दीपावली के लक्ष्मी पूजन पर विशेष
घावों भरा साल बनाम विटामिन एम.
-नीलम कुलश्रेष्ठ-
फ़्लैश बैक नं. एकः
“मैं तो आप के बेटे की कॉपी लेकर आपके घर आया था लेकिन आप लोग कहीं बाहर गये थे घर पर ताला था ।”
“कौन सी कॉपी ?”
“आप के बच्चे की बोर्ड की परीक्षा की अंग्रेजी की कॉपी ।”
“क्या?” फ़ोन पकड़ने वाला हाथ काँप गया, रक्त में जैसे चमकती बिजली ने झटका मारा हो, “मेरे बच्चे की कॉपी आपके पास कैसे आई?”
“शायद आप मुझे ठीक से पहचान नहीं पाई हैं । मैं मिश्रा बोल रहा हूँ, श्याम बिहारी स्कूल का अध्यापक ।”
“ओह !” कहीं वह झाँसा तो नहीं दे रहा । उसने फिर चांस लिया, “लेकिन कॉपी पर तो रोल नंबर होता है । आपको कैसे पता लगा कि वह कॉपी मेरे बेटे की है?”
“प्रश्न पत्र के एक प्रश्न में किसी कम्पनी के मैनेजर को पत्र लिखने के लिये कहा था । पत्र के नीचे आप के बेटे ने अपना नाम व पता भी लिख दिया था ।”
“अच्छा ?”
“हाँ, मैंने सोचा यह तो अपना ही बच्चा है अपनी कॉलोनी का क्यों न मैं इसके लिये कुछ करूं । मैं बोर्ड की यह कॉपी लेकर आपके घर आया था । लेकिन वहाँ ताला बंद था । पड़ौसी से पता लगा कि आप लोग बाहर गये हैं । यदि उस समय होते तो आपके सामने बैठकर गलती सुधरवा लेता ।”
“यह बोर्ड की परीक्षा है या तमाशा?” चिल्लाना तो चाह रही...लेकिन होठों को भींचे रही । मन में इतनी हड़बड़ाहट हो रही थी । मेरे लिये सोचने का वक़्त नहीं था बोर्ड में बच्चे को अच्छे नंबर दिलाने के चक्कर में वह इस हेरा फेरी के लिये तैयार होती या नहीं । बोर्ड की परीक्षा की बात से उसे पसीने छूट रहे थे उसने जल्दी से रिसीवर पटकना चाहा, “सो काइन्ड ऑफ यू, थैंक्स । ओ.के.।”
“मैडम ! फ़ोन मत रखिये मेरी बात तो सुनिये ।”
मेरा हाथ रुक गया ।
“ कॉपी अभी ‘केपिटल’ नहीं पहुँची है । अपने शहर में ही है । आपके बेटे के नम्बर अच्छे नहीं हैं । यदि आप कुछ समय दो तो अब भी उसके नंबर ‘फिफ्टी नाइन’ से ‘सिक्स्टी फाइव’ तक हो सकते हैं ।”
फ़ोन हाथ में झनझनाया था या उसका दिमाग़ , “यह आप क्या कह रहे हैं?”
“देखिए मैडम ! कॉलोनी में इस कॉपी के एग्ज़ामिनर आने वाले हैं मैंने पहले से ही बात करके रखी हैं ।”
“कौन सी बात?”
“आप आठ नौ सौ रूपये उन्हें दे दीजिये . वे लोग बारह सौ रुपये माँग रहे थे । बड़ी मुश्किल से कम रुपयों के लिये` हाँ `की है ।”
मन हुआ वह चीखें “ ओ बेशर्म हो ! बोर्ड की कॉपियों का सौदा करते हुए तुझे शर्म नहीं आ रही लेकिन मेरी भी मजबूरी है लेकिन तुझसे कैसे बिगाडूँ अभी तक मेरे बेटे की कॉपी बोर्ड मुख्यालय नहीं पहुँची है ।
“मैडम ! आप सुन रही हैं न । भाई साहब हो तो उन्हें फ़ोन दे दीजिये ।”
मैंने अनूप की तरफ देखकर बहाना बनाया, “ये तो कहीं बाहर गये है । मैं अकेली इतनी बड़ी बात का कैसे निर्णय ले सकती हूँ ?”
