दरअसल रामा की नीयत में खोट आ चुकी थी। उसे यह दोनों कमरे उसके ही लगने लगे थे। उन्हें खाली करने का उसका इरादा बिल्कुल नहीं था। लालच की दीमक ने उस पर पूरी तरह से हमला कर दिया था। उसकी चिकनी चुपड़ी बातों को दीनदयाल अब तक समझ चुके थे कि रामा कमरे हड़प लेना चाहता है। उसने अपनी पत्नी से कहा, "पूनम लगता है तुम्हारी बात सही है। रामा हमारे कमरे खाली करना ही नहीं चाहता।"
पूनम ने कहा, "हाँ हमने इतने वर्षों तक उन्हें रहने दिया। कभी किराया तक नहीं बढ़ाया, यह सोचकर कि अच्छे लोग हैं। यह हमारी भलमनसाहत ही तो थी, इसका उपकार मानने के बदले वह तो हड़प नीति ही अपना बैठे। लगता है हमें उंगली टेढ़ी करनी ही पड़ेगी। सीधी उंगली से घी कभी नहीं निकलता।"
"तुम कहना क्या चाहती हो? "
"कोर्ट कचहरी..."
"अरे पूनम उसमें तो वर्षों बीत जाते हैं पर फ़ैसले नहीं आते। कुंभकरण की नींद खुलने में केवल छः महीने ही लगते थे पर हमारे देश के न्यायालय में तो न्यायाधीश जागते हुए ही सालों सोए रहते हैं । उनकी नींद बड़ी ही लंबी होती है।"
"हाँ तुम ठीक कह रहे हो दीनू। हमारी गरज है, तुम ख़ुद ही उनके लिए एक किराए का मकान ढूँढ दो। वह तो ढूँढने वाले नहीं हैं, फिर क्या बहाना बनाएंगे?"
"हाँ पूनम यही ठीक रहेगा। यह भी करके देख लेते हैं। तीन हफ़्ते बीत चुके हैं उसने तो अब तक मकान ढूँढना शुरू नहीं किया है।"
अगले दो दिनों में दीनदयाल ने रामा को तीन-चार घर दिखाए किंतु नीयत में खोट लिए रामा ने हर घर में कुछ ना कुछ नुक्स निकालकर दीनदयाल को मना कर दिया।
अब तो भाप से भरे हुए बादलों की गर्मी की तरह दीनदयाल के अंदर भरा गुस्सा बादलों की ही तरह फट गया। नाराज़ होते हुए दीनदयाल ने कहा, "रामा मैं सब समझ रहा हूँ, तू मेरा मकान खाली करना ही नहीं चाहता। इतने सालों तक हमारी दोस्ती का ऐसा सिला दोगे तुम मुझे?"
"दीनू तू बात को समझ, इतने सालों से मैं इस मकान में रह रहा हूँ। अपना-सा लगता है यार, छोड़कर जाने का मन ही नहीं करता।"
"अपना-सा लगता है बोल रहा है, पर यह तेरा नहीं मेरा घर है रामा, तुझे खाली तो करना ही पड़ेगा। मुझे आज ज़रूरत है, घर में मेरी बहू आएगी। कल को मेरे नाती पोते होंगे, कहाँ रखूँगा मैं उन्हें? इसीलिए तुझसे कह रहा हूँ। देख रामा खाली कर दे मकान वरना वकील हमारी जमा की हुई कितनी ही पूंजी गटक जाएँगे और डकार भी नहीं लेंगे। हमारी वर्षों पुरानी दोस्ती भी ख़त्म हो जाएगी। देख रामा जो तू चाह रहा है वह मैं कभी होने नहीं दूँगा। मैं तुझे चार दिन का समय देता हूँ तब तक यदि तूने घर नहीं ढूँढा तो मैं कोर्ट में केस कर दूँगा," इतना कह कर दीनदयाल वहाँ से चला गया।
रामा ने इसे केवल धमकी ही समझा और अपनी ज़िद पर अड़ा रहा। देखते ही देखते चार दिन का समय घड़ी के कांटों की रफ़्तार के साथ ख़त्म हो गया। दीनदयाल अब ना तो रामा के पास पूछने आया और ना ही उसे किंचित मात्र भी उम्मीद थी कि रामा ने मकान ढूँढने की कोशिश की होगी। दीनदयाल ने अब तंग आकर सीधे कोर्ट में मुकदमा कर दिया। दीनदयाल पैसे वाला था, उसने शहर के सबसे बड़े वकील को रख लिया।
शाम को दीनदयाल ने रमा शंकर से कहा, "रामा तीन दिन बाद कोर्ट में पेशी है। तेरे पास कोर्ट का सम्मन आ जाएगा कोर्ट चलने की तैयारी कर ले मेरे दोस्त। आख़िर तूने हमें कोर्ट का रास्ता दिखा ही दिया।"
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः