदमों से टैरेन्स ने रॉबर्ट से कुछ दूरी बना ली। सभी जहाज पर चढ़ने के लिए जाने लगे। कुछ महिलाएं रो रही थीं। संभवत: अपने माता-पिता से बिछड़ रही थीं अथवा वे महिलाएं जिनके पति आदि जा रहे थे। और वे अकेले छूट रही थीं।
रॉबर्ट को लगा- लीसा दौड़ती हुई आ रही है। नहीं जाओ रॉबर्ट, मैं अकेली हूं। ... रॉबर्ट... रॉबर्ट... लेकिन दूसरे ही पल रॉबर्ट ने देखा कहीं कोई नहीं... एक शून्य पसरा हुआ था। और वह जहाज पर चढ़ने वाला अंतिम यात्री था। जहां तक नज़र जाती रही वह डेक पर खड़ा टैरेन्स को हाथ हिलाता रहा। फिर सभी हाथ गड्डमड्ड हो गए, कौन किसे विदाई दे रहा था नहीं मालूम। लेकिन वह घंटों वहीं खड़ा रहा। समुद्री हवाएं उसके चेहरे को सहलाने लगीं। वह डेक पर अकेला था। साथ में लीसा थी। यहां लीसा... वहां लीसा... फिर फ्लावरड्यू क्यों नहीं?
’’’
लकड़ी का बना शयनयान, उस पर एक मोटा गद्दा और वैसा ही भरा हुआ कड़क मोटा तकिया, एक चादर और एक अतिरिक्त तकिया... उस पर वह लेट गया। जनरल केबिन में बहुत हंगामा था... लोग खा रहे थे, पी रहे थे। जोर-जोर से हँस रहे थे। लेकिन वह आँखें बंद करके लेटा हुआ था। न फादर याद आए... न टैरेन्स और न ही कोई और बस आँखों के समक्ष लीसा थी। जो समुद्र की लहरों द्वारा उसे दूर ले जा रही थी। इतनी दूर कि कभी वापिस लौटना क्या मुमकिन हो पाएगा? कहाँ थी फ्लावरड्यू... लगता है फ्लावरड्यू एक कर्त्तव्य थी और लीसा उसका प्यार। अभी 11 ही बजे थे, उसकी आँखें बोझिल थीं... न नींद थी... न ही भूख। टैरेन्स ने कहा था कुछ खाते रहना। जहाज में शुरू के दिनों में ही सी सिकनेस रहती है। पेट भरा रहेगा तो उल्टी महसूस नहीं होगी, सिर नहीं चकराएगा। उसका सामान कुछ उसके साथ था, कुछ स्टोर में रखवा दिया था। सचमुच सिर घूम रहा था। चाहकर भी वह डेक पर नहीं जा पाया। उसने खाने का डिब्बा निकाला और धीरे-धीरे कोई चीज कुतरने लगा। वह सचमुच भूखा था। उसे पता ही नहीं था। जनरल डॉरमेट्री में काफी सन्नाटा था। सभी लेटे थे। कोई पढ़ रहा था, कोई उल्टा लेटा था। कई सो चुके थे। और कईं शून्य में ताकते हुए लेटे थे। अवश्य ही अपने घर को याद कर रहे होंगे। टैरेन्स अपने को सम्हाल लेता है, लेकिन फादर रॉडरिक... वे उदास थे। उन्हें अपने बेटे का जाना... कैसे सहा होगा उन्होंने? एक बजे हूटर बजेगा। सभी हॉल में खाने के लिए जाएंगे। पूरे डेढ़ घंटे हैं। वह आँखें बंद करके लेट सकता है। नींद आ जाए तो अच्छा है। लेकिन विचारों से मुक्ति कहाँ? सचमुच नींद नहीं आई।
लंच का हूटर बजा। सब एक दूसरे को जगाने लगे। मानों बरसों से परिचित हों। हाँ! शायद हों भी क्या पता?
लेकिन वह किसी को नहीं पहचानता था। एक लम्बे सुंदर घने बालों वाला चेहरा उसके समक्ष आया।
‘‘हलो! मैं एल्फिन...।’’
‘‘हलो!’’ अनिच्छा से रॉबर्ट ने हाथ आगे बढ़ाया। ‘‘रॉबर्ट गिल।’’
‘‘अकेले हो?’’ एल्फिन ने पूछा।
‘‘हाँ।’’ रॉबर्ट ने कहा।
‘‘मैं भी अकेला हूँ।’’ लड़का बोला।
‘‘सभी अकेले हैं अपने आप में।’’ रॉबर्ट ने एक ठंडी सांस लेते हुए कहा।
‘‘नहीं! सभी नहीं... सब आपस में परिचित हैं।’’
एल्फिन रॉबर्ट की बात नहीं समझा और बोला।
रॉबर्ट इतनी उदासी में था, मानो बहुत कुछ पीछे छोड़ आया हो।
‘‘मैं इंडिया जाना नहीं चाहता था, लेकिन मुझे भेजा जा रहा है। मेरी माँ बहुत रोई थी। छोटा भाई भी है, डैड नहीं हैं।’’ एल्फिन की आँखें भर आई थीं।
रॉबर्ट निर्विकार-सा उसकी तरफ देखता रहा। अपने-अपने दु:ख ... मैं जाना चाहता हूँ, तो भी उदास हूँ। ... यह नहीं जाना चाहता इसलिए उदास है।
दोनों खाने की टेबिल पर आमने-सामने बैठे थे। हॉल में शोर था। परिवार वाले पहले ही खाकर जा चुके थे। टेबिल पर जूठन थी। न जाने कैसी गंध... शायद सी फूड की। रॉबर्ट फिलहाल अकेला रहना चाहता था इसलिए बात करने के मूड में नहीं था।
बड़े से लैम्प की लपडुप रोशनी टेबिल पर पसरी पड़ी थी, फिर भी सभी लैम्प ऐसे होने लगे मानो अभी जलना नहीं चाहते हो। वह लैम्प से दूर था लगभग अंधेरे में। लैम्प की धीमी हिलती रोशनी में एल्फिन के बाल चमक रहे थे। इतने चमकीले बाल बहुत कम देखने में आते हैं। रॉबर्ट ने सोचा। वह बहुत उदास था।
‘‘तुम बहुत उदास हो दोस्त फिर यहाँ आने का निर्णय लिया ही क्यों?’’ एल्फिन ने कहा।
‘‘कई निर्णय अपने आप हो जाते हैं, हम चाहें न चाहें फिर भी।’’ कहते हुए वह हँस दिया। अंधेरे में हँसी दिखाई नहीं दी। उसके शब्द उदासीन थे। दुनिया की लालसाओं के बीच अपने को अलग रखते हुए।
तभी एक छोटी-सी लड़की दौड़ती हुई आई। उसकी बिल्ली उसके केबिन से बाहर निकल गई थी... वह उसे ढूंढने दौड़ी थी। वह उसे ढूंढने दौड़ रही थी। कई आर्मी आॅफिसर अपना सामान, अपने घरेलू जानवर कुत्ता-बिल्ली और अपने परिवार सहित इंडिया जा रहे थे।
बिल्ली सफेद थी जो अंधेरे में भी चमक रही थी। रॉबर्ट के पैरों के एकदम नजदीक। छोटी-सी बिल्ली मुलायम बालों वाली। रॉबर्ट ने झुककर बिल्ली पकड़ ली और छोटी लड़की के हाथों में थमा दी।
‘‘मैं लीसा डे एंड्रिया।’’ उसने अपना नाम बताते हुए रॉबर्ट के हाथों से बिल्ली ले ली।
रॉबर्ट कांप उठा... लीसा... कहाँ हो तुम लीसा?
