KABIR The Truth for Human Being Ultimate thought in Hindi Spiritual Stories by JUGAL KISHORE SHARMA books and stories PDF | कबीर समाज सुधारक विशिष्ट ज्ञान मानव मात्र परम कल्याण

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कबीर समाज सुधारक विशिष्ट ज्ञान मानव मात्र परम कल्याण

कबीरदासजी के अनुसार मनुष्य की श्रेष्ठता उसके ऊँचे कर्मों के कारण होती है कर्म से ही मनुषय जाना जाता है। वस्तुतः कबीर की सामाजिक चिन्ता उस सच्चे आध्यात्मिक व्यक्तित्व की चिता थी जो मानवतावाद, सर्वात्मवाद अद्वैतवाद की दृष्टि से समाज को जानता-पहचानता है ।  यह सुस्पष्ट तथ्य है कि कबीर की मूल चिन्ता आध्यात्मिक है, लेकिन अध्यात्म के क्षेत्र में उनका सजग व सचेत व्यक्तित्व प्रकाश में आता है ।

न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न
वायुर्द्यौर्न वा भवान्।
एषां साक्षिणमात्मानं
चिद्रूपं विद्धि मुक्तये॥१-३॥

पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात । एक दिना छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात ।।
-- कबीर साहेब लोगों को नेकी करने की सलाह देते हुए इस क्षणभंगुर मानव शरीर की सच्चाई लोगों को बता रहे हैं कि पानी के बुलबुले की तरह मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है। जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।

 

कबीरदास या कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग में परमेश्वर की भक्ति के लिए एक महान प्रवर्तक के रूप में उभरे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनका लेखन सिक्खों के आदि ग्रंथ में भी देखने को मिलता है। वे हिन्दू धर्म व इस्लाम को मानते हुए धर्म एक सर्वोच्च ईश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने सामाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास की निंदा की और सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना भी।उनके जीवनकाल के दौरान हिन्दू और मुसलमान दोनों ने उन्हें बहुत सहयोग किया।कबीर पंथ नामक सम्प्रदाय इनकी शिक्षाओं के अनुयायी हैं।हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन्हें मस्तमौला कहा।

कबीर दास समाज सुधारक के साथ ही हिंदी साहित्य के एक महान समाज कवि थे । उन्होंने अनोखा सत्य के माध्यम से समाज का मार्गदर्शन तथा कल्याण किया। जिससे मानव कुसंगति, छल कपट, निंदा, अंहकार, जाति भेदभाव, धार्मिक पाखंड आदि को छोड़कर एक सच्चा मानव बल सकता है। उन्होंने समाज में चल रहे अंधविश्वासों, रूढ़ियों पर करारा प्रहार किया। कबीर इस नवजागरण के पुरोधा थे । कबीर ने अपने समय में जिस युग सत्य का साक्षात्कार किया था उसे देखकर कबीर जैसा संवेदनशील निष्ठावान व्यक्ति रो ही सकता है । कबीर के विद्रोही होने का एक कारण यह रुदन भी है। — कबीर अहंकार से मुक्ति में मानव जीवन की बृहत्तर सार्थकता देखते हैं। कबीरदास जैसे कवियों का भारत में जन्म लेना गौरव की बात है। कबीर दास जी ने अपने काव्य के जरिए समाज में फैली कुरीतियों को दूर किया है। इसके साथ ही सामाजिक भेदभाव और आर्थिक शोषण का विरोध किया है। महान विद्वान कवि कबीरदास जी ने अपने जीवन में किसी तरह की शिक्षा नहीं ली थी।

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कबीरदास जी कबीर या भगत कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे. इनकी रचनाओं ने भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया. जहाँ तक कबीरदास जी के धार्मिक विश्वास की बात है तो वे हिन्दू धर्म व इस्लाम को न मानते हुए धर्म निरपेक्ष विचारधारा से प्रभावित थे. उन्होंने सामाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास की निंदा की और सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना की. कबीरदास जी को हिंदू और मुस्लमानों द्वारा उनके विचारों के लिए धमकी भी दी जाती थी. कबीरदास जी के गुरू संत रामानंद जी थे.ऐसा बताया जाता है कि कबीरदास जी संत रामानंद से शिक्षा लेने के लिए गए थे. लेकिन रामानंद ने उनको अपना शिष्य बनाने से मना कर दिया. फिर कबीर दास जी प्रातः काल अंधेरे में रामानंदजी के गंगा स्नान के रास्ते में सीढ़ियों पर चुपचाप लेट गए और अंधेरे के कारण रामानंद जी उन्हें देख नही पाए और संत रामानंद जी का पैर कबीरदास की छाती पर पड़ गया.और तुलसीदास जी दोनों ही वर्तमान में लोगों के दिलों में सम्मानजनक स्थान रखते हैं. गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म 1511 ई. में हुआ था तथा इनकी मृत्यु 1623 ई. में हुई थी. इन्हें आदि काव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है. इनके द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस का कथानक रामायण से लिया गया है. रामचरितमानस लोक ग्रन्थ है और इसे उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव के साथ पढ़ा जाता है. तुलसीदास जी द्वारा रचित महाकाव्य श्रीरामचरितमानस की प्रसिद्धि का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में इसको 46वाँ स्थान दिया गया. तुलसीदास जी के गुरू नरहरिदास जी थे.

प्रासंगिकता 

कबीर नैतिक मूल्यों को लोगों के अंदर से बाहर निकालना चाहते थे कबीर ऐसे संत थे जो जनता के सच्चे पथ प्रदर्शक कहे जा सकते हैं। उन्होंने व्यक्ति के सुधार पर इसलिए बल दिया क्योंकि व्यक्तियों से ही समाज बनता है वे चाहते थे कि हिंदू और मुसलमान में जो विडंबना है उसे खत्म कर सके उन दोनों में भाईचारे की भावना उत्पन्न कर सके और वैसे साधु या ढोंगी और अंधविश्वासों को भी समाप्त करना चाहते थे कबीर को समाज सुधारक के रूप में आज भी याद किया जाता है। 

तुलसी

ताके पग की पावरी मेरे तन को चाम।।"

मोरे मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।

आपु आपने ते अधिक जेहि प्रिय सीताराम।

तेहि के पग की पानहीं तुलसी तन को चाम।। कबीर और तुलसी की समानता भक्ति के साधन रूप में कबीर और तुलसी ने भक्ति मार्ग में जिन सहायक तत्त्वों का वर्णन किए हैं ये निम्नलिखित हैं

(1) भजन-कीर्तनादि भक्ति मार्ग में दोनों कवियों ने भजन-कीर्तन के महत्व पर समान रूप से प्रकाश डाला है जहाँ कबीर भजन को संसार सागर पार करने में नौका के समान मानते हैं, वही तुलसी का कहना है कि भले जल को मथने से घी और बालू को पेरने से तेल निकल आये, परन्तु भजन के बिना भवसागर पार नहीं किया जा सकता है। यथा कबीर

भगति भजन हरि नाँव है, दूजा दुक्ख अपार   * मनसा वाचा क्रमना कबीर सुमिरन सार।

तुलसी

वारि मयें घृत होइ बरू सिकता ते बरू तेल। बिनु हरि भजन न भव तरिज यह सिद्धांत अपेल

(2) आचारगत निर्मलता प्रभु की प्राप्ति में मन की निर्मलता का महत्वपूर्ण स्थान है जब तक भक्त अपने अन्दर की बुराइयों को दूर नहीं कर देता तब तक वह प्रभु की सन्निकटता तो दूर उनके गुणों की तरफ आकृष्ट भी नहीं हो सकता है। अतः कबीर और तुलसी का कहना है कि प्रभु के कृपापात्र हम तभी हो सकते हैं जब शुद्ध हृदय से उसे पुकारते हैं। निम्न पंक्तियों में यह बात स्पष्ट हो जायेगी

कबीर

जौ दरसन देख्या चाहिजे तो दरपन मांजत रहिजै । जब दरपन लागै काई तब दरसन किया न जाई।

‘‘संतो शब्दई शब्द बखाना‘‘ में लिखा है कि सभी संत जन शब्द (नाम) की महिमा सुनाते हैं। पूर्णब्रह्म कबीर साहिब जी ने बताया है कि शब्द सतपुरुष का भी है जो कि सतपुरुष का प्रतीक है व ज्योति निरंजन(काल) का प्रतीक भी शब्द ही है। जैसे शब्द ज्योति निरंजन यह चांचरी मुद्रा को प्राप्त करवाता है इसको गोरख योगी ने बहुत अधिक तप करके प्राप्त किया जो कि आम(साधारण) व्यक्ति के बस की बात नहीं है और फिर गोरख नाथ काल तक ही साधना करके सिद्ध बन गए। मुक्त नहीं हो पाए। जब कबीर साहिब ने सत्यनाम तथा सार नाम दिया तब काल से गोरख नाथ जी का छुटकारा हुआ। इसीलिए ज्योति निरंजन के ऊँ नाम का जाप करने वाले काल जाल से नहीं बच सकते अर्थात् सत्यलोक नहीं जा सकते। शब्द ओंकार (ऊँ) का जाप करने से भूंचरी मुद्रा की स्थिति में साधक आ जाता हे। जो कि वेद व्यास ने साधना की और काल जाल में ही रहा। सोहं नाम के जाप से अगोचरी मुद्रा की स्थिति हो जाती है और काल के लोक में बनी भंवर गुफा में पहुँच जाते हैं। जिसकी साधना सुखदेव ऋषि ने की और केवल श्री विष्णु जी के लोक में बने स्वर्ग तक पहुँचा। शब्द रंरकार खैचरी मुद्रा दसमें द्वार(सुष्मणा) तक पहुँच जाते हैं। ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों ने ररंकार को ही सत्य मान कर काल के जाल में उलझे रहे। शक्ति (श्रीयम्) शब्द ये उनमनी मुद्रा को प्राप्त करवा देता है जिसको राजा जनक ने प्राप्त किया परन्तु मुक्ति नहीं हुई। कई संतों ने पाँच नामों में शक्ति की जगह सत्यनाम जोड़ दिया है जो कि सत्यनाम कोई जाप नहीं है। ये तो सच्चे नाम की तरफ ईशारा है जैसे सत्यलोक को सच्च खण्ड भी कहते हैं एैसे ही सत्यनाम व सच्चा नाम है। केवल सत्यनाम-सत्यनाम जाप करने का नहीं है। इन पाँच शब्दों की साधना करने वाले नौ नाथ तथा चैरासी सिद्ध भी इन्हीं तक सीमित रहे तथा शरीर में (घट में) ही धुनि सुनकर आनन्द लेते रहे। वास्तविक सत्यलोक स्थान तो शरीर (पिण्ड) से (अण्ड) ब्रह्मण्ड से पार है, इसलिए फिर माता के गर्भ में आए (उलटे लटके) अर्थात् जन्म-मृत्यु का कष्ट समाप्त नहीं हुआ। जो भी उपलब्धि (घट) शरीर में होगी वह तो काल (ब्रह्म) तक की ही है, क्योंकि पूर्ण परमात्मा का निज स्थान (सत्यलोक) तथा उसी के शरीर का प्रकाश तो परब्रह्म आदि से भी अधिक तथा बहुत आगे(दूर) है। उसके लिए तो पूर्ण संत ही पूरी साधना बताएगा जो पाँच नामों (शब्दों) से भिन्न है। पूर्ण परमात्मा ने पृथ्वी पर पृकट होकर कुछ पुण्यात्माओं को जिंदा महात्मा के रूप में दर्शन दिया और सतलोक लेकर गए। सतलोक में महात्मा और पूर्ण परमात्मा दो रूप दिखा कर स्वयं पूर्ण परमात्मा वाले सिंहासन पर विराजमान हो गए। जिन-जिन पुण्यात्माओं ने पूर्ण परमात्मा का साक्षात दर्शन प्राप्त किया उन्होंने पृथ्वी पर वापस आने पर बताया कि कुल का मालिक पूर्ण परमात्मा एक है। वह मानव सदृश तेजोमय शरीर युक्त है। जिसके एक रोम कूप का प्रकाश करोड़ सूर्य तथा करोड़ चन्द्रमाओं की रोशनी से भी अधिक है। उसी ने नाना रूप बनाए हैं। पूर्ण परमेश्वर के वास्तविक नाम भिन्न2 भाषाओं में कविर्देव, हक्का कबीर, सत् कबीर, बन्दी छोड़ कबीर, कबीरा, कबीरन् व खबीरा या खबीरन् हैं। इसी पूर्ण परमात्मा के उपमात्मक नाम अनामी पुरुष, अगम पुरुष, अलख पुरुष, सतपुरुष, अकाल मूर्ति, शब्द स्वरूपी राम, पूर्ण ब्रह्म, परम अक्षर ब्रह्म आदि हैं।


जिन सन्तों व ऋषियों को परमात्मा प्राप्ति नहीं हुई, उन्होंने अपना अन्तिम अनुभव बताया है कि प्रभु को केवल प्रकाश रूप देखा जा सकता है, प्रभु दिखाई नहीं देता क्योंकि उसका कोई आकार नहीं है तथा शरीर में धुनि सुनना आदि प्रभु भक्ति की उपलब्धि है।


जो परमात्मा को निराकार कहते हैं तथा केवल प्रकाश देखना तथा धुनि सुनना ही प्रभु प्राप्ति मानते हैं वे पूर्ण रूप से प्रभु तथा भक्ति से अपरिचित हैं। ऐसे साधकों के न तो तत्वज्ञान रूपी नेत्र हैं तथा न ही उनके गुरुदेव के।

जिन पूर्ण सन्तों ने पूर्ण परमात्मा को देखा उन में से कुछ के नाम हैं:-
(क) आदरणीय धर्मदास साहेब जी
(ख) आदरणीय दादू साहेब जी
(ग) आदणीय मलूक दास साहेब जी
(घ) आदरणीय गरीबदास साहेब जी
(ड़) आदरणीय नानक साहेब जी
(च) आदरणीय घीसा दास साहेब जी

(क) परमेश्वर से धर्मदास जी का साक्षात्कार:-
आदरणीय धर्मदास साहेब जी, बांधवगढ़ मध्य प्रदेश वाले, जिनको पूर्ण परमात्मा जिंदा महात्मा के रूप में मथुरा में मिले, सतलोक दिखाया। वहाँ सतलोक में दो रूप दिखा कर जिंदा वाले रूप में पूर्ण परमात्मा वाले सिंहासन पर विराजमान हो गए तथा आदरणीय धर्मदास साहेब जी को कहा कि मैं ही काशी (बनारस) में नीरू-नीमा के घर गया हुआ हूँ। आदरणीय श्री रामानन्द जी मेरे गुरु जी हैं। यह कह कर श्री धर्मदास जी की आत्मा को वापिस शरीर में भेज दिया। श्री धर्मदास जी का शरीर दो दिन बेहोश रहा, तीसरे दिन होश आया तो काशी में खोज करने पर पाया कि यही काशी में आया धाणक ही पूर्ण परमात्मा (सतपुरुष) है। आदरणीय धर्मदास साहेब जी ने पवित्रा कबीर सागर, कबीर साखी, कबीर बीजक नामक सद्ग्रन्थों की आँखों देखे तथा पूर्ण परमात्मा के पवित्रा मुख कमल से निकले अमृत वचन रूपी विवरण से रचना की। अमृत वाणी में प्रमाण:

आज मोहे दर्शन दियो जी कबीर।।टेक।।
सत्यलोक से चल कर आए, काटन जम की जंजीर।।1।।
थारे दर्शन से म्हारे पाप कटत हैं, निर्मल होवै जी शरीर।।2।।
भोजन म्हारे सतगुरु जीमैं, शब्द अमृत दूध की खीर।। ।।3
हिन्दू के तुम देव कहाये, मुसलमान के पीर।।4।।
दोनों दीन का झगड़ा छिड़ गया, टोहे ना पाये शरीर।।5।।
धर्मदास की अर्ज गोसांई, बेड़ा लंघाईयो परले तीर।।6।।

(ख) परमेश्वर से दादू जी का साक्षात्कार:-
आदरणीय दादू साहेब जी (अमृत वाणी में प्रमाण) कबीर परमेश्वर के साक्षी हुवे जब सात वर्ष के बालक थे तब पूर्ण परमात्मा जिंदा महात्मा के रूप में मिले तथा सत्यलोक ले गए। तीन दिन तक दादू जी बेहोश रहे। फिर होश में आकर बहुत-सी अमृतवाणी उच्चारण की:

जिन मोकुं निज नाम दिया, सोइ सतगुरु हमार। दादू दूसरा कोई नहीं, कबीर सृजन हार।।
दादू नाम कबीर की, जै कोई लेवे ओट। उनको कबहू लागे नहीं, काल वज्र की चोट।।
दादू नाम कबीर का, सुनकर कांपे काल। नाम भरोसे जो नर चले, होवे न बंका बाल।।
जो जो शरण कबीर के, तरगए अनन्त अपार। दादू गुण कीता कहे, कहत न आवै पार।।
कबीर कर्ता आप है, दूजा नाहिं कोय। दादू पूरन जगत को, भक्ति दृढावन सोय।।
ठेका पूरन होय जब, सब कोई तजै शरीर। दादू काल गँजे नहीं, जपै जो नाम कबीर।।
आदमी की आयु घटै, तब यम घेरे आय। सुमिरन किया कबीर का, दादू लिया बचाय।।
मेटि दिया अपराध सब, आय मिले छनमाँह। दादू संग ले चले, कबीर चरण की छांह।।
सेवक देव निज चरण का, दादू अपना जान। भृंगी सत्य कबीर ने, कीन्हा आप समान।।
दादू अन्तरगत सदा, छिन-छिन सुमिरन ध्यान। वारु नाम कबीर पर, पल-पल मेरा प्रान।।
सुन-2 साखी कबीर की, काल नवावै भाथ। धन्य-धन्य हो तिन लोक में, दादू जोड़े हाथ।।
केहरि नाम कबीर का, विषम काल गज राज। दादू भजन प्रतापते, भागे सुनत आवाज।।
पल एक नाम कबीर का, दादू मनचित लाय। हस्ती के अश्वार को, श्वान काल नहीं खाय।।
सुमरत नाम कबीर का, कटे काल की पीर। दादू दिन दिन ऊँचे, परमानन्द सुख सीर।।
दादू नाम कबीर की, जो कोई लेवे ओट। तिनको कबहुं ना लगई, काल बज्र की चोट।।
और संत सब कूप हैं, केते सरिता नीर। दादू अगम अपार है, दरिया सत्य कबीर।।
अबही तेरी सब मिटै, जन्म मरन की पीर। स्वांस उस्वांस सुमिरले, दादू नाम कबीर।।
कोई सर्गुण में रीझ रहा, कोई निर्गुण ठहराय। दादू गति कबीर की, मौसे कही न जाय।।
जिन मोको निज नाम दई, सदगुरु सोई हमार। दादू दूसरा कौन है, कबीर सिरजन हार।।

(ग) परमेश्वर से मलूक दास जी का साक्षात्कार:-
(ग) आदरणीय मलूक दास साहेब जी को 42 वर्ष की आयु में पूर्ण परमात्मा मिले तथा दो दिन तक श्री मलूक दास जी अचेत रहे। फिर सतलोक से वापसी पर निम्न वाणी उच्चारण की:

