भाग 4
‘‘रॉबर्ट! मानो मैं वहाँ मौजूद था। अक्षरश: सुन और देख रहा था। अगाथा की माँ जो मेरी हम उम्र सहेली थीं, वे मुझे बताती थीं। उनकी आँखों में दर्द का सागर था और अपने घर की आर्थिक मजबूरी।
अगाथा कमरे में चुप बैठी थी। दूध का गिलास सामने था। तभी जी़निया और जॉन पीटर कमरे में दाखिल हुए। उसका एक हाथ जी़निया की कमर में था। स्कर्ट और ब्लाउज के बीच की खुली नंगी कमर पर। देखकर सिहर उठी अगाथा और किसी आगत के भय से कांप उठी। जी़निया न जाने किस बात पर खुलकर हँसे जा रही थी। अगाथा को याद है, संभवत: माँ ने इतनी बार यह बात बताई है कि उसे याद है कि उस मौसम में बहुतायत से जी़निया के फूल खिले थे। उनके मकान के आगे और पीछे... और पीछे ढलवां पगडंडी के दोनों ओर सिर्फ जी़निया के फूल थे। रंग-बिरंगे फूल। उन्हीं दिनों जी़निया पैदा हुई थी। गुलाबी रंगत वाली फूल सी कोमल। पिता ने ही नाम दिया था उसका जी़निया। कहा था उन्होंने ‘‘इसकी ज़िंदगी फूलों की तरह सदैव महकेगी।’’
अगाथा ने अपनी माँ से कहा था- ‘‘जी़निया फूलों की तरह खुशबू दे रही हैं या एक ऐसी गंध जो उसके बर्दाश्त से बाहर है।’’
जॉन ने अगाथा के सामने दूध से भरा गिलास देखा तो कहा-‘‘पी लो डार्लिंग, देखो हम तुम्हारे लिए क्या लाए हैं। टेबिल पर एक रूमाल में बंधे सूखे मेवे खोलकर मि. जॉन एफ. वहाँ से बाहर चला गया। अगाथा ने सूनी आँखों से जीनिया की तरफ देखा और कहा-‘‘जी़निया, क्यों ऐसा कर रही हो तुम? मेरी जिÞंदगी जॉन एफ से है। मैं माँ बनने वाली हूँ। सब कुछ मुझसे छीनकर तुम्हें क्या मिलेगा?’’
तभी दरवाजे पर खड़ा जॉन बोला- ‘‘किसकी जिÞंदगी बर्बाद हो रही है। जरा मैं भी सुनूं?’’ वह न जाने कब लौट आया था, या गया ही नहीं था और दरवाजे पर खड़ा सुन रहा था। अगाथा ने न जाने किस भय से आँखें मूंद लीं। ‘‘काश! आज डैड जिÞंदा होते।’’
जॉन एफ गुस्से से कांपता अगाथा के समक्ष खड़ा था। ‘‘बोलो किसकी ज़िंदगी खराब हो रही है?’’ वह गुस्से से चीखा।
उसने अपने डर पर विजय पाते हुए निर्भीक होकर कहा-‘‘मेरी। मि. जॉन क्या तुम्हारे और जी़निया के रिश्ते किसी से छिपे हुए हैं। बल्कि, पड़ोसी तक जान गए हैं। फिर तुम पूछते हो किसकी ज़िंदगी बर्बाद हो रही है। इतने इनोसेन्ट तो तुम नहीं हो जॉन।’’
जॉन अगाथा के समक्ष खड़ा था। और बगैर यह परवाह करते हुए कि वह गर्भवती है, उसे उठाकर खड़ा कर दिया। ‘‘तो सुन लो अगाथा, मैं जी़निया से प्रेम करता हूँ। तुम्हें अगर अपनी माँ के पास रहना है तो रहो, मैं जी़निया को लेकर यहाँ से अपने घर चला जाऊंगा। मेरी माँ जी़निया को देखकर खुश होगी। जी़निया शोख है, चंचल है। प्यार दे सकती है, इसीलिए वह प्यार पाने की हकदार है। तुम एक बदसूरत बिच हो। मैं मूर्ख था, जो तुमसे शादी कर बैठा। न मैं तुमसे खुश हूँ, न मेरी माँ तुमसे खुश है।’’
‘‘वजह।’’ अगाथा भरपूर क्रोध में चीखी थी।
‘‘मैं नहीं जानता।’’ उसने क्रोध में टेबिल पर ठोकर मारी तो दूध का गिलास फर्श पर गिरा। और उसके ऊपर मेवे। उसने जी़निया का हाथ पकड़ा और घर से बाहर निकल गया। दरवाजे पर माँ खड़ी थीं। निर्लिप्त-सी मानो कहना चाहती हों-‘‘मैं न कहती थी अगाथा कि ऐसा ही है।’’
कमरे में इतनी संकरी जगह थी कि वहाँ ‘सच’ ही खड़ा रह सकता था। जो अभी उसके सामने था। अगाथा हाँफती हुई दीवार से सटे काउच पर बैठ गई। माँ फर्श पर गिरे दूध को साफ करने लगीं।
माँ की बूढ़ी आँखों ने उसे बार-बार निहारा था। उनमें हमदर्दी थी अगाथा के प्रति।
मि. ब्रोनी ने रॉबर्ट को भर आँखों से देखा। वहाँ भी अगाथा के लिए हमदर्दी थी।
माँ को अपेक्षा नहीं थी कि वे दोनों लौटेंगे। लेकिन दो-तीन घंटों बाद वे लौट आए थे। जी़निया के हाथ में एक थैला था। जिसमें अगाथा के लिए दो ढीले ब्लाउज थे। कुछ खाने की सामग्री, जो अगाथा को इन दिनों खानी चाहिए थी। जी़निया के लिए लंबी दो स्कर्ट, जिनके नीचे क्रोशिए से बना ब्लाउज। माँ के लिए भी कपड़े थे। अगाथा ने कुछ नहीं खाया था। जॉन एफ खाने के लिए बैठ गया और इस तरह खाने लगा मानो युगों का भूखा हो। खाने के बाद उसने माँ के समक्ष रुपये रखे और कहा-वह आज अभी जा रहा है।
‘‘और अगाथा?’’ माँ ने पूछा।
‘‘उसकी जैसी मर्जी।’’ वह बाहर निकल गया।
थोड़ी देर रसोई में सन्नाटा खिंचा रहा।
भीतर कमरे में जी़निया ट्रंक में अपने कपड़े सहेजकर रख रही थी। ट्रंक बंद होने की आवाज आई। फिर जी़निया रसोई में हाजिर। अपनी प्लेट में खाना परोसा और भीतर जाकर ट्रंक पर बैठकर खाने लगी। माँ ने जॉन एफ के दिए रुपये अपने ब्लाउज में खोंस लिए और फिर अगाथा को दुलारने-पुचकारने लगीं। एक-एक कौर खाना खिलाने लगीं। अगाथा बिल्कुल नहीं रोई, परिस्थितियों का सामना करना उसके पिता ने उसको सिखाया था। जब वह चौदह वर्ष की थी तभी पिता की मृत्यु हुई थी। लेकिन वह चौदह वर्ष की उम्र में ही मानो चौबीस वर्ष की हो गई थी। क्योंकि उसने दु:ख, मृत्यु और अभावों को अपने नजदीक देखा था। पहले वह भेड़ चराने जाती थी। माँ क्रोशिए से लेस व ब्लाउज बनाती थीं। वे दोनों घर चलाती थीं। कभी ऊन की अच्छी कीमत साप्ताहिक बाजार में मिल जाती थी।
‘‘अब क्या करना चाहोगी अगाथा।’’ माँ ने पूछा।
अगाथा ने माँ के हाथ से थाली ले ली थी, और स्वयं खाना खाने लगी।
‘‘क्या से मतलब माँ?’’ फिर स्वयं ही उत्तर भी दे दिया। ‘‘माँ! मैं, आज ही जा रही हूँ।’’
‘‘इस हालात में?’’ माँ ने कहा।
‘‘हाँ!’’।
‘‘लेकिन वहाँ तुम्हारी देख-रेख कौन करेगा?’’ माँ ने पूछा।
‘‘माँ, यदि मरना है तो यहाँ या वहाँ, क्या फर्क पड़ता है। जॉन एक फिलहाल तो यहाँ आएगा नहीं। मैं जानती हूँ। यदि यहाँ जचकी होती है तो रुपयों के अभाव में मरना ही है। मैं या बच्चा। और वहाँ होती है, देख-रेख के अभाव में मरना है। मुझे या बच्चे को... या दोनों को।’’
माँ ने उसके होठों पर उंगली रख दी। ‘‘ऐसा मत बोलो अगाथा। दाई (बच्चा पैदा कराने वाली) के अभाव में जंगलों में भी बच्चा पैदा हो जाता है। सुनती नहीं हो कि लकड़ियां बीनने गईं कई औरतों ने जंगल में बच्चों को जन्म दिया।’’
‘‘ठीक है। ’’ अगाथा बोली। प्रभु ने जितनी सांसे इस पृथ्वी पर लिखी हैं, उतनी तो लेनी ही होंगी माँ।’’
एक थैले में माँ ने अगाथा का सामान भरा। और कपड़े के पोतड़े (नैपकिन) टोपा, मोजे, स्वेटर, शाल इत्यादि रखा। वे रोने लगी थीं, लेकिन समझती थीं कि अगाथा का वहाँ जाना अनिवार्य है। क्योंकि यह झगड़ा बढ़ सकता था।
तब जॉन एफ नीचे (ढलवां सड़क के नीचे) मध्यमवर्ग के लोगों के बीच बने दो कमरों के मकान में रहता था। मकान के चारों तरफ कटीली झाड़ियों की फेन्सिंग थी। सार्वजनिक रूप से उगे बड़े झाड़ थे और बंबू से बनाया गया गेट था। बर्फ के दिनों में इन लंबे पेड़ों पर, पत्तों पर बर्फ जम जाती थी। मकान की छत और क्यारियों में बर्फ ही बर्फ होती। रास्ता तक बर्फ के कारण दिखाई नहीं देता था। फिर भी सभी पुरुष अपने घरों से काम पर निकलते। पैरों के नीचे दबी बर्फ से रास्ते का आभास हो जाता और रास्ता निकल ही आता। जॉन एफ अपने कोट के ऊपर ओवरकोट पहनता, सिर पर ऊनी टोपी, हाथों में ऊनी दस्ताने। और पंपशूज में अंदर तक घुसा हुआ एकमात्र उसका गरम ट्राउजर। जिसमें वह हर एक ठंड में दिखाई देता था।
फाटक खोलकर अगाथा अंदर दाखिल हुई। सामने फैली जमीन पर, कंकड़ और पत्ते जमा हो गए थे। हवा सांय-सांय चल रही थी। पत्तों का ढेर देखकर वह हैरान रह गई। अर्थात कई दिनों से यहाँ कोई सफाई नहीं हुई थी। दोपहर का समय था। पेड़ों से छनकर मामूली-सी धूप आ रही थी। मकान में ताला नहीं लगा था। अर्थात घर में कोई था। वह इतना ही चलने से हाँफ रही थी। हाँफते हुए उसने दरवाजा खटखटाया।
दरवाजा जॉन एफ की माँ ने खोला।
‘‘तुम।’’ वे ब्राउन लंबे गाउन में खड़ी थीं। सिर पर रेशमी स्कार्फ बंधा था।
‘‘जी।’’ वह अंदर आ गई।
‘‘मुझे लगा अब तुम कभी नहीं आओगी। अपनी माँ के घर ही बच्चा जनोगी।’’
उनका चेहरा सपाट था, जिसमें वह पहचान नहीं पाई कि उनके यह कहने का आशय क्या था। वह भीतर आकर काऊच पर बैठ गई। कुशन उठाकर उसने पीठ के पीछे रख लिए।
‘‘माँ, क्या खाने को कुछ मिल सकेगा?’’ उसने नम्रता से पूछा। उसे सफर में ही तेज भूख लग आई थी।
‘‘नरक में जाओ तुम।’’ वे बड़बड़ा रही थीं। उन्होंने एक प्लेट में लाकर दो सूखे ठंडे पाव और साथ में कुछ दालनुमा सब्जी दी। पाव पर मक्खन लगा था। वह जल्दी-जल्दी खाने लगी। उन्होंने दो पाव और प्लेट में लाकर डाले। इतनी दूर से कि एक पाव काऊच पर लुढ़क गया। थोड़ा मक्खन काऊच पर बिछे चादरे पर लग गया। उन्होंने कहा, ‘‘ओ! खाकर गीले कपड़े से काऊच पर लगा मक्खन पोछ देना।’’ उसने ‘हामी’ में सिर हिलाया।
कमरे भी गंदे थे। मानो एक दिन भी साफ नहीं किए गए हों। उसने एक नजर चारों ओर डाली और फिर सफाई में जुट गई।
अंदर के कमरे में काँच लगी एक नई अलमारी थी। जॉन एफ की माँ ने उस अलमारी का ताला खोला और बहुत ही अभिमान से दिखाने लगीं-‘‘देखो! यह कपड़े मेरे माता-पिता ने मुझे दिए हैं। ये जॉन के लिए हैं। यह अंगूठी प्लेटिनम की है। इसमें यह हीरा जड़ा है। यह भी मेरे बेटे के लिए हैं। यह गोल्ड की भारी चेन, यह ईयररिंग्स, ये टॉप्स मुझे दिए हैं। उन्होंने कई गाऊन, लंबे ऊनी स्कर्ट्स, लेस लगे कपड़े और सजावट के कई आइटम दिखाए। मेवों से भरी पूरी बास्केट दी है।
मि. पीटर वहाँ आराम कर रहे हैं। मैं तो यहाँ आती ही नहीं। जॉन ने खबर दी कि अगाथा अपनी माँ के पास है और वहीं रहेगी। वह भी वहीं था तुम्हारे पास। लेकिन अचानक वह आज आ गया। और मैं भी आ गई। मि. पीटर आने ही कहाँ दे रहे थे। उनकी सांस उखड़ती है। वे बेचैन हो जाते हैं, तो उन्हें मेरी जरूरत होती है। उन्होंने अगाथा के सामान की ओर देखा-‘‘बस यही सामान है? जबकि तुम अपनी माँ के घर से आई हो। मैं तो जब आई थी तो दो खच्चरों पर सामान लदा था। रुपए तो इतने थे कि यहाँ आकर यह अलमारी खरीदी और रसोई के बर्तन भी लिए।’’
हमेशा चुप रहने वाली अगाथा हौले से बुदबुदायी-‘‘और मेरे लिए दादा-दादी ने कुछ नहीं भेजा? मैं भी तो इसी घर की हूँ।’’ उन्होंने सुन लिया। बोलीं-‘‘भिखारी, नरक में जाओ। मेरे सामान से जलती है।’’
‘‘नहीं, माँ, मैं नहीं जलती। मुझे किसी सामान की जरूरत नहीं है। यूं ही कहा।’’
वो कमरों की सफाई में जुट गई। माँ ने सामान अलमारी में रखा। मेवों की बास्केट छुपाई, मानो अगाथा ले लेगी, और फिर सो गईं।
अगाथा साफ-सफाई से थक चुकी थी। माँ ने सूखे मेवे और गेहूँ की बनी कोई मिठाई साथ रखी थी, वह उसे खाती रही। फिर वहीं काऊच पर सो गई।
दो तीन घंटे बाद उसकी नींद खुली तो वह रसोई में चली गई। उसने खाना बनाया। तभी जॉन आ गया। उसे देखकर मुंह फेर लिया।
चिल्लाकर बोला- ‘‘माँ! मैं जानता था यह ब्लडीबिच जरूर आएगी। हमारे सिर पर ही बच्चा जनेगी।’’ फिर वह माँ के समक्ष ही जीनिया को याद करता रहा। माँ ने न टोका, न ही रोका।
’’’
रॉबर्ट के भीतर एक कशमकश चल रही थी। मि. ब्रोनी ईजी चेयर पर अपना सिर टिकाए सोए से लेटे थे। लीसा ने बताया कि वे सो रहे हैं। थक भी गए होंगे। अभी बहुत कुछ सुनना बाकी था। रात काफी हो गई थी। रॉबर्ट ने लीसा को इशारा किया साथ चलने के लिए। लीसा ने मना किया, फिर वह मान गई। वे उठे तो मि. ब्रोनी अपनी चेयर पर कसमसाए। ‘‘ओके मि. रॉबर्ट, बाकी कहानी कल सुनाएंगे।’’ उन्होंने एक के ऊपर एक पैर चढ़ाया और करवट में आ गए।
‘‘बाकी कहानी?’’ रॉबर्ट ने दोहराया।
लीसा रॉबर्ट की कसमसाहट को समझ गई।
बोली-‘‘जानती हूँ। क्या सोचते हो तुम? अगाथा डायरी लिखा करती थीं। अक्षरश: जो कुछ घटा है वह... और फिर माँ से सुनकर... इतना कुछ कि मि. ब्रोनी कहते हैं इस पर कई खंडों का नाटक लिखा जा सकता है। यह डायरी और बेतरतीब लिखे पन्ने अगाथा की माँ ने रोते हुए मि. ब्रोनी को दिए थे। मि. ब्रोनी पढ़ते गए और रोते भी थे। मैंने अक्सर उनके हाथों में यह डायरी देखी है।