“वे कब तक आयेंगे?”
“कह नहीं सकती ।”
“आप चिन्ता मत करिये । वैसे तो मुझे अपने काम से बाहर जाना था लेकिन मैं अपना जाना ‘कैंसिल’ कर रहा हूँ। जैसे ही भाईसाहब वापिस आये, आप मुझे फ़ोन कर दीजिये । आप लोग पड़ौसी हैं आप की खातिर कष्ट उठा लूँगा । रात को ग्यारह बजे भी उस आदमी को बोलकर आऊँगा जो कॉपी ले जायेगा लेकिन आठ सौ रूपये से कम नहीं लगेंगे, हाँ !”
कम्बख्त ! सामने भी होता तब भी उसके सिर पर रिसीवर नहीं पटक पाती। बच्चे के भविष्य के कारण, सामने बैठे हुए अनूप को अपनी उत्तेजित साँसों के साथ सारी बात बताई, “अब हम लोग क्या करेंगे?”
आशु भी पास बैठा सारी बात सुन रहा था, बात सुनते सुनते उसके चेहरे पर सुस्ती व असमंजता फैल गई । पहली बार उसने बोर्ड की परीक्षा दी थी और दुनियाँ उसे ऐसा नीचे नज़ारा दिखा रही थी कि बोर्ड नम्बरों की खरीद फरोख़्त साग भाजी की तरह की जा सकती है ।
अनूप बोले, “मानो रुपये दे भी दिये तो क्या गारंटी है वह नम्बर बढ़वा ही देगा ।”
“नहीं, ऐसे काम के लिये हम रुपये नहीं देंगे ।”
“मम्मी ! कहीं वह मुझे फ़ेल न कर दे ।” आशु के गले से आवाज़ नहीं फुसफुसाहट निकल पाई, चेहरा लाल पड़ा हुआ था ।
बीस दिन के लिये हम लोग बाहर रहकर आये थे, घर का सारा सामान अस्तव्यस्त था, उपर से मिश्रा फ़ोन ब़म फोड़ बैठा ।
अकेले में अनूप बोले, “भाई मिश्रा को रुपये नहीं दिये तो आशु समझेगा कि हम लोग कंजूस हैं, स्वार्थी हैं ।”
“यदि रुपये दिये तो उसका नज़रिया रुपये फेंककर हर चीज़ को ख़रीदने जैसा बन जायेगा । मैं उसे संभाल लूँगी।”
बेटे के एक वर्ष का प्रश्न था किन्तु मन तैयार नहीं हो रहा था कि रुपयों से नम्बर खरीदे जायें ।
बड़ी मुश्किल से मन को कठोर किया फिर आशु को समझाया, “देखो । तुम्हारे नम्बर कम नहीं है तुम फ़ेल नहीं हो । दूसरे परीक्षाफ़ल आने की तैयारी है । कॉपी उसके हाथ से जा चुकी है, अब यह मिश्रा कुछ नहीं कर सकता ।” समझाने को तो मैं उसे समझा गई लेकिन जानती थी क्या कुछ हो नहीं सकता इस युग में ।
रात के दस बजे फ़ोन की फिर घंटी बजी । मिश्रा आखिरी चांस ले रहा था, “मैडम ! सर आ गये ?”
“जी नहीं, यदि आ गये तो आपको फ़ोन कर दूंगी ।” जल्दी से कहकर मैंने फ़ोन काट दिया ।
आशु की मार्क्स शीट आते ही हम सबकी नज़र उसके अंग्रेजी के नम्बरों पर गई ‘फिफ्टी नाइन’ थे । तो मिश्रा कॉपी हाथ से निकल जाने के बाद चांस ले रहा था ! यदि हम उन दिनों घर होते जब वह कॉपी लेकर हमार घर आया था तो अपने असूलों को उसे सौंपने से रुक पाते ?
फ़्लैश बैंक नं. दोः
दरवाज़ा निरुला ने खोला, “आप लोग?”
“भूल गई क्या, हमें ‘डिनर’ पर ‘इनवाइट’ कर आई थी ?”
“ओ, हाँ ।”
चाय पीते हुए कुछ भी सूंघ लेने वाली मेरी नाक कुछ भी न सूंघ पा रही है, अश्विन कहते हैं, “ हम लोग समझते कि आपको दस दिन पहले ‘इनवाइट’ करके आये थे, आप ‘डिनर’ की बात भूल गये होंगे ।”
बच्चों ने उन्हें घूरकर देखा जैसे कह रहे हों आप बार-बार हमारे यहाँ आकर खाना नहीं भूलते रिश्तेदारों को लाकर उन्हें खाना खिलवाना नहीं भूलते तो हम डेढ़ वर्ष बाद मिलने वाले इस डिनर की बात कैसे भूल सकते थे ।
मैं सोच रही थी अश्विन के भाई नर्सिंग होम में दाखिल हुए थे वे हमसे वहाँ की परेड करवाना बार-बार खाना पहुँचवाना नहीं भूले थे तो आज हम कैसे भूल जाते ।
निरुला जल्दबाजी में पकाया खाना मेज पर लगाती है और पूछती है, रोटी में घी लगाऊँ या नहीं ।
मन होता है प्लेट सहित मेज उलट कर चल दूं लेकिन दिमाग़ हाथों को जकड़े रहता है ।
फ़्लैश बैक नं. तीनः
“मम्मी ! आज भी ताई दीदी अपने पचास रुपये मांग रही थीं ।”
मैं मेज पर रखे बर्तन में केक का मिश्रण फेंट रही थी । मैंने अधिक ध्यान नहीं दिया फिर भी आशु जारी है, मैं जब भी उनके घर चक्कर मारने जाता हूँ वे पचास रुपये का तकाजा करती रहती हैं । उन्होंने साफ़ साफ़ कह दिया है वे ‘वैक्यूम क्लीनर’ का बिज़नेस करेंगी ।
मैं आशु को फिर समझाती हूँ, “ ताई दीदी मज़ाक कर रही होंगी उनकी मम्मी ने स्वयं कहा था कि उनके नये ‘वैक्यूम क्लीनर’ से मैं घर साफ करके देखूँ ।”
“मम्मी ! वे ‘सीरियसली’ कह रही थीं कि कोई सारे दिन के लिये उनका ‘वैक्यूम क्लीनर’ बुक करेगा तो उससे सौ रुपये लेंगी । लेकिन क्योंकि हम पड़ौसी हैं इस लिये ‘फिफ्टी परसेंट डिस्काउंट’ देकर हमसे पचास रुपये ही लेंगी ।”
मैं ने आशु की बात को कान से झटक दिया । बरसों के पड़ौसी हैं हम । उनकी बेटी को वह बचपन से अपने गढ़े नाम से ‘ताई दीदी’ पुकारता है । हमने बहुत से सुख दुख बरसों से साथ साथ झेले हैं ।
आशु कान से खिसकी बात को जैसे ज़बरदस्ती उसमें डाल देता है ।
“मम्मी ! आप मानती क्यों नहीं हो? आज तो ताई दीदी आँटी के सामने ही कह रही थीं आशु रुपये निकाल, आँटी भी कहने लगीं तू आशु से बार-बार क्यों कहती हैं ? आँटी, अंकल से रुपये मांग ‘बिज़नेस तो बिज़नेस’ है, इसमें पड़ौसी क्या होता ?”
“क्या?”
फ़्लैश बैक नं. चारः
“नीनाजी ! कल समय निकाल सकेंगी ?” उससे मेरा इतना परिचय भर था कि उसकी शादी में जाने भर की रस्म अदायगी कर आई थी । बाद में सड़क पर आते जाते ‘हलो’ भर हो जाती थी । आज तीन बरस बाद वह याद कर रही है ।
“मैं इतनी जल्दी दूसरा बच्चा नहीं चाहती । कल मेरे साथ अस्पताल चल सकेंगी?”
“मैं ज़रा सोच कर बताती हूँ ”, जहाँ तक हो ‘न’ कहना मेरी फ़ितरक में नहीं है । सारा दिन अस्पताल में निकल जाता है ।
उसी के दिमाग़ की उपज़ थी कि महिला समाज कल्याण केन्द्र की शाखा अपने शहर में खोली जाये । मैं भी नौकरी के साथ ऐसा कुछ ढूँढ रही थी कि कुछ रचनात्मक संतोष मिले इतने वर्षों से जुटाये सम्पर्कों का कुछ उपयोग हो ।
शाखा खोलते ही अक्सर उसके फ़ोन आते थे । “आप बैनर बनवा लेंगी, मेरी तबीयत ठीक नहीं है....खों....खों.....खों...।” वह हाँफती आवाज़ में कहती, मैं पिघल जाती । बेनर बनवाना क्या बहुत से काम मैं कर डालती बिचारी को शादी के कारण अच्छी खासी नौकरी छोड़कर इस शहर में आना पड़ा । पति के ताने व अपनी ही डिग्रियां उसे मुँह चिढ़ाते से लगते ।
मुझे लगता मैं शाखा के बहाने उसके लिये कुछ कर दूँ । उसके कुंठित मरियल व्यक्तित्व में आत्मविश्वास भर दूँ । सच ही शहर में बनती उसकी पहचान से उसकी ढली हुई गर्दन में एक अकड़ आ गई थी । चेहरा सुंदर हो उठा था । वह अक्सर भावविह्वल हो अपना आभार प्रगट करती, “नीनाजी, आप सच ही बहुत महान हैं । आपने मेरे जीवन को नया मकसद दे दिया है ।”
वह घरेलू मामलों में भी मेरी सहायता माँगने लगी, “नीनाजी, इनको रुपयों के लिये दीवानगी बढ़ गई है, मैं घर छोड़कर जा रही हूँ ।”
“ऐसी बेवकूफी मत करना । तुम्हारे बच्चों का भविष्य क्या होगा ?”
घबराकर मैं व अनूप घर के कामों की लिस्ट की थोड़ी देर पैक अप कर उसके घर दौड़ लेते । उसका घर कई बार टूटने को हुआ लेकिन हमारा लगाया प्लास्टर व ईंटे उनके काम आ गया ।
एक दिन में ऑफ़िस से थकी मांदी लौट रही थी, सोनल ने रास्ते में टोका, “तू अकेले ही महिला शाखा के लिये इतनी भागदौड़ करती रहती है ।”
“क्या करूँ तृष्णा बिचारी बीमारी रहती है ।”
“बीमार ! हर तीसरे चौथे दिन उसे ऑटो में बाहर जाते देखती हूँ ।”
“क्या ? ”
महिला शाखा ने वाकई कुछ काम कर दिखाया है । बहुत कड़े परिश्रम व समर्पण से मैंने इसे गढ़ा है । साथ में उसका भी नाम हो रहा है, तो क्या ? कुछ महीनों बाद सकुचाई हुई सदस्याओं की बात सुन स्तब्ध हूँ । “आप लोगों का पेमेंट नही हुआ ? लेकिन मैंने व तृष्णा ने ‘पेमेंट रिपोर्ट’ अपने हस्ताक्षर करके मुख्यालय भेजी है।”
उन लोगों से कुछ और भी अनियमितताएं जानकर मैं अंदर तक हिल गई हूँ । अध्यक्ष खबर करती हैं, “उसके घर कलर हो रहा था । इधर उधर होने के कारण संस्थापन का रजिस्टर ग़ायब हो गया है । वह ज़िद कर रही है । वह अकेली संस्थापक है, तुम नहीं ।”
“क्या ?”
मुझे लगता है उसने मेरी पीठ में छुरी गढ़ा मेरे दिल को लहूलुहान कर दिया है । वह तो अच्छा है मैं ने अपने संस्थापक होने का दस्तावेज़ मुख्यालय पहुँचा दिया था वर्ना...।
तभी फ़ोन की घंटी बजती है । वही है “नीनाजी ! आपके घर के पास वाले टेलीफ़ोन बूथ पर आप दो रुपये दे दीजिये, आपको बाद में दे दूँगी । बच्चों के हाथ रुपये भेजती हूँ, तो वे बूथ वाले को नहीं देते, टॉफी खाकर भाग आते हैं ।”
फ़्लैश बैक नं. पाँचः
वह बड़े रहस्यमय ढंग से फुसफुसाती है, “मैं तो शाम के सात बजे से आठ बजे तक शाम को ‘वॉक’ के लिये जाती हूँ ।”
“इस बीच तो मेहमान भी आते हैं ।”
“उन्हीं से बचने के लिये तो जाती हूँ ।” वह ढीठ हँसी हँस पड़ती है, “बेकार के चाय बनाने से मुक्ति मिलती है । वैसे भी बचत होती है वह अलग।”
उनकी दी हुई चाय मेरे गले में आगे चलने से इन्कार करती सी लगती है ।
“कल हमारे ब्लॉक में एक दुर्घटना हो गई ।”
“क्या हुआ?”
“आप तीसरी मंज़िल वाली उस गोरी चिट्टी भरे गालों वाली औरत को पहचानती हैं जो चलता फिरता ‘ब्यूटी क्लीनिक’ नज़र आती है ।”
“हाँ, देखा तो है उसे ।”
“उसकी छोटी बेटी ने पंखे से लटक कर आत्महत्या कर ली ।”
“अरे ! लेकिन क्यों?”
“क्योंकि बड़ी बहिन को महँगा सूट दिला दिया था, उसे सस्ता दिला दिया था ।”
इस बार तो चाय ज़मीन पर छलक इधर उधर बह निकलती है ।
फ़्लैश बैक नं. छः –
“जब आप आती हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है कुछ पढ़ने लिखने की बात हो जाती है वर्ना सारे दिन लोग अपनी शिकायतें लेकर रोते पीटते चले आते हैं ।”
मैं भी कहना चाहती हूँ अपनी इस आई.पी.एस. मित्र के पास आकर मुझे भी बेहद सुकुन मिलता है । उसके ऑफ़िस के बाहर कठोर चेहरे, मूँछों वाले पुलिस वालों को देखकर जिनसे बचपन में वह ड़रा करती थी । अब इस ऑफ़िस में आते ही एक अकड़ भर जाती है इन पर उसकी बिरादरी की कोई राज्य कर रही है ।
मैं अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाती । “अभी एक वृद्धा आपके ऑफ़िस से रोती हुई निकली है, उससे ठीक से चला भी नहीं जा रहा था उसे क्या हुआ है ?”
“सब तेज़ भागते टी वी व केबल संस्कृति की मेहरबानी है । आज हर युवा को अच्छे से अच्छा कपड़ा जूते चाहिये, तेज़ संगीत चाहिये । इस वृद्धा का बेटा व बहू तो मर चुके हैं । इसका इकलौता पोता इससे मारपीट करके पैसे ऐंठता रहता है ।”
“क्या?”
फ़्लैश बैक नं. सातः
वे दोनों अनूप के ही मित्र हैं उनके परिवार धुरी से हटे हुए हैं या अपनी धुरी को तेज़ रफ़्तार से भगाकर इक्कसवीं सदी में सबसे पहले पहुँचना चाहते थे । पहला दिन भर की नौकरी के बाद अपने निजी व्यवसाय के लिये निजी ऑफ़िस में बैठता है या इधर उधर भागदौड़ करता है । न उसके खाने का ठिकाना है, न नींद का, न आराम का । कभी कभी सगर्व मुझसे शिकायत करता है । “भाभीजी, मुझे रात में चार घंटे भी नींद नहीं आती। बस यही सोचता रहता हूँ कि किसे रुपया देना है, किससे लेना है ।”
“जब आप ठीक से सो नहीं पाते तो रुपये कमाने का क्या फ़ायदा?”
