सोई तकदीर की मलिकाएँ
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सुखे के लिए अपनी बहन और जीजा जी की बात को टालना मुश्किल काम था । वैसे भी वह उसके घर की भलाई के लिए ही तो सोच रही थी तो उनका मान रखने के लिए उसने कह दिया – ठीक है जैसे तुझे ठीक लगे ।
सुन कर कंतो की खुशी का ठिकाना न था । वह खुशी खुशी अपने घर गयी । इस बात के बारह दिन बाद पूर्णमाशी थी , उस दिन ये सारा परिवार लङकी देखने उनके शहर गया । लङकी देखने भालने में ठीकठाक थी तो चरण को पहली नजर में लङकी पसंद आ गयी । अब लङके को लङकी पसंद आ गयी तो बाकी लोगों को भला क्या ऐतराज होता और उनके हाँ कहते ही कंतो और उसके परिवार ने आपस में और फिर ननद से सलाह की । कंतो के पति ने आकर कहा – भाई जी हम आप की परेशानी समझते हैं । भाभी जी की अचानक हुई मौत की वजह से कोई बङा फंक्शन तो हम कर नहीं सकते कि आप सारे रिश्तेदार इकट्ठे करो और हम भी चार लोगों के बुलाएँ । बैंड बाजे बजें । ऐसे गम में कोई ज्यादा शोर करने की जरूरत भी क्या है । चार पैसे बचेंगे तो इन दोनों के काम आएंगे । तो आज दिन अच्छा है । आप आज ही चुन्नी ओढाकर लङकी ले जाओ । बाकी हम तो लङकी वाले हैं , सारी जिंदगी देना है । अपनी हैसीयत के अनुसार देते रहेंगे ।
बाप बेटों को कोई जवाब नहीं सूझा और इस तरह उसी शाम चरण अपनी दुल्हन अंग्रेज कौर को विदा कराकर घर ले आया ।
अंग्रेज कौर सांवली दुबली पतली लङकी थी । यहाँ खुला दूध , घी खाने को मिला तो जल्दी ही देह से भर गयी । घर की इकलौती कर्ता धर्ता होने से जल्दी ही उसने सारा हक समझ लिया । वह सारा दिन चारपाई पर पसरी रहती । लेटी लेटी शरण सिंह और जयकौर पर हुक्म चलाती । चारपाई पर लेटा ससुर उसे फूटी आँख न भाता । वह जी भर कर खाती और मन भर कर बोलती । जितना ये लोग चुप रहते , उतना ही उसका हौंसला बढ रहा था । दिनों दिन घर में क्लेश होने लगा तो तंग आकर सुखे ने बेटे बहु का चौका अलग कर दिया । पर समस्या तो वहीं की वहीं रह गयी । घर को अब भी एक सुगढ गृहणी की जरूरत थी ।
लोग अब शरण के लिए रिश्ते जुटाने लगे थे । सुखा एक बार धोखा खा चुका था इसलिए वह इस बार जल्दबाजी में कोई कदम उठाना नहीं चाहता था । वह फूंक फूक कर पैर रख रहा था । कोई लङकी उसे अपने घर के लिए जँच ही नहीं रही थी कि एक दिन अनहोनी हो गयी । आधी रात को उसके सीने में ऐसा दर्द उठा कि वह पसीना पसीना हो गया । उसने पूरा जोर लगा कर बेटों को पुकारा । जब तक बेटे उसकी कोठरी में पहुँचते , वह दुनिया छोङ गया । अभी अमरजीत को मरे दो साल ही हुए थे कि सुखविंदर सिंह भी उस लोक में जा बसा ।
तेहरवीं पर इकट्ठा हुए रिश्तेदारों ने तुरंत एक लङकी के साथ शरण की शादी करा दी । अब घर में दो बहुएँ थी , दो चौंके चूल्हे थे और जयकौर थी । दोनों भाभियाँ अब मुँह की मीठी हो गयी थी । वे जयकौर को दिन भर काम पर लगाए रखती । जयकौर कभी बङी भाभी की रोटी बना रही होती । कभी छोटी के बरतन माँज रही होती । कभी भाइयों की रोटी लेकर खेत जाती तो कभी भैंसों को चारा काट कर खिला रही होती । सुबह से शाम और शाम से रात हो जाती पर जयकौर के काम खत्म न होते । रात में वह थक हार कर बिस्तर पर जाती और सुबह साढे चार बजे से फिर से घर के काम में जुट जाती ।
दोनों भाई उसे काम में जुटा देखते पर देख कर भी अनदेखा कर जाते । आखिर घर की शांति भी कोई चीज है । अपनी पत्नियों को कुछ कहने सुनने की हिम्मत दोनों में से किसी में नहीं थी और कहते भी तो क्या , जयकौर बिना किसी शिकायत के दिन रात काम में जुटी हुई थी । दोनों आलसी बहुओं के रहते भी जयकौर के आसरे ही सही घर गृहस्थी संभली हुई थी तो और क्या चाहिए था । तो चुप रहने में ही सब की भलाई थी ।
धीरे धीरे जयकौर की हालत बंधुआ मजदूरों से भी बदतर होती चली गयी । दोनों भाभियाँ अब उससे इस बात पर लङ पङती कि उसने उनका काम पहले क्यों नहीं किया । छोटी को शिकायत होती कि वह बङी जिठानी का काम करती है , उसकी ओर तो दस बार बुलाने पर आती है । बङी को शिकायत होती कि वह छोटी के ही घर में घुसी रहती है जैसे वह तो कुछ लगती ही नहीं । जयकौर प्यार के दो बोलों के लिए तरस जाती । अब मुफ्त की नौकरानी मिली हो तो उसे ब्याह कर घर से भेजने की बेवकूफी कौन करे । ऊपर से पल्ले से पैसे लगाने पङेंगे सो अलग तो जिस जयकौर का ब्याह अमरजीत और सुखा सबसे पहले कर देना चाहते थे , उस जयकौर का रिश्ता चरण और शरण के तीन तीन बच्चे हो जाने पर भी नहीं हुआ । जयकौर का घर में अब दम घुटता पर लङकी की जात । अपने मुँह से कैसे कहे कि भाई अब मेरे बारे में भी सोचो । मेरा भी घर बसाओ । भाई तो सुबह के घर से गये रात से पहले घर न आते । आते भी तो पीकर आते कि कोई बात हो ही न सकती थी । और भाभियाँ तो बेगानी बेटियाँ , उनसे क्या बात करती । माँ होती तो अब तक कब का उसका ब्याह हो जाता और उसकी गोद में दस बारह साल के बच्चे खेल रहे होते । सहेलियों को अपने घर संसार में मगन देखती तो वह मन मसोस कर रह जाती ।
बाकी कहानी फिर ...