‘‘क्या तुम देखना चाहोगे रॉबर्ट?’’ रॉबर्ट ने ‘नहीं’ में सिर हिलाया।
कौन-सा विश्वास था अगाथा की माँ का उन पर, जो उन्होंने पूरी डायरी ही सौंप दी। उस विश्वास को मैं क्यों तोड़ूं।
लीसा ने उनके पैरों पर एक कम्बल डाला तो उन्होंने कम्बल को अपनी छाती तक खींच लिया।
दोनों बाहर निकल गए। हवा में कंपकंपाने वाली ठंडक थी। ऊंचे दरख्त डरावने लग रहे थे। रॉबर्ट ने कमरे में आकर लैन्टर्न जलाया और लीसा को खींच लिया। रॉबर्ट लीसा को लिपटाए खड़ा रहा। तुम बहुत मासूम सी और सुंदर हो। सामने फ्लावरड्यू का चेहरा आया भी तो रॉबर्ट ने उसे दूर हटा दिया। ... अभी मैं और सिर्फ लीसा...। रॉबर्ट ने लीसा के दोनों हाथ पकड़ लिए, फिर गर्दन के नीचे हाथ डालकर उसे समीप खींच लिया। और एक दीर्घ चुम्बन में दोनों की गरम सांसे गालों और सीने पर दोनों को ही महसूस होती रही।
रॉबर्ट के अधर प्रतिचुम्बित हुए। लीसा ने कुछ देर बाद अपने को छुड़ा लिया।
‘‘खाओगी क्या?’’
‘‘नहीं, कुछ भी नहीं और है भी क्या?’’
कुछ चिकिन के टुकड़े पड़े हैं। पाव हैं। टमाटर, दालचीनी की चटनी है। यह सब मैं नीचे दुकान से लाया था। आओ खाते हैं।
खाना खतम करके लीसा जाने लगी तो रॉबर्ट ने उसे रोका नहीं।
’’’
रॉबर्ट लेटा सोचता रहा। फ्लावरड्यू के बारे में। उसे वह घराना अपने स्तर का नहीं लगता था। वह एक साधारण सैनिक है। जबकि फ्लावरड्यू की अपने शहर में ही नहीं, बल्कि आसपास के शहरों में भी एक हैसियत है। वह एक अमीर घराना है। फ्लावरड्यू वैभव-ऐशो आराम में पली-बढ़ी है। जिद्दी भी है। अपने सौंदर्य को लेकर जागरूक भी है और उसे अभिमान भी है। जबकि जितनी बार वह फ्लावरड्यू से मिला, वह उसे एक नकचढ़ी लड़की से अलग कुछ नहीं लगी। दादा-दादी, मिस्टर फ्रांसेस रिकरबाय उनकी पत्नी अपने वैभव का प्रदर्शन करने में लगे थे। क्या वह उदास था। उसने अपने आपको तलाशने की बहुतेरी कोशिश की। उसे हर बार लीसा नजर आई, प्यारी-सी, संवेदनशील लड़की। लीसा को तो मालूम भी नहीं है कि उसकी सगाई हो चुकी है। अभी उसे लीसा के दो-तीन चित्र और बनाने हैं।
कल ही वह उसके साथ नीचे जाएगा और घने झाड़ों से झाँकते उस चर्च के नजदीक जाकर एक-दो पेन्टिंग पूरी करेगा। मि. ब्रोनी से टैरेन्स के परिवार की पूरी कहानी सुननी है। हैरत हुई उसे... टैरेन्स जिसे कुछ भी नहीं मालूम... और उसे... वह तो टैरेन्स की परिवार की ज़िंदगी में पूरी तरह उतर चुका है। और मिस्टर ब्रोनी के साथ उस अतीत को खंगाल रहा है, जो टैरेन्स की स्व. माँ की अलमारी में एक रहस्य बनकर कैद है।
न जाने कब रॉबर्ट की आँख लग गई। सुबह देर तक वह सोता रहा। पीछे के कमरों की खटर-पटर आवाज से उसकी नींद टूटी... पहली बार उसने इस कमरे की खिड़की की काँचों से आती धूप को देखा। लीसा ने बताया था, दो ही दिनों बाद वे लोग वापिस लौट जाएंगे। मि. ब्रोनी से बहुत कुछ सुनना बाकी था। क्योंकि नाटक का डरपोक लीसा का प्रेमी कल सुबह लौट आएगा। फिर वे लोग रिहर्सल करेंगे। और फिर मि. ब्रोनी को समय नहीं मिलेगा।
लीसा सामने तैयार खड़ी थी। वह चौंक पड़ा। गीले घुंघराले कत्थई (डार्क ब्राउन) बालों में लीसा बहुत सुंदर दिख रही थी। वह लंबी बांहों का फ्रिल वाला ब्लाउज पहने थी और रोएंदार कपड़े की स्कर्ट। कुल मिलाकर ऐसी लीसा की वह अपलक उसे देखता रह गया।
‘‘अरे तुम तो सो रहे हो रॉबर्ट? मैं तो तैयार होकर आ भी गई।’’
‘‘हाँ। अंदर आओ। रात देर तक नींद नहीं आई थी। बस ऐसे ही सोचते हुए जागता रहा। तो जल्दी उठ भी नहीं पाया। मैं बस आया, फिर हम पुराने चर्च चलेंगे।
लीसा बैठ गई, टैरेन्स के लिए ढूंढ़ी किताबों के पन्नों को इधर-उधर करती रही। रॉबर्ट तैयार होकर आया तो अपने टेबिल पर रखा लाल पोटलीनुमा बैग की ओर इशारा किया।
‘‘यह क्या है?’’