वह नया रहस्य मुझे थमाता है, “ऐसा है जब भारी भरकम चैक हाथ में आता है तो ऐसा लगता है बीस सालों की नींद पूरी हो गई ।”
दूसरा स्वयं नहीं उसकी पत्नी दीवानी है । शौक शौक में आरंभ किया उसका निर्यात व्यापार अनेक देशों की सीमाओं पर दस्तक देने लगता है । महीने के कुछ दिन को किसी न किसी देश में बीतने ही हैं । वह मित्र क्या बोले हमेशा पत्नी को प्रोत्साहित करता है । अपने कैरियर के डैनों को फैलाकर चाहे जितना ऊँचा आसमान छू आये पत्नी टूर पर होती हैं तो सारे दिन के ऑफ़िस के काम के बाद बच्चों के होमवर्क, नौकरों को देखरेख से पस्त हो जाता है । दोनों परिवार शनिवार व रविवार के अर्थ भूल चुके हैं ।
तीन चार वर्ष की प्रगति से दोनों परिवार इक्कीसवीं सदी में इसी सदी जैसे इलाके में जा बसते हैं ।
अलबत्ता होता यह है कि पहले मित्र का दूसरे मित्र का दिल बैठ जाता है । विज्ञान की प्रगति हाथ बढ़ाकर उनकी आत्मा को ऊपर जाने से रोकने के लिये सफल हो जाती है । अस्पताल में उनके दिल से जड़े मॉनीटर के उठते गिरते ग्राफ़ को देखकर दोनों के पलंग के बीच बैठी में सोच रही हूँ क्या दोनों को अभी भी शनिवार इतवार का अर्थ समझ में आयेगा ?
डाँटः
दूसरे शहर के उस घर में जहाँ से मेरे मन की जड़ें आज भी नहीं उखड़ी हैं, हालाँकि मैं उखड़ गई हूँ । मम्मी बड़बड़ाती है, “ तू वहाँ एक भी ऐसा परिवार नहीं जुटा पाई जो तुझे अपने घर जैसा लगता हो । तुम्हारी पीढ़ी अपने में ही मस्त रहती है किसी को अपना बनाना नहीं जानती । चाहे हर महीने में दो तीन ‘गेट टू गेदर’ कर लो । जब किसी को अपना बनाओगे तभी तो वह तुम्हारा बनेगा ।”
मैं उन्हें फ़्लैश बैक नंबर एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात थमाती हूँ, “अब बताइये मम्मी ! अपने पड़ोसी को, साथ काम करने वालों, परिचितों में से किसको अपना समझा जाये और उनके घर को अपना घर?”
उपसंहार
रात के चार बजे(या सुबह के) दरवाज़ा खोला देखा वह पाँच थीं।
“भाभी जी! आपको डिस्टर्ब कर दिया?”
“बिल्कुल, लेकिन तुम्हारे लिये डिस्टर्ब भी हो लेंगे ।” आज उन्होंने उसकी पड़ौस में हो रही शादी के बाद शादी में रिसेप्शन के समय ही फेरे के बाद की बची खुची रात में यहाँ सोने की एडवांस बुकिंग करा ली थी ।
अनूप व मैंने फटाफट अपना डबल बैड खाली कर दिया, बाहर का दीवान भी तैयार था । वे ज़िद करने लगीं, एक ही डबल बैड पर सोयेंगी ।
“ ओफ़्फ़ो, इतनी सी जगह पर पाँचों आ जाओगी?”
“तो क्या हुआ? अलग अलग हमें नींद नही आयेगी ।”
वे पाँचों एक डबल बैड में जा घुसी, हम लोग उनकी इस अदा पर हँसते बच्चों के डबल बैड पर जा समाये ।
सुबह नाश्ते की मेज पर जैसे मेरे कॉलेज के दिन चुलबुले होकर शोर मचा रहे थे ।
नेहा पटेल नाश्ते की प्लेटों में से सिर्फ एक बिस्कुट उठाकर बोली, “आँटी! आप यू पी वाले लोग और पंजाबी लोग नाश्ता करते हो कि ‘सुबो’ ‘सुबो’ ‘दो’ ‘टाइम’ का खाना खाते हो?”
सब हँस पड़ती हैं । मैं चिढ़ने की जगह बात का मज़ा लेती हूँ , “हमारा प्रदेश उपजाऊ ज़मीन का प्रदेश है इसलिये हमारी आदतें ऐसी हैं ।”
“पंजाब में भी कुछ ऐसा होता है ? मेरे किरायेदार पंजाबी आँटी दो मूली के जाड़े (मोटे) पराठे खाकर कहेंगी...” वह गर्दन मटका कर पतली आवाज़ निकालती है.... “अभी तो मेरा ‘सुबो’ का नाश्ता हुआ है। ”
“तुम एक बिस्कुट का नाश्ता करती हो इसीलिये दुबली पतली हो ।”
“मैं तो ठीक हूँ लेकिन मेरी वो आंटी ‘डबल’ पराँठे जैसी है।”
“हो—हो-- हो”, उन पाँच गुना हँसी के ठहाकों से जैसे दीवारें भी गदबदा उठी हैं ।
नेहा किसी को बोलने का मौका नहीं दे रही, “भाभी, आप एक बात बताओ कॉलेज टाइम में आपका कोई ‘ब्वाय फ्रेन्ड’ था ?”
“हो—हो-- हो ।”, इतनी हँसी के बीच फंसी मैं अटपटा जाती हूँ फिर आह निकालती हूँ, “हमारे तुम गुजराती लड़कियों जैसे ठाठ थोड़े ही थे । हमारा ज़माना रुखा सूखा गुज़र गया । तुम लोग ‘ब्वाय फ्रेन्ड्स’ के बिना चलती नहीं हो ।”
“ओ भाभी ! ऐसे हम ब्वॉय फ्रेन्ड्स के साथ चलते ज़रूर हैं । हमें ऐसा वैसा मत समझना । मैं हर समय पर्स में राखी लिये घूमती हूँ । अगर हमारे ग्रुप के लड़कों ने लाइन मारने की कोशिश की तो उसके हाथ पर राखी रख देती हूँ ।”
“तब तो वह तेरा भाई बन जाता होगा?”
“कहाँ रे ? वह कहता है, “जब भगवान ने हमें भाई बहिन पैदा नहीं किया तो अपन क्यों प्रकृति का नियम तोड़ें?” ऐसा कहता दूसरे ग्रुप में घुस जाता है, शायद उधर कोई लड़की फंस जाये ।”
“हो...हो...हो....हो ।”
“तुझे यूनिवर्सिटी में एक भी लड़का शादी के लिये नहीं मिला?”
“कहां रे! डैडी मेरे लिये लड़का देख रहे हैं मैंने उनसे साफ़ कह दिया है जिसके पास ‘विटामिन एम.’ होगा उसी से मैं शादी करूँगी ।” कहते हुए वह गर्दन को झटक देती है ।
“विटामिन एम. क्या?” इस नये विटामिन को मेरा सारा विज्ञान-ज्ञान नहीं पहचान पा रहा ।
“आज के ज़माने में रहकर आपको विटामिन एम. नहीं पता?” विटामिन यानि “मनी”, प्यार व्यार कुछ नहीं होता । ठाठ से रहने के लिये ‘मनी’ चाहिये ‘मनी’, ‘मनी’ नहीं तो ज़िन्दगी बेकार है ।”
“हो...हो...हो... ।”, सब हँस रही हैं । न प्यार की छुअन की चाह, न किसी भावनात्मक लगाव की आंकाक्षा, न विवाह को लेकर कोई सुरमई सी पुलक । मैं समझ नहीं पा रही छोटे बड़े पर्दे पर थिरक रहीं ग्लेमरस लड़कियों का मन इनमें समा गया है या वे उनमें । मुझे उनके उन्मादी ठहाके विटामिन एम. का जयघोष सा करते लग रहे हैं । उनका ये उन्माद आगे के बरसों में न जाने कितने दिलों में बरछे की तरह चुभेगा, यदि वह दिल होगा तो ।
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नीलम कुलश्रेष्ठ
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