वह बिना बोले एकदम चुपचाप वहाँ से उठा और अपने बिस्तर पर जाकर लेट गया। सभी लोग वहाँ सो गए थे। एल्फिन बाहर खड़ा सिगार पी रहा था।
कब नींद आई पता नहीं चला। लेकिन घुप्प अंधेरा था। उसकी नींद खुल गई थी। वह डेक पर जाकर खड़ा हो गया। समुद्र काला और शांत था। लेकिन हवा ठंडी थी। एक ठंडी-सी ठिठुरन उसके भीतर सिहरन पैदा करने लगी।
उसके भीतर एक अजीब सा विषाद जमा होने लगा था... उसे लगा पिछले एक वर्ष में जो कुछ उसके साथ हुआ फ्लावरड्यू से सगाई, लीसा से प्रेम संबंध... इन सबने उसके भीतर इतनी टूट-फट पैदा कर दी कि उसका दुबारा जुड़ पाना क्या संभव हो पाएगा? अब आज वह यहाँ है अपने देश से दूर... दुनिया के शोर से दूर, अपनी ही रौ में चला जा रहा हूँ। बल्कि अपने आप को स्वयं ही धकेलता सा, तो लगता है, जा ही क्यों रहा हूँ। अपने ही देश में रहकर भी तो जिया जा सकता था। बचपन का दोस्त छूटा... लीसा ने तो मुंह ही मोड़ लिया और फ्लावरड्यू? उसका क्या दोष? अभी वह कम उम्र की है, जहाँ माता-पिता ने चाहा वह उसी पगडंडी पर आगे बढ़ गई।
तुम्हारी ज़िंदगी में है क्या? वह सोचता है।
टैरेन्स की ज़िंदगी में तो बहुत कुछ है जिसे वह बांट सकता है। उन पर खुश हो सकता है या दु:खी हो सकता है। लेकिन, मेरी एकरस ज़िंदगी में क्या है।
जहाज के इंजन की घरघराहट तले सब आवाजें पिस रही थीं। समुद्र में सतरंगी उजाला धीमे-धीमे फैला रहा था। लेकिन वह वहीं खड़ा रहा। आवाजों को उसने समुद्र में डूब जाने दिया और अब केवल वह अपने को सुन रहा था।
‘‘तुम क्यों आए रॉबर्ट? क्यों लीसा को प्रेम प्रसंग में उलझाया और क्यों फादर रॉडरिक से सब कुछ सच-सच नहीं बताया? ये फादर के सामने अपने गुनाहों का कन्फेशन होता, तुम उबर जाते और फादर फैसला ले पाते। तब तुम्हारा हृदय शायद इतना चोटिल न होता।
और अब? अब न वापिस लौट सकता हूँ मैं... और न आगे जाकर अब मुझे लीसा मिलेगी। और, न फादर से कनफेक्शन कर सकता हूँ। और न ही टैरेन्स मिलेगा। तभी उसने देखा कि बिल्ली आगे-आगे डेक पर दौड़ रही है और पीछे वही छोटी-सी लड़की। बिल्ली उसकी पकड़ से बाहर है। उसकी माँ पीछे दौड़ रही थी। लीसा... लीसा वह पुकार रही थीं। तभी किसी केबिन से कुत्तों के भौंकने की आवाज सुनाई दी। बिल्ली ठिठकी... सहमी और उसके शरीर के सभी बाल खड़े हो गए। पूंछ सीधी खड़ी हो गई। फिर वह सरपट लकड़ी और लोहे से बनी ऊपर जाने वाली सीढ़ियों पर फलांगती हुई चढ़ गई। बिल्ली बहुत डर गई थी। बच्ची भी उसके पीछे दौड़ी तभी रॉबर्ट ने देखा कि बच्ची का संतुलन बिगड़ेगा तो वह गिर सकती है, उसने झटके से बच्ची को गोद में उठा लिया। अब वे दोनों जहाज के डेक पर थे। उसने बच्ची को गोद से उतार दिया और दोनों ने मिलकर बिल्ली को पकड़ लिया। तभी उसकी माँ भी पीछे से आ गई थी। उसने रॉबर्ट को ‘थैंग्ज’ कहा। माँ, बेटी और बिल्ली जा चुके थे। वह देर तक डेक पर खड़ा रहा।
’’’
वही प्रतिदिन की दिनचर्या थी। ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर। डिनर से पहले जहाज की बाल्कनी पर टेबिल-कुर्सी रख दिए जाते। और फिर दो-दो, चार-चार की टोली टेबिल के ईर्द-गिर्द बैठ जाती। सिगार और शराब का दौर चलता। हँसी मजाक होता। घर बाहर की बातें होतीं और बातें तब थमतीं, जब कोई अधिक पी लेने के कारण उल्टियां करने लगता। सी-सिकनेस भी रहती। या फिर भारत देश आकर बातें थमतीं... सभी उस गंवार-आलसी देश को देखने को उत्सुक थे, जहाँ पर उनकी हुकूमत थी।
रॉबर्ट को न ही उल्टी आती और न ही वह अधिक समय तक सबके साथ बैठा रह पाता। वह अपने पलंग पर जाकर औंधा लेट जाता और लैम्प की मद्धिम रोशनी में कुछ न कुछ पढ़ता रहता। हर दिन वह कोई न कोई स्कैच डेक पर खड़ा होकर बनाता। फिर उनमें रंग भरता। कभी एकदम यूं ही कूची लेकर रंगों से खेलता और उसके सामने होती एक मोहक पेन्टिंग। पानी, समुद्र, नौकाएं, चंद्रमा, सूरज का उगना, डूबना और पानी पर फैलते सुनहरे रंग। उसके रेशमी तांबई-सुनहरे बाल पीठ पर छितराए उड़ते रहते। वह खामोशी में भी बातचीत कर लेता अपने आप से और उत्तर भी ढूंढ़ लेता। वह पिछली बातो में खोया रहता... लेकिन लीसा को लेकर वह अपराधी महसूस करता। बार-बार वह अपनी ज़िंदगी के उन लम्हों को समय पर छोड़ देता। लेकिन स्वयं को एक सूखे झाड़ की खोखली-मोटी शाख की तरह समुद्र में बहता हुआ पाता। उसे लगता कि यह शाख स्वयं एक सुंदर द्वीप पर आ टकराएगी और उसकी दोनों हथेलियां सुखों से भर जाएंगी। कितना तन्हा था वह। यह चार सौ पचास यात्रियों से भरा जहाज और वह एकदम तन्हा... ठंडी तेज हवाओं में वह जहाज के छत पर होता जहाँ लीसा के साथ वह सफेद बिल्ली के पीछे भागता। या ‘लीसा’ नाम का शब्द बार-बार उसके कानों से टकराए ऐसा इसीलिए करता।
उसे समझ में नहीं आता था कि सारे निर्णय उसके थे, फिर इतनी उदासी क्यों? लगता है उदासी उसके जीवन का एक हिस्सा थी। वह सोचता कि शामें उसे उदास करती हैं। लेकिन वह देखता कि चाहें जब वह उदास हो सकता है, वह कोई सा प्रहर ही क्यों न हो।
यदि टैरेन्स साथ आता तो संभवत: रास्ता कट जाता। कोई तो था जो उसके संपूर्ण से परिचित था। क्या टैरेन्स भी उसको छोड़कर उदास होगा या उसने अपने आपको सम्हाल लिया होगा। टैरेन्स को पढ़ने का शौक है और रॉबर्ट मानता है कि पढ़ने में सुख, दु:ख, खुशी, सब कुछ होती है।
आज वह अपना लोभ संवरण नहीं कर पा रहा था। उसे वह पर्चियाँ पढ़नी थीं जो अगाथा की थीं और जिन्हें वह अपने साथ किताबों के बीच रख कर ले आया था। इतना तो वह जानता ही था कि पत्र अगाथा ने किम को लिखे थे। वह सोच नहीं पा रहा था कि अगाथा के ये पत्र किम तक क्यों नहीं पहुंचे। यह अगाथा के पास कैसे थे?
पहला पत्र (कोई संबोधन नहीं था)
मेरे प्यार,
तुमने कैसे जाना कि मैं दरवाजे पर खड़ी मिलूंगी। आते ही तुमने कहा था-‘‘अगाथा, मुझे पता था कि तुम दरवाजे पर खड़ी मिलोगी।’’ जानते हो वह धूप में जला-भुना सांड अभी-अभी व्यापार के सिलसिले में दूर-दराज किसी जगह गया है। मैं पूछना भी नहीं चाहती थी कि कहाँ जा रहे हो? तुम आओगे यह मेरे मन-मस्तिष्क में तय था। और जब तुम मुझे बाहर दरवाजे पर मिले तो मैं संपूर्ण सिहर उठी। तुमने मुझे लिपटा लिया और कहा-अगाथा, मुझे पता था... भला तुम्हें कैसे पता था किम?
प्यार लो
मेरे प्यार!
मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है। मेरे प्रारब्ध में जो था मुझे मिला। और, अब जो है वह मिल रहा है। तुम हो मेरे जीवन में इससे बड़ी सांत्वना और क्या हो सकती है?
प्यार तुम्हें।
अगाथा
किम!