‘‘टैरेन्स की माँ ने दिया है।’’
‘‘क्या वे तो...।’’
‘‘हाँ, जिसे जो कुछ देना होता है, दे ही देते हैं। ये टैरेन्स को सौंपना है।’’
वह आश्चर्य से रॉबर्ट का चेहरा ताकती रह गई, मानो रॉबर्ट एक अबूझ पहेली हो। जितना ही वह जानने की कोशिश करती, रॉबर्ट रहस्य की अंधेरी गलियों में उतरता जाता।
‘‘चलो।’’ रॉबर्ट ने कहा।
‘‘पहले एक अधूरा काम पूरा कर लें।’’
‘‘क्या?’’ लीसा ने पूछा।
उसने लीसा को उठाकर खड़ा किया। फिर होठों पर चुंबन का इशारा किया। लीसा शरम से गुलाबी हो गई। रॉबर्ट ने उसे खींचकर एक चुंबन लिया। ...दीर्घ चुंबन। उसके हाथ लीसा के शरीर को इधर-उधर मुलायम पंख की तरह सहलाने लगे। लीसा ने विरोध नहीं किया।
वे दोनों पुराने चर्च की ढलवां पगडंडी पर उतरने लगे। रॉबर्ट के हाथ में कैनवस और ड्राइंग पैड था। पॉकेट में चार - पांच पेन्सिल रखी थीं और एक नोकदार पेन्सिल उसके कान में लगी थी। वह मजबूती से लीसा का हाथ पकड़े था, जबकि लीसा किसी शरारती लड़की की तरह पगडंडियों पर दौड़ना चाहती थी। उसने रॉबर्ट की ओर देखा और फिर कान में खुसी पेन्सिल की ओर इशारा करते हुए हँसने लगी। ‘‘कारपेन्टर’’ यह कहकर और भी जोर से हँसने लगी। लीसा की बात समझते ही रॉबर्ट भी हँसने लगा।
सामने चर्च था। सूखी और हरी झाड़ियों से घिरा। लाल बजरी की पगडंडी थी जो चर्च तक जा रही थी। चर्च के पीछे ऊंचे दरख्त थे जो चर्च को ढंक रहे थे।
‘‘शायद यह चर्च सौ या डेढ़ सौ वर्ष पुराना है। रॉबर्ट ने कहा और फिर कहा- ‘‘पहले स्कैच बनाऊंगा, फिर अंदर जाएंगे।’’
उसने लीसा को चर्च के एक ओर पत्थर पर बिठा दिया। पीछे चर्च था और पत्थर के पीछे झाड़ियाँ।
उसने कैनवस खड़ा किया। लीसा ने अपना स्कार्फ उतार दिया। वह एकटक सामने क्षितिज की ओर देखने लगी। कभी-कभी वह रॉबर्ट की ओर देखती। काश... यह समय यहीं रुक जाता... वह और रॉबर्ट। माँ कहती हैं-‘‘जब सपनों का राजकुमार मिल जाता है तो मन के भीतर घंटियां बजने लगती हैं। उसके भीतर घंटियों की मधुर ध्वनि बजने लगी। उसने सुख से आँखें मूंद लीं।
करीब घंटे भर की अथक मेहनत के बाद जो स्कैच बनकर तैयार हुआ उसे देखकर रॉबर्ट स्वयं चौक पड़ा। क्या यह उसने बनाया है। वह आश्चर्यचकित-सा खड़ा था। लीसा भागती हुई और अपना चेहरा चर्च और झाड़ियों का झुरमुट जिस पर वह बैठी थी वह पत्थर... और पीछे चिनार के ऊंचे दरख्त देखकर आत्मविभोर हो उठी। वह कुछ भी नहीं कह पाई और आवेग में रॉबर्ट से लिपट गई। दोनों लिपटे खड़े रहे। तुम्हें ‘‘थैंक्स’’ बोलूं। लीसा ने कहा।
‘‘नहीं! यह मेरी कलाकृति है। मैं स्वयं को ‘‘थैंक्स’’ कहूँगा।’’
रॉबर्ट ने कैनवस हाथ में ले लिया। स्कैच को गोल घुमाकर उसे भी उसी हाथ में पकड़ लिया और फिर दोनों चर्च के भीतर चले गए।
’’’
लीसा द्वारा मि. ब्रोनी ने उसे बुलवाया था। वे उसी आरामकुर्सी पर बैठे थे। वह सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। कमरा व्यवस्थित और साफ-सुथरा था। किचिन से मसालों की सुगंधित गंध आ रही थी। रॉबर्ट ने उन्हें अभिवादन किया। फिर उसने कमरे पर एक निगाह डालकर अंदर तक देख डाला। लीसा पीछे के कमरे में अपनी पोशाखों को ठीक कर रही थी। उन्होंने ताड़ लिया था कि रॉबर्ट लीसा को ही ढूंढ़ रहा है। वह हिचकिचा गया। एकदम उनकी ओर देखता बैठा रहा।
‘‘आज उसने कुछ नया खाने को बनाया है। चटनी भी कूटी है। तुम यहाँ डिनर लेना। हो सका तो आज मि. जॉन एफ पीटर के बारे में जितना पता है, बताने की कोशिश करूंगा। तुम जानना चाहते हो इसलिए.’’ मि. ब्रोनी ने कहा।
‘‘क्या टैरेन्स को कुछ भी नहीं मालूम?’’
‘‘खास कुछ भी नहीं। बस इतना ही कि, उसके डैड माँ पर शक करते थे।’’ उसने कहा।
‘‘हाँ! यह सच है, कुछ हद तक ठीक भी।’’ उन्होंने कहा।
रॉबर्ट आश्चर्य से उनकी ओर देखता रह गया।
‘‘लीसा।’’ उन्होंने आवाज दी।
लीसा भागती हुई आई, लेकिन, रॉबर्ट को देखकर ठिठक गई।
लीसा ने ब्राउन कलर का स्वेटर पहना था जो सामने से खुला था। ठंड कुछ खास नहीं थी। गले में उसने बड़े-बड़े रंगबिरंगे पत्थरों की माला पहन रखी थी। उसने बहुत चाहत से लीसा की ओर देखा। मि. ब्रोनी रॉबर्ट का चेहरा पढ़ने की कोशिश कर रहे थे। उनकी अनुभवी आँखों ने रॉबर्ट के चेहरे को पढ़ लिया था। कहीं वे भीतर ही भीतर खुश भी थे कि रॉबर्ट अच्छा है... लीसा उनकी बेटी जैसी थी।
लीसा ने दो गिलासों में पानी लाकर रखा। उसने छोटी-सी एक सुराहीनुमा तांबे के बर्तन में और पानी लाकर रखा। आज उसने अंगीठी की आंच पर शकरकंद (स्वीट पोटैटो) भूना था। उसे छीलकर उसने उस पर कई तरह के पिसे मसाले डाले और नीबू निचोड़कर उनके सामने प्लेट रख दी। रॉबर्ट के सैनिक जीवन में इस तरह के व्यंजन मिलना दुर्लभ था। शकरकंद के टुकड़ों में लकड़ी की सींक खोसी हुई थी। बस उठाओ, खाओ। रॉबर्ट को लीसा की इस सोच और परोसने के ढंग पर बहुत मजा आया। उसने शकरकंदी का एक टुकड़ा मुंह में रखा और मुस्कुराकर लीसा की ओर देखा। कहा- ‘‘बहुत टेस्टी है लीसा।’’
लीसा मि. ब्रोनी की देखरेख ऐसे करती थी, जैसे वे उसके पिता हों। दोनों ने रम के लम्बे-लम्बे घूंट भरे।
‘‘उसी दिन मि. जॉन एफ पीटर अपने ससुराल चला गया और दूसरे ही दिन जी़निया को लेकर यहाँ अपने घर आ गया।’’ मि. ब्रोनी ने गंभीरतापूर्वक पुन: बताना शुरू किया। रॉबर्ट को लगा कि उसकी सब कुछ जान लेने की उत्सुकता से ज्Þयादा उन्हें सब कुछ सुना डालने की उत्सुकता है।
मुझे अगाथा की माँ ने बताया था कि वे जानती हैं, अब कुछ ऐसा जरूर होगा। उन्होंने जीनिया को रोकने की कोशिश नहीं की, क्योंकि न ही जीनिया और न ही मि. जॉन एफ पीटर उनका कहना मानते। जीनिया ने बहुत जल्दबाजी में अपना सामान एक बड़े बैग में रखा और मुस्कुराती हुई मि. जॉन के साथ बाहर निकल गई।
दूसरे दिन अगाथा ने खटखटाहट से जब दरवाजा खोला तो सामने दोनों को खड़ा पाया। अगाथा का चेहरा एकदम बुझ गया था। फिर भी वह सहज बनी खड़ी रही।
‘‘दरवाजे से हटो, मोटी, फूले पेट वाली औरत। क्या घर में आने भी नहीं दोगी?’’ पीटर ने लगभग चिल्लाते हुए कहा। पीछे मि. जॉन की माँ खड़ी थीं जो बड़ी धृष्टतापूर्वक हँस रही थी।
‘‘हाँ! अगर संभव होता तो वह सचमुच उन लोगों को घर में घुसने भी नहीं देती। उसे मि. जॉन एफ के भारी भरकम थप्पड़ याद आ गए। अभी आठवां महीना है। वह किसी प्रकार का झगड़ा नहीं चाहती थी।
जीनिया का सामान काऊच पर रखते हुए जॉन एफ पीटर ने कहा-‘‘तुम जब बच्चा जनोगी तो यह तुम्हारी देखभाल करेगी।’’
‘‘दाई है क्या?’’ अगाथा बुदबुदायी।
‘‘अरे जॉन माई सन, यह घर तुम्हारा है। तुम मालिक हो इस घर के। किसी को यहाँ बुलाने-लाने की इससे परमिशन चाहोगे क्या?’’ मि. जॉन की माँ ने उसी व्यंग्य से कहा। जैसे पहले वह हँसी थी।
माँ जीनिया का हाथ पकड़कर अंदर ले गई। उसका ऐसा स्वागत किया मानो वह घर की ऐसी कोई सदस्य है, जिसका आना इतना महत्वपूर्ण है।
‘‘हम दोनों को कुछ खाने को दो माँ... हमें बहुत भूख लगी है।’’ मि. जॉन ने कहा।
‘‘हाँ! हाँ! क्यों नहीं’’ माँ ने कहा और अलमारी खोलकर गुड़ में बनी मूंगफली की मिठाई और कुछ तले हुए व्यंजन उनके सामने प्लेट में रख दिए।
उन्होंने जल्दी छोटी-छोटी मछलियां मसाले में भूनीं और बेक्ड रोटी के छोटे टुकड़े मक्खन में तलकर उन लोगों के सामने रख दिए।
अगाथा बेबसी से रोने जैसी हो गई। क्योंकि उसे यह सब खाने को न तो माँ के घर में मिला, न ही सास ने कभी दिया या बनाने दिया। यह सब तो सास अपनी माँ के घर से लाई थी।
‘‘चोट्टी।’’ अगाथा बुदबुदायी। असंख्य काले तिल-मस्से वाली सफेद बुढ़िया अलमारी में खाना रखती है। और वह भी उससे छुपाकर कि कहीं वह खा ना ले। जबकि वह गर्भवती है और उसे दादी बनाने वाली है। बुढ़िया अलमारी खोलकर अकेल-अकेले खाती है।
‘‘इतनी स्वादिष्ट मिठाई तुमने बनाई?’’ उसने अपनी माँ से पूछा।
‘‘नहीं, नहीं, तेरी नानी ने बनाकर दी है। बोरे भर-भर कर इस बार खेत से मूंगफली आई थी। चॉकलेट ड्रिंक भी लाई हूँ। अभी बनाकर देती हूँ।’’ वे रसोई में चली गईं ।
जॉन बताने लगा जी़निया को ‘‘माँ बहुत अमीर परिवार से हैं। दूर-दूर तक हजारों एकड़ जमीन में उनके परिवार की संयुक्त खेती होती है। चॉकलेट ड्रिंक बाहर से आयात होता है। कोई साधारण व्यक्ति के बस का नहीं कि वह इसे खरीद सकें। ऐसे ही बनाना (केला) और पाईनएपिल (अनन्नास) भी इन्हीं के यहाँ आता है। मैं जब अपने नाना-नानी के पास जाता हूँ तो यह सब खूब खाता हूँ। मूंगफली की मिठाई, नारियल की मिठाई और जानती हो जी़निया, सर्वप्रथम आईसक्रीम मैंने अपने नाना के घर में ही खाई है।’’
‘‘आईसक्रीम?’’ जी़निया ने आश्चर्य से पूछा।
‘‘हाँ! नाना के यहाँ लगभग सौ से ज्Þयादा गाय हैं। खूब दूध होता है। उनके हवेली के तलघर (अंडरग्राउंड) में कक्ष (चैम्बर) बने हुए हैं। वहाँ आईस (बर्फ) में यह आईसक्रीम जमाई जाती है। बर्फ को घास फूस के पुआल से ढक देते हैं ताकि वह जल्दी पिघले नहीं। इस आईस (बर्फ) को वे प्रिजर्व रखते हैं, ताकि वह दिनोंदिन पिघले नहीं। उसके ऊपर जूट के मेट्रेस भी ढंक देते हैं। बस यहीं पर दूध में शक्कर डालकर बड़े-बड़े पतीलों में आईसक्रीम जमाई जाती है। नानी तो इन दूध से भरे पतीले में कई तरह के फल भी डाल देती थीं। बस खाते रहो... हवेली भी कैसी? जी़निया, बड़े-बड़े हवादार कमरे, सभी की छत ऊंची-ऊंची। उतनी ही ऊंची दरवाजों पर चिक और पर्दे लगे सजावटी कमरे।’’
‘‘फिर, आपके पिताजी से माँ ने क्यों शादी की। अमीर घर से इतने साधारण घर में आ जाना।’’ जी़निया ने सहजता से पूछा।
‘‘बस ऐसे ही। पिताजी जूट के व्यापारी रहे। जूट के बने मैट्रेस झोले (बैग्ज) आदि देने वे हवेली में जाते थे। माँ से प्यार हो गया और शादी हो गई।’’
‘‘वे लोग कहाँ रहते हैं?’’
‘‘साऊथएम्पटन में।’’
‘‘दूर है?’’
‘‘नहीं ज्Þयादा दूर नहीं फिर भी सात घंटे तो पहुंचने में लग ही जाते हैं।’’
‘‘कभी तुम्हें वहाँ ले जाऊंगा। नानी बहुत खुश होंगी।’’ जॉन ने जी़निया से कहा।
तभी मि. जॉन की माँ गर्म-गर्म चॉकलेट ड्रिंक बनाकर ले आईं। दोनों के सामने गिलास रखे।
‘‘माँ! थोड़ा उसे भी दे देतीं।’’ जॉन का इशारा अगाथा की ओर था। पेट से है न इसलिए।’’
‘‘नहीं, मरने दो भिखारन को... क्या गरीबी में बच्चे नहीं जने जाते। मुझे ड्रिंक रोज लगता है। तुम्हारी नानी ने मेरी अवस्था देखते हुए साथ रखा है, जिससे शक्ति रहे।’’
दोनों चुपचाप ड्रिंक पीते रहे।
‘‘सोचती हूँ तुम्हें जी़निया से शादी करनी थी। यह कोमल और सुंदर लड़की है। नाक देखो कितनी पतली है।’’ उन्होंने जी़निया की ओर देखते हुए कहा। जी़निया भी अब यहीं रहेगी। कहना चाहा जॉन ने लेकिन कह नहीं पाया। क्योंकि तभी अगाथा वहाँ आकर खड़ी हो गई थी। लेकिन अगाथा उनकी और अपनी मदर इन लॉ की बातें सुन ही रही थी। यह भी कि जी़निया कभी तुम्हें वहाँ ले चलूंगा।
यह भी कि ‘भिखारन’ है। अगाथा ने कहा- ‘‘माँ गरीबी होती तो कहो न, गरीबी-अभाव सिर्फ मेरे लिए हैं। आपके, पीटर के लिए नहीं। आप तो छुप-छुप कर इतना खाती हो जितनी आपको जरूरत भी नहीं है। मुझे कुछ नहीं चाहिए। मेरे साथ प्रभु है।’’ कहती हुई वह दूसरे कमरे में चली गई।
‘‘अगाथा आंट से मि. पीटर को इतनी नफरत क्यों थी मिस्टर ब्रोनी? क्या वह सुंदर नहीं थीं?’’ रॉबर्ट ने पूछा।
‘‘सुंदर थी। लेकिन जीनिया की तरह सुंदर नहीं। शरीर भी कुछ भरा गदराया हुआ था। जबकि मि. जॉन दुबली लड़कियों को पसंद करता था। नाक चौड़ी थी, माथा उभरा हुआ। वैसे कुल मिलाकर ठीक थी।’’
‘‘फिर विवाह ही क्यों किया मि. पीटर ने?’’ रॉबर्ट ने पूछा।
‘‘मि. जॉन के पिता ने मुझसे पूछा था। गरीब घर की लड़की है। दिखने में खास नहीं, लेकिन जॉन को निभाना कठिन है। लगता है यह निभाएगी। वे अगाथा की माँ से ऊन खरीदा करते थे। सोचते थे कि इस ढंग से कुछ सहायता ही हो जाएगी। ऐसे पहचान बढ़ी थी। तब अगाथा के पिता की मृत्यु हुए दो वर्ष हुए थे। और फिर मि. जॉन कौन-से देखने में सुंदर हैं। बाद में मेरी मित्रता जब मि. जॉन से हुई तो उसने बताया कि अगाथा बिस्तर पर भी ठंडी रहती है। बेजान लोथड़े (मृत माँस) की तरह। जबकि वह बिस्तरे पर किसी गर्म-गर्म हसीना को चाहता रहा। जो उसके पौरुष से चीत्कार कर उठे।
अगाथा ने उन दोनों को खाते देखा तो उसे भी खूब भूख लग आई। उसने दो अंडे उबाले और पाव के साथ खाने बैठ गई। इन दिनों उसे तेज मिर्च-मसाले अच्छे लगते थे। माँ किचिन में आ गईं और हँसने लगीं। फिर बोलीं- ‘‘देखो भुखमरी को तुरन्त ऐग्ज बॉयल कर रही है। जानती नहीं आज चर्च जाना है। पहले तैयार होतीं।’’
‘‘क्यों वे लोग नहीं जानते कि आज चर्च जाना है। पहले तैयार होते।’’ अगाथा ने चिढ़कर कहा।
‘‘जॉन।’’ माँ चिल्लाई। ‘‘देखो तुम्हारी वाइफ मुझसे मुंह लड़ा रही है।’’
‘‘खुद निपटो माँ, चाहो तो दो-चार थप्पड़ भी लगा दो।’’ उसने भी चिल्लाकर जवाब दिया।
जी़निया के सामने वह और सीन क्रिएट नहीं करना चाहती थी। अत: चुप रही। गरम-गरम उबले अंडे और पाव लेकर आई और खूब सारी पिसी काली मिर्च छिड़ककर खाने लगी।
‘‘तुम्हारे यहाँ ऐसे ही बच्चे पैदा किए जाते हैं। भूखे, प्यासे रहो, गालियां सुनो।’’ उसने पीटर और माँ को देखते हुए पूछा।
दोनों ने कोई उत्तर नहीं दिया और वहाँ से दोनों ही हट गए।
वह बैठक (ड्राइंग रूम) में ही बैठी रह गई। न आज उसने साफ सफाई की। न ही चर्च जाने के लिए तैयार हुई। बस सो गई।
जब नींद खुली तो माँ चर्च जा चुकी थीं। जी़निया साफ-सफाई कर रही थी। और मि. जॉन किचिन में शायद मीट उबाल रहा था। क्योंकि उबलते माँस की गंध चारों ओर फैली हुई थी।
मि. ब्रोनी मानो डायरी के एक-एक पन्ने को पलट रहे थे।