Agnija - 72 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 72

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अग्निजा - 72

प्रकरण-72

और फिर जीतू ने चढ़ाया हुआ मुखौटा निकाल फेंका। केतकी के प्रेमरहित, तपते रेगिस्तान सरीखे जीवन में अकस्मात हुई प्रेम की बारिश मानो भाप बनकर उड़ गई। जीतू अपने पुराने रूप में आ गया, वही उपेक्षा, अपमान, गुटका और अविश्वास। अब तो ये दूना हो गया था। बढ़ता ही जा रहा था। उसको लग रहा था कि केतकी चालाक है और उसने यह सब जानबूझ कर किया है। अब निर्णय लेने का समय आ पहुंचा था। एक दिन दोपहर को वह भिखाभा के घर पहुंचा। वह चाहता था कि रणछोड़ दास हों तभी वह वहां पहुंचे। उसकी यह इच्छा पूरी हो गई। उसने उन दोनों को सामने बिठाया और सीधे मुद्दे पर आ गया। “आप दोनों बुजुर्ग हैं, बुरा मत मानिएगा। आप दोनों ने मेरा और केतकी का भला ही सोचा होगा। हमारी भी वही इच्छा है। लेकिन केतकी का स्वभाव बड़ा विचित्र है। वह मेरी एक भी बात नहीं मानती। उसको अपनी मर्जी के कपड़े पहनने होते हैं, बाल खुले करके घूमती है, सबका ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए गॉगल लगाकर घूमती है। इत्र लगाती है। मैं जिन लोगों को पसंद नहीं करता उन्हीं लोगों से दोस्ती करती है। मैंने उसको खूब समझाया...खूब मनाया...लेकिन अब तो उसने हद ही कर दी...” उसके बाद जीतू ने अपनी सुविधा के अनुसार कुछ बातों को छोड़ते हुए तो कुछ बातों में मिर्च मसाला लगाकर केतकी ने अपने नाम पर लिए हुए फ्लैट की कहानी सुना दी। “अब आप ही कहें...दोस्त मेरा है...मुझे फायदा पहुंचाने के लिए उसने ये सब काम किए...लेकिन अब फ्लैट मेरे नाम पर न होकर किसी दूसरे के नाम पर होगा तो मैं उसे क्या मुंह दिखाऊं?”

रणछोड़ शर्मिंदा हुआ। “चार लाख का फ्लैट खरीदा उसने? अपने नाम पर, घर में किसी को भी कुछ न बताते हुए? इतनी हिम्मत करेगी ऐसा नहीं सोचा था...कुछ तो गलतफहमी हो रही है इसमें...मुझे ऐसा लगता है...”

“आप उसके पिता हैं इस लिए मेरी बातों पर आपको विश्वास नहीं होगा...आप उसी से पूछ कर देखिए...मुझे तो लगता है उसकी उस उपाध्याय मैडम ने पट्टी पढ़ाई है उसको।”

“हां, उस औरत से बच कर रहना चाहिए, ये तो सच है। मैंने भी सुना है उसके बारे में...” दांत-ओठ चबाते हुए जीतू के कंधे पर हाथ रखते हुए उसने कहा, “देखिए, केतकी को सीधा कैसे करना है ये अब आपका काम है। आपको जो करना हो करिए, मुझे कोई एतराज नहीं। मैं यदि कभी आपको रोकूं तो कहिएगा। ” जीतू को आश्चर्य हुआ और मन ही मन खुशी भी। “नहीं, नहीं, वैसी कोई बात नहीं है...कुछ भी नहीं करना है मुझे.. लेकिन ये तो सही है कि जो आवश्यक है वो तो करना ही चाहिए। आखिर मुझे उसके साथ जीवन बिताना है। ”

दोनों ने जीतू को चाय-नाश्ता, वचन और सहारा देकर शांत किया और फिर उसे विदा किया। उसके बाद रणछोड़ दास ने भिखाभा की ओर देखा, “मेरी तरफ देखते हुए बैठने की बजाय घर जाओ। वहां जाकर देखो कि हुआ क्या है...जाओ जल्दी जाओ...इसके बाद तुमको शहर से बाहर भी जाना है...”

“शहर से बाहर? कब, कहां?”

“वह सब छोड़ो। पहले घर जाओ और वहां लगी हुई आग को बुझाओ...भागो... ”

............................

रणछोड़ जमकर दारू पीकर घर पहुंचा। दरवाजा खोलते ही उसको सामने यशोदा दिखाई दी। वह उसकी तरफ गुस्से से देखता रहा, “जाओ, अभी जाओ, और सबको बुला कर लाओ यहां...मुझे बात करनी है।”

“अभी बहुत रात हो गई है, जो भी है सुबह कहिएगा। ”

“तुम...तुम मुझे उपदेश दोगी? ” इतना कह करह रणछोड़ ने यशोदा को जोरदार धक्का मारा। “जाओ....सबको बुला कर लाओ।”

रणछोड़ सोफे पर धड़ाम से बैठ गया। आवाज सुन कर सबसे पहले भावना बाहर आई। उसकी आंखों में नींद थी और चेहरे पर गुस्सा, “अब इस समय क्या काम है?”

“चुप रहो...उस अभागिन की पूंछ भी बड़ा मुंह चलाने लगी है। इसकी जुबान पर भी कैंची चलानी पड़ेगी। ”

कुछ ही देर में शांति बहन, जयश्री और केतकी भी पहुंच गईं। रणछोड़ जैसे-तैसे उठ कर बैठा। फिर नशे में डगमगाते हुए केतकी के पास गया। उसकी तरफ ऊंगली दिखाते हुए बोला, “इसको पहचानते हैं न सब लोग? बड़ी होशियार है ये...एकदम चैप्टर...बाहर कुछ भी करती है...लेकिन घर में किसी न पूछती है, न बताती है...क्यों ठीक है न?”

केतकी तटस्थ होकर उसके सामने खड़ी रही, “आप अभी नशे में हैं। सुबह बात करेंगे।” केतकी पीछे मुड़ कर जाने लगी। “रुको, अभी ही बात करनी है...तुमसे तो बात करने का कोई मतलब ही नहीं।” इतना कहकर रणछोड़ केतकी की तरफ मुड़ा, “तुमको भी कुछ मालूम नहीं...?”

यशोदा थरथर कांपने लगी, “नहीं ...नहीं..”

“वाह...यानी अब यह तुम्हारा भी लिहाज नहीं करती...? तुमको बड़ा शौक था न...मेरी बेटी को पढ़ने दीजिए...पढ़ाया...फिर बिना पूछे नौकरी करने लगी...मैंने कुछ नहीं कहा...फटफटी ले ली...तो भी मैं शांत रहा...लेकिन इसका परिणाम क्या हुआ तुमको पता है? किसी को पता है?”

सब चुप थे। रणछोड़ केतकी के पास जाकर खड़ा हो गया। उसका हाथ पकड़ कर ऊपर उठा दिया, “इस बदनसीब ने घर खरीदा है...अपना घर...” सभी के चेहरे पर आश्चर्य था। “और घर भी कितने रुपयों का...?चार लाख का...चार लाख। किसी से भी बिना पूछे। घर के सभी लोग मर गए हैं इसके लिए...”

केतकी ने झटका देकर अपना हाथ छुड़ा कर नीचे किया। “हां, परिस्थिति ही वैसी थी और मौका भी था, इस लिए घर बुक कर लिया। अच्छा घर था, सस्ते में मिल रहा था और मेरे सुखी जीवन के लिए वह जरूरी भी था।”

रणछोड़ दास चिल्लाया, “सुखी जीवन यानी क्या....जीतू के साथ ही न?”

“हां...उसकी इच्छा थी। जरूरत भी थी और सस्ता भी मिल रहा था इस लिए लिया। ”

“तो फिर उसकी पीठ पर छुरा क्यों घोंपा?”

“मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया है..”

“झूठ मत बोलो। घर जीतू की जगह अपने नाम पर ले लिया...अपने नाम पर...वो लड़का चिढ़ा हुआ है...मैंने जैसे-तैसे उसको समझाया है। लेकिन इसके लक्षण कैसे हैं वो देखो। उस लड़के की एक भी बात नहीं मानती। वो जो कहता है उसका उल्टा ही करती है। ”

यशोदा भाग कर केतकी के पास गई, “ये सब सच है क्या?”

“मां, यदि घर मेरे नाम से लिया जाता तो ही कर्ज मिलता। इतना ही सच है। बाकी ये जो कुछ कह रहे हैं, सब झूठ। यदि वो मुझे अपने गोठे में बंधी हुई गाय समझ रहा होगा और अपने इच्छा के अनुसार मुझे हकालना चाहेगा तो मैं वैसा क्यों करूं? मेरी पसंद-नापंसद, इच्छा-अनिच्छा भी है। पहले तो खूप झंझट करता था। फिर घर लेना था तो पूरी तरह से बदल गया। मीठा-मीठा बोलने लगा। प्रेम से रहने लगा। अब जब घर उसके नाम से नहीं हआ है तो फिर से बदल गया है। अपना असली स्वभाव दिखाने लगा।”

शांति बहन सामने आईँ। उन्होंने अपने दाहिने हाथ से यशोदा का चेहरा पकड़ कर अपनी ओर किया। “ये देखो, ये अगर जीतू के साथ ठीक से नहीं रही, और यदि ये शादी टूटी तो उसे इस घर में जगह नहीं मिलेगी। उसको समझा दो कि कुछ समय के लिए तो कम से कम सब लोगों को शांति से जीने दे। अपने घऱ जाने के बाद जो मर्जी हो सो करे। फिर कुएं में गिर कर जान भी दे दो तो चलेगा।” इतना कह कर वह अपने कमरे में चली गईं। उनके पीछे-पीछे एक-एक करके सभी जाने लगे। सबके जाने के बाद भावना ने केतकी को गले से लगा लिया। “वाह मेरी सुपरवूमन...इतना बड़ा काम कर दिखाया तुमने? अपना फ्लैट ले लिया? आइ एम प्राउड ऑफ यू।

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह