वह कल रात ही स्टोर रूम में शिफ़्ट हो गई थी। उस कमरे का एहसास ही उसे सुकून दे गया था। उस कमरे की हर एक शय में उसे उसके बाबा के होने का एहसास हो रहा था। उस कमरे के हर एक सू में जैसे एक पॉज़िटिव वाइब्ज़ थी जिसमें वह खुद को घिरा हुआ महसूस कर रही थी।
सुबह फज्र की नमाज़ अदा कर के वह लॉन में निकल आई थी चहल क़दमी के इरादे से। चलते चलते वह वहीं पहुंच गई थी जहाँ वह कल उमैर के साथ मौजूद थी और वह काफी हैरान हुई थी जब उसने इस वक़्त भी उमैर को उसी जगह पे पाया था। वह एक कुर्सी पर बैठा अपनी बैक पर कुशन टिकाए सो रहा था दूसरी कुर्सी पर उसने अपनी टाँगे फैलाई हुई थी। अरीज को उसे देख कर बोहत तरस आया था। निढाल जिस्म यूँही जैसे बेजान पड़ा हुआ था, उसकी हल्की बढ़ी हुई शेव उसे काफी थका हुआ बता रही थी। लॉन की घाँस पर 6 सिगरेट के टुकड़े पड़े हुए दिखाई दे रहे थे। वह अभी बिल्कुक वैसा नहीं लग रहा था जैसे उसने पहली दफा उसे देखा था। उसकी हालत देख कर अज़ीन को बोहत बुरा लग रहा था।
वह वापस से मुड़ी थी और घर के अंदर चली गई थी। थोड़ी देर बाद वह वापस आई थी मगर खाली हाथ नही उसके हाथ में एक कॉफी का मग था जिसे उसने सामने पड़े टेबल पर रख दिया था।
“सुनिए!” उसने आवाज़ लगाई थी मगर उमैर बिल्कुल बेखबर सोया हुआ था।
उसने दो तीन दफा उसे आवाज़ लगाई मगर नाकाम रही। उसे समझ नहीं आ रहा था की वह उसे कैसे उठाए। बस अब एक ही रास्ता था की वह उसे हाथ लगा कर उठती मगर वह उसे छूना नहीं चाहती थी। एक दो बार उसने और आवाज़ लगाई मगर अभी भी वही हाल था इसलिए उसने मजबूरन आगे से उमैर का कंधा हिलाया था। कंधा हिलाने की देर थी की उमैर अचानक से ना सिर्फ़ नींद से बेदार हुआ था बल्कि इतना हड़बड़ा कर सीधा हुआ की पैर कुर्सी से हटाते वक़्त उसकी एक लात टेबल पर पड़ी थी, टेबल लड़खड़ाया था और भरी हुई गरमा गरम कॉफी की मग अरीज के सीधे हाथ पर उलट गई थी। हज़ारों सुइयों जैसी चुभन अरीज के हाथों से होते हुए उसके पूरे जिस्म में दौड़ गई थी।
जलन की शिद्दत से उसकी आँखें भर आई थी मगर होठों से एक चीख तक नहीं निकली थी(उसमे बर्दाश्त करने की हिम्मत बोहत ज़्यादा थी)। उमैर की आँखे खुलते ही ये हादसा देख कर उसका दिमाग़ कर्रेंट की रफ़्तर की तरह अलर्ट हो गया था। वह झट से अपनी कुर्सी पर से खड़ा हो गया और अरीज का हाथ अपनी हाथों में लेकर देखने लगा। उसका हाथ तुरंत लाल हो चुका था। उमैर ने अपने आस पास नज़रें दौड़ाई मगर उसे पानी कहीं नहीं दिखा सो वह नंगे पाऊँ दौड़ता हुआ उसे एक tap के पास ले गया था जहाँ से माली पौधों को पानी दिया करता था। हाथों पे पानी पड़ते ही एक सुकून का एहसास अरीज को हुआ था। उमैर ने उसकी कलाई पकड़ रखी थी। सूरज धीरे धीरे उग रहा था ...जैसे पौधों पे फूल उगते हों, बोहत ही सुर्ख, खूबसूरत और ठंडा। सूरज की आगमन से ही हर एक सू धीरे धीरे नर्म किरणों से नहा गया था। ठंडी ठंडी हवाएँ बह रही थी कल रात की तरह उसके रेशमी बाल और पंख जैसा आँचल अभी भी उड़ रहा था। थोड़ी देर यूँही पानी के नीचे हाथ रखने के बाद उमैर ने उस से गुस्से में पूछा था।
“तुम वहाँ क्या कर रही थी? और वह कॉफी? वो वहाँ पर क्या कर रहा था?” उमैर ने उसकी कलाई को झटका देकर छोड़ा था।
“मैं यहाँ वॉक कर रही थी फिर आपको सोए हुए देखा तो आपके लिए कॉफी बना कर ले आई।“ उसने अपनी नज़रें अपने हाथ पर टिका कर रोहांसी हो कर कहा था। वह उसके गुस्से वाले मूड को देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी।
“क्यों लेकर आई थी?... क्या मैंने तुमसे मांगी थी?” अरीज की बातें उमैर के पल्ले नहीं पड़ रही थी। अरीज चुप रही। मगर वह उसकी जान छोड़ने को तय्यार नहीं था। वह उस से जवाब चाहता था।
“बोलो क्यों लाई थी.... मैं क्या तुम्हारे सपने में आया था तुम से कॉफी मांगने?” उसने डांटते हुए उस से पूछा था। अरीज आँखों में आँसूं लिए उसे देखने पर मजबूर हो गई थी।
“आप यहाँ पर बे आराम हो कर सो रहे थे....मैंने सोचा आपको आपके कमरे में जाने के लिए बोलूँगी...मगर उस से पहले सोचा की आपके लिए कॉफी बना दूँ... अक्सर अमीर लोग बेड टी या ब्लैक कॉफी पीते है...आप उठ गए तो इतनी सुबह किसको बनाने को बोलिएगा? इसलिए पहले से बना कर ले आई अगर आपको नहीं पीनी होती तब वो कॉफी मैं पी लेती।“ वह रोते हुए सिसक सिसक कर उसे बता रही थी। रोने की वजह से उसकी नाक पूरी लाल हो गई थी और चेहरा गुलाबी। उमैर उसकी बात बड़े ध्यान से सुन रहा था। जैसे वह उस पर कोई जादू फूँक रही थी। जैसे वह अपनी बात ख़तम कर के चुप हुई थी वैसे ही जादू भी टूट गया था। उमैर फिर से पहले वाले मूड में लौट आया था।
“तुम्हारी प्रॉब्लम क्या है?” उमैर ने जैसे हार कर उस से पूछा था, मगर उसके बोलने की टोन काफी ऊँची थी। अरीज का नर्म दिल कपस कर रह गया और आँखें फिर से तेज़ी से बहने लगी थी। उसका वहाँ ज़्यादा देर ठेहरना उस पर अज़ाब जैसा लग रहा था सो वह अपने हाथ से आँसूं साफ़ करती वहाँ से दौड़ पड़ी थी। उमैर ने जैसे तंग आकर उसे जाते हुए देख रहा था। एक ठंडी हवा का झोंका आया था और उमैर ने उस सुबह की ताज़गी को अपने अंदर उतरा था फ़िर उसने दाई हाथ की हथेली को फैला कर देखा था जहाँ पर अरीज के हाथ का लम्स(स्पर्श) अब भी बरकरार था।
दिखने में वह मर्मरी सा हाथ छूने पर मलाई जैसा था। जल्दबाज़ी में उसने ध्यान नहीं दिया था मगर अभी तन्हाई में उसे एहसास हो रहा था की उसका हाथ अपने हाथ में लेने पर उसे ऐसा लग रहा था की थोड़ी देर और हाथों मे लेने से उसका हाथ कहीं पिघल ना जाए।
उमैर उसके जाने के बाद भी उसे ही सोच रहा था मगर फिर उसके ज़ेहन में सनम का ख्याल आ गया और उसने अरीज के ख़्यालों को जैसे जबरदस्ती अपने ज़हन से झटक दिया था।
वह एनेक्सी में गया था जहाँ आज कल वह अरीज की मौजूदगी मे रह रहा था। वहाँ वह फ्रेश होकर अपनी कार की चाबी उठाई थी और ड्राइव करता हुआ सीधा सनम के फ्लैट पर पहुंचा था।
सनम उसे देखते ही उस से लिपट गई थी मगर उमैर को उसका ये बेबाकी पन बिल्कुल नही भाया था। उसने बड़ी नर्मी से सनम को खुद से परे किया था।
इस से पहले उसे सनम का उसे गले लगाना या फिर उस से लिपट ना बिल्कुल भी बुरा नही लगता था।
वह अपने बदले हुए रवैय्ये पर खुद भी हैरान था उसे इसकी वजह टेंशन लग रही थी मगर उसके इस टेंशन का सनम को बिल्कुल भी इल्म नही था जब ही वह उसकी इस हरकत को माइंड कर के बैठ गई थी।
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जब ज़मान खान सुबह डाइनिंग रूम में पहुंचे तब वहाँ टेबल पर कोई मौजूद नहीं था। उन्हें लगा की वह उठने में बोहत लेट हो गए है इसलिए कोई नहीं है। नसीमा बुआ उनका नाश्ता लगा रही थी जब उन्होंने उस से पूछा था।
“सब ने नाश्ता कर लिया?” ज़मान खान की नज़रें अखबार की सुर्खियों पर टिकी थी।
“जी साहब, बेगम साहिबा और सोनिया बीबी ने अपने कमरे में ही नाश्ता मंगवा लिया था। हदीद बाबा अभी अभी नाश्ता कर के स्कूल चले गए हैं।“ वह तफ़्सील से बता रही थी।
“हम्म... और उमैर?” उन्होंने उमैर के बारे में पूछा था और साथ में अखबार भी फोल्ड कर रहे थे।
“उमैर बाबा तो सुबह से दिखे ही नहीं।“ नसीमा बुआ उनका नाश्ता परोस कर अब उनके लिए ग्लास में juice डाल रही थी।
“अरीज और अज़ीन ने नाश्ता किया?” उन्होंने एक और सवाल नसीमा बुआ पर दागा था। उनके सवाल पर नसीमा बुआ के हाथ थोड़ा थम से गए थे जिसे ज़मान खान ने बोहत अच्छे से नोटिस किया था।
“जी साहब... उन दोनों का नाश्ता भी उनके कमरे में ही पहुंचा दिया था।“ वह थोड़ा सा लड़खड़ाई थी मगर बहरहाल उसने झूठ बोल ही दिया था। दरासल आसिफ़ा बेगम ने आज नसीमा बुआ को उन्हें नाश्ता देने से ही मना कर दिया था। वह कल रात का गुस्सा उन दोनों पर इस तरह से निकाल रही थी।
“तुम ने खुद पहुंचाया था या किसी और के हाथों भेज दिया था।“ ज़मान खान आमलेट का एक टुकडा मूंह में डालते हुए उसे देख कर पूछ रहे थे।
“ज... जी साहब मैंने खुद पहुंचाया है।“ नसीमा बुआ ने एक और झूठ बोला था।
“अच्छी बात है!.... मुझे खुशी हुई नसीमा की तुमने मेरी बात का मान रखा... मेरे पीछे अरीज और अज़ीन का खास ख्याल रखा... इस के लिए तुम्हारा बोहत बोहत शुक्रिया।“ ज़मान ख़ान अपना हाथ खाने से रोक कर अपने पूरे तवज्जोह के साथ उसे देख कर उसका शुक्रिया अदा कर रहे थे। बदले में घबराई हुई नसीमा बुआ बस एक फीकी मुस्कान लेकर रह गई थी।
“मगर नसीमा एक बात बताओ अरीज का नाश्ता तुम कौन से कमरे में लेकर गई थी?” ज़मान खान के सवाल और संजीदा अंदाज़ सी वह और भी ज़्यादा घबरा और साथ ही साथ कंफ्यूज़ हो गई थी मगर उसे जवाब तो हर हाल में देना ही था।
“जी... जी वह उमैर बाबा का कमरा।“ उसने कहते हुए उपर की तरफ़ इशारा किया था। ज़मान खान उसे बस देख कर रह गए थे।
“अच्छा!.... अरीज को इतने दिन हो गए है यहाँ पे और तुम माशा अल्लाह उसका खास ख़्याल भी रख रही हो तो तुम्हे अरीज की पसंद और ना पसंद का भी पता होगा तो थोड़ा बताओ उसे क्या अच्छा लगता है और क्या चीज़ उसे ना पसंद है?” उन्होंने फिर से नाश्ता खाना शुरू कर दिया था।
वह सिर्फ़ सवाल नहीं था नसीमा बुआ को ऐसा मालूम हो रहा था की उनके सर पे तलवार लटक रहा है। Air conditioned रूम में भी उसे पसीने छूट रहे थे।
“साहब कुछ ही दिन हुए है उन्हें यहाँ आए हुए मैं नौकर हूँ हर एक चीज़ तो उनसे नहीं पूछ सकती... ज़्यादा दिन उनके साथ रह कर ही मुझे उनकी पसंद और ना पसंद का पता चलेगा ना।“ उसने खुद को संभाला था और बड़ी हिम्मत से एक अच्छा सा जवाब सोच कर दिया था।
“सही बात कह रही हो तुम नसीमा, तुम्हे उसकी हर एक पसंद का पता कैसे होगा इतने कम वक़्त में मगर तुम्हें ये तो पता होगा की उसे खाने पीने में क्या पसंद है और क्या नहीं?” नसीमा बुआ ने अपने आँचल से अपनी पेशानी पे आ रहे पसीने को साफ किया था।
इस बार उस से जवाब देते नही बन रहा था वह बार बार कभी अपना चेहरा तो कभी पेशानी पोछ रही थी।
“बताओ नसीमा! अरीज और अज़ीन को खाने में क्या पसंद है?”
“साहब वो कभी कोई फ़रमाइश नहीं करती है जो भी खाने को दे दो चुप चाप खा लेती है।“ उसने अपनी घबराहट को झूठी हँसी की शक्ल दी थी। वह हँस हँस कर उन्हें बता रही थी।
“क्या क्या देती थी तुम उसे खाने में जो वह चुप चाप खा लेती थी।“ ज़मान खान पहले से और भी ज़्यादा संजीदा हो गए थे। नसीमा बुआ को लग रहा था की वह पुलसीरात(एक ऐसा पुल जो एक बाल के बराबर बारीक है और तलवार की धार की तरह तेज़ और उस पुल के नीचे दहकता हुआ आग का कुआँ है )पे चल रही है। वह जितना जवाब दे रही थी उतना ही फँसती चली जा रही थी।
“वो साहब!...वो मैं... “ उसे आगे और कुछ सूझ नहीं रहा था की क्या बोले।
“शायद सूखी रोटी!... है ना? ज़मान खान का नाश्ता हो गया था और उनकी बात भी अब climax तक पहुंच चुकी थी।
“ वह साहब ... वह... मैं नौकर हूँ... मैं अपनी मर्ज़ी से कुछ नहीं करती... मुझ से जो कहा जाता है मैं वही करती हूँ।“ नसीमा बुआ अब रोने को थी।
“मैंने भी तुमसे कुछ कहा था नसीमा?.... खैर जाने दो.... और जिस तरह से तुमने सोनिया और आसिफ़ा का नाश्ता प्लेट में लगाया था वैसा ही नाश्ता अभी अरीज और अज़ीन के लिए तैयार करो।“ उन्होंने हुक्म दिया था और नसीमा बुआ अपने आँसू साफ़ करती किचन में चली गई थी, और एक बड़ा सा ट्रे नाश्ते से सजा कर उमैर के कमरे की तरफ़ उपर सीढ़ियों की तरफ़ जा रही थी जब ज़मान खान ने उसे रोका था।
“रुक जाओ नसीमा, अरीज अब उमैर के कमरे में नही अपने कमरे में रहती है।“ उन्होंने बोहत जताते हुए अंदाज़ में उसे कहा था और नसीमा बुआ एक बार फिर से अपने झूठ पकड़े जाने पर शर्म से पानी पानी हो गई थी।