Mere Ghar aana Jindagi - 29 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | मेरे घर आना ज़िंदगी - 29

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मेरे घर आना ज़िंदगी - 29



(29)

अमृता को शोभा की बातें समझ आ‌ रही थीं। वह भी श्याम के शोभा बनने की कहानी को जानना चाहती थी।‌ उसने कहा,
"आपने जो कुछ कहा मैं उसे समझने की कोशिश कर रही थी। ऐसा नहीं है कि मैं समीर की तकलीफ को बिल्कुल नहीं समझती हूँ। लेकिन समाज के व्यवहार के बारे में सोच कर डर जाती हूँ। मुझे लगता है कि समाज क्या समीर के उस रूप को स्वीकार कर पाएगा।"
शोभा ने कहा,
"मैं आपकी चिंता को समझती हूँ। एक माँ होने के नाते आपकी चिंता जायज़ भी है। अगर आप समीर को समझती हैं तो उसे हौसला दीजिए। आपने पूछा कि समाज स्वीकार करेगा या नहीं। करेगा लेकिन आसानी से नहीं। मुझे बहुत कुछ सहना पड़ा लेकिन आज समाज में मेरा एक मुकाम है। मैं एक एनजीओ चला रही हूँ। इसके ज़रिए ट्रांसजेंडर्स और समाज के दूसरे लोगों की मदद कर रही हूँ। बहुत से लोग मेरा सम्मान करते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होंगे जो मुझे नापसंद करते हों। पर मैं अपनी ज़िंदगी से संतुष्ट हूँ।"
समीर ने कहा,
"आपकी बात सुनकर मुझे बहुत प्रेरणा मिली है। अब प्लीज़ अपने बारे में बताइए।"
शोभा ने अपनी कहानी सुनाई.....
श्याम ने अपने घरवालों को बताया कि वह एक लड़के के रूप में खुश नहीं हैं। वह‌ एक लड़की की तरह रहना चाहता है। उसने पता किया है कि ऐसा संभव है। उसके घरवाले बहुत नाराज़ हुए। उसके पिता ने उसकी बहुत पिटाई की। इस सबसे दुखी होकर श्याम ने घर छोड़ दिया। वह छोटे छोटे काम कर अपना गुजारा कर रहा था। लेकिन समाज के शरारती लोग उसके साथ बदसलूकी करते थे। एक दिन ऐसी ही बदसलूकी के कारण श्याम ने आत्महत्या करने का मन बनाया। वह पुल से नीचे कूद रहा था तभी एक फरिश्ते ने उसे बचा लिया।
उस फरिश्ते का नाम मल्लिका था। वह एक हिजड़ा थी। मल्लिका उसे अपने साथ ले गई। उसे अपने बच्चे की तरह पालने लगी। उसकी पढ़ाई शुरू कराई। लेकिन कुछ सालों के बाद उसके समाज के लोग चाहते थे कि वह भी उनकी तरह नाच गाकर जीवन गुजारे। श्याम को लड़की बनना था। पर इस तरह का जीवन नहीं बिताना था।
मल्लिका ने अपने समाज का विरोध करके श्याम को आगे पढ़ाया। लेकिन मल्लिका बीमारी के कारण गुज़र गई। श्याम की मुसीबतें बढ़ गईं। पर‌ अब‌ उसकी उम्र अठ्ठारह साल थी। वह बारहवीं पास हो गया था। इस बार उसने हार मानने की जगह अपनी ज़िंदगी की बागडोर अपने हाथों में ले ली। उसने डिलीवरी ब्वॉय की नौकरी शुरू कर दी। साथ में ओपन युनिवर्सिटी से पढ़ाई जारी रखी। वह ग्रैजुएट भी हो गया।
अब श्याम की ज़िंदगी उसके हाथों में थी। उसने वह‌ निर्णय लिया जो बहुत दिनों से चाहता था। श्याम से शोभा बनने के लिए सारी आवश्यक कार्यवाहियां कीं। उसे शोभा के रूप में अपनाने को समाज तैयार नहीं था। लेकिन शोभा पीछे हटने को तैयार नहीं थी। धीरे धीरे उसने खुद को उस जगह पर पहुँचा दिया जहाँ ना सिर्फ अपनी बल्की दूसरों की भी मददगार बन सके।
शोभा के काम को लोगों ने सराहना शुरू किया। उन्होंने एक एनजीओ की स्थापना की। जिसकी सहायता से वह लोगों की मदद कर रही थीं।
अपनी कहानी सुनाकर शोभा ने कहा,
"मैं यह नहीं कह रही हूँ कि समाज की सोच में बहुत बड़ा बदलाव आ गया है। अभी भी राह आसान नहीं है। लेकिन इसके बावजूद कई ट्रांसजेंडर्स हैं जिन्होंने अपनी पहचान बनाई है।"
अमृता सोच में थी। पर इस सोच में चिंता नहीं थी। वह शोभा की कहानी से प्रेरित हुई थी। शोभा ने अमृता से कहा,
"अगर आप समीर को रोकेंगी तो वह अंदर ही अंदर घुटेगा और कुछ नहीं कर पाएगा। लेकिन अगर उसके मन की करने देंगी तो अपनी हिम्मत और हौसले से वह‌ आगे बढ़ सकता है।"
शोभा ने समीर से कहा,
"अगर मुश्किलें आएं तो पीछे नहीं हटना‌ है। उनका मुकाबला करते हुए अपने फैसले पर अड़े रहना है।"
समीर इस वक्त बहुत अच्छा महसूस कर रहा था। उसने कहा,
"मैम अब हार नहीं माननी है।‌ अपने फैसले पर अड़े रहना है।"
शोभा ने कुछ सोचकर कहा,
"जो बदलाव तुम अपने शरीर में लाना चाहते हो उसके लिए कुछ दिन रुक जाओ। तब तक खुद को मानसिक और बाकी तरीके से तैयार करो। मैं यहाँ एक स्कूल की प्रिंसिपल को जानती हूंँ। मैं एक लेटर लिखकर देती हूँ। वहाँ जाकर एडमीशन ले लेना और मन लगाकर पढ़ाई करना।"
शोभा ने एक लेटर लिखकर अमृता को दे दिया। अमृता ने कहा,
"मैं यहांँ आना नहीं चाहती थी। पर अब लग रहा है कि ना आती तो उस मानसिक तनाव से ना उबर पाती जो मुझे हो रहा था। आपसे मिलकर और आपकी कहानी सुनकर मुझे तसल्ली हो गई है कि समीर अपनी ज़िंदगी मे कुछ अच्छा करेगा। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।"
अमृता ने अपने हाथ जोड़ दिए।‌ समीर ने भी शोभा का धन्यवाद किया। दोनों वहाँ से चले गए।
कैब में बैठे हुए अमृता ने प्यार से समीर के सर पर हाथ फेरा। समीर ने उसकी तरफ देखा फिर बाहर देखने लगा। उसका मन खिड़की के बाहर दिख रहे खुले आसमान में उड़ने को बेताब था।

नंदिता बहुत परेशान थी। लंच के समय वह भावना से अपनी परेशानी बता रही थी। उसने भावना से कहा,
"मकरंद की हरकतें समझ‌ नहीं आ रही हैं। जाने क्या हो गया है उसे। पापा ने इतना अच्छा पोर्शन हमें रहने के लिए दिया है। मम्मी पापा हमारी हर चीज़ का खयाल रखते हैं। लेकिन वह हर समय मुंह फुलाए रहता है। अब तो पीछे पड़ गया है कि नीचे किचन से नहीं खाएंगे। अपना खाना खुद बनाएंगे। तुम नहीं बना सकती हो तो मैं बना लिया करूँगा। नहीं तो कुक रख लेंगे।"
कहते हुए नंदिता रोने लगी। भावना ने उसे चुप कराया। वह‌ बोली,
"मकरंद को पसंद नहीं होगा कि तुम्हारे मम्मी पापा पर बोझ पड़े। इसमें गलत क्या है ?"
नंदिता ने कहा,
"गलत है भावना। मम्मी पापा अपनी खुशी से सब कर रहे हैं। बल्की अगर मैं मना करूँगी तो उन्हें बुरा लगेगा। कल रात उसने नीचे जाकर खाना खाने से मना कर दिया। बाहर से खाना पैक करा लाया। फिर भी मैंने नीचे जाकर ही खाया। मकरंद के ना खाने से मम्मी को बहुत बुरा लगा था। मैं तो उसकी हरकतों से तंग आ गई हूँ।"
भावना ने समझाया,
"एक आदमी के लिए अपनी ससुराल में जाकर रहना आसान नहीं होता है। सामाजिक रीतियां भी ऐसी हैं। तुम मकरंद के हिसाब से भी सोचो।"
"उसके हिसाब से क्या सोचूँ। अगर मम्मी पापा का व्यवहार उसकी तरफ ठीक ना होता तो समझ में आता। लेकिन वह दोनों तो उसे बेटे की तरह प्यार करते हैं। पूरा सम्मान देते हैं। बल्की वह खुद मम्मी पापा के साथ ठीक से पेश नहीं आता है।‌ फिर भी दोनों कुछ नहीं कहते हैं।"
नंदिता कुछ सोचकर बोली,
"मकरंद का तो परिवार है नहीं। अगर होता तो मैं भी अपने सास ससुर के साथ रहती। उनके साथ अपने सुख दुख बांटती। लेकिन अब‌ मैं किसके साथ अपना‌ सुख दुख साझा करूँ।‌ मेरे मम्मी पापा हैं तो उनके साथ रह रही हूँ। इसमें मकरंद को दिक्कत नहीं होनी चाहिए। लेकिन वह सिर्फ ज़िद में ऐसा कर रहा है।"
भावना समझ रही थी कि इस विषय को और बढ़ाने का कोई मतलब नहीं है। उसने बात बदलते हुए कहा,
"सब ठीक हो जाएगा। बस अब तुम अपना खयाल रखो। पाँचवां महीना लग‌‌ गया है। इधर डॉक्टर के पास गई थी।"
"परसों जाना है। वैसे जबसे मम्मी के पास आई‌ हूँ कोई दिक्कत नहीं है। उन्हें बहुत से घरेलू नुस्खे भी पता हैं। पर मम्मी कह रही थींं कि इस महीने के बाद ऑफिस आना बंद कर दूँ। छुट्टी मिलती है तो ठीक नहीं तो नौकरी छोड़ दूँ। पर यार मैं दो महीने और चलाना चाहती हूँ।"
"अगर तुम कंफर्टेबल हो तो उसमें कोई हर्ज़ नहीं है। बस अब अपना खयाल रखो।"
लंच का समय खत्म हो गया था। दोनों अपनी अपनी सीट पर वापस चली गईं।‌

मकरंद घर लौटकर आया तो मेनडोर खुला था। नंदिता घर में नहीं थी। वह समझ गया कि नीचे अपने मम्मी पापा के पास होगी। उसने कपड़े चेंज किए। फ्रेश होने के बाद अपने लिए चाय बनाई। बेडरूम में बैठकर पीने लगा। वह बहुत दुखी था। आज भी फ्लैट वाले ग्रुप के लोग बिल्डर से मिलने गए थे। बिल्डर ने हर बार की तरह कुछ दिन और लगेंगे कहकर टाल दिया। वह चाह रहा था कि उसका फ्लैट उसे मिल जाए। ताकी उसके पास यहाँ से जाने का बहाना हो जाए।
ऊपरी तौर पर तो सब सामान्य था। उसके सास ससुर सीधे उससे कुछ नही कहते थे। लेकिन उस दिन नंदिता की मौसी के आने पर जो कुछ हुआ था उसके बाद चीज़ें बदल गई थीं। उसके सास ससुर अपने तरीके से उस बात की नाराज़गी ज़ाहिर करते थे। उसकी उपेक्षा करते थे। नंदिता यह सब देख नहीं पा रही थी या फिर जानबूझकर अनदेखा कर रही थी। यह बात मकरंद को परेशान कर रही थी।
नंदिता भी अब उसके साथ ठीक तरह से पेश नहीं आती थी। पूरी कोशिश करती थी कि वह जो कहे उसका उल्टा करे। वह कुछ कहता था तो नंदिता के मम्मी पापा उसका पक्ष लेते थे। गलत होते हुए भी नंदिता को लगता था कि वह सही है।
मकरंद को अब यहाँ आने के अपने फैसले पर अफसोस होता था। उसे लगता था कि अच्छा होता कि उसने यहाँ आकर रहने के प्रस्ताव को ना माना होता। कुछ दिन नंदिता नाराज़ रहती पर सब ठीक हो जाता। उसे तो अब ऐसा लगता था कि जैसे कभी कुछ ठीक नहीं होगा। उसके और नंदिता के बीच रिश्ता और बिगड़ जाएगा।
उसे अपने होने वाले बच्चे की चिंता सताने लगी थी।