जले भूरे सांड को जो राह समझ में आई उस पर वह चल पड़ा। जबकि मैं तो उसे ही समर्पित थी। तब दिमाग में एक खूबसूरत समर्पण था पति के प्रति। पति के लिए। ओह! किम।
(इसके नीचे कुछ नहीं लिखा था)
मेरे प्यार!
और मुझे राह में तुम मिलें तो मुझे महसूस हुआ कि मैं तो सदियों से इस राह पर खड़ी तुम्हारी ही प्रतिक्षा कर रही थी। और, जब तुम मिले तो मैं संपूर्ण हो गई। मेरे पथ पर अनगिनत आकाशीय दिए जल उठे। उसी रौशनी को हथेलियों में लिए मैं तुम तक आ पहुंची। मुझमें समाँो किम।
तुम्हारी ही आगाथा
तुम मुझ पर दया तो नहीं करते? मुझे दया नहीं, प्रेम चाहिए।
किम, आत्म बलिदान में सुख होता है। मुझसे ज्Þयादा इसे कौन समझेगा?
...तुम्हारी
माँ कहती है किम, गृहस्थ धर्म निभाओ। गृहस्थ धर्म ही तो निभा रही हूँ। नहीं तो कभी की निकल चुकी होती। सामने टैरेन्स का भविष्य है। घर से निकल गई तो शायद टैरेन्स के लिए अकेली कुछ न कर पाऊं। सामने ऐसा कुछ दिखता नहीं किम जो वर्तमान, भविष्य संवार दे। माँ के पास जाऊं तो चंद भेड़े और उनका ऊन निकालकर क्या कर पाऊंगी?
कम से कम टैरेन्स पढ़ेगा यहाँ रहकर।
तुम हो तो सांत्वना है कि मैं रहूँ या न रहूँ। तुम टैरेन्स को भटकने नहीं दोगे।
प्यार लो जो तुम्हारे लिए अब तक सहेजकर रखा था-और रहेगा।
अगाथा
किम,
यूनिवर्स कहता है जो तुम्हारा है तुम्हें अवश्य मिलेगा, भले ही रूप बदल जाए। किम आत्मबलिदान में सुख होता है। मुझसे ज्यादा इसे कौन समझेगा? मुझमें समाओ किम।
तुम्हारी
अगाथा
मेरे सामने कितने ही प्रश्न खड़े हैं किम। टैरेन्स की दादी कहती है-मैं बेवफा हूँ। उसने कभी यह क्यों नहीं कहा कि उसका बेटा बेवफा है। किम, मैं किस राह पर चली गई इसका सरासर दोषी जॉन एफ. ही तो है। तुम न मिले होते किम, तो संभवत: ये लोग मुझे खत्म ही कर देते, यह बोल-बोलकर कि मैं जॉन एफ. के लायक नहीं हूँ। मैं अपनी माँ के घर क्यों नहीं चली जाती? तुमने मुझे संबल दिया। मैं किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं हूँ। मैं क्या हूँ... कैसी हूँ... तुम जानते हो।
प्यार
अगाथा
रॉबर्ट ने सारी पर्चियाँ समेटकर उसी बैग में डाल दीं।
आह! प्रेम... कहीं प्रेम एक गुनाह तो नहीं है और हम सभी गुनहगार हों। उसने सोचा।
‘‘बहुत सोचते हो यार...।’’ पास ही एल्फिन खड़ा था।
‘‘सचमुच।’’ उसके मुंह से एक आह निकली।
‘‘कितनी सच्चाई होती है न सोचने में जब हम स्वयं से रूबरू होते हैं। चर्च में फादर भी हम अपराधी भी हम... और कन्फेशन का कटघरा भी हम।’’ रॉबर्ट बुदबुदाया।
‘‘उठो डेक पर चलते हैं’’ एल्फिन ने कहा।
रॉबर्ट ने जूते पैर में डाले और उठ कर खड़ा हो गया। मेज के पास एक पर्ची नीचे गिरी पड़ी मिली शायद रखते समय गिर गई होगी। उसने उठाई, लिखा था-
‘‘जब आप किसी को प्यार करते हैं आपकी मुलाकात दुनिया के सबसे खूबसूरत व्यक्ति से होती है यानी तुम किम। अरे! यह मैं थोड़े ही कह रही हूँ यह तो महान थिंकर और गणितज्ञ ब्लेज पास्कल ने कहा था।’’
