तुमने कभी प्यार किया था?-१७
मेरा ध्यान थोड़ा हटा और मन्दिर के सामने उस चबूतरे पर गया जहाँ दो लड़कियां बैठी थीं। निरपेक्ष भाव से प्रकृति का आनन्द ले रही थीं। और उनकी कक्षा के और लड़के जो संख्या में नौ थे दूर दूसरे चबूतरे पर बैठे थे। वे भी प्रकृति का आनन्द ले रहे थे। प्रकृति उस दिन बहुत सुन्दर रूप में खिली थी। धूप गुनगुनी लग रही थी। चाहतें इधर-उधर जा रही थीं। मेरी चाहत भी इन्हीं के बीच उड़ रही थी। उसके पंख कटे नहीं थे। उस सुरम्य स्थान पर वह हिडोले खा रही थी।हम अवतार के रूप में वहाँ प्रकट हो गये थे और माहौल बहुत गम्भीर हो गया था। मैं सहज था और अपनी बात कह रहा था,व्यक्त -अव्यक्त रूप में।
मेरा दोस्त पहले मेरे साथ यहाँ आने को तैयार नहीं था। मैं खींच कर उसे लाया था। मुझे याद है डीएसबी पुस्तकालय के आगे मैंने उससे कैसे अनुनय विनय की थी।क्योंकि अकेले जाना देवदास बना सकता था और मैं देवदास था भी नहीं। हालांकि लड़कियों के छात्रावास से जब जाता था तो लड़कियां चटुकी लिया करती थीं सहज,समायानुकूल,परोक्ष। मुझे उनमें से याद है," दिल दिया दर्द लिया।" उस उम्र में पढ़ाई से अलग यह कौतूहल आ जाता है जिसका सिर-पैर नहीं होता है और न स्थायित्व देना संभव होता है। फिर भी उड़ान मन भरता है और बाज की तरह ऊँचाई से बच्चे की तरह छोड़ देता है कि जीवन की उड़ान भरी जा सके। हम दोनों उतार उतरे। तल्लीताल में चाय पिये।उन दिनों दोस्तों को जीवन के हर पहलू की जानकारी होती थी। कुछ विश्वास करते थे, कुछ विश्वास नहीं करते थे। क्योंकि कल्पना का पुट जहाँ-तहाँ होता है।
प्यार से पेट नहीं भरता है लेकिन मन भरा-भरा लगता है।" चेखोव" की कहानी याद आती है जिसमें नायक को एक प्रेमपत्र मिलता है बर्फीले मौसम में पहाड़ियों में वह नायिका के तय किये स्थान पर मिलने जाता है। उसका मन प्रफुल्लित हो उठता है। अन्त में पता उसे चलता है कि प्रेम पत्र उसकी पत्नी ने ही लिखा था।
मेरे दोस्त ने कहा छोड़ यार वापस चलते हैं। मैंने कहा नहीं होकर आते हैं। प्यार बार-बार मेरी अन्तरात्मा में घूम रहा था। जैसे बार-बार मंत्र कहने से ईश्वर का आशीर्वाद हमें मिल सकता है, ऐसा ग्रन्थों में कहा गया है। यही बात "अलकैमिस्ट" किताब(हिन्दी में अनुवादित) में एक वाक्य बार-बार आता है कि कोई बात आप कह रहे हैं तो ब्रह्माण्ड की सकारात्मक शक्तियां उसे पूर्ण करने के लिये योजनाबद्ध होने लगती हैं। मंत्रों में भी यही संदेश कहा गया है, सदियों पूर्व, संस्कृत ग्रन्थों जैसे वेदों,उपनिषदों आदि में। "ध्रुव" को "ऊँ नमोभगवते वासुदेवाय नमः" वाला मंत्र नारद जी बताते हैं। और उन्हें भगवान विष्णु के दर्शन हो जाते हैं। आगे वे राजा भी बनते हैं। आकाश में उनका स्थान अटल कर दिया, इतिहास ने।
हम धीरे-धीरे हनुमानगढ़ी की ओर बढ़ रहे थे। मौसम सुहावना था। गाड़ियों का आना-जाना सड़क पर चल रहा था।तब वाहन अधिक नहीं थे। सड़क लगभग रिक्तता लिये होती थी। तब मैं रिक्तता में सपने भर रहा था।
हमने सामान्य रूप से मन्दिर में हाथ जोड़े। मेरा मन उदासीन नहीं, उत्साहित था। अगले कदम का पता नहीं था लेकिन कुछ अच्छा होगा, इसकी संभावना बनी हुयी थी। भविष्य की गति कोई नहीं जानता,सकारात्मकता एक अजेय शस्त्र लगती है। दोस्त निरपेक्ष भाव से साथ निभा रहा था।----।