जपो रे मन सतगुरु नाम कबीर।।टेक।।
एक समय गुरु बंसी बजाई कालंद्री के तीर।
सुर-नर मुनि थक गए, रूक गया दरिया नीर।।
काँशी तज गुरु मगहर आये, दोनों दीन के पीर।
कोई गाढ़े कोई अग्नि जरावै, ढूंडा न पाया शरीर।
चार दाग से सतगुरु न्यारा, अजरो अमर शरीर।
दास मलूक सलूक कहत हैं, खोजो खसम कबीर।।

(घ) परमेश्वर से गरीबदास जी का साक्षात्कार:-
आदरणीय गरीबदास साहेब जी छुड़ानी जिला-झज्जर, हरियाणा वाले (अमृत वाणी में प्रमाण) प्रभु कबीर (कविर्देव) के साक्षी दस वर्ष की आयु में हुवे। गरीबदास साहेब जी का आर्विभाव सन् 1717 में हुआ तथा सत्लोक वास सन् 1778 में हुआ। दस वर्ष की आयु में कबलाना गाँव की सीमा से सटे नला नामक खेत में हुए आदरणीय गरीबदास साहेब जी को भी परमात्मा कबीर साहेब जी सशरीर जिंदा रूप में मिले। आदरणीय गरीबदास साहेब जी खेतों में अन्य साथी ग्वालों के साथ गाय चरा रहे थे। बन्दी छोड़ कबीर परमेश्वर को एक अतिथि रूप में देख कर ग्वालों ने जिन्दा महात्मा के रूप में प्रकट कबीर परमेश्वर से आग्रह किया कि आप खाना नहीं खाते हो तो दूध पीयो क्योंकि परमात्मा ने कहा था कि मैं अपने सतलोक गाँव से खाना खाकर आया हूँ। तब परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि मैं कुँआरी गाय का दूध पीता हूँ। तब बड़ी आयु के ग्वाले बोले कि महात्मा जी आप मजाक कर रहे हो। कुँआरी गाय कभी दूध देती है? लगता है आप की दूध पीने की नीयत नहीं है। उसी समय बालक गरीबदास जी ने एक कुँआरी गाय को परमेश्वर कबीर जी के पास लाकर कहा कि बाबा जी यह बिना ब्याई (कुँआरी) गाय कैसे दूध दे सकती है ? तब कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने कुँआरी गाय (बच्छिया) के कमर पर हाथ रखा, अपने आप कुँआरी गाय (अध्नि धेनु) के थनों से दूध निकलने लगा। पात्रा भरने पर रूक गया। वह दूध परमेश्वर कबीर जी ने पीया तथा प्रसाद रूप में कुछ अपने बच्चे गरीबदास जी को पिलाया तथा सतलोक के दर्शन कराये। सतलोक में अपने दो रूप दिखाकर फिर जिंदा वाले रूप में कुल मालिक रूप में सिंहासन पर विराजमान हो गए।

आदरणीय गरीबदास जी की आत्मा अपने परमात्मा कबीर बन्दी छोड़ के साथ चले जाने के बाद उन्हें मृत जान कर चिता पर रख कर जलाने की तैयारी करने लगे, उसी समय आदरणीय गरीबदास साहेब जी की आत्मा पूर्ण परमेश्वर ने शरीर में प्रवेश कर दिया। दस वर्षीय बालक गरीब दास जी जीवित हो गए। (गाँव छुड़ानी जि. झज्जर (हरियाणा) में आज भी उस स्थान पर जहाँ पूर्ण परमात्मा, सन्त गरीबदास जी को मानव शरीर में साक्षात्कार हुआ था, एक यादगार विद्यमान है।) उसके बाद उस पूर्ण परमात्मा का आँखों देखा विवरण अपनी अमृत वाणी में ‘‘सद्ग्रन्थ‘‘ नाम से रचना की। उसी अमृत वाणी में प्रमाण:

अजब नगर में ले गया, हमकूं सतगुरु आन।
झिलके बिम्ब अगाध गति, सूते चादर तान।।
अनन्त कोटि ब्रह्मण्ड का एक रति नहीं भार।
सतगुरु पुरुष कबीर हैं कुल के सृजन हार।।
गैबी ख्याल विशाल सतगुरु, अचल दिगम्बर थीर है।
भक्ति हेत काया धर आये, अविगत सत् कबीर हैं।।
हरदम खोज हनोज हाजर, त्रिवैणी के तीर हैं।
दास गरीब तबीब सतगुरु, बन्दी छोड़ कबीर हैं।।
हम सुल्तानी नानक तारे, दादू कूं उपदेश दिया।
जात जुलाहा भेद नहीं पाया, काशी माहे कबीर हुआ।।
सब पदवी के मूल हैं, सकल सिद्धि हैं तीर।
दास गरीब सतपुरुष भजो, अविगत कला कबीर।।
जिंदा जोगी जगत् गुरु, मालिक मुरशद पीर।
दहूँ दीन झगड़ा मंड्या, पाया नहीं शरीर।।

उपरोक्त वाणी में आदरणीय गरीबदास साहेब जी महाराज ने स्पष्ट कर दिया कि काशी वाले धाणक (जुलाहे) ने मुझे भी नाम दान देकर पार किया, यही काशी वाला धाणक ही (सतपुरुष) पूर्ण ब्रह्म है। परमेश्वर कबीर ही सतलोक से जिन्दा महात्मा के रूप में आकर मुझे अजब नगर (अद्धभुत नगर सतलोक) में लेकर गए। जहाँ पर आनन्द ही आनन्द है, कोई चिन्ता नहीं, जन्म-मृत्यु, अन्य प्राणियों के शरीर में कष्ट आदि का शोक नहीं है। वही कविर्देव जिसके एक रोम कूप में करोड़ो सूर्यों जैसा प्रकाश है तथा मानव सदृश अति तेजोमय अपने वास्तविक शरीर के ऊपर हल्के तेजपुंज का चोला (भद्रा वस्त्रा अर्थात् तेजपुंज का शरीर) डाल कर हमें मृतलोक में मिलता है।

(ड़) परमेश्वर से नानक जी का साक्षात्कार:-
आदरणीय श्री नानक साहेब जी प्रभु कबीर(धाणक) जुलाहा के साक्षी हुए। श्री रामानन्द जी ने एक सेवक को श्री नानक जी के साथ कबीर साहेब जी की झोपड़ी पर भेजा। उस सेवक से भी सच्चखण्ड के विषय में वार्ता करते हुए श्री नानक जी चले तो उस कबीर साहेब के सेवक ने भी सच्चखण्ड व सृष्टि रचना जो परमेश्वर कबीर साहेब जी से सुन रखी थी सुनाई। तब श्री नानक जी ने आश्चर्य हुआ कि मेरे से तो कबीर साहेब के चाकर (सेवक) भी अधिक ज्ञान रखते हैं। इसीलिए गुरुग्रन्थ साहेब पृष्ठ 721 पर अपनी अमृतवाणी महला 1 में श्री नानक जी ने कहा है कि -

“हक्का कबीर करीम तू, बेएब परवरदीगार।
नानक बुगोयद जनु तुरा, तेरे चाकरां पाखाक”

जिसका भावार्थ है कि हे कबीर परमेश्वर जी मैं नानक कह रहा हूँ कि मेरा उद्धार हो गया, मैं तो आपके सेवकों के चरणों की धूर तुल्य हूँ।

जब नानक जी ने देखा यह धाणक (जुलाहा) वही परमेश्वर है जिसके दर्शन सत्यलोक (सच्चखण्ड) में किए तथा बेई नदी पर हुए थे। वहाँ यह जिन्दा महात्मा के वेश में थे यहाँ धाणक (जुलाहे) के वेश में हैं। यह स्थान अनुसार अपना वेश बदल लेते हैं परन्तु स्वरूप (चेहरा) तो वही है। वही मोहिनी सूरत जो सच्चखण्ड में भी विराजमान था। वही करतार आज धाणक रूप में बैठा है। श्री नानक जी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। आँखों में आँसू भर गए। तब श्री नानक जी अपने सच्चे स्वामी अकाल मूर्ति को पाकर चरणों में गिरकर सत्यनाम (सच्चानाम) प्राप्त किया। तब शान्ति पाई तथा अपने प्रभु की महिमा देश विदेश में गाई।

पहले श्री नानकदेव जी एक ओंकार(ओम) मन्त्रा का जाप करते थे तथा उसी को सत मान कर कहा करते थे एक ओंकार। उन्हें बेई नदी पर कबीर साहेब ने दर्शन दे कर सतलोक(सच्चखण्ड) दिखाया तथा अपने सतपुरुष रूप को दिखाया। जब सतनाम का जाप दिया तब नानक जी की काल लोक से मुक्ति हुई। नानक जी ने कहा कि: इसी का प्रमाण गुरु ग्रन्थ साहिब के राग ‘‘सिरी‘‘ महला 
शब्द -
एक सुआन दुई सुआनी नाल, भलके भौंकही सदा बिआल
कुड़ छुरा मुठा मुरदार, धाणक रूप रहा करतार।।1।।
मै पति की पंदि न करनी की कार। उह बिगड़ै रूप रहा बिकराल।।
तेरा एक नाम तारे संसार, मैं ऐहो आस एहो आधार।
मुख निंदा आखा दिन रात, पर घर जोही नीच मनाति।।
काम क्रोध तन वसह चंडाल, धाणक रूप रहा करतार।।2।।
फाही सुरत मलूकी वेस, उह ठगवाड़ा ठगी देस।।
खरा सिआणां बहुता भार, धाणक रूप रहा करतार।।3।।
मैं कीता न जाता हरामखोर, उह किआ मुह देसा दुष्ट चोर।
नानक नीच कह बिचार, धाणक रूप रहा करतार।।4।।