अगाथा
हैरान रह गया रॉबर्ट। जिसे अशिक्षित बुद्धि में कम समझा जाता रहा वह स्त्री कैसे महान लोगों को पढ़ती रही है। और उन्हें याद भी रखती थी ।कैसे जा़हिल लोगों के बीच में थी अगाथा। ......ओह ।
पर्ची रखकर रॉबर्ट फुर्ती से डेक पर गया। जहाँ एल्फिन खड़ा था। उसके बालों पर शाम की ढलती धूप पड़ रही थी जो बालों को अधिक चमकदार बना रही थी। वह उसके बाजू में जाकर खड़ा हो गया।
‘‘आह! ऐसा कुछ नहीं है एल्फिन! जो उदासी की वजह हो।’’
उसने पर्चियाँ... नहीं डायरी के अंश...नहीं बेतरतीब पत्र, सम्हाल लिए थे। एल्फिन उसे अकेला क्यों नहीं छोड़ देता? महीनों-सालों से वह अकेला ही तो रहा है, अपने में डूबा खोया-खोया-सा... एल्फिन हँसने लगा।
‘‘मैं जानता हूँ रॉबर्ट, कोई प्रेम प्रसंग है जो अधूरा छूट गया है... या तुम्हें छोड़ना पड़ा। क्योंकि इस बीच तुम्हारी शादी तय हो गई।’’
रॉबर्ट चौंक पड़ा। बुदबुदाया – इस बीच नहीं, पहले से तय थी। उसका बुदबुदाना एल्फिन ने नहीं सुना। लेकिन वह रॉबर्ट का ‘चौंकना’ देख पाया... वह हँसने लगा। फिर जोर-जोर से हँसा कि उसकी हँसी रॉबर्ट को चुभने लगी।
‘‘तुम्हें कैसे पता?’’ उसने एल्फिन से पूछा।
एल्फिन की हँसी अब बंद थी। वह बोला-‘‘जानते हो रॉबर्ट? यही कहानी सबकी होती है। ऐसा ही तुम्हारे साथ होगा मेरे दोस्त।’’ उठते हुए उसने कहा- फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है।’’
क्या सब कुछ सचमुच सामान्य हो पाएगा? क्या वह सचमुच लीसा को भूल पाएगा? वह लीसा के प्रति फिर अपराधबोध से भर उठा। और वह मानता है कि कहीं न कहीं वह फ्लावरड्यू के लिए भी अपराधी था।
खाने की टेबिल पर चर्चा थी, पांच दिन में इंडिया पहुंच जाएंगे। एक लंबी यात्रा समाप्ति की ओर थी। इंडिया नाम से रॉबर्ट का हृदय धड़कने लगता था। क्या है वहाँ जो उसे विचलित करता है। यह तो निश्चित है कि अब वह लंदन नहीं लौटेगा। लेकिन इंडिया को बगैर देखे ऐसा निर्णय भी कहीं गलत न हो। फ्लावरड्यू कहती थी-‘‘वहाँ मलेरिया चाहें जिसको हो जाता है, क्योंकि वहाँ बड़े-बड़े मच्छर हैं इतने बड़े कि किसी ने अभी तक वैसे मच्छर देखे नहीं होंगे।’’ वह हँस देता था, बगैर देखे ऐसी धारणाएं कैसे लोग बना लेते हैं। हैजा है, प्लेग है और न जाने कौन-सी बीमारियां।
‘‘तुम बच कर रहना।’’ उसने रॉबर्ट से कहा था।
‘‘हाँ, जरूर।’’ उसकी घबराहट को रॉबर्ट के चुंबन ने विराम लगा दिया था। फ्लावरड्यू ने आँखें मूंद ली थीं। बाहर घोड़ा गाड़ी के घोड़े हिनहिनाए थे और घंटियां भी बजी थी। अर्थात हम तैयार हैं चलो। लेकिन रॉबर्ट ने ड्यू को छोड़ा नहीं था। वह उसका बदन सहलाने लगा और ड्यू भी विरोध नहीं कर पाई थी।
उसके शरीर में भी सिहरन हुई थी। फिर उसने झटके से ड्यू को छोड़ दिया। ड्यू भागती हुई बाहर निकली थी और फिटन में जाकर अपनी माँ के बगल में बैठ गई। उसका चेहरा लाल हो गया था। टैरेन्स और रॉबर्ट जाती हुई फिटन गाड़ी को हाथ हिलाते रहे थे।
..............
जहाज से उतरकर वह अकेला खड़ा था। इस लंबी यात्रा से अधिकतर लोग थक चुके थे। कोई किसी को लेने नहीं आया था। अनजान देश, लंबा सफर और किसी के ना होने का अहसास । एल्फिन उसके पास आया।
‘‘चलो रॉबर्ट।’’
रॉबर्ट चौंक पड़ा। इस अपरिचित देश के बंदरगाह पर इन्डियन मजदूर जहाज से सामान उतारने लगे। जहाज का भोंपू काला धुआं उगल रहा था। बड़ी-बड़ी लोहे की सांखलों (जंजीरों) से जहाज को बाँध दिया गया था।
एक अजीब सी गहमा-गहमी पूरे बंदरगाह पर थी। रॉबर्ट उदास होना नहीं चाहता था। यही तो उसने चाहा था कि वह यहाँ आए और यहाँ की आर्मी ज्वाइन करे। लेकिन अब, जब वह इंडिया के तट पर खड़ा था अपने आपको बेहद अकेला महसूस कर रहा था।
इंडिया पहुंचे सभी सैन्य अधिकारियों को दूसरे दिन सेना के कक्ष में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी थी। अलग-अलग जगहों पर उनके रहने का प्रबंध था।
सामने लकड़ी के खोखों पर नाम लिखे हुए थे। खोखों का अंबार लग चुका था। कुछ अंग्रेज सैनिक अल्फाबेटिकल खोखों को गोडाऊन में रखवाने लगे।
एल्फिन ने विदाई ली। और कूदता फांदता रॉबर्ट से काफी दूर निकल गया।
अब कल ही सामान लेने आएगा, सोचकर वह भी सेना के हैडक्वार्टर की ओर चल पड़ा।
.........
अभी तो सैन्य छावनी में एक मकान में दो-तीन लोग रुक गए थे। बहुत सारे सैनिकों को टैन्ट में रुकाया गया था।
वह जुलाई की गर्मी-उमस भरी एक सुबह थी। लेकिन आकाश में कुछ काले-सफेद बादल तैर रहे थे।
सत्रह-अठारह वर्ष के एक इंडियन लड़के ने काँच के गिलास में जो पेय रखा वह ‘चाय’ थी, जिसमें दूध और ढेर सारी शक्कर थी। उसने एक घूंट चाय की ली और उल्टी आने जैसा मुंह बनाया। यह चाय थी कि कोई दवा? लड़का मुस्कुराया।
गिलास वापिस उठा लिया-जितना उसको आता था या उसने सीख लिया था बोला-ब्रेक फास्ट कैंटीन.... उसने बाहर इशारा किया। बाथरूम में दो लोहे की साफ -सुथरी बाल्टियों में पानी भरा था। नहाने के लिए लोटा था। रॉबर्ट नहाने चला गया। नहाने के बाद उसे अच्छा महसूस हुआ। वह कैन्टीन की तरफ जाने लगा... जहाँ से बहुत शोर आ रहा था।
समुद्री खाने से अलग उसे बहुत दिन बाद ऐसा खाना मिला था कि वह खा सकता था। वह रोटी को उलट-पलटकर देखने लगा। वही लड़का जो उसके पास चाय लेकर आया था। उसको भाग-भागकर खाना परोस रहा था। खाने के बाद उसने एक प्लेट में सौंफ-इलायची उसके सामने रखी-सर,
उसने इलायची उठाकर मुंह में रखी और फिर उसका नाम पूछा-
‘‘जयकिशन।’’
’’’
कमरे में आकर वह अपने बिस्तर पर लेट गया। आज रात ही उसे तीन पत्र लिखने थे, जो जहाज से लंदन भिजवाने थे। फादर, टैरेन्स और फ्लावरड्यू को। और लीसा?
सभी गर्मी-गर्मी चिल्ला रहे थे लेकिन वह शांत होकर अपने पत्रों को लिफाफे में रख रहा था।
‘‘तुम हर परिस्थिति में इतने शांत कैसे रहते हो रॉबर्ट?’’
