Agnija - 64 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 64

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अग्निजा - 64

प्रकरण-64

केतकी जीतू के पीछे भागी, “अरे, पर आपका कोई खास काम था न? ऐसी छोटी सी बात के लिए उसे भूलने से कैसे चलेगा? प्लीज...कहिए न ....क्या काम था?”

जीतू रुका। उसने गहरी सांस ली और छोड़ी। दो पल के लिए आंखें बंद कर लीं, “तुम ठीक कहती हो। खास काम को भूल कर कैसे चलेगा? चलो...” इतना कह कर उसने रिक्शा रुकवाया और उसे गार्डन की ओर चलने के लिए कहा।

लॉ गार्डन में जोड़ों की भीड़ देख कर केतकी को ऐसा लगा कि बेकार ही यहां आए। लेकिन जीतू पूरे उत्साह के साथ आगे-आगे चल रहा था, केतकी वहीं ठहर गई। आजू-बाजू बैठे जोड़ों को देख कर वह बेचैन हो गई। वहीं खड़ी हो गई। जीतू को यह बात ध्यान में आई। उसने आश्चर्य से पूछा, “क्या हुआ? रुक क्यों गई?”

“प्लीज...हम लोग यहां से निकलते हैं...”

“लेकिन हुआ क्या? कोई पहचान वाला दिख गया क्या यहां?”

“ऐसी जगह पर मैं पल भर भी ठहर नहीं पाऊंगी। प्लीज...चलिए...” इतना कह कर केतकी वापस लौटने लगी। जीतू भी चुपचाप उसके पीछे-पीछे चलने तो लगा लेकिन उसका दिमाग खराब हो गया था। बगीचे के बाहर केतकी ठहर गई। जीतू उसके पास आकर बेरूखी के साथ बोला, “इतनी दूर खड़ा रहूं तो चलेगा ना...तुम्हारा धर्म तो भ्रष्ट नहीं होगा...?”

“ऐसी बात नहीं है...प्लीज...जरा समझने की कोशिश कीजिए...”

“अरे, लेकिन लोग यहां ऐसा क्या गलत या बुरा कर रहे हैं?”

“गलत नहीं...लेकिन उसके लिए सही समय,सही जगह और सही परिस्थिति होनी चाहिए न...?”

“यानी, ये सब पागल हैं, यही न?”

“कोई पागल नहीं हैं, पर मुझे यहां डर लगता है।”

“ये तो मैं नई बात सुन रहा हूं, कुछ करने से पहले ही डर?”

“प्लीज, एक लड़की की भावनाओं को समझें जरा।”

“तो फिर वहां अंदर क्या लड़कियां नहीं हैं? या वे सभी तुम्हारी तरह अच्छी नहीं, बिगड़ी हुई हैं...यह कहना चाहती हो?”

“मैं किसी को कुछ नहीं कहना चाहती। आप मेरे हैं इसलिए मैं आपको रोक सकती हूं।”

“तो फिर तुम्हारा हाथ पकड़ने के लिए या तुम्हें स्पर्श करने के लिए मुझे और कितनी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, तुम्हारी मर्जी होगी तब तक?”

“मेरे अकेली का नहीं, हम दोनों का जब मन होगा, तब तक। वैसा समय, परिस्थिति और जगह हमारे जीवन में आएगी ही। प्लीज, आप बुरा न मानें...”

“बुरा न मानूं तो क्या करूं?... दूसरे लोगों की तरफ देखो...तुम पढ़ी-लिखी हो फिर भी...?”

“पढ़ी लिखी हूं फिर भी...का क्या मतलब है? आपको क्या लगता है हम आधुनिक विचारों के हैं तो इसका मतलब कहीं भी, कुछ भी करते हैं? ऐसा लगता हो तो बता दो...तुम्हारे विचार ऐसे ही हैं क्या...?”

“मेरे विचारों की उठापटक हो रहने दो...”

“तो अब हम लोग शांति से कहीं बैठ कर बातें करे?”

“मुझे कुछ नहीं कहना है। तुम मुझे लेक्चर देना चाहती हो और मुझे लेक्चर बिलकुल भी पसंद नहीं। चलो, तुमको रिक्शे में बिठा देता हूं।”

“हम साथ-साथ ही चलते हैं न...”

“नहीं रहने दो...कोई देख लेगा तो तुम्हारे बारे कुछ सोच लेंगे न? तुम अकेली ही जाओ घर...”

इतना कह कर जीतू वहां से निकल गया। जाते समय हाथ में पकड़े हुए गुलाब के पैकेट को दूर फेक दिया। यह देख कर केतकी खिन्न हो गई। वह विचार में पड़ गई, “मेरे साथ हमेशा ही ऐसा क्यों होता है? मेरे मन में भावनाएं नहीं हैं क्या? मेरे मन की सभी भावनाएं मर चुकी हैं क्या? मैं इतनी रूखी क्यों हो गई हूं?मेरी उम्र की लड़कियों की तरह मेरे मन में भी इच्छाएं क्यों नहीं होतीं? सालों साल से प्यास की इतनी आदत हो चुकी है कि अब आषाड़ के काले घने मेघों भी बोझ लगने लगे हैं? अब यह सब घर में मालूम होगा तो मेरी खैर नहीं...जीतू अब दोबारा कब मिलेगा? मिलेगा भी या नहीं क्या पता...?”

केतकी डरते-डरते घर पहुंची, लेकिन सौभाग्य से उसे किसी ने कुछ नहीं कहा और दूसरे दिन शाम को जीतू फिर से उसकी शाला में आ पहुंचा। “तुम्हरे पास समय हो तो हम कहीं घूमने चलें?” केतकी ने राहत की सांस ली और उसके चेहरे पर मुस्कराहट छा गई। उसे रात में ठीक से नींद नहीं आई थी। उसकी आंखें जल रही थीं और शाला के रास्ते में सुधार काम चल रहा था। उसे देख कर जीतू ने मुंह बिचकाया। “कल के लिए सॉरी, मैंने आपका मूड खराब कर दिया था...”केतकी बोली।

“वो सब छोड़ो, पर इस समय गॉगल? लोग हंसेंगे...”

“अरे, मेरी आंखें जल रही हैं, फिर इधर धूल भी खूब उड़ रही है...”

“ लेकिन शाम के समय कौन गॉगल लगाता है? निकालो उसे तुरंत...”

“प्लीज, समझने की कोशिश कीजिए न...”

“हां मुझे कहां कुछ समझ में आता है...समझिए...समझिए...का जो ताना मारती रहती हो, वह मुझे खूब समझ में आता है। मैं तुमसे कम पढ़ा-लिखा हूं न? ठीक है...तुम इस समय गॉगल लगा कर महारानी की तरह घूमो, मैं चला...” इतना कह कर वह आगे बढ़ गया और केतकी कुछ कह पाती इसके पहले ही सामने से आ रही बस में चढ़ गया। केतकी देखती रह गई, “मेरे जीवन में ये सब क्या चल रहा है, रोज रोज ऐसा क्यों होता है..इससे अच्छा तो अब जीतू से मुलाकात कम ही की जाएं। शादी के बाद एकदूसरे को समझ लेंगे। उस समय बहुत समय और मौका भी मिलेगा। और उसके बाद भी अब यदि वह आया तो वह कहे वैसा ही, और उतना की करना होगा, फालतू मगजमारी नहीं...”

तीसरे दिन जीतू वापस आया। जीतू के ध्यान में यह बात आई कि आजू-बाजू में धूल उड़ रही थी फिर भी केतकी ने आज गॉगल नहीं लगाया है। उसकी आंखें भी लाल थीं, यह भी उसने देखा।

“आज तुम्हारा मूड नहीं है इस लिए तुमने गॉगल नहीं लगाया, और कल मैं कह रहा था तो भी निकाल नहीं रही थी...चलो आज साथ चलें क्या...इस रास्ते पर बगीचे की तरह एकांत नहीं है, तो तुम्हें डर लगने का कोई कारण नहीं...ठीक?”

केतकी उसके ताने को समझ गई लेकिन बोली कुछ नहीं। वह चुपचाप उसके साथ चलनेगी। कुछ बात करने के मकसद से जीतू ने बातचीत शुरू की। उस पर उसने उसी दिन देखी फिल्म फूल और कांटे पर ही अधिक बात कर रहा था। उसके अजय देवगन की एक्टिंग की तारीफ कर रहा था। केतकी के बाल हवा से उड़ रहे थे। बार-बार चेहरे पर आ रहे थे और केतकी उन्हें धीरे से अपने कानों के पीछे कर रही थी। यह देख कर जीतू चिढ़ गया, “मुझे मालूम है तुम्हारे बाल डिंपल कापड़िया की तरह हैं, लेकिन उऩको बांध कर क्यों नहीं रखतीं। गांव भर को दिखाने की क्या जरूरत है?”

“अरे, सुबह बाल धोए थे...देर हो रही थी इस लिए खुले ही रख लिए...”

“देखो, ये सब नखरे चलने वाले नहीं...रोज सुबह उठ कर फालतू की झिकझिक नहीं चाहिए...समझ में आया? ” केतकी कुछ नहीं बोली। जीतू के चेहरे की ओर देखने की बजाय वह आसपास देखती चल रही थी। जीतू से वह भी सहन नहीं हुआ। “मैं तुम्हारे साथ चल रहा हूं...फिऱ भी तुम आजूबाजू देख रही हो...किसे खोज रही हो...कोई हैंडसम दिखाई देता है क्या...यह देख रही हो? ”

“आप ये क्या कह रहे हैं, मेरे बारे में आप ऐसा विचार कैसे कर सकते हैं?”

“मैं कोई विचार नहीं करता...लेकिन तुम जिस तरह से व्यवहार करती हो, किसी के मन भ ऐसे विचार आ सकते हैं, समझीं?”

“मुझे तो समझ में ही नहीं आता कि मैं किस तरह से व्यवहार करूं कि आप खुश रहेंगे?”

“तुम कहां मुझे खुश करना चाहती हो...लेकिन तुम देखो इधर-उधर और अपनी खुशी खोजती रहो...” जीतू फिर से गुस्से में भर कर निकल गया। केतकी इतनी व्यथित हो गई कि उसे घर लौटने का भी मन नहीं कर रहा था। उसने पब्लिक फोन बूथ से एक फोन लगाया और रिक्शे में बैठ गयी। जीतू दूर से उसे देख रहा था। फिर रिक्शे में बैठ कर उसका पीछा करने लगा। केतकी, उपाध्याय मैडम के घर के सामने रुकी और जीतू ये देखते ही रह गया, “इसे मेरी परवाह नहीं। लेकिन उपाध्याय मैडम के घर आए दिन भागती रहती है...”

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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