Mamta ki Pariksha - 98 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | ममता की परीक्षा - 98

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ममता की परीक्षा - 98



काफी मान मनौव्वल के बाद थाना इंचार्ज के आदेश पर थाने में मेरी रपट लिखी गई।
उस दिन मैंने पहली बार जाना था कि थाने में कोई रपट लिखाना किसी सामान्य इंसान के लिए कितनी बड़ी बात है। और फिर अगर आरोपी कोई कासिम आजमी जैसा घाघ वकील हो तो फिर तो बहुत ही बड़ी बात, लेकिन मैं भी अपने धुन की पक्की थी और हवलदार के लाख पीछा छुड़ाने की कोशिश करने के बावजूद वहीं डटी रही। मेरी चीख पुकार सुनकर थाना इंचार्ज ने मुझे बुलाकर मेरी पूरी बात सुनी और फिर हवलदार को रपट दर्ज करने का आदेश दिया।

इसके बावजूद हवलदार की तल्खी कोई कम नहीं हुई थी। रपट लिख लेने के बाद उसने बेरुखी से कहा, "अब आप जा सकती हैं।"
न कोई कार्रवाई न किसी जाँच का आश्वासन ! मुझे मात्र इतने से ही तसल्ली कैसे हो जाती ? सीधे थानेदार के कक्ष में घुस गई । मेरी पूरी बात सुनने के बाद थानेदार ने एक नायब दरोगा को तलब किया और उसे एडवोकेट कासिम आजमी को थाने ले आने के लिए कहा।

एक घंटे बाद वह दरोगा उस शैतान आजमी को लेकर थाने में हाजिर हो गया। हालाँकि उसने वकालत के रुआब में अपने बहुत तेवर दिखाए लेकिन थानेदार ने उसे नामजद रपट का हवाला देकर शांत कर दिया।

उसकी सारी हेकड़ी तब धरी रह गई जब थानेदार ने उसे बताया, "तुम जिस कानून से रात दिन खेलते हो न, हम भी उसी कानून के खिलाड़ी हैं। तुम्हारे लिए कानून ने बहुत सी मर्यादाएं तय की हुई हैं लेकिन तुम्हें अच्छी तरह पता है कि हम पुलिसवाले अपनी मर्यादा खुद तय करते हैं। कानून ने हमें वो ताकत दी है जिसके दम पर हम शक के आधार पर किसी को भी एक दिन के लिए अपनी हिरासत में रख सकते हैं। ये तो हुई ईमानदारी की बात और जिस दिन हम तुम जैसे लोगों की तरह झूठ पर उतर गए न तो तुम अच्छी तरह जानते हो कि हम क्या क्या कर सकते हैं।" थानेदार ने उसे बुरी तरह लताड़ा था।
उसपर जैसे वकील के रसूख का कोई फर्क ही नहीं पड़ा था।

अब मेरी हिम्मत बढ़ गई थी, लेकिन मेरी खुशी ज्यादा देर तक टिकी नहीं रही। मुझे देखकर आश्चर्य हुआ जब वकील की लिखी जमानत अर्जी को थानेदार ने स्वीकार कर उसे उसके घर चले जाने दिया।
उसके जाने के बाद मेरे रोष को समझते हुए थानेदार ने मुझे समझाया, "उसकी जमानत अर्जी क़ानूनन हमें स्वीकार करनी ही पड़ती। हम यहाँ से नहीं करते तो फोन करके वह अपने किसी चमचे को भेज कर अदालत से जमानत का इंतजाम कर ही लेता क्योंकि आपने भी अपनी रपट में उसे अपनी लड़की के गायब होने का जिम्मेदार नहीं ठहराया है। उंसके खिलाफ अभी हमारे पास कोई पुख्ता सबूत भी नहीं और न ही कोई नामजद रपट ताकि हम उसे आरोपी बना सकें। शक के आधार पर हमने जो किया हमारी उतनी ही सीमा थी, लेकिन आप फिक्र ना करें। बेटी के गायब होने का दुख क्या होता है मैं समझ सकता हूँ। मैं इस मामले में व्यक्तिगत दिलचस्पी लेकर आपको शीघ्र ही न्याय दिलवाऊंगा।"

थानेदार की बात सुनकर मुझे काफी राहत महसूस हुई। मेरे सामने ही उस नायब दरोगा ने उस वकील के घर मुखबिरों की तैनाती का आदेश दिया और मेरे केस में विशेष ध्यान देने की हिदायत दी, लेकिन मैं निश्चिंत होकर घर पर भी तो नहीं बैठ सकती थी। रोज सुबह सवेरे निकल जाती घर से और शहर में वकील के बँगले के आसपास लोगों से बिलाल के बारे में कुछ समझने या पता लगाने का प्रयास करती लेकिन अफसोस ही हाथ लगता।
बिलाल का नाम सुनते ही सब यूँ ख़ामोश हो जाते जैसे उन्हें मेरी बात सुनाई ही नहीं पड़ रही हो। लेकिन इतनी जल्दी हार माननेवालों में से मैं नहीं हूँ। दिन भर यहाँ वहाँ भटकती और शाम को थानेदार का दिमाग खाती। शायद भगवान को भी मुझ पर दया आ गई थी।

एक दिन रोज की तरह थोड़ा इधर उधर कुछ पता करने का प्रयास करके मैं दोपहर के वक्त आजमी के बँगले के सामने से गुजर रही थी। दोपहर का वक्त था। दरबान खाना खाकर बँगले के गेट से बाहर लोटे में पानी लिए हुए शायद हाथ धोने के लिए बाहर निकला था। उसकी नजर मुझपर पड़ते ही उसने इशारे से मुझे अपने पास बुलाया। मेरे नजदीक आते ही उसने इधर उधर देखते हुए फुसफुसाते हुए स्पष्ट शब्दों में जो मुझे बताया सुनकर मैं स्तब्ध रह गई।

उसने बताया, "उस दिन बिलाल के साथ सुर्ख जोड़े में दुल्हन सी सजी कोई लड़की जब बँगले पर पहुँची तब तक शाम हो गई थी। उसके घर में घुसते ही उसकी और वकील साहब की बड़े जोरों की बहस हुई थी। बीच बीच में मालकिन की आवाज भी आ रही थी लेकिन मेरी मजबूरी थी, मैं गेट छोड़कर अंदर नहीं जा सकता था । मुझे इतना तो अंदाजा लग ही गया था कि अंदर बहुत गरमागरम बहस हो रही है। थोड़ी थोड़ी देर की शांति के बाद बहस फिर शुरू हो जाती। इसके बाद रात के नौ बजे मेरी छुट्टी हो गई थी। दूसरा दरबान आ गया था।

अगले दिन सुबह नौ बजे जब मैं वापस काम पर आया तो रातवाले दरबान ने मुझसे पूछा कि शाम को कुछ हुआ था क्या वकील साहब के घर में ? मैंने पूरी बात बता दी तब उसने बताया 'ओह ! इसीलिए लगता है छोटे मालिक नाराज होकर घर छोड़कर चले गए हैं। भोर में मुँहअँधेरे ही निकले हैं कार से, बिल्कुल अकेले।'

उस दिन दिनभर बंगले में सेे कोई आवाज नहीं आई, अलबत्ता दिनभर दाढ़ी रखे मोटे मोटे मुस्टंडे गुंडे टाइप लोगों का घर में आनाजाना लगा रहा। बीच बीच में किसी लड़की की दबी हुई चीख भी सुनाई पड़ती लेकिन न चाहते हुए भी मुझे उस चीख को नजरअंदाज करना पड़ता। मैं मजबूर था।
यह सिलसिला तीन चार दिनों तक चलता रहा। वह मुस्टंडे गुंडे टाइप आदमी आते, कुछ देर रुकते, चीखें शुरू हो जाती उस लड़की की और फिर एकदम से नीरव शांति फैल जाती। ऐसा लगता जैसे कुछ हुआ ही न हो, और फिर एक दिन वह लड़की भागती हुई अर्धनग्न अवस्था में बँगले के मुख्य दरवाजे तक आ गई।
उसकी अवस्था देखकर मेरा कलेजा मुँह को आ गया था। जिस्म पर अनगिनत जख्मों व खरोंचों के निशान से अधिक उसके दिल पर लगे जख्मों ने उसे विक्षिप्त कर दिया था। घरेलू नौकर बाबू के हाथों से छूटने का असफल प्रयास करते हुए वह पागलों की तरह ठहाके लगा रही थी। उसे किसी चीज की सुधि नहीं थी। न तन का न कपड़े का।

बाबू ने ज़बरदस्ती उसे एक कमरे में ढकेल कर दरवाजा बंद कर दिया। कुछ देर बाद पट्टों की फटकार और उस लड़की की चीख मेरे कानों के जरिये मेरे दिल को झकझोर रही थी, लेकिन मैं स्वार्थी इंसान तब भी उसकी मदद करने की हिम्मत नहीं जुटा सका। उस दिन के बाद वह लड़की अक्सर दिखाई दे जाती बँगले के किसी कोने में पागलों की तरह कहकहे लगाते हुए और फिर एक दिन जब पूरे दिनभर मुझे उसकी आवाज नहीं सुनाई पड़ी तब मैंने रातवाले दरबान से पूछा।

उसने जो बताया उससे मैं समझ गया था कि वकील ने बड़ी चतुराई से उस लड़की को ठिकाने लगा दिया है। मैं जानता हूँ कि मेरे मालिक नामी वकील हैं और उनकी बड़े बड़े लोगों से जानपहचान भी है, रसूखदार हैं और असरदार भी। मेरी बात का कोई यकीन नहीं करेगा, इसलिए मन मसोसकर अपनी नौकरी कर रहा हूँ।
यहाँ वहाँ भटकने से बेहतर होगा यदि आप उस लड़की को न्याय दिलाना चाहती हैं तो कानून का सहारा लें। आवश्यकता पड़ी तो मैंने अभी जो बताया है वह गवाही कानून के सामने देने को भी तैयार हूँ। मैं नहीं जानता आप कौन हैं और उस लड़की से आपका क्या नाता है ,फिर भी यदि आप उस लड़की के इंसाफ की लड़ाई लड़ना चाहती हैं तो मैं हर तरह से आपके साथ हूँ। मेरा बेटा भी अब कमाने लगा है सो अपने सीने पर इंसानियत के खून का इल्जाम लेकर अब और अधिक दिनों तक मैं ये नौकरी नहीं करना चाहता।'

उसे धन्यवाद देकर मेरे कदम स्वतः ही थाने की तरफ बढ़ने लगे।

क्रमशः