उसका बयान सुनते हुए मेरी सूख चुकी आँखों में न जाने कहाँ से आँसुओं का समंदर हिलोरें मारने लगा जो बड़ी बेसब्री से पलकों के किनारे तोड़कर अपनी हदों से बाहर निकल पड़ने पर आमादा हो गया था। मैंने उन्हें रोकने का प्रयास भी नहीं किया। पलकों के किनारे तोड़कर आँसुओं के सैलाव बह निकले थे।
वकील ने आगे अपना बयान जारी रखा था
'न चाहते हुए भी हमारे सामने मुख्तार की बात मानने के अलावा कोई चारा नहीं था। उस बेचारी की ऐसी अवस्था में भी मुख्तार ने अपने साथियों के साथ मिलकर उसपर अपनी दरिंदगी जारी रखी।
कब तक उसका तन और मन यह दरिंदगी झेल पाता ? अब वह पूरी तरह से पागल हो गई थी। न कपड़े की सुधि न अपने शरीर की ..मुख्तार को देखते ही उसे मारने के लिए दौड़ पड़ती और फिर अचानक ही जमीन पर बैठकर रोने लगती। रोते रोते अचानक खिलखिलाकर हँस पड़ती। कभी कभार पूरे कपड़े उतारकर बाहर बरामदे में आ जाती और भद्दी भद्दी गालियाँ बकने लगती।
अब हम आगे की योजना पर विचार कर रहे थे। मुख्तार का विचार था कि उसे इसी अवस्था में कहीं दूर के किसी शहर में छोड़ दिया जाय जहाँ से उसके वापस आने की कोई संभावना ही नहीं रहे। न रहेगी बाँस न बजेगी बाँसुरी ....!
लेकिन मेरे मन में कहीं न कहीं आशंका थी कि हो सकता है बाहर भटकते हुए वह किसी तरह अपने घर पहुँच जाए या फिर यह भी हो सकता है कि उसकी दिमागी हालत ठीक हो जाए और इन दोनों ही हालातों में हमारे लिए मुश्किल का बढ़ जाना लाजिमी था अतः मैंने कोई जोखिम न लेते हुए मुख्तार को उसे ठिकाने लगा देने की सलाह दी।
मुख्तार इसके लिए राजी नहीं हुआ। अलबत्ता उसने अपने एक मित्र गुफरान का नाम लिया जो पड़ोस के दूसरे शहर में ऐसी लड़कियों का एक गिरोह चलाता था जिनसे वह उनकी योग्यता अनुसार वेश्यावृत्ति से लेकर चोरी, उठाईगिरी और भीख मँगवाने तक का काम करवाता था। एक बार उंसके चंगुल में फँसी किसी लड़की का आजाद होना लगभग नामुमकिन था। उसकी योजना जूही को गुफरान के हवाले कर देने की थी। मरता क्या न करता, मुझे उसकी बात माननी ही पड़ी।
योजना के मुताबिक एक दिन बड़े सवेरे जब वह उनींदी अवस्था में थी हम उसे कार में बैठाकर पड़ोस के शहर की तरफ चल पड़े।
कार मुख्तार चला रहा था और मैं कार में आगे बैठा हुआ था जबकि अजीब अजीब हरकतें करती वह पागल लड़की कार की पिछली सीट पर अधलेटी सी थी। कभी सीधे सो जाती तो कभी सीट पर ही पालथी मारकर बैठ जाती।
काफी देर तक चलने के बाद हम नजदीकी शहर के बाहरी इलाके तक पहुँच गए थे। सुबह होने को थी और हमें चाय की तलब लग रही थी। पीछे की सीट की तरफ देखा तो वह लड़की चित्त पड़ी खर्राटे ले रही थी। ऐसा लगा मानो वह गहरी नींद में हो।
उसे सोता हुआ समझकर उसे छोड़कर हम चाय पीने गए और जब वापस आये वह लड़की अपनी सीट पर नहीं मिली। सड़क पर दूर दूर तक उसका कहीं नामोनिशान नहीं था। आसपास कहीं कोई बस्ती भी नहीं थी जहाँ वह छिप गई रही हो। खोजने के काफी प्रयास के बावजूद जब वह नहीं मिली तब गुफरान को फोन करके उसका हुलिया बताकर हम लोग वापस आ गए।
उस दिन के बाद उस लड़की का कहीं कोई अतापता नहीं चला और न हमने खोजने की कोशिश की। धीरे धीरे हम लोग उस वाकये को भूल कर अपनी जिंदगी में मस्त हो गए। बिलाल भी अपनी पढ़ाई में व्यस्त है।' कहकर वह ख़ामोश हो गया था।
उसके इकबालिया बयान के बाद अब पुलिस के पास तहकीकात के नाम पर करने के लिए कुछ खास बचा नहीं था। वकील की निशानदेही पर उसी शाम मुख्तार को भी गिरफ्तार कर लिया गया और उनपर जूही को शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना देने तथा उसके खिलाफ साजिश रचने के आरोप में कई धाराओं के तहत चार्जशीट दाखिल कर दी गई।
शहर में हुई उसकी भारी बदनामी को देखकर मुझे कुछ मानसिक शांति मिली, लेकिन यह शायद थोड़े ही दिन के लिए थी क्योंकि इस केस की जब विधिवत सुनवाई अदालत में शुरू हुई चालाक वकील जज साहब के सामने अपने सारे गुनाहों से मुकर गया।
उसपर मुकदमा चलाने का एकमात्र आधार उसका इकबालिया बयान व उस दरबान की गवाही थी जिसे उसने एक ही बयान से धराशायी कर दिया।
उसने दरबान से वेतन को लेकर नाराजगी का जिक्र करके उसकी गवाही को दुश्मनी से प्रेरित व फँसाने की कोशिश बताते हुए पुलिस पर ज़बरदस्ती मार पीटकर गुनाह कबूल करने के इकबालिया बयान पर हस्ताक्षर करवाने का आरोप लगा दिया। वह अपने बयान से पूरी तरह से मुकर चुका था और जूही की गैमौजुदगी में इस मुकदमे में कोई दम नहीं था लिहाजा अगली ही तारीख पर संदिग्ध गवाही व सबूतों के अभाव में कानून ने उन दरिंदों को बाइज्जत बरी कर दिया।"
बताते हुए रमा भंडारी का चेहरा आँसुओं से पूरी तरह धुल चुका था। मेज पर रखी गिलास से पानी पीकर रमा भंडारी कुर्सी पर निढाल हो गईं।
साधना ने गिलास में और पानी भरते हुए पूछा, "दिल को तार तार कर गई यह जूही बहन की कहानी ! लेकिन फिर आपने उस दरिंदे के खिलाफ ऊपरी अदालत में अपील क्यों नहीं की ?"
