घाटी की आधी से अधिक आबादी ख़तम हो गई थी। और....और इस बार पूरा शहर खौफ में समा गया था। घाटी में कोइ नरभक्षी दानव है, जो बेरहमी से लोगों को मौत के घाट उतार रहा है, लेकिन जरूरी तो नहीं की ऐसा सिर्फ घाटी में ही हो। वो अपनी सीमाएं बढ़ा भी तो सकता है।
लेकिन कोई था जो जानता था, हां वो दानव अपनी सीमाएं बढ़ा नहीं सकता। उसकी कमियां जानता है वो। उस रात घाटी के आसमान से मौत बरस रही थी। आसमान में उड़ रहे काले कीड़े इतने भी समान्य नहीं थ
थे, वो कीड़े थे जो घिनू के शरीर से चिपके होते है। पहले वो समान्य कीड़े ही हुआ करते थे लेकिन घिनू की मौत ने उन्हें बेहिसाब ताकतें दे दी थी। वे अपना आकार बढ़ा सकते थे, वो लोगों का खून पी सकते थे। और उस रात घाटी में वहीं हुआ था। लोगों को मार कर उन्हें घाटी के ठंडे पानी में फेंक दिया गया था। जो लोग बचे थे वे आतंक के मारे अपना सबकुछ छोड़कर घाटी से भाग गए थे।
सोमनाथ चट्टोपाध्याय लोगों की मौत से दुःखी जरूर थे, लेकिन कम से उन्हें अब ये पता था की घिनू शहर के किस कोने में है।
कहानी कुछ महीनों पहले :-
उस रात प्रज्ञा की रूह ने लिली को अपनी आप बीती दिखाई थी। दिखाई थी उसने, की कैसे अपने पिता की गिरी हुई सोच ने उसकी जान ले ली.... सज़ा मिली थी उसे बेटी बनकर जनम लेने के कारण। लिली भी प्रज्ञा के लिए बहुत दुःखी थी। उसे अब उस से डर नहीं लग रहा था बल्कि उसके प्रति वो सहानुभूति महसूस कर रही थी। प्रज्ञा अब लिली को कभी कभी साफ़ साफ़ दिखने लगती थी, कभी कभी वो मुस्कुरा भी देती थी। वो कुछ कुछ पारदर्शी सी थी, कभी वो सात आठ साल की बच्ची की तरह दिखती तो कभी अचानक ही उसका आकार बढ़ जाता और वो एक युवती की तरह लगती। लिली को महसूस होता था, शायद आत्माएं समय चक्र में ही कहीं फंसी रह जाती है, वे जब ख़ुद को जैसा महसूस करती उसी तरह उनका आकार भी बदलने लगता। दोनों के बीच एक अनसुलझा था संपर्क बनने लगा था, लेकिन अभी भी जब लिली कभी इस खंडहर नुमा घर से बाहर निकलकर भागने की कोशिशें करती तो प्रज्ञा की रूह उसे रोक लेती थी। ऐसा लगता जैसे ना चाहते हुए भी प्रज्ञा को ऐसा करना पड़ता था, जैसे वो किसी बड़ी शैतानी शक्ति की अधीन हो गई हो। लेकिन एक रात लिली को प्रज्ञा रोती हुई मिली। कुएं के पास बैठी अपना सर अपने घुटनों में छुपाएं वो सिसक रही थी। अजीब सा माहौल था, जैसे प्रज्ञा के साथ साथ आस पास की सभी चीजें आहिस्ते आहिस्ते रो रही थी। कुएं की गहराई,सामने की झाड़ियां,झाड़ियों के पीछे से मेंढ़क और वो जर्जर घर भी। लग रहा था जैसे सबकुछ उसके साथ ही सुबक रहा हो।
लिली भी प्रज्ञा के पास जाकर बैठ गई। वो उसकी मदद करना चाहती थी। लेकिन लिली के करीब जाते ही प्रज्ञा की रूह अचानक से गायब हो गई। लेकिन वो फ़िर जल्द ही दिखने लगी.....
"मेरी मां से मुझे मिलवाओगी..?"
एक बेहद ठंडी आवाज़ को सुनकर पलटी थी लिली और उसे प्रज्ञा दिखी।
..." ह..हा हा...चलो मेरे साथ। हम चलते है न तुम्हारी मां के पास। कहां है वो..?"
..."मैं यहां से कहीं नहीं जा सकती.."
" लेकिन तुम तो मुझे भी यहां से बाहर निकलने ही नहीं देती"....
""उसने मना किया है ना,..."
" लेकिन वो है कौन...क्यों ऐसा कर रहा है वो..?तुम्हें पता है वो लोगों कि जाने लेता है..."
""हम्म क्योंकि किसी ने उसे धोखा दिया है, उसे बहुत दर्द होता है। मैंने देखा है उसे चीखते हुए।"
"लेकिन किसी एक कि गलती की सजा सबको देने का क्या मतलब है.."
"तुम जाओ मेरी मां के पास, उन्हें लेकर आना, मै यहीं इंतजार करूंगी।" बग़ैर लिली के सवाल के जवाब दिए प्रज्ञा ने ये मदद उस से बिल्कुल सपाट शब्दों में मांगा था।
उसके बाद प्रज्ञा के बताएं रास्तों से जाकर लिली प्रज्ञा की मां नीलिमा जी से मिली। वे असम के किसी एक गांव में रह रही थी, इन दिनों। और फ़िर आगे की कहानी उन्होंने ही बताई....
"उस वक़्त मैं बुरी तरह डिप्रेशन में जी रही थी। मै बीमार थी, लेकिन मुझे प्रज्ञा की यादों ने बहुत उदास कर रखा था। मुझे हर वक़्त उसकी याद आती थी, उसके आस पास होने के अहसास को महसूस कर मुझे सुकून मिलता था। लेकिन मेरे पति सुब्रतो दास को ये पसंद नहीं था कि मैं प्रज्ञा को याद करूं, अरे वो तो नफ़रत करते थे उस से। मैं फ़िर भी किसी एक चमत्कार के इंतजार में जी रही थी। और फ़िर घर में अजीब सी चीजें होने लगी। कमरे में,रसोई में,आंगन में, यहां तक कि बिस्तर में भी बालों के गुच्छे नज़र आने लगे। शुरू शुरू में तो मुझे लगा कि बाल मेरे ही होंगे। लेकिन नहीं, वो मेरे बाल नहीं थे ये बात मुझे पता चली जब एक दिन इन बालों से परेशान होकर मैंने अपने सारे बाल ही काट दिए। लेकिन इसके बाद भी बालों का हर जगह मिलना जारी रहा।
एक शाम जब मैं बाहर बैठी थी तभी कुछ बालों के गुच्छे उड़ते हुए मेरे पैरों के पास आकर गिरे और जब मैंने उन्हें हाथों में लेकर गौर से देखा तो मुझे अहसास हुआ कि इन बालों में से तो मेरी प्रज्ञा की खुशबू आ रही थी। इसका मतलब था ये बाल संकेत थे मेरी प्रज्ञा के मेरे आस पास ही होने के। मैं फ़िर उन बालों को इकठ्ठा करने लगी। उन्हें मैं एक छोटे से बक्से में रखती थी, और जब भी मुझे प्रज्ञा की याद आती तो मैं उन बालों को छूकर रो लेती थी। शायद उन बालों पर मेरे आंसुओ के गिरने के बाद ही वो शुरू हुआ। अब बक्से में रखे बाल अपना आकार बदलने लगे थे, धीरे धीरे वो एक गुड़िया बन रही थी। मैं हर दिन बक्से को खोलकर देखती तो किसी दिन गुड़िया की एक हाथ बनी होती तो किसी दिन दूसरा हाथ। धीरे धीरे वो बढ़ रही थी। मैं बहुत उत्साहित थी उसे पूरा बनते हुए देखने के लिए। मुझे लगता था जैसे जिस दिन ये गुड़िया पूरी बनकर तैयार हो जाएगी और उसी दिन मेरी प्रज्ञा लौट आएगी। और एक दिन वो गुड़िया बनकर तैयार भी हो गई.....लेकिन वो प्रज्ञा में नहीं बदली। वो एक ऐसी चीज़ बनी जिसके बदौलत दो दो लोगों की जान बच गई।
क्रमश :_Deva sonkar