इसमें स्पष्ट लिखा है कि एक(मन रूपी) कुत्ता तथा इसके साथ दो (आशा-तृष्णा रूपी) कुतिया अनावश्यक भौंकती(उमंग उठती) रहती हैं तथा सदा नई-नई आशाएँ उत्पन्न(ब्याती हैं) होती हैं। इनको मारने का तरीका(जो सत्यनाम तथा तत्व ज्ञान बिना) झुठा(कुड़) साधन(मुठ मुरदार) था। मुझे धाणक के रूप में हक्का कबीर (सत कबीर) परमात्मा मिला। उन्होनें मुझे वास्तविक उपासना बताई।

नानक जी ने कहा कि उस परमेश्वर(कबीर साहेब) की साधना बिना न तो पति(साख) रहनी थी और न ही कोई अच्छी करनी(भक्ति की कमाई) बन रही थी। जिससे काल का भयंकर रूप जो अब महसूस हुआ है उससे केवल कबीर साहेब तेरा एक(सत्यनाम) नाम पूर्ण संसार को पार(काल लोक से निकाल सकता है) कर सकता है। मुझे(नानक जी कहते हैं) भी एही एक तेरे नाम की आश है व यही नाम मेरा आधार है। पहले अनजाने में बहुत निंदा भी की होगी क्योंकि काम क्रोध इस तन में चंडाल रहते हैं।

मुझे धाणक(जुलाहे का कार्य करने वाले कबीर साहेब) रूपी भगवान ने आकर सतमार्ग बताया तथा काल से छुटवाया। जिसकी सुरति(स्वरूप) बहुत प्यारी है मन को फंसाने वाली अर्थात् मन मोहिनी है तथा सुन्दर वेश-भूषा में(जिन्दा रूप में) मुझे मिले उसको कोई नहीं पहचान सकता। जिसने काल को भी ठग लिया अर्थात् दिखाई देता है धाणक(जुलाहा) फिर बन गया जिन्दा। काल भगवान भी भ्रम में पड़ गया भगवान(पूर्णब्रह्म) नहीं हो सकता। इसी प्रकार परमेश्वर कबीर साहेब अपना वास्तविक अस्तित्व छुपा कर एक सेवक बन कर आते हैं। काल या आम व्यक्ति पहचान नहीं सकता। इसलिए नानक जी ने उसे प्यार में ठगवाड़ा कहा है और साथ में कहा है कि वह धाणक(जुलाहा कबीर) बहुत समझदार है। दिखाई देता है कुछ परन्तु है बहुत महिमा(बहुता भार) वाला जो धाणक जुलाहा रूप मंे स्वयं परमात्मा पूर्ण ब्रह्म(सतपुरुष) आया है। प्रत्येक जीव को आधीनी समझाने के लिए अपनी भूल को स्वीकार करते हुए कि मैंने(नानक जी ने) पूर्णब्रह्म के साथ बहस(वाद-विवाद) की तथा उन्होनें (कबीर साहेब ने) अपने आपको भी (एक लीला करके) सेवक रूप में दर्शन दे कर तथा(नानक जी को) मुझको स्वामी नाम से सम्बोधित किया। इसलिए उनकी महानता तथा अपनी नादानी का पश्चाताप करते हुए श्री नानक जी ने कहा कि मैं(नानक जी) कुछ करने कराने योग्य नहीं था। फिर भी अपनी साधना को उत्तम मान कर भगवान से सम्मुख हुआ(ज्ञान संवाद किया)। मेरे जैसा नीच दुष्ट, हरामखोर कौन हो सकता है जो अपने मालिक पूर्ण परमात्मा धाणक रूप(जुलाहा रूप में आए करतार कबीर साहेब) को नहीं पहचान पाया? श्री नानक जी कहते हैं कि यह सब मैं पूर्ण सोच समझ से कह रहा हूँ कि परमात्मा यही धाणक (जुलाहा कबीर) रूप में है।

भावार्थ:- श्री नानक साहेब जी कह रहे हैं कि यह फासने वाली अर्थात् मनमोहिनी शक्ल सूरत में तथा जिस देश में जाता है वैसा ही वेश बना लेता है, जैसे जिंदा महात्मा रूप में बेई नदी पर मिले, सतलोक में पूर्ण परमात्मा वाले वेश में तथा यहाँ उतर प्रदेश में धाणक(जुलाहे) रूप में स्वयं करतार (पूर्ण प्रभु) विराजमान है। आपसी वार्ता के दौरान हुई नोक-झोंक को याद करके क्षमा याचना करते हुए अधिक भाव से कह रहे हैं कि मैं अपने सत्भाव से कह रहा हूँ कि यही धाणक(जुलाहे) रूप में सत्पुरुष अर्थात् अकाल मूर्त ही है।

दूसरा प्रमाण:- नीचे प्रमाण है जिसमें कबीर परमेश्वर का नाम स्पष्ट लिखा है। श्री गु.ग्र.पृष्ठ नं.721 राग तिलंग महला पहला में है।

और अधिक प्रमाण के लिए प्रस्तुत है ‘‘राग तिलंग महला 1‘‘ पंजाबी गुरु ग्रन्थ साहेब पृष्ठ नं721 यक अर्ज गुफतम पेश तो दर गोश कुन करतार।
हक्का कबीर करीम तू बेएब परवरदिगार।।
दूनियाँ मुकामे फानी तहकीक दिलदानी।
मम सर मुई अजराईल गिरफ्त दिल हेच न दानी।।
जन पिसर पदर बिरादराँ कस नेस्त दस्तं गीर।
आखिर बयफ्तम कस नदारद चूँ शब्द तकबीर।।
शबरोज गशतम दरहवा करदेम बदी ख्याल।
गाहे न नेकी कार करदम मम ई चिनी अहवाल।।
बदबख्त हम चु बखील गाफिल बेनजर बेबाक।
नानक बुगोयद जनु तुरा तेरे चाकरा पाखाक।।

सरलार्थ:-- (कुन करतार) हे शब्द स्वरूपी कर्ता अर्थात् शब्द से सर्व सृष्टि के रचनहार (गोश) निर्गुणी संत रूप में आए (करीम) दयालु (हक्का कबीर) सत कबीर (तू) आप (बेएब परवरदिगार) निर्विकार परमेश्वर हंै। (पेश तोदर) आपके समक्ष अर्थात् आप के द्वार पर (तहकीक) पूरी तरह जान कर (यक अर्ज गुफतम) एक हृदय से विशेष प्रार्थना है कि (दिलदानी) हे महबूब (दुनियां मुकामे) यह संसार रूपी ठिकाना (फानी) नाशवान है (मम सर मूई) जीव के शरीर त्यागने के पश्चात् (अजराईल) अजराईल नामक फरिश्ता यमदूत (गिरफ्त दिल हेच न दानी) बेरहमी के साथ पकड़ कर ले जाता है। उस समय (कस) कोई (दस्तं गीर) साथी (जन) व्यक्ति जैसे (पिसर) बेटा (पदर) पिता (बिरादरां) भाई चारा (नेस्तं) साथ नहीं देता। (आखिर बेफ्तम) अन्त में सर्व उपाय (तकबीर) फर्ज अर्थात् (कस) कोई क्रिया काम नहीं आती (नदारद चूं शब्द) तथा आवाज भी बंद हो जाती है (शबरोज) प्रतिदिन (गशतम) गसत की तरह न रूकने वाली (दर हवा) चलती हुई वायु की तरह (बदी ख्याल) बुरे विचार (करदेम) करते रहते हैं (नेकी कार करदम) शुभ कर्म करने का (मम ई चिनी) मुझे कोई (अहवाल) जरीया अर्थात् साधन (गाहे न) नहीं मिला (बदबख्त) ऐसे बुरे समय में (हम चु) हमारे जैसे (बखील) नादान (गाफील) ला परवाह (बेनजर बेबाक) भक्ति और भगवान का वास्तविक ज्ञान न होने के कारण ज्ञान नेत्रा हीन था तथा ऊवा-बाई का ज्ञान कहता था। (नानक बुगोयद) नानक जी कह रहे हैं कि हे कबीर परमेश्वर आप की कृपा से (तेरे चाकरां पाखाक) आपके सेवकों के चरणों की धूर डूबता हुआ (जनु तूरा) बंदा पार हो गया।

भावार्थ - श्री गुरु नानक साहेब जी कह रहे हैं कि हे हक्का कबीर (सत् कबीर)! आप निर्विकार दयालु परमेश्वर हो। आप से मेरी एक अर्ज है कि मैं तो सत्यज्ञान वाली नजर रहित तथा आपके सत्यज्ञान के सामने तो निर्उत्तर अर्थात् जुबान रहित हो गया हूँ। हे कुल मालिक! मैं तो आपके दासों के चरणों की धूल हूँ, मुझे शरण में रखना।

इसके पश्चात् जब श्री नानक जी को पूर्ण विश्वास हो गया कि पूर्ण परमात्मा तो गीता ज्ञान दाता प्रभु से अन्य ही है। वही पूजा के योग्य है। पूर्ण परमात्मा की भक्ति तथा ज्ञान के विषय में गीता ज्ञान दाता प्रभु भी अनभिज्ञ है। परमेश्वर स्वयं ही तत्वदर्शी संत रूप से प्रकट होकर तत्वज्ञान को जन-जन को सुनाता है।

अमृतवाणी कबीर सागर (अगम निगम बोध, बोध सागर से) पृष्ठ नं.44

।।नानक वचन।।
।।शब्द।।
वाह वाह कबीर गुरु पूरा है।
पूरे गुरु की मैं बलि जावाँ जाका सकल जहूरा हैै।।
अधर दुलिच परे है गुरुनके शिव ब्रह्मा जह शूरा है।।
श्वेत ध्वजा फहरात गुरुनकी बाजत अनहद तूरा है।।
पूर्ण कबीर सकल घट दरशै हरदम हाल हजूरा है।।
नाम कबीर जपै बड़भागी नानक चरण को धूरा है।।

