रावण अत्यंत विनम्रतापूर्वक मारीचि को झुक कर प्रणाम करता है और मारीचि का माथा ठनक जाता है | रावण बोला मामा मारीचि चलिये स्वर्ण मृग बनना है आपको और राम को छल से भटका कर दूर ले जाना है ।
रावण जैसे महाबलशाली के द्वारा अपने दस सिरों को झुका कर बीस हाथों से विनम्र प्रणाम को देख कर मारीच मन ही मन सोचता है ,
नवनि नीच की अति दुखदाई ।
जिमि अंकुश धनु उरग बिलाई ॥
भयदायक खल की प्रिय बानी ।
जिमि अकाल के कुसुम भवानी ॥
नीच का झुकना (विनम्रता) भी अत्यंत दुखदायी परिणाम लाने वाली होती है । जैसे अंकुश , धनुष , सर्प और बिल्ली का झुकना !
दुष्ट मनुष्य की प्रियवाणी भी,
उसी तरह भयदायी होती है जैसे अकाल की सूचना देने वाले फूलों का असमय खिलना ।
रावण निपट अहंकारी था, पर अपने अहंकार को दिशा न दे पाया ।
जब हम बात करते हैं अहंकार की , कि फलाना आदमी बहुत अहंकारी है या धिमकाना आदमी में बहुत "मैं" है ...
इन नकारात्मक लक्ष्यार्थों (कनोटेशंस) के कारण हमें लगने लगता है अहंकार बड़ा अवगुण है जिसे हमें समाप्त कर देना है स्वयं से ...
लेकिन जिस प्रकार जंगल की नदी में प्यास बुझाने गया पशु नहीं जानता कि बाघ नदी पर घात लगाए बैठा है , और प्यास बुझाते बुझाते स्वयं के जीवन का दीपक बुझा बैठता है ...
ठीक उसी प्रकार , जो भी व्यक्ति अहंकार को नष्ट करने या उसका दमन करने का प्रयास करता है – वह अहंकार के चंगुल में और अधिक फंस जाता है ... और अधिक अहंकारी हो जाता है !
अहंकार आपकी कोई बुरी आदत नहीं है , अहंकार आपकी बेसिक स्थिति है ...
अहंकार सभी में होता है , होना भी चाहिए – क्योंकि बिना अहंकार के आप ना तो भोग प्राप्त कर सकेंगे और ना मोक्ष अनुभव कर सकेंगे !
लेकिन यह अहंकार नकारात्मक (रावण वाला) भी हो सकता है और सकारात्मक भी ...
नकारात्मक अहंकार आपको ये अनुभव करवाता है कि आप संपूर्ण हो – बदल नहीं सकते और ना आपको बदलने की आवश्यकता है । ये नकारात्मक अहंकार आपको एक भ्रम में फंसा कर रखता है कि आप ने संसार को बहुत अनुभव कर लिया है और आप बहुत बड़े अनुभवशाली व्यक्ति हैं ।
वहीं सकारात्मक अहंकार आपको अनुभव करवाता है कि – " संसार बहुरम्य है और मैंने तो अभी कुछ अनुभव ही नहीं किया है , मुझे और अधिक अनुभव करना है , संसार का आनंद लेना है , रस लेना है "
यह सकारात्मक अहंकार ही मुख्य है ... और कमाल की बात है कि सकारात्मक अहंकार सबमें बचपन से ही होता है ..
जब आप सकारात्मक अहंकार को बढ़ावा देते हैं तो आप शैव ऊर्जा को अनुभव करने लगते हैं और धीरे धीरे जीवन में आनंद को अधिक से अधिक प्राप्त करने लगते हैं ।
बिना किसी योगासन और बिना किसी मंत्र जप के ही आप बहुत अधिक वर्तमान में जीने लगते हैं , यद्यपि आपमें आवेगशीलता बढ़ जाती है –
फ़िर यही आवेगशीलता आगे चलकर ध्यानावेग बन जाती है ... और आप अत्याधिक वर्तमान में जीने लगते हैं ...
जब आप बिना किसी विशेष प्रयास के बहुत ही प्राकृतिक रूप से पूर्णतः वर्तमान में जीने लगते हैं , तब एक दिन आपको एहसास होता है कि *" अरे ! सब कुछ स्वयं ही तो हो रहा है , ना मैं कुछ कर रहा हूं और ना मेरे कुछ करने से कुछ हो रहा है , हर क्षण में सुख है ! "*
और आपका अहंकार स्वयं बदलकर ब्रह्मकार की ओर बढ़ जाता है ...
यहां ध्यातव्य है कि ज़रा सा भी स्वयं को ये *समझाना नहीं है* कि "मैं कुछ नहीं हूं , मेरे कुछ करने से कुछ नहीं हो रहा है , सब भगवान कर रहा है इत्यादि इत्यादि "
अपितु जब बिना समझाए ,स्वयं अनुभव होने लगे कि सब कुछ अपने आप हो रहा है ... तब आप सही मार्ग पर हैं ।