"अमूमन ऐसे मामलों में अपना पक्ष मजबूत होने पर पुलिस द्वारा ही ऊपरी अदालतों में अपील की जाती है लेकिन इस केस में जूही के गायब रहने की अवस्था में गवाह व सबूतों के अभाव में हम पूरी तरह असहाय थे। यदि जूही किसी तरह हमारे हाथ लग जाती तो वकील और बिलाल सहित मुख्तार और उसके सभी गुंडों को भी सजा दिलाया जा सकता था।"
कहने के बाद रमा जी ने एक गहरी साँस ली और थोड़ा संयत होकर आगे कहना शुरू किया, "कानून से निराश मैंने अपने स्तर पर जूही का पता लगाने की बहुत कोशिश की। मुख्तार के बताए अनुसार आसपास के सारे शहरों में जूही की तस्वीर लेकर हर गली, हर नुक्कड़, हर चौराहे पर भटकी। पूरी कोशिश की उसे तलाश करने की लेकिन उसे नहीं मिलना था सो वह नहीं मिली।
जीती जागती तो वह उस दिन मंदिर की सीढ़ियों पर ही दिखी थी। उसके बाद वह किसी भी तरह मुझे कहीं नजर नहीं आई। यदि मुझे उसका शव भी मिल गया होता तो मैं ईश्वर का शुक्रिया अदा करती क्योंकि अब मैंने अपना दिल मजबूत कर लिया था यह सोचकर कि उसकी ऐसी जिंदगी से उसके लिए मौत ही भली, लेकिन अफसोस भगवान ने मेरी यह इच्छा भी पूरी नहीं की।
कारोबार पर विपरीत असर तो पड़ना ही था। लगातार नुकसान की खबर के बाद मैंने अपना व्यापार समेटकर सभी कर्मचारियों की छुट्टी कर दी और शहर में स्थित अपना दफ्तर भी बेच दिया। बची खुची पूँजी और उस दफ्तर को बेचकर मिली रकम से मैंने यह बीस एकड़ जगह खरीदी और इसे घेर कर रख दिया। निजी खर्चे के लिए मैंने अपनी कोठी किराये पर चढ़ा दी।
यहाँ मैं विशेष रूप से जिक्र करना चाहूँगी इस जमीन के मालिक जुम्मन मियाँ की जिन्होंने मेरी पूरी हकीकत मालूम पड़ने पर इस जमीन की कीमत पच्चीस प्रतिशत कम कर दी थी और मैं यह पूरी जमीन खरीद सकी।
कोई कारोबार बचा नहीं था। गुजारे की चिंता नहीं रहे इसलिए कोठी को किराए पर चढ़ाकर इसी जगह में एक दो कमरे का मकान बनाकर रहने लगी। जूही की याद गाहेबगाहे आना स्वाभाविक ही था। उसकी यादों के सहारे यूँ ही एक एक दिन बीत रहे थे कि एक दिन सुबह की सैर के समय मुझे सड़क किनारे एक बीमार वृद्धा दिख गई। उसकी अवस्था देखकर मन करुणा से भर गया। उसे अपने घर ले आई। उसकी सेवा करके मुझे जो खुशी मिली मैं बयान नहीं कर सकती। उसके बाद तो मुझपर जैसे मजबूरों की सेवा करने का जुनून सा सवार हो गया ।
कुछ और जरूरतमंद महिलाएँ हमारी साथी बन गई। अब कोठी के किराये की रकम सबके खर्चे के लिए नाकाफी साबित होने लगी, फिर भी जी जान से सबकी सेवा करती रही। इसी के साथ मन में एक आस भी जग गई थी जूही को लेकर। क्या पता कभी वो दिन भी आये जब वक्त के थपेड़ों की मार किसी आसरे की तलाश में उसे अनजाने ही इस महिला आश्रम में पहुँचा दे। न जाने क्यों मुझे अभी भी हर घड़ी उसके वापस लौट आने का इंतजार रहता है। अब इसी सेवा भावना को अपना कर्मक्षेत्र मानकर मैं जी जान से इसी में जुट गई। सबसे पहले इस महिला आश्रम का पंजीकरण कराया और अपने कुछ परिचित उद्योगपतियों से भी मिली। मेरी यह कोशिश रंग लाई। साथ रहनेवाली सभी महिलाओं के स्नेहभरे वातावरण के बीच हम सभी मिलजुल कर कुटीर उद्योग चलाने लगे। कई लोगों से दान की राशि भी मिलने लगी और फिर धीरे धीरे इस दो कमरे वाले महिला आश्रम को आज का यह भव्य स्वरूप प्राप्त हो गया।"
कुछ पल की खामोशी के बाद रमा साधना से मुखातिब होते हुए बोली, "यही मेरी रामकहानी है। अब तुम्ही बताओ मैं क्या समझूँ ? क्या जूही जिंदा है ? है तो कहाँ है ? अगर नहीं तो फिर उसका शव क्यों नहीं मिला ?"
क्रमशः