विशेष विवेचन:- बाबा नानक जी ने उस कबीर जुलाहे (धाणक) काशी वाले को सत्यलोक (सच्चखण्ड) में आँखों देखा तथा फिर काशी में धाणक (जुलाहे) का कार्य करते हुए तथा बताया कि वही धाणक रूप (जुलाहा) सत्यलोक में सत्यपुरुष रूप में भी रहता है तथा यहाँ भी वही है।

(च) परमेश्वर से घीसा दास जी का साक्षात्कार:-
आदरणीय घीसा दास साहेब जी को भी पूज्य कबीर परमेश्वर जी सशरीर मिले - भारत वर्ष सदा से ही संतों के आशीर्वाद युक्त रहा है। प्रभु के भेजे संत व स्वयं परमेश्वर समय-समय पर इस भूतल को पावन करते रहे हैं। उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में एक पावन ग्राम खेखड़ा है, जिसमें विक्रमी सं.1860 सन् 1803 में परमेश्वर के कृपा पात्र संत घीसा दास जी का आविर्भाव हुआ। जब आप जी सात वर्ष के हुए तो पूर्ण ब्रह्म कविर्देव (कबीर परमेश्वर) सतलोक (ऋतधाम) से सशरीर आए तथा गाँव के बाहर खेल रहे आपजी को दर्शन दिए। परम पूज्य कबीर साहेब (कविर्देव) ने अपने प्यारे हंस घीसादास जी को प्रभु साधना करने को कहा तथा लगभग एक घण्टे तक सत्संग सुनाया। बहुत से बच्चे उपस्थित थे तथा एक वृद्धा भी उपस्थित थी। परमेश्वर कबीर जी के मुख कमल से अपनी ही (परमेश्वर की) महिमा सुनकर आदरणीय घीसा दास साहेब जी ने सत्यलोक चलने की प्रबल इच्छा व्यक्त की। तब प्रभु कबीर (कविर्देव) ने कहा कि पुत्रा आओ, एकांत स्थान पर मंत्रा दान करूंगा। अन्य श्रोताओं से 200 फुट की दूरी पर ले जाकर नाम दान किया, मंत्रित जल अपने लोटे(एक पात्रा) से पिलाया तथा कुछ मिश्री संत घीसा दास साहेब जी को खिलाई। शाम का अंधेरा होने लगा था। परमेश्वर कबीर (कविर्देव) अन्तध्र्यान हो गए। सात वर्षीय बालक घीसादास साहेब जी अचेत हो गए। वृद्धा भतेरी ने गाँव में आकर आप जी के माता-पिता को बताया कि आपके बच्चे को एक जिन्दा महात्मा ने मन्त्रिात जल पिला दिया, तुम्हारा बेटा तो अचेत हो गया तथा वह जिन्दा अदृश हो गया। आपजी के माता-पिता जी को वृद्ध अवस्था में एक संत के आशीर्वाद से संतान रूप में आपजी की प्राप्ति हुई थी। समाचार सुनते ही माता-पिता अचेत हो गए। अन्य ग्रामवासी घटना स्थल पर पहुँचे और अचेत अवस्था में ही बालक घीसा दास साहेब जी को घर ले आए। जब माता-पिता होश में आए। बच्चे की गंभीर दशा देखकर विलाप करने लगे। सुबह सूर्य उदय होते ही बालक घीसा जी सचेत हो गए। फिर आप जी ने बताया कि यह बाबा जिंदा रूप में स्वयं पूर्ण परमात्मा कबीर जी थे, यही पूर्ण परमात्मा काशी में धाणक (जुलाहा) रूप में एक सौ बीस वर्ष रह कर सशरीर वापिस चले गए थे। कल मुझे अपने साथ सतलोक लेकर गए थे। आज वापिस छोड़ा है। माता-पिता ने बच्चे के स्वस्थ हो जाने पर सुख की सांस ली, बच्चे की बातों पर विशेष ध्यान नहीं दिया।

आदरणीय घीसा दास साहेब जी समाज की परवाह न करते हुए भक्ति प्रचार में लगे रहे तथा पूज्य कबीर परमेश्वर (कविर्देव) के उपदेशों का प्रचार करने लगे। सर्व को बताने लगे कि वही कबीर जी जो काशी में जुलाहा रूप में रह कर चला गया, पूर्ण परमात्मा है, वह साकार है।

कबीर की समाज सुधार की भावना
कबीर महान समाज सुधारक थे। उनके समकालीन समाज में अनेक अंधविश्वासों, आडम्बरों, कुरीतियों एवं विभिन्न धर्मों का बोलबाला था। कबीर ने इन सब का विरोध करते हुए समाज को एक नवीन दिशा देने का पूर्ण प्रयास किया। उन्होंने जाती-पांति के भेदभाव को दूर करते हुए शोषित जनों के उद्धार का प्रयत्न किया तथा हिंदू मुस्लिम एकता पर बल दिया उनका मत था।

जाति-पांति पूछै नहीं कोई।
हरि को भजै सो हरि का होई।।
    कबीर ने विभिन्न क्षेत्रों में समाज सुधार का प्रयास किया। उनके द्वारा किए गए इस प्रयास को निम्न शिर्षकों में समझाया जा सकता है:

 

१. मूर्ति पूजा का विरोध :-
कबीर नहीं समाज में मूर्ति पूजा का डटकर विरोध किया वह सामान्य जनता को समझाते हुए कहते हैं की मूर्ति पूजा से भगवान नहीं मिलते हैं इससे तो अच्छा है कि आप घर की चक्की को ही पूजा करें क्योंकि चक्की हमें खाने भर के लिए अनाज पीस कर दे देती है।

पाहन पूजैं हरि मिलैं तौ मैं पूजूं पहार।
घर की चाकी कोई ना पूजै पीस खाय संसार।
 

२.जीव हिंसा का विरोध
कबीर ने धर्म के नाम पर व्यक्त हिंसा का विरोध किया। हिंदुओं में शाक्तो और मुसलमानों में कुर्बानी देने वालों को उन्होंने निर्भीकता से फटकारा और कहा कि दिन में रोजा रखने वाले रात को गाय काटते हैं।इस कार्य से भला खुदा कैसे प्रसन्न हो सकता है।

दिन भर रोजा रखत है रात हनन है गाय।
यह तो खून वह बंदगी कैसी खुशी खुदा है।।
बकरी पाती खात है ताकी काढ़ी खाल।
जो नर बकरी खात है ताको कौन हवाल।।
 

३. राम रहीम की एकता का प्रतिपादन:-
कभी चाहते थे कि हिंदू मुसलमान प्रेम एवं भाईचारे की भावना से एक साथ मिल कर रहें। उन्होंने राम और रहीम की एकता स्थापित करते हुए बताया कि ईश्वर दो नहीं हो सकते। यह तो लोगों का भ्रम है जो खुदा को परमात्मा से अलग मानते हैं-

दुई जगदीस कहां ते आया कहु कौने भरमाया।
 
४. जाति-पाति तथा छुआछूत का विरोध
कबीर भक्त और कभी बात में है समाज सुधारक पहले हैं। उनकी कविता का उद्देश्य जनता को उपदेश देना और उसे सही रास्ता दिखाना है। उन्होंने जो गलत समझा उसका निर्भीकता से खंडन किया। अनुभूति की सच्चाई और अभिव्यक्ति की ईमानदारी कबीर की सबसे बड़ी विशेषता है। कबीर ने समाज में व्याप्त जाति प्रथा छुआछूत एवं ऊंच-नीच की भावना पर प्रहार करते हुए कहा कि जन्म के आधार पर कोई ऊंचा नहीं होता ऊंचा हुआ है जिस के कर्म अच्छे हैं

ऊंचे कुल का जनमिया करनी ऊंच न होय।
सुबरन कलस सुरा भरा साधू निंदत सोय।।
 

५. हिंदू पाखंड का खंडन
कबीर ने हिंदू पाखंड साधुओं एवं अंधविश्वासी जैसे हिंदुओं पर फटकारा। वे कहते थे की माला फेरने से परमात्मा या ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती हैं ईश्वर को अगर प्राप्त करना है तो मन की सुधि से ईश्वर प्रश्न होता है बल्कि हाथ में माला फेरने से और मुंह से ईश्वर का नाम जपते रहने से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। उसके लिए मन भी स्थिर होना आवश्यक है। वे इस पर कहते हैं

माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं।
मनुवा तो चहुँदिसि फिरै, यह ते सुमिरन नाहिं।।

कबीर परिचय
।। कबीर साहेब व गोरख नाथ की गोष्ठी।।

कह कबीर सुन गोरखनाथा, चर्चा करो हमारे साथा।
प्रथम चर्चा करो संग मेरे, पीछे मेरे गुरु (रामानन्द) को टेरे।
बालक रूप कबीर निहारी, तब गोरख ताहि वचन उचारी।
कबके भए वैरागी कबीर जी, कबसे भए वैरागी।
नाथ जी जब से भए वैरागी मेरी, आदि अंत सुधि लागी।।
धूंधूकार आदि को मेला, नहीं गुरु नहीं था चेला।
जब का तो हम योग उपासा, तब का फिरूं अकेला।।
धरती नहीं जद की टोपी दीना, ब्रह्मा नहीं जद का टीका।
शिव शंकर से योगी, न थे जदका झोली शिका।।
द्वापर को हम करी फावड़ी, त्रोता को हम दंडा।
सतयुग मेरी फिरी दुहाई, कलियुग फिरौ नो खण्डा।।
गुरु के वचन साधु की संगत, अजर अमर घर पाया।
कहैं कबीर सुनों हो गोरख, मैं सब को तत्व लखाया।।


कबीर साहेब ने उस समय वैष्णों संतों जैसा वेष बना रखा था। कबीर साहेब ने गोरख नाथ जी को बताया हैं कि मैं कब से वैरागी बना। कबीर साहेब ने कहा कि जब कोई सृष्टि (काल सृष्टि) नहीं थी तथा न सतलोक सृष्टि थी तब मैं (कबीर) अनामी लोक में था और कोई नहीं था। चूंकि साहेब कबीर ने ही सतलोक सृष्टि शब्द से रची तथा फिर काल (ज्योति निरंजन-ब्रह्म) की सृष्टि रची। जब मैं अकेला रहता था जब धरती (पृथ्वी) भी नहीं थी तब से मेरी टोपी जानो। ब्रह्मा जो गोरखनाथ तथा उनके गुरु मच्छन्दर नाथ आदि सर्व प्राणियों के शरीर बनाने वाला पैदा भी नहीं हुआ था। तब से मैंने टीका लगा रखा है अर्थात् मैं (कबीर) तब से सतपुरुष आकार रूप मैं ही हूँ।

सतयुग-त्रोतायुग-द्वापर तथा कलियुग ये चार युग तो मेरे सामने असंख्यों जा लिए। कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हमने सतगुरु वचन में रह कर अजर-अमर घर (सतलोक) पाया। इसलिए सर्व प्राणियों को तत्व (वास्तविक ज्ञान) बताया है कि पूर्ण गुरु से उपदेश ले कर आजीवन गुरु वचन में चलते हुए पूर्ण परमात्मा का ध्यान सुमरण करके उसी अजर-अमर सतलोक में जा कर जन्म-मरण रूपी अति दुःखमयी संकट से बच सकते हो।

इस बात को सुन कर गोरखनाथ जी ने पूछा हैं कि आपकी आयु तो बहुत छोटी है अर्थात् आप लगते तो हो बालक से।

जो बूझे सोई बावरा, क्या है उम्र हमारी।
असंख युग प्रलय गई, तब का ब्रह्मचारी।।टेक।।
कोटि निरंजन हो गए, परलोक सिधारी।
हम तो सदा महबूब हैं, स्वयं ब्रह्मचारी।।
अरबों तो ब्रह्मा गए, उनन्चास कोटि कन्हैया।
सात कोटि शम्भू गए, मोर एक नहीं पलैया।।
कोटिन नारद हो गए, मुहम्मद से चारी।
देवतन की गिनती नहीं है, क्या सृष्टि विचारी।।
नहीं बुढ़ा नहीं बालक, नाहीं कोई भाट भिखारी।
कहैं कबीर सुन हो गोरख, यह है उम्र हमारी।।

श्री गोरखनाथ सिद्ध को सतगुरु कबीर साहेब अपनी आयु का विवरण देते हैं। असंख युग प्रलय में गए। तब का मैं वर्तमान हूँ अर्थात् अमर हूँ। करोड़ों ब्रह्म (क्षर पुरूष अर्थात् काल) भगवान मृत्यु को प्राप्त होकर पुनर्जन्म प्राप्त कर चुके हैं।

 

ऐसी आयु वाले सत्तर हजार शिव भी मर जाते हैं तब एक ज्योति निरंजन (ब्रह्म) मरता है। पूर्ण परमात्मा के द्वारा पूर्व निर्धारित किए समय पर एक ब्रह्मण्ड में महाप्रलय होती है। यह (सत्तर हजार शिव की मृत्यु अर्थात् एक सदाशिव/ज्योति निरंजन की मृत्यु होती है) एक युग होता है परब्रह्म का। परब्रह्म का एक दिन एक हजार युग का होता है इतनी ही रात्राी होती है तीस दिन-रात का एक महिना तथा बारह महिनों का परब्रह्म का एक वर्ष हुआ तथा सौ वर्ष की परब्रह्म की आयु है। परब्रह्म की भी मृत्यु होती है। ब्रह्म अर्थात् ज्योति निरंजन की मृत्यु परब्रह्म के एक दिन के पश्चात् होती है परब्रह्म के सौ वर्ष पूरे होने के पश्चात् एक शंख बजता है सर्व ब्रह्मण्ड नष्ट हो जाते हैं। केवल सतलोक व ऊपर तीनों लोक ही शेष रहते हैं। इस प्रकार कबीर परमात्मा ने कहा है कि करोड़ों ज्योति निरंजन मर लिए मेरी एक पल भी आयु कम नहीं हुई है अर्थात् मैं वास्तव में अमर पुरुष हूं। अन्य भगवान जिसका तुम आश्रय ले कर भक्ति कर रहे हो वे नाशवान हैं। फिर आप अमर कैसे हो सकते हो? अरबों तो ब्रह्मा गए, 49 कोटि कन्हैया। सात कोटि शंभु गए, मोर एक नहीं पलैया। यहां देखें अमर पुरुष कौन है? 343 करोड़ त्रिलोकिय ब्रह्मा मर जाते हैं, 49 करोड़ त्रिलोकिय विष्णु तथा 7 करोड़ त्रिलोकिय शिव मर जाते हैं तब एक ज्योति निरंजन (काल-ब्रह्म) मरता है। जिसे गीता जी के अध्याय 15 के श्लोक 16 में क्षर -पुरूष (नाशवान) भगवान कहा है इसे ब्रह्म भी कहते हैं तथा इसी श्लोक में जिसे अक्षर पुरूष (अविनाशी) कहा है वह परब्रह्म है जिसे अक्षर पुरुष भी कहते हैं। अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म भी नष्ट होता है। यह काल भी करोड़ों समाप्त हो जाएंगे। तब सर्व अण्डों अर्थात् ब्रह्मण्डों का नाश होगा। केवल सतलोक व उससे ऊपर के लोक शेष रहेगें। अचिंत, सत्यपुरूष के आदेश से सृष्टि रचेगा। यही क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष की सृष्टि पुनः प्रारम्भ होगी।

जो गीता जी के अध्याय 15 के श्लोक 17 में कहा है कि वह उत्तम पुरुष (पूर्ण परमात्मा) तो कोई और ही है जिसे अविनाशी परमात्मा नाम से जाना जाता है। वह पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर सतपुरुष स्वयं कबीर साहेब है। केवल सतपुरुष अजर-अमर परमात्मा है तथा उसी का सतलोक (सतधाम) अमर है जिसे अमर लोक भी कहते हैं। वहाँ की भक्ति करके भक्त आत्मा पूर्ण मुक्त होती है। जिसका कभी मरण नहीं होता। कबीर साहेब ने कहा कि यह उपलब्धि सत्यनाम के जाप से प्राप्त होती है जो उसके मर्म भेदी गुरु से मिले तथा उसके बाद सारनाम मिले तथा साधक आजीवन मर्यादा में रहकर तीनों मन्त्रों (ओम् तथा तत् जो सांकेतिक है तथा सत् भी सांकेतिक है) का जाप करे तब सतलोक में वास तथा सतपुरुष प्राप्ति होती है। करोंड़ों नारद तथा मुहम्मद जैसी पाक (पवित्रा) आत्मा भी आकर (जन्म कर) जा (मर) चुके हैं, देवताओं की तो गिनती नहीं। मानव शरीर धारी प्राणियों तथा जीवों का तो हिसाब क्या लगाया जा सकता है? मैं (कबीर साहेब) न बूढ़ा न बालक, मैं तो जवान रूप में रहता हूँ जो ईश्वरीय शक्ति का प्रतीक है। यह तो मैं लीलामई शरीर में आपके समक्ष हूँ। कहै कबीर सुनों जी गोरख, मेरी आयु (उम्र) यह है जो आपको ऊपर बताई है।

यह सुन कर श्री गोरखनाथ जी जमीन में गड़े लगभग 7 फूट ऊँचें त्रिशूल के ऊपर के भाग पर अपनी सिद्धि शक्ति से उड़ कर बैठ गए और कहा कि यदि आप इतने महान् हो तो मेरे बराबर में (जमीन से लगभग सात फूट) ऊँचा उठ कर बातें करो। यह सुन कर कबीर साहेब बोले नाथ जी! ज्ञान गोष्टी के लिए आए हैं न कि नाटक बाजी करने के लिए। आप नीचे आएं तथा सर्व भक्त समाज के सामने यथार्थ भक्ति संदेश दें।

श्री गोरखनाथ जी ने कहा कि आपके पास कोई शक्ति नहीं है। आप तथा आपके गुरुजी दुनियाँ को गुमराह कर रहे हो। आज तुम्हारी पोल खुलेगी। ऐसे हो तो आओ बराबर। तब कबीर साहेब के बार-2 प्रार्थना करने पर भी नाथ जी बाज नहीं आए तो साहेब कबीर ने अपनी पराशक्ति (पूर्ण सिद्धि) का प्रदर्शन किया। साहेब कबीर की जेब में एक कच्चे धागे की रील (कुकड़ी) थी जिसमें लगभग 150 (एक सौ पचास) फुट लम्बा धागा लिप्टा (सिम्टा) हुआ था, को निकाला और धागे का एक सिरा (आखिरी छौर) पकड़ा और आकाश में फैंक दिया। वह सारा धागा उस बंडल (कुकड़ी) से उधड़ कर सीधा खड़ा हो गया। साहेब कबीर जमीन से आकाश में उड़े तथा लगभग 150 (एक सौ पचास) फुट सीधे खड़े धागे के ऊपर वाले सिरे पर बैठ कर कहा कि आओ नाथ जी! बराबर में बैठकर चर्चा करें। गोरखनाथ जी ने ऊपर उड़ने की कोशिश की लेकिन उल्टा जमीन पर टिक गए। पूर्ण परमात्मा (पूर्णब्रह्म) के सामने सिद्धियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं। जब गोरख नाथ जी की कोई कोशिश सफल नहीं हुई, तब जान गए कि यह कोई मामूली भक्त या संत नहीं है। जरूर कोई अवतार (ब्रह्मा, विष्णु, महेश में से) है। तब साहेब कबीर से कहा कि हे परम पुरुष! कृप्या नीचे आएँ और अपने दास पर दया करके अपना परिचय दें। आप कौन शक्ति हो? किस लोक से आना हुआ है? तब कबीर साहेब नीचे आए और कहा कि -

अवधु अविगत से चल आया, कोई मेरा भेद मर्म नहीं पाया।।टेक।।
ना मेरा जन्म न गर्भ बसेरा, बालक ह्नै दिखलाया।
काशी नगर जल कमल पर डेरा, तहाँ जुलाहे ने पाया।।
माता-पिता मेरे कछु नहीं, ना मेरे घर दासी।
जुलहा को सुत आन कहाया, जगत करे मेरी हांसी।।
पांच तत्व का धड़ नहीं मेरा, जानूं ज्ञान अपारा।
सत्य स्वरूपी नाम साहिब का, सो है नाम हमारा।।
अधर दीप (सतलोक) गगन गुफा में, तहां निज वस्तु सारा।
ज्योति स्वरूपी अलख निरंजन (ब्रह्म) भी, धरता ध्यान हमारा।।
हाड चाम लोहू नहीं मोरे, जाने सत्यनाम उपासी।
तारन तरन अभै पद दाता, मैं हूं कबीर अविनासी।।

साहेब कबीर ने कहा कि हे अवधूत गोरखनाथ जी मैं तो अविगत स्थान (जिसकी गति/भेद कोई नहीं जानता उस सतलोक) से आया हूँ। मैं तो स्वयं शक्ति से बालक रूप बना कर काशी (बनारस) में एक लहर तारा तालाब में कमल के फूल पर प्रकट हुआ हूँ। वहाँ पर नीरू-नीमा नामक जुलाहा दम्पति को मिला जो मुझे अपने घर ले आया। मेरे कोई मात-पिता नहीं हैं। न ही कोई घर दासी (पत्नी) है और जो उस परमात्मा का वास्तविक नाम है, वही कबीर नाम मेरा है। आपका ज्योति स्वरूप जिसे आप अलख निरंजन (निराकार भगवान) कहते हो वह ब्रह्म भी मेरा ही जाप करता है। मैं सतनाम का जाप करने वाले साधक को प्राप्त होता हूँ अर्थात् वहीं मेरे विषय में सही जानता है। हाड-चाम तथा लहु रक्त से बना मेरा शरीर नहीं है। कबीर साहेब सतनाम की महिमा बताते हुए कहते हैं कि मेरे मूल स्थान (सतलोक) में सतनाम के आधार से जाया जाता है। अन्य साधकों को संकेत करते हुए प्रभु कबीर (कविर्देव) जी कह रहे हैं कि मैं उसी का जाप करता रहता हूँ। इसी मन्त्रा (सतनाम) से सतलोक जाने योग्य होकर फिर सारनाम प्राप्ति करके जन्म-मरण से
पूर्ण छुटकारा मिलता है। यह तारन तरन पद (पूजा विधि) मैंने (कबीर साहेब अविनाशी भगवान ने) आपको बताई है। इसे कोई नहीं जानता। गोरख नाथ जी को बताया कि हे पुण्य आत्मा! आप काल क्षर पुरुष (ज्योति निरंजन) के जाल में ही हो। न जाने कितनी बार आपके जन्म हो चुके हैं। कभी चैरासी लाख जूनियों में कष्ट पाया। आपकी चारों युगों की भक्ति को काल अब (कलियुग में) नष्ट कर देता यदि आप मेरी शरण में नहीं आते।

                                                                               तंतुमात्रो भवेदेव पटो यद्वद्विचारितः।
                                                                               आत्मतन्मात्रमेवेदं तद्वद्विश्वं विचारितम्॥


वास्तव में कबीर को मानव ने केवल समाज सुधारक के रूप में माना। कबीर ने सदियों पहले वह विशिष्ट ज्ञान मानव मात्र के परम कल्याण हेतु दिया परन्तु इस ज्ञान को लेने वाले पात्र बहुत कम हैं। यह ज्ञान परंपरा से बिल्कुल अलग अनूठा आसान है सन्सारिक दुखों से, जरा मृत्यु, काल जाल से सदा सदा के लिये मुक्ति में पूर्णतया सक्षम है।

दुनिया अजब दिवानी, मोरी कही एक न मानी।।टेक।।
तजि प्रत्यक्ष सतगुरु परमेश्वर, इत उत फिरत भुलानी।।
तीरथ मूरति पूजत डोले, कंकर पत्थर पानी।।1।।
विषय वासनाके फन्दे परि, मोहजाल उरझानी।।
सुखको दुख दुखको सुख माने, हित अनहित नहिं जानी।।2।।
औरनको मूरख ठहरावत, आप बनत है सयानी।।
साँच कहौं तौ मारन धावे, झूठेको पतियानी।।3।।
तीन गुणों की करत उपासना, भ्रमित फिरें अज्ञानी।
गीता कहे इन्हें मत पूजो, पूर्ण ब्रह्म पिछानी।।4।।
ब्रह्म उपासत ऋषि मुनि, भ्रमत चारों खानी।।
कहैं कबीर कहां लग बरणों , अद्धभुत खेल बखानी।।5।।

कबीर साहेब कहते हैं:--

कबीर सीख उसी को दीजिए, जाको सीख सुहाय।
सीख दयी थी वानरा, बइयाँ का घर जाय।।

अर्थात् वे उल्टे गले पड़ जाएंगे। मरने मारने को तैयार हो जाएंगे। जैसे साहेब कबीर के पीछे काशी के पाण्डे व काजी मुल्ला पड़ गए थे लेकिन सच्चाई स्वीकार नहीं की। जो ज्ञानी पुरुष है जो समझते भी हैं कि हम गलत साधना स्वयं कर रहे हैं तथा अनुयाईयों को भी गलत मार्ग दर्शन कर रहे हैं वे अपनी मान बड़ाई वश नहीं मानते। वे चातुर (चतुर) प्राणी कहे हैं। इसलिए दोनों ही भक्ति अधिकारी नहीं हैं।

अंधों की बस्ती में रोशनी बेचते कबीर वाकई अपने आने वाले समय की अमिट वाणी थे। कबीर का जन्म इतिहास के उन पलों की घटना है जब सत्य चूक गया था और लोगों को असत्य पर चलना आसान मालूम पड़ता था। अस्तित्व, अनास्तित्व से घिरा था।

बाजीगर का बाँदरा, ऐसा जीउ मन के साथ।
नाना नाच नचाय के, राखे अपने हाथ।।

मृत प्राय मानव जाति एक नए अवतार की बाट जोह रही थी। ऐसे में कबीर की वाणी ने प्रस्फुटित होकर सदियों की पीड़ा को स्वर दे दिए। अपनी कथनी और करनी से मृत प्राय मानव जाति के लिए कबीर ने संजीवनी का कार्य किया।

नाना रंग तरंग है, मन मकरंद असूझ।
कहै कबीर पुकार के, तैं अकिल कला ले बूझ।।

इतिहास गवाह है, आदमी को ठोंक-पीट कर आदमी बनाने की घटना कबीर के काल में, कबीर के ही हाथों हुई। शायद तभी कबीर कवि मात्र ना होकर युगपुरुष कहलाए। 'मसि-कागद' छुए बगैर ही वह सब कह गए जो कृष्ण ने कहा, नानक ने कहा, जीसस ने कहा और मोहम्मद ने कहा। मजे की बात, अपने साक्ष्यों के प्रसार हेतु कबीर सारी उम्र किसी शास्त्र या पुराण के मोहताज नहीं रहे। न तो किसी शास्त्र विशेष पर उनका भरोसा रहा और ना ही जीवन भर स्वयं को किसी शास्त्र में बाँधा।


कबीर ऐसा विवेकी व्यक्तित्व है जो भारत को छुआछूत, जातिवाद, धार्मिक आडंबरों और ब्राह्मणवादी संस्कृति के घातक तत्त्वों से उबारने वाला है।`कबीर जुलाहा परिवार से हैं। कबीर ने स्वयं लिखा है कि ‘कहत कबीर कोरी’। यह कोरी-कोली समाज कपड़ा बनाने का कार्य करता रहा है। स्पष्ट है कि कबीर उस कोरी परिवार (मेघवंश) में जुड़े थे जो छुआछूत आधारित ग़रीबी से पीड़ित था। जुलाहों के वंशज स्वाभाविक ही कबीर के साथ जुड़े हैं और कई कबीरपंथी कहलाना पसंद करते हैं।

आज के भारत में देखें तो कई भारतीयों को कबीर से कोई परहेज़ नहीं। हाँ, ब्राह्मणवादी व्यवस्था के दृढ लोग कबीर का मूल साहित्य पढ़ कर उलझन में पड़ जाते हैं।

कबीर का सादा जीवन:-
कबीर भारत के महानतम व्यक्तित्व हैं। वे संतमत के प्रवर्तक और सुरत-शब्द योग के सिद्ध हैं। वे तत्त्वज्ञानी हैं। एक ही चेतन तत्त्व को मानते हैं और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी हैं अवतार, मूर्त्ति, रोज़ा, ईद, मस्जिद, मंदिर आदि को वे महत्व नहीं देते हैं। भारत में धर्म, भाषा या संस्कृति की चर्चा कबीर की चर्चा के बिना अधूरी होती है।

उनका परिवार हिंदु ब्राह्मणों की आपसी फूट के कारण हुए अत्याचारों में फंसकर मुस्लिम बना था। आजीविका चलाने की दृष्टि से वस्त्र बुनने का जुलाहे का कार्य अपनाया हुआ था। कबीर को नूर अली और नीमा नामक दंपति ने लहरतारा के पास सन् 1398 में कमल के पुष्प पर शिशु रूप में पृकट पाया था। नीमा ने कबीर को अपने पुत्र के रूप में अपनाया था। नीमा द्वारा बहुत अच्छे वात्सल्य पूर्ण वातावरण में उनका पालन-पोषण हुआ। उनकी मुहँबोली दो संताने कमाल (पुत्र) और कमाली (पुत्री) हुईं। कमाली की गणना भारतीय महिला संतों में होती है।


ना मेरा जन्म न गर्भ बसेरा, बालक ह्नै दिखलाया।
काशी नगर जल कमल पर डेरा, तहाँ जुलाहे ने पाया।।

कबीर स्वयंसिद्ध ज्ञानी पुरूष थे जिनका ज्ञान समाज की परिस्थितियों में सहज ही उच्च स्वरूप ग्रहण कर गया। वे किसी भी धर्म, सम्प्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किये बिना खरी बात कहते हैं। मुस्लिम समाज में रहते हुए भी जातिगत भेदभाव ने उनका पीछा नहीं छोड़ा इसी लिए उन्होंने हिंदू-मुसलमान सभी में व्याप्त जातिवाद के अज्ञान, रूढ़िवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया। कबीर ने जातिवाद के विरुद्ध कोई जन-आंदोलन खड़ा नहीं किया लेकिन उसकी भूमिका तैयार कर दी। वे आध्यात्मिकता से भरे और जुझारू सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों के घोर विरोधी हैं।

कबीर भारत के सभी निवासियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ब्राह्मणवादियों और पंडितों के विरुद्ध कबीर ने खरी-खरी कही जिससे चिढ़ कर उन्होंने कबीर की वाणी का कई जगह रूप बिगाड़ दिया है और कबीर की भाषा के साथ भी बहुत खिलवाड़ किया है। आज निर्णय करना कठिन है कि कबीर की शुद्ध वाणी कितनी बची है तथापि उनकी बहुत सी मूल वाणी को विभिन्न कबीरपंथी संगठनों ने प्रकाशित किया है और बचाया है। कबीर की साखी, रमैनी, बीजक, बावन-अक्षरी, उलटबासी देखी जा सकती है। साहित्य में कबीर का व्यक्तित्व अनुपम है। जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने भक्तों-फकीरों का सत्संग किया और उनकी अच्छी बातों को हृदयंगम किया।

कबीर ने सारी आयु कपड़ा बनाने का कार्य परिश्रम से करके परिवार का पालन पोषण किया और कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलानें और सीमित संसाधनों में सम्मान सहित जीवन यापन करने का सन्देश दिया। सन् 1518 में कबीर ने देह सहित इस भूलोक से सतलोक गमन किया।
उनके ये दो शब्द उनकी विचारधारा और दर्शन को पर्याप्त रूप से इंगित करते हैं:-

(1)
आवे न जावे मरे नहीं जनमे, सोई निज पीव हमारा हो
न प्रथम जननी ने जनमो, न कोई सिरजनहारा हो
साध न सिद्ध मुनी न तपसी, न कोई करत आचारा हो
न खट दर्शन चार बरन में, न आश्रम व्यवहारा हो
न त्रिदेवा सोहं शक्ति, निराकार से पारा हो
शब्द अतीत अटल अविनाशी, क्षर अक्षर से न्यारा हो
ज्योति स्वरूप निरंजन नाहीं, ना ओम् हुंकारा हो
धरनी न गगन पवन न पानी, न रवि चंदा तारा हो
है प्रगट पर दीसत नाहीं, सत्गुरु सैन सहारा हो
कहे कबीर सर्ब ही साहब, परखो परखनहारा हो

(2)
मोको कहाँ ढूँढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में
न तीरथ में, न मूरत में, न एकांत निवास में
न मंदिर में, न मस्जिद में, न काशी कैलाश में
न मैं जप में, न मैं तप में, न मैं बरत उपास में
न मैं किरिया करम में रहता, नहीं योग संन्यास में
खोजी होए तुरत मिल जाऊँ, एक पल की तलाश में
कहे कबीर सुनो भई साधो, मैं तो हूँ विश्वास में

कबीर की गहरी जड़ें
कबीर को सदियों साहित्य से दूर रखा गया। ताकि उनका कहा सच लोगों विशेषकर युवाओं तक न पहुँचे। लोग यह वास्तविकता न जान लें कि कबीर की पृष्ठभूमि में धर्म की एक समृद्ध परंपरा थी जो हिंदू, विशेषकर ब्राह्मणवादी, परंपरा से अलग थी वास्तव में भारत के सनातन धर्म में मानवीय दृष्टिकोण रचा-बसा है। यह आधुनिक शोध से प्रमाणित हो चुका है। उसी धर्म की व्यापकता का ही प्रभाव है कि कबीर अपनी इस्लाम की पृष्ठभूमि के बावजूद भारत के मूलनिवासियों के हृदय में बसते चले गए। कबीर ने ऐसी धर्म सिंचित वैचारिक क्रांति को जन्म दिया कि शिक्षा पर एकाधिकार रखने वाले तत्कालीन भयभीत पंडितों ने उन्हें साहित्य से दूर रखने में सारी शक्ति लगा दी।

कबीर का विशेष कार्य - निर्वाण
निर्वाण शब्द का अर्थ है - 'मन के स्वरूप को समझ कर उसे छोड़ देना और मन पर पड़े संस्कारों और उनसे बनते विचारों को माया जान कर उन्हें महत्व न देना'। दूसरे शब्दों में दुनियावी दुखों का मूल कारण ‘संस्कार’ जिससे मुक्ति का नाम निर्वाण है। इन संस्कारों में कर्म आधारित पुनर्जन्म का एक सिद्धांत भी है । काल माया के सूक्ष्म जाल ने पापों और कुकर्मों को नकली कर्म आधारित पुनर्जन्म के सिद्धांत से ढँक दिया गया ताकि उनके कुकर्मों की ओर कोई उँगली न उठे तथा लोग अपने पिछले जन्म और कर्मों को ही कोसते रहें और काल माया व्यवस्था चलती रहे। वास्तविकता यह है कि कबीर मत के अनुसार ‘निर्वाण’ का मतलब है- ‘कर्म’ और ‘पुनर्जन्म’ के विचार से छुटकारा। ये विचार अत्याचार और ग़ुलामी के विरुद्ध संघर्ष में बाधक रहे हैं।

कबीर का आवागमन से निकलने की बात करना यही प्रमाणित करता है कि पुनर्जन्म के विचार से मुक्ति संभव है और उसी में भलाई है। भारत का सनातन तत्त्वज्ञान दर्शन (चेतन तत्त्व सहित अन्य तत्त्वों की जानकारी) कहता है कि जो भी है अभी है और इसी क्षण में है। इस दृष्टि से कबीर ऐसे ज्ञानवान पुरुष हैं जिन्होंने काल माया के सूक्ष्म जाल को काट डाला। वे चतुर ज्ञानी और विवेकी पुरुष हैं, सदाचारी हैं और सद्गुणों से पूर्ण हैं। कबीर से काल माया के सूक्ष्म जाल मुक्ति ही कल्याण का मार्ग है।

कबीर ने सामाजिक, धार्मिक तथा मानसिक ग़ुलामी की ज़जीरों को काटा और मानव समुदाय की एकता और स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया।

सतगुरु सो सतनाम सुनावे। और गुरु कोइ काम न आवे।।
तीरथ सोई जो मोछै पापा। मित्रा सोई जो हरै संतापा।।1।।
जोगी सो जो काया सोधे। बुद्धि सोई जो नाहि विरोधे।।
पण्डित सोई जो आगम जानै। भक्त सोई जो भय नहिं आनै।।2।।
दातै जो औगुन परहरई। ज्ञानी सोइ जीवता मरई।।
मुक्ता सोई सतनाम अराधे। श्रोता सोई जो सुरतिहिं साधै।।3।।
सेवक सोई गहै विश्वासा। निसिदिन राखै संतन आसा।।
सतगुरु का लोपै नहि बाचा। कहै कबीर सो सेवक सांचा।।4।।

कबीर जी स्वयं परमेश्वर परमात्मा आए थे। इसलिए कहा है कि मैं पूर्ण परमात्मा स्वयं सतगुरू भेष में कह रहा हूँ मेरी एक नहीं मानता अन्य भ्रमित करने वालों की बातें मान कर इधर-उधर भटकते रहते हैं। पूर्ण सतगुरू का मार्ग ग्रहण करने से मोक्ष सम्भव है परमात्मा कबीर जी का संकेत है कि जब भी पूर्ण सन्त सतगुरू प्रकट होता है उसके द्वारा बताए मार्ग पर लग कर मोक्ष प्राप्त करना ही बुद्धिमता है।

 

 

 

कबीर दोहे
कबीर दोहे


गुरु गोविंद दोऊ खडे, काके लागुं पांय ।
बलिहारी गुरु आपने , गोविंद दियो बताय ।।
गुरु और गोविंद (भगवान) दोनो एक साथ खडे हो तो किसे प्रणाम करणा चाहिये – गुरु को अथवा गोविंद को । ऐसी स्थिती में गुरु के श्रीचरणों मे शीश झुकाना उत्तम है जिनके कृपा रुपी प्रसाद से गोविंद का दर्शन प्राप्त करणे का सौभाग्य हुआ।

गुरु गोविन्द दोऊ एक हैं, दुजा सब आकार ।
आपा मैटैं हरि भजैं , तब पावैं दीदार ।।
गुरु और गोविंद दोनो एक ही हैं केवