Ishq a Bismil - 37 in Hindi Fiction Stories by Tasneem Kauser books and stories PDF | इश्क़ ए बिस्मिल - 37

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इश्क़ ए बिस्मिल - 37

मोम मेरा निकाह अलग चीज़ है और सोनिया का ये रवैय्या अलग चीज़। इकलौती कह कह कर आपने उसे ऐसा बना दिया है। अगर वह इकलौती है तो उसने हम पर या किसी पर कोई एहसान नहीं किया है जो हम उसकी हर खुदसरी को बर्दाश्त करते रहेंगे।“ उमैर की बात पे अब आसिफ़ा बेगम को तीख लग गई थी मगर फिल्हाल वह उमैर से बहस कर के अपना प्लेन बर्बाद नहीं करना चाहती थी। उमैर के साथ के बदोलत ही उसे अरीज को इस घर से और उसकी ज़िंदगी से बाहर करना था।

उमैर की बात पर अरीज ने उसे देखा था, वह वकील था या जज उसे नही पता मगर वह ना चाहते हुए भी उसके इंसाफ की कायल हो गई थी। यहाँ पर उसने अरीज से अपनी ज़ाती दुश्मनी नहीं निकाली थी बल्कि आसिफ़ा बेगम के याद दिलाने पर भी वह उनकी बात को रद कर गया था।

बात सिर्फ़ यहीं तक नहीं रुकी थी हदीद भी आगे बढ़ा था और उसने कहा था।

“Aapi(सोनिया) फोन चलाती हुई आ रही थी इसलिए उन्होंने भी इस लड़की को नहीं देखा... गलती तो दोनों की ही है मगर पिटाई इसे पड़ गई।“ हदीद ने बात खतम की थी और सोनिया उसे खा जाने वाली नज़रों से घूर रही थी।

“मोम घर पे नौकरों की कमी पड़ गई है क्या जो हम ऐरे गैरों से घर के काम ले रहे है?” उसने बिना अरीज की तरफ़ देखे उस पे निशाना कसा था, और अरीज उसके इशारे को खूब समझ भी गई थी। उसने उमैर को देखा था उसके बाद फिर आसिफ़ा बेगम को जो कुछ कहने वाली थी।

“वो दरासल... “ आसिफ़ा बेगम से कुछ जवाब देते नहीं बना था।

“अगर घर के काम छोड़ कर ये अज़ीन को संभाल लेगी तो हम सब के लिए बोहत अच्छा होगा। ध्यान रहे मैं दुबारा इसे काम करता ना देखूँ।“ उसने जैसे हुक्म सुनाया था और आसिफ़ा बेगम ना चाहते हुए भी मान गई थी।

अरीज अज़ीन को संभाले हुए उमैर को देख रही थी उसे समझ नहीं आ रहा था की आखिर ये बंदा है क्या? कभी इसके support में बाहर वालों के सामने एक लफ्ज़ नही कहता तो कभी अजीबो गरीब सवाल लेकर बैठ जाता है, उसे कुबूल ना करते हुए भी अपना कमरा और उसमे रखी सभी चीजों के साथ उसके हवाले कर देता है और कभी इंडिरेक्टली उसके लिए और उसकी बहन के लिए ढाल बन कर खड़ा हो जाता है।

वह उसे ही देख रही थी यहाँ तक की उमैर ने भी उसे देखा था मगर वह अपनी सोच में गुम अपनी नज़रे भी उस पर से हटाना भूल गई थी। उमैर उसकी इस हरकत पे कंफ्यूज़ हो गया था।

वहाँ पे सोनिया थी जो सब से पहले वहाँ से भागी थी और उसके पीछे उसे मनाने के लिए आसिफ़ा बेगम नौकर आसिफ़ा बेगम के बोलने पर पहले ही जा चुके थे और अब उमैर जाने के लिए आगे बढ़ा था तभी अज़ीन ने उसे आवाज़ लगाई थी।

“भाईजान!... “ वह मुड़ा था। अज़ीन अरीज के पास से दौड़ कर उमैर के पास भागी थी।

“क्या हुआ?” उसे चुप देख कर उमैर ने उस से पूछा था तो अरीज ने इशारे से उसे झुकने को कहा। वह झुका तो अज़ीन ने उसके कान में कहा।

“मुझे बोहत भूख लगी है। मैं इसलिए ही आपको ढूंढ रही थी कब से। सुबह नाश्ते में बासी रोटी मिली थी मुझ से खाया नहीं जाता है।“ अज़ीन ने बात खतम की थी और उमैर ने दुख से अज़ीन को देखा था और फ़िर अरीज को हैरानी से जो अभी तक उसे ही देख रही थी। उमैर को कुछ समझ नहीं आ रहा था की आखिर चल क्या रहा है घर में? उसे यकीन हो गया था की ये सब जो भी हो रहा है वह यकीनन उसकी माँ ही कर रही थी। उन्होंने उस से कहा भी था की अगर वह उसका साथ देगा तो वह अरीज को इस घर से निकाल देंगी। उसे अपनी माँ की हरकत पर शर्मिंदगी हुई थी।

वह भी अरीज से छुटकारा पाना चाहता था मगर इस तरह हरगिज़ नहीं जिस तरह उसकी माँ कर रही थी। वह अरीज को समझ नही पा रहा था आखिर यह लड़की है क्या अगर उसकी माँ उसके साथ कुछ बुरा कर रही थी तो वह सह क्यों रही थी? उसे तो हुक्म चलाना चाहिए था आखिर वह इस घर की मालकिन थी उपर से ज़मान खान उसकी मुट्ठी में थे। वह भी अगर उस से कुछ पूछता तो वह सीधे मूंह उस से बात करना तक गवारा नहीं करती। उमैर इन सारी बातों से उलझ गया था। वह कभी कभी उसे अबनार्मल लगती थी।

उसने अपनी ये सारी सोच को झटका था और अज़ीन को साथ लेकर वहाँ से चला गया था।


बेइंतेहा ही गर्ज़ थी

नफ़रत था और जुनून थी

लहू रिस्ते जिस्म में,

एक खलिश थी दिल में,

यूँही बेमक़सद

बेकार थे
हम तय्यार थे,

होशियार थे

अंगारों की आस में बैठे थे

वो लाये भी

और खूब जाए भी

हम आदी हुए

ना बाग़ी हुए

तभी कुछ फूलों के छीटें पड़े

इसलिए हम हैरान हुए

कुछ परेशान हुए।।

वह उमैर के कमरे में आई थी, बाथ लेकर आईने के सामने बैठी तो कहीं और ही गुम हो गई। वह उमैर के ख्यालों में थी, उसे समझने की नाकाम कोशिश में थी जभी उसकी सोच का सिरा अज़ीन की आवाज़ ने काटा था।

“आपी! देखिये मैं आपके लिए क्या लाई हूँ!” अज़ीन ख़ुशी से चहकती हुई उसके सामने कुछ खाने के packets किये थे जिसे अरीज ने ना समझी से देख रही थी।

“ये क्या है?” अरीज ने पूछा था।

“आपके लिए अच्छा सा खाना है।“ अज़ीन की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था अज़ीन को उसके भाईजान ने ना सिर्फ़ अच्छा अच्छा खाना खिलाया था बल्कि उसके बिना कुछ कहे ही उसकी आपी के लिए भी पैक करवाया था।

“वो तो मैं देख रही हूँ मेरी जान... मगर ये कहाँ से आया?” अरीज घबरा गई थी की कहीं अज़ीन ने फ़िर से कुछ उल्टा सीधा ना कर दिया हो।

“भाईजान ने आपके लिए दिया है और कहा है अपनी आपी को खिला देना।“ अरीज ये सुन कर मुस्कुरा उठी थी, उसने उसके हाथ से वह पैकेट लिए थे और खाने बैठ गई थी। वह साथ साथ मुस्कुरा भी रही थी... ऐसे जैसे उसने ज़िंदगी में पहले कभी ऐसा खाना नहीं खाया हो। दिल का मौसम दुनिया के हर मौसमों पर भारी पड़ता है। अगर दिल के मौसम मे पतझड़ और उदासी छाई हो तो बाहर का मौसम क्यों ना बहार का हो इस से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। दिल खुश तो सब खुश।

और इस खुशी की वजह शायद उसके दिल पर पड़ने वाली मोहब्बत का वह पहला क़तरा था जिसकी वजह से अंगिनत फूल खिल उठे थे। और फूल तो यूँ भी मोहब्बत की निशानी होती है....

वह किसी के दिल में हो... किसी के आँखों के सामने... किसी के हाथों में या फिर किसी की कब्र पे ही क्यों ना हो।

काम की थकन से उसका बदन टूट रहा था... मगर दिल की ज़मीन पर छाए बहार के मौसम ने उसे मुस्कुराने के बहाने बोहत दिए थे।

अरीज की इस पहली मोहब्बत का क्या असर पड़ेगा उमैर के दिल पे?

अरीज की ये मोहब्बत कितना परवान चढ़ेगी?

या फिर उसकी मोहब्बत यहीं कहीं दम तोड़ देगी?

क्या होगा आगे?

जानने के लिए बने रहे मेरे साथ और पढ़ते रहे इश्क़ ए बिस्मिल