Agnija - 71 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 71

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अग्निजा - 71

प्रकरण-71

उस दिन न जाने क्यों, केतकी को अपने पिता जनार्दन की बहुत याद आ रही थी, जिन्हें उसने देखा भी नहीं था। उसने अपने पिता को तो देखा ही नहीं था, लेकिन आज तक उनका  फोटो भी नहीं देखा था। आई जो बातें बताती थीं, उनका वर्णन करती थी और अपनी कल्पनाशक्ति का उपयोग करके वह अपने सामने एक व्यक्तित्व खड़ा करती थी। वह व्यक्तित्व उसके लिए बहुत स्नेही, प्रिय और पूज्य था। मेरी जीतू के साथ शादी और उसके साथ सुखी गृहस्थी की कल्पना से ही उनको कितनी खुशी और संतोष मिला होता? पिता के ख्यालों में और शादी के विचारों के बीच केतकी को कब नींद आ गई पता ही नहीं चला।

शादी की घर और सुबह की भागमभाग। किसी के पास भी एक क्षण की फुर्सत नहीं थी। आनंद और उत्साह के वातावरण में जीतू केतकी के सात फेरे चल रहे थे। यशोदा की आंखों से हर क्षण उमड़ रहे आंसू केतकी को दिखाई पड़ रहे थे। फिर विदाई की बेला आई। यह समय सबसे कठिन होता है। अपने पति के साथ की रोमांटिक कल्पना, भविष्य के सुखद सपने सबकुछ हिचकियों में डूब गए। भावना गले लग कर इतना रोई कि सारा वातावरण भारी हो गया। दोनों को अलग करना मुश्किल हो रहा था। केतकी अपनी मां से गले लग कर रोने की जगह एक जगह ठिठक कर रह गई। यशोदा के आंसू थम ही नहीं रहे थे। उसकी स्थिति ऐसी हो गई थी मानो होश खो दिए हों उसने। सभी यशोदा को संभालने में लगे थे। इसके बाद केतकी रणछोड़ दास से मिलकर बहुत देर तक रोती रही। सभी ने खूब कोशिश की, लेकिन वह उनसे दूर हो ही नहीं रही थी। जैसे तैसे उसे छोड़ कर केतकी आगे बढ़ी। लेकिन वह पीछे मुड़ कर देख रही थी। रणछोड़ दास अब भी रो रहा था। केतकी का ध्यान बार-बार रणछोड़ दास की तरफ जा रहा था, और उसकी आंखों से बहते आंसुओं को देख कर उसे आश्चर्य भी हो रहा था।

अचानक चेहरे पर पानी के छींटे पड़े और केतकी की नींद खुल गई। सामने भावना खड़ी थी, उसके हाथ में पानी का बर्तन था। “केतकी बहन, कब से पुकार रही हूं तुम्हें, लेकिन तुम जाग ही नहीं रही थी इस लिए ऐसा करना पड़ा...जीतू के साथ सपना देख रही थी क्या...? यदि ऐसा होगा तो सॉरी हां...” केतकी ने उसे खींच कर अपने पास बिठाया। “हां, सपना ही देख रही थी...लेकिन अपने ससुराल जाने का...विदाई का...”

“वाह, मैं थी क्या उसमें? मैंने क्या पहन रखा था?”

“अरे पगली मैंने सपने में तो ऐसी बातें देखीं कि मेरे दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया। ऐसा तो कभी सपने में भी संभव नहीं हो सकता... ”

“ओ माय गॉड...ऐसा क्या देख लिया तुमने?”

“मैंने सपने में खुद कोअपने इस बाप से गले मिल कर रोते हुए देखा। मानो उन्हें छोड़ने का मुझे बड़ा दुःख हो रहा हो मैं इस तरह उनसे मिल कर रो रही थी। ”

“ये कैसे संभव है? तुम तो इस घर से, और खास कर उनसे छुटकारा पाने के लिए जो मिल जाए, उस लड़के से शादी करने के लिए तैयार हो गई थी न? उसी में तो इस जीतू का नंबर लग गया न?”

“सुनो तो, सपने में एक और भयंकर बात हुई...”

“इससे भयंकर, वो क्या?”

“मैं उनसे गले मिल कर हिचकियां ले लेकर रो रही थी। सभी लोग कोशिश कर रहे थे लेकिन मैं उनको छोड़ ही नहीं रही थी। आखिर जबरदस्ती मुझे उनसे छुड़ाया गया और मैं आगे चली और जब पीछे मुड़कर देखा तो वो आदमी भी रो रहा था, इतना कि चुप ही नहीं हो रहा था।”

“वो तो रोएगा ही न? अब इस घर में काम कौन करेगा?” भावना हंसते हुए बोली। लेकिन केतकी अपने विचारों में खो गई। “कैसे भी हो पर अपने सगे पिता का फोटो मुझे ढूंढ़ना ही है। इसके लिए चाहे एक बार जयसुख चाचा के पास ही क्यों न जाना पड़े। ”

“हां, हां मुझे भी उनका फोटो देखना है। सच्चे और अच्छे पिता कैसे होते हैं, मैं भी देखना चाहती हूं।”

“अरी ओ होशियार, वो मेरे पिता हैं। तेरे पिताजी तो हैं न तेरे साथ?”

“मैं ऐसे आदमी को अपना पिता समझती ही नहीं, समझी न?” यह सुन कर केतकी को आश्चर्य हुआ। कोई व्यक्ति इतना बदनसीब और गरीब हो सकता है कि जिसे उसकी सगी बेटी भी अपना पिता नहीं समझती?

इस सपने से केतकी बड़ी व्यथित हो गई थी। रणछोड़ दास से गले मिल कर रोने की कल्पना मात्र से उसे ऐसा लगा कि खुद को धिक्कारा जाए। इसी नाराजगी में उसने यशोदा पर अपना गुस्सा उतारा, “मुझे जन्म तो दे दिया, लेकिन मुझे दिखाने के लिए मेरे पिता का एक फोटो तक बचा कर नहीं रखा? नाना के घर में तो होगा न?”

“मुझे नहीं मालूम। उस समय आज की तरह फोटो थोड़े ही खींचे जाते थे। फोटो खिंचवाना बहुत महंगा था। जितना कि मुझे याद है शादी के समय एकाध रोल फोटो खींचे गए होंगे। वो भी ब्लैक एंड व्हाइट। लेकिन उसमें भी वह इतने सुंदर दिख रहे ते। हो सकताहै झमकु आई के पास हो।”

“उनका पता मिलेगा? तुमको याद है? मुझे लिख कर दो।” यशोदा ने पता लिख कर दे दिया। उस पते को पढ़ते हुए भी केतकी को उसमें अपनापन महसूस हुआ। पढ़ते-पढ़ते केतकी की आंखें भर आईँ। मानो अमृत धारा बह रही हो।

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शाला की क्रेडिट कार्ड सोसायटी से मिली रकम बिल्डर को दी गई और उससे बुकिंग की पावती और बाकी कागजात लेकर बैंक के सुपुर्द किए गए। पांच दिनों के भीतर कर्ज मंजूर हो गया। जीतू को बड़ा आनंद हुआ, “मैं कितना भाग्यवान हूं जो अपना घर लेने का सपना पूरा हुआ। पूरी रकम केतकी ने ही खड़ी की थी। सारे कागजात बनवाने और उन्हें इकट्ठा करने का सिरदर्द भी उसी ने झेला। ये सब अपनी समझ में कहां आता है. ”

जीतू को फ्लैट के बाहर अपने नाम की सुंदर नेमप्लेट दिखाई दे रही थी। स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई। किसी के भी घर पर लगी नेमप्लेट देखता तो उसे लगता था कि मेरे नाम की पट्टी कब लगेगी। अब उसका सपना पूरा होने जा रहा था।

बड़े उत्साह के साथ जीतू ने पूछा, “चेक लेने के लिए मैं बैंक में कब आऊँ?”

“आपको आने की आवश्यकता नहीं है। बिल्डर के नाम का चेक मुझे ही देंगे।”

“अरे पर मेरे हस्ताक्षर लगेंगे न कहीं पर?”

“नहीं, मैनेजर ने मुझे बताया है कि कर्ज के लिए आवेदन मैंने किया है। किश्त मेरे पगार से कटेगी। इस लिए सभी जगह मेरा ही नाम होगा और हस्ताक्षर भी मेरे ही होंगे।”

“ऐसा कहीं होता है क्या?”

केतकी हंस कर बोली, “हां, यदि मैंने किश्त नहीं पटाई तो मेरे नाम का यह फ्लैट जब्त हो जाएगा, ऐसी व्यवस्था है।”

“फ्लैट तुम्हारे नाम से? लेकिन हमारी ऐसी बात कहां हुई थी...मैं तो तुमसे कह रहा था कि पैसों की व्यवस्था हो जाए. तो तुम्हारे पैसे मैं तुमको लौटा दूंगा...”

“अरे, पर नियम कायदे भी कुछ होते हैं, उसमें हम क्या कर सकते हैं? बैंक को पैसे लौटाने के बाद फ्लैट आपके नाम से कर देंगे। वैसे भी अब आप और मैं अलग हैं क्या?”

“तुम पढ़े-लिखे लोगों का खेल मुझे समझ में ही नहीं आता। तुमको जो करना हो करो।”इतना कह कर जीतू उठ गया।

“इसमें नाराज होने जैसी कौन सी बात है, घर तो अपना ही होगा न?”.

“नहीं मैडम...अपना नहीं तुम्हारा घर। तुम पढी-लिखी कमाई करने वाली हो और अब घर भ तुम्हारे ही नाम पर है। मैं क्या करूंगा वहां पर...? घर के काम? तुमने ये जो किया है न ठीक नहीं है। मेरे प्रेम का ये बदला दिया तुमने? मुझ पर जरा भी विश्वास नहीं?”

“लेकिन इसमें विश्वास या अविश्वास का सवाल कहां से आ गया?”

“मैं अधिक पढ़ा-लिखा नहीं हूं लेकिन दुनियादारी तो मुझे भी समझ में आती है। ये तुम्हारी और उस उपाध्याय मैडम की चाल है। अब तुम देखती रहो...”

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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