वो लगातार एक घंटे से उल्टियां कर रहे थे। इएलिये तो सोमनाथ चट्टोपाध्याय ने उन्हें बताना नहीं चाहा था। फ़िर उन्होंने अखिलेश जी को खुदपर बीती ही एक कहानी सुनाई।
"तुम्हें पता है....एक बार जर्मनी में मैंने अपना नाईट कॉलेज बंक किया था। हां उस वक़्त मैं सत्रह या अठारह वर्ष का रहा होऊंगा। हम अक्सर कॉलेज बंक कर देते थे, और रात भर पागलों की तरह घूमते रहते थे। जर्मनी में नाईट कॉलेज की सुविधा उन किशोरों को दिया जाता है, जो अपनी पढ़ाई का खर्चा ख़ुद उठाते है। दिन में वे कोई छोटा मोटा काम करते है,और रात में अपनी पढ़ाई जारी रखते है। वैसे तो मुझे गोद लेने वाले परिवार ने कभी मुझे रात में कॉलेज जाने के लिए बाध्य नहीं किया लेकिन अपने कुछ अजीज दोस्तों का साथ पाने के लिए ही मैं उन लोगों के साथ नाईट कॉलेज जाने लगा। उस रात कॉलेज ना जाकर हमने रेलवे स्टेशन जाने का सोचा।
किसी ने कहा था वहां से हम कोयला चुरा सकते है। उस वक़्त अधिकतर ट्रेन कोयले से ही चलती थी, और उन कोयलों को चुराकर हम बाहर किसी भी रेस्तरां में उसे बेच सकते थे। तो उस रात हम सब मिलकर एक छोटे से रेलवे स्टेशन पर गए, जहां से बमुश्किल ही एक या दो ट्रेनें गुज़रती थी। ना ही कोई स्टेशन मास्टर् होता था वहां।
हम आराम से दो मालगाड़ियों के बीच चल रहे थे। दोनों ही तरफ़ पटरियां थी और दोनों ही तरफ मालगाड़ियां लगी हुई थी। पटरियों के किनारे ही कहीं कहीं कोयला गिरा हुआ था। हम सब कोयले को बैग में भरते हुए ही आगे बढ़ रहे थे। हम तीन दोस्त थे। स्टेशन के खम्भों पर लाइट्स थे तो सही लेकिन दोनों ही तरफ़ मालगाड़ियों की वजह से रौशनी ज़रा छनकर आ रही थी। वैसे भी कोहरे ने तो वातावरण को अंधेरा ही कर रखा था। तभी हमारे पैरों से कुछ टकराया। कुछ गोलाकर बॉल जैसा। हम तीनों उस वक़्त जुते में थे इसलिए उस चीज़ की छुअन महसूस नहीं कर पाए लेकिन उसे पैरों से लुढ़काने में मज़ा बहुत आ रहा था। हम बारी बारी से उसे पैरों से ढकेलते हुए आगे बढ़ रहे थे। हममे से किसी को भी इस बात की सुध नहीं थी न ही जिज्ञासा थी कि वो क्या चीज़ थी जिसे हम बेरहमी से पैरों से ढकेल रहे थे। अभी भी रात गहरी थी। और अभी हमारा घर लौटने का भी कोई इरादा नहीं था। उस रात ठंड भी कमाल की थी।
तभी लगभग दोनों मालगाडियां ख़त्म हो गईं और हम दोनों पटरियों को बीच खड़े थे। पीछे मुड़कर देखा तो स्टेशन काफ़ी पीछे छूट गया था, और छूट गयी थी स्टेशन के खम्भों से मिलने वाली थोड़ी बहुत रौशनी भी। बातों बातों में हम काफ़ी आगे निकल गए थे। अब हम सब थोड़ा सा डरने लगे थे।
हमने वापस स्टेशन की तरफ़ जाने का फैशला किया। अभी हम बस पीछे मुड़े ही थे कि पीछे से किसी की एक भारी आवाज़ सुनाई पड़ी। बेहद सर्द और गंभीर आवाज़ थी वो। आज भी याद करता हूँ उस आवाज़ को तो लगता है जैसे कानों में कोई भारी चीज़ जबरदस्ती अंदर जाने की कोशिश कर रही हो। उस भारी भरकम आवाज़ ने कहा ....
" मेरी चीज़ तो लौटा कर जाओ लड़को, कब से उसके साथ पैरों से खेल रहे हो तुमलोग"।
दरसल वापस जाते वक्त हममें से किसी ने उस गोलाकर चीज़ को फ़िर से पैर से मारकर वापस ले जाने के लिए मोड़ दिया था। लेकिन जब आवाज़ को सुनकर हम पीछे मुड़े तो हमारे आश्चर्य और डर की कोई सीमा नहीं बची। वहां गहरे धुंध के बीच कोई खड़ा था। उसने मोटे जैकेट पहने थे, उसका शरीर भी भारी ही था। लेकिन उस मटमैले अंधेरे में भी दिख रहा था उसके शरीर से जुड़ा उसका कोई सर नहीं था। वो तो हमारे पैरों के पास पड़ा था और अपनी एक उंगली से दिखाकर वो उसी खोपड़ी को हमसे मांग रहा था। जिसे पूरे रास्ते हम लुढ़काते आये थे।
हम तीनों ने एक दूसरे की तरफ़ देखा और बस बगैर किसी संवाद के उल्टे पैर ही वहां से भागने लगे। हमारी तेज़ी इतनी अधिक थी कि इस वक़्त अगर हम किसी मैराथन में दौड़ते तो जरूर अपने देश के लिए स्वर्ण पदक ले ही आते। हमारे लिए इस वक़्त मायने नहीं रखता था कि हम कैसी सड़कों में दौड़ रहे है, या पटरियों में कहीं कोई ट्रैन तो नहीं आ रही। दौड़ते भागते किसी तरह हम स्टेशन के बाहर आये और हम पकड़े गए। स्टेशन के पास ही एक पुलिस स्टेशन भी था जहां के वर्दीधारियों ने जब हमें बेतहाशा दौड़ते देखा तो चोर समझकर हमें दबोच लिया। लेकिन उन सब के बीच जाकर हमे राहत महसूस हुई। हमारी सांसे अभी भी ज़ोर से धड़क रही थी।
पर उन लोगों के नेक हृदय को सलाम उन्होंने हमें पीने के लिए पानी दिया और हमारी पीठ थपथपा कर हमें अहसास दिलाया कि अब हम सुरक्षित हाथों में है। शायद उन लोगों को भी अब तक अहसास हो गया था कि हम सब चोरी कर के नहीं भाग रहे थे बल्कि किसी चीज़ की खौफ़ में भाग रहे थे। हालांकि चोरी तो हमने वाक़ई की थी लेकिन फ़िर भी ये उतनी बड़ी चोरी नहीं थी जिससे कि हमें भागना पड़े।
थोड़ा सम्भलने के बाद जब हमने अपने भागने की वजह बताई तो सारे वर्दीधारी ठठाकर हँसने लगे। और बताया :-
"किसी जमाने में वो बग़ैर सर का भुत उसी स्टेशन का स्टेशन मास्टर हुआ करता था, लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध (1939-1945) के दौरान नाजियों के यहूदियों पर किये गए अत्याचार और और जनसंहार के वक़्त लंबे वक्त तक गुप्तवास में गए यहूदियों को एक रात इसी स्टेशन मास्टर ने तरस खाकर स्टेशन के किसी पुराने ट्रेन में पनाह दी थी। वे ख़ुद एक नाजी जाती के थे लेकिन उन्होंने यहूदियों के प्रति दया दिखाई थी। यहीं उनकी सबसे बड़ी ग़लती थी। उसी रात उनके धोखे की सज़ा में नाजियों की सेना ने ही उसके धड़ को सिर से अलग कर दिया था। लोग कहते है तब से वो बग़ैर सर के ही स्टेशन में घुमा करते है। डरो मत उन्होंने आज तक किसी का नुकसान नही किया।"
भीगी बिल्ली की तरह हम घर लौट आये थे उस रात। और उसके बाद हमने कभी कॉलेज बंक करने की हिम्मत नहीं की।"
बड़े मज़ाकिया लहज़े में सोमनाथ चट्टोपाध्याय ये कहानी अखिलेश जी को सुना रहे थे। उन्हें कह ख़बर थी उन दोनों के अलावे भी वहां कोई और भी था जो उन्हें सुन रहा था। और तभी उसी तीसरे ने उन दोनों को लगभग घसीटते हुए खेत के बीच से कहीं दूर ले जाकर पटका। जहां डर के मारे कांप रहे थे अखिलेश जी वहीं सोमनाथ चट्टोपाध्याय मंद मंद मुस्कुरा रहे थे, आख़िर यही तो चाहते थे वो।
क्रमश :-Deva sonkar