Mamta ki Pariksha - 96 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | ममता की परीक्षा - 96

Featured Books
Categories
Share

ममता की परीक्षा - 96



उस दिन जूही घर पर ही थी। बिलाल उससे मिलने आया हुआ था। ग्रेजुएशन पूरी करने के बाद अब उसने एल एल बी में दाखिला ले लिया था। उसका इरादा था वकालत करते हुए एल एल एम की डिग्री हासिल करना। जूही अभी फाइनल ईयर में थी। उस दिन बिलाल को मैंने ही बुलाया था ताकि उसे समझाया जा सके, उसके कैरियर और उसके अब्बा के उसके लिए देखे गए सपनों का वास्ता देकर उसे जूही की जिंदगी से दूर चले जाने के लिए मनाया जा सके, लेकिन होनी को शायद कुछ और ही मंजूर था।
उस दिन स्वास्थ्य ठीक न होने की वजह से मोहन जी अचानक घर आ गए। हॉल में जूही और मेरे साथ बैठे हुए बिलाल को देखकर वह अचानक चीख पड़े। टूट पड़े होते बिलाल पर अगर मैंने उन्हें सही समय पर थाम नहीं लिया होता। शायद वह बिलाल को पहले से पहचानते रहे होंगे। मुझे या जूही को उसका परिचय देने की जरूरत ही नहीं पड़ी थी। किसी तरह से उनको समझा बुझाकर उनके कमरे तक पहुँचाया, लेकिन उनकी इस हरकत ने जूही को विद्रोही बना दिया।
अब वह जब तब गायब रहने लगी। मेरी बात का उसपर कोई असर नहीं पड़ता था। कुछ कहने पर हँसकर टाल देती।
उस दिन आखिरी पर्चा था उसका। तय समय पर जब वह नहीं आई तब मेरी धड़कनें बढ़ गईं। कहाँ रह गई होगी ? चिंता के मारे मेरी जान निकली जा रही थी कि तभी वह आई, लगभग चार घंटे देरी से। लेकिन वह अकेली नहीं थी। इस बार बड़े अधिकार से उसके हाथों में हाथ डाले बिलाल भी उसके साथ आया था। नजदीक आकर मेरे पैर छूते हुए उन दोनों ने बताया कि उन्होंने कोर्ट में जाकर शादी कर ली है। उसको लेकर देखे गए मेरे सारे सपने एक ही पल में चकनाचूर हो गए थे। ...लेकिन मैं कर भी क्या सकती थी सिवा आँसू बहाने के ......!"

साधना ने देखा,सचमुच रमा भंडारी की आँखों से गंगा जमुना की तरह अविरल आँसुओं की धार बह रही थी। हाथ में पकड़े हुए छोटे से रुमाल से अपनी आँखें पोंछते हुए उन्होंने कहानी आगे बढ़ाना चाहा कि तभी कमरे में ही रखे पानी के मटके से एक गिलास पानी लाकर उसके सामने रखते हुए साधना ने कहा, "बस कीजिए आंटी ! बहुत तकलीफ होती है जब सपने टूटते हैं। क्या फायदा कुरेदकर उन जख्मों को जो तकलीफ ही देंगे। ये लीजिये पानी और आराम कीजिये।"

उसके हाथों से पानी का गिलास थामते हुए रमा बोली, " तुम ठीक कह रही हो साधना ! जख्मों को कुरेदकर एक टिस और दर्द ही मिलता है लेकिन जब सुननेवाला तुम्हारे जैसा हमदर्द हो तो कह देने से मन हल्का हो जाता है। मुझे पता नहीं क्यों तुम्हारे अंदर एक सच्चे हमदर्द की छवि नजर आई और बैठ गई अपना दुखड़ा लेकर।.. खैर ...कोई बात नहीं ! जूही की कहानी फिर कभी। आओ तुम्हें यहाँ चलने वाली गतिविधियों से परिचित करा दूँ ताकि तुम तय कर सको कि तुम इनमें से क्या करना पसंद करोगी।" कहने के साथ ही रमा अपनी कुर्सी से उठ खड़ी हुई।

अपनी गलती का अहसास करते हुए साधना ने आगे बढ़कर रमा के कंधे को पकड़कर उनसे कुर्सी पर बैठे रहने का आग्रह किया और बोली, "आंटी ! माफ कीजियेगा। मैं नहीं चाहती थी कि आपको कोई तकलीफ हो, लेकिन अब जब तक आप मुझे जूही की पूरी कहानी सुना नहीं देंगी मुझे भी चैन नहीं मिलेगा। बताइये न आगे क्या हुआ ?"

"ठीक है।" कहकर रमा ने एक गहरी साँस ली और फिर कहना शुरू किया, "आँसू बहाते हुए मैं अपने सपने चूर होकर टूट कर बिखरते हुए देखती रही। मैं बता नहीं सकती मुझे कितनी पीड़ा हुई थी उस वक्त। मेरा तो सब कुछ लूट गया था लेकिन क्या करती ? जूही मेरी अपनी संतान थी। जहर का घूंट एक माँ होने के नाते मुझे ही पीना था। मैं नहीं चाहती थी की यह बात मोहन को पता चल जाय, इसलिए मैं चाहती थी कि दोनों जल्द से जल्द वहाँ से निकल जाएँ इससे पहले कि मोहन जी घर आ जाएं और इन्हें देख लें। मैंने इनसे निवेदन भी किया कि अब दोनों चले जाएं पर शायद यह दोनों मन बना कर आए थे कि हमें अपनी हेकड़ी दिखाना है।
बिलाल के मन में शायद उस दिन के अपमान का बदला लेने की बात रही हो, लेकिन जूही ? वो तो मेरी अपनी बेटी थी , मेरा अपना खून ! उसने अपने बाप से प्रतिशोध लेने की क्यों ठान ली?..और फिर वही हुआ जिसका मुझे डर था।

शाम को जब मोहन जी आए बिलाल ने आगे बढ़कर उनको यह खुशखबरी दी। खबर सुनते ही मोहन जी के तनबदन में आग लग गई। आपे से बाहर होते हुए उन्होंने जूही और बिलाल दोनों को खूब खरी खोटी सुनाई। दोनों मुस्कुराते हुए बड़ी देर तक उनकी जलीकटी बातें सुनते रहे।
कुछ देर बाद बिलाल ने जूही का हाथ थामा और बोला, "चलो चलें जूही ! बूढ़ों और बच्चों की बात का बुरा नहीं मानते।" और फिर दोनों यूँ चले गए जैसे कुछ हुआ ही न हो। बँगले से अभी दोनों बाहर निकले भी नहीं होंगे कि बड़बड़ाते हुए मोहन अचानक एक हाथ से अपने सीने को थामे हुए किसी कटे हुए पेड़ की मानिंद फर्श पर गिर पड़े।
गिरते हुए उनका सिर शायद सेंटर टेबल के धारदार कोने से टकरा गया था। माथे से खून का फव्वारा सा छूट पड़ा। एक मिनट के अंदर ही बड़ा भयावह दृश्य उपस्थित हो गया था। मोहन फर्श पर गिरे हुए खून से लथपथ पड़े हुए तड़प रहे थे। मुझे काटो तो खून नहीं। क्या करूँ कुछ समझ नहीं आ रहा था। मोहन की वह हालत मुझसे देखी नहीं जा रही थी। दिमाग में धमाके से हो रहे थे। दर्द की अधिकता से जोरों से चीख कर मैं भी वहीं गिर पड़ी। शायद मैं भी बेहोश हो गई थी क्योंकि इसके बाद क्या हुआ , कैसे हुआ मुझे कुछ नहीं पता चल पाया।
जब मेरी आँखें खुली मैंने खुद को अस्पताल की चारपाई पर लेटे हुए पाया।
मैंने अपने आसपास देखा। पड़ोस के श्रीवास्तव जी मेरी बेड के नजदीक ही खड़े थे। जब मैंने उठने का प्रयास किया उन्होंने मुझे लेटे रहने का इशारा किया। मैंने उनसे मोहन के बारे में पूछा। फर्श पर खून से लथपथ उनकी तस्वीर मेरी नजरों के सामने कौंध गई थी।
मुझे उनकी फिक्र हो रही थी सो उनका हाल जानने के लिए मैं हड़बड़ी में बेड से नीचे उतरने का प्रयास करने लगी, तभी मेरा ध्यान एक स्टैंड पर लटके ग्लूकोज की बोतल की तरफ गया जिसमें लगी हुई नली का दूसरा सिरा एक सुई के जरिये मेरे जिस्म में पैवस्त था।
मुझे बाद में बताया गया मोहन जी भी उसी अस्पताल में भर्ती कराए गए थे और दिमाग में घाव लगने और अधिक रक्त स्त्राव के चलते उनकी हालत नाजुक बनी हुई थी। इमर्जेंसी विभाग में उनकी चिकित्सा शुरू कर दी गई थी।
अगले ही दिन मुझे तो अस्पताल से छुट्टी मिल गई, लेकिन मोहन जी की स्थिति अभी भी गंभीर बनी हुई थी। लगभग पाँच दिन के बाद अनिश्चितता के इस दौर का समापन करते हुए डॉक्टरों ने उनके कोमा में चले जाने की घोषणा कर दी। मेरी रही सही उम्मीद भी अब अस्त हो चली थी।

शाकिर अभी भी हमारे व्यापार के लिए एक बड़ी चुनौती था जिसका मुकाबला मोहन जी अपनी काबिलियत से कर रहे थे लेकिन अब उनकी अनुपस्थिति में उसपर असर पड़ना स्वाभाविक ही था।

लगभग एक महीने तक कोमा में रहने के बाद मोहन मुझे इस दुनिया में अकेली छोड़ गए। इस एक महीने के दौरान मैं पल पल मरती रही उनके न होने का अहसास करके और जब डॉक्टरों ने उनके न होने की खबर मुझे सुनाई तो मेरे आँसू भी मेरा साथ छोड़ चुके थे। बिल्कुल भी नहीं रोइ थी मैं। बस एक पल को मुझे जूही की याद आई थी लेकिन फिर झटक दिया था उसकी यादों को अपने दिल और दिमाग से। यह सोचकर मन को समझा लिया था कि ऐसी बेटी जिसे माँ बाप की कोई कदर ही न हो उसे याद करना भी एक गुनाह जैसा ही है लेकिन मैं शायद कहीं न कहीं उसके बारे में गलत सोच रही थी। मुझे उसकी हकीकत भी पता चली लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और शायद बेबस भी थी मैं।

समय पंख लगाकर गुजरता रहा। इनको गए हुए एक साल पूरा हो गया था। उस दिन इनकी पहली पुण्यतिथि थी जब इनके नाम से मैं गरीबों को खाना खिलाने के लिए शहर के एक प्रसिद्ध मंदिर शंकराचार्य मंदिर गई थी।

क्रमश :