सामने हँसता हुआ एल्फिन खड़ा था।
’’’
समय बीत रहा था। रॉबर्ट को उसकी पोस्ट के हिसाब से बंगलो मिला था, समुद्र किनारे। सभी को अपने काम समझा दिए गए थे। सैनिकों को ट्रेनिंग पर भेज दिया गया था।
ब्रिटिशर वैसे भी समय के बहुत पाबंद थे। हुकूमत करना जानते थे। उसने महसूस किया कि इंडियन न केवल सीधे हैं, बल्कि डरपोक भी हैं। वे अंग्रेजों को देखकर ही डर जाते हैं। जब तक लंदन से सीधे मद्रास आए ब्रिटिशर ने मद्रास के अतिरिक्त कुछ नहीं देखा था तो वे समझते थे कि सारा इंडिया ही लुंगी बाँधता है। काला है और मोटा शरीर है और भाषा, बोली? समझ से परे... वैसे कुछ ही ब्रिटिशर थे जो हिन्दी समझते थे या समझना चाहते थे। बाकी सभी जैसे तैसे काम चला रहे थे। जहाज में रास्ते भर रॉबर्ट ने हिन्दी कैसे बोलें समझना चाहा था। और, काफी नाम उसने सीख भी लिए थे। उसे पौधों में, सब्जियों में, फूलों में, जानवरों में दिलचस्पी थी तो उन्हें वह सीख रहा था कि उनके हिन्दी नाम क्या हैं?
एल्फिन उस पर हँसता था। कहता था-‘‘दोस्त इतना डीपली क्यों जा रहे हो। बस कुछ समय रहना है। फिर वापिसी। फिर दूसरे, हमारी जगह। क्या पता हम कहाँ भेज दिए जाएं।’’
लेकिन रॉबर्ट को सबकुछ जानना समझना था। वह यहीं रहेगा ऐसा वह जानता था। यह उसके भीतर की आवाज थी। हुकूमत का अलग अपना चस्का होता है, जो इन अंग्रेजों के मुंह लग चुका था। अगर कभी वह लौटा भी तो शायद उसके पास इतना कुछ होगा जो वहाँ बताते-बताते एक इतिहास बन जाए।
वह इंडिया में जगह-जगह घूमेगा। पेन्टिंग, फोटोग्राफी, शिकार और फुटबॉल प्लेयर,माउथ आॅर्गन यही सब उसकी ज़िंदगी थी। पोलो खेलता और घुड़सवारी करता। घोड़ों की रेस में पैसा लगाना उसकी खासियत थी।
अपनी पेन्टिंग और फोटोग्राफी से वह ग्रेट ब्रिटेन को बता देगा कि इंडिया कैसा है?
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टैरेन्स ने खबर भेजी थी। फादर बीमार हैं। चाहते हैं कि उनके जीवित रहते फ्लावरड्यू और रॉबर्ट की शादी हो जाए। उन्होंने कहा है कि रॉबर्ट छुट्टियाँ लेकर इंग्लैंड आ जाए। वैसे भी तुम्हें गए तीन वर्ष हो चुके हैं। कब शादी करोगे? बहुत संक्षिप्त पत्र था। लेकिन पढ़कर रॉबर्ट विचलित हो गया।
अब उसके पास बड़ा बंगलो था। दो घरेलू नौकर, एक खानसामा (कुक), दो सुरक्षाकर्मी, दो घोड़े और एक फिटन गाड़ी और एक कुत्ता। वह भी भारत का कुत्ता अर्थात जिसे स्ट्रीट डॉग कह सकते हैं। बेहद सुंदर सफेद और ब्राउन रंग का। जयकिशन ने कुत्ते का नाम रखा था ‘जॉनी’।
जयकिशन मिलिट्री कैंटीन से रॉबर्ट के साथ ही आ गया था, वही जयकिशन जिसने पहली बार काँच के गिलास में दूधवाली चाय उसे दी थी। न जाने क्या था कि जयकिशन रॉबर्ट की तरफ खिंचा आया और न केवल उसका व्यक्तिगत कार्य देखता बल्कि उसका खानसामा भी बन गया था। रॉबर्ट उसे ‘जॉय’ कहता था। उसे हिन्दी सीखने में इसी जॉय का बहुत बड़ा हाथ था। अब तो रॉबर्ट हिन्दी बोलने ही नहीं लगा था, बल्कि लिख भी लेता था। बंगलो के गेट पर तख्ती लगी थी ‘कैप्टन रॉबर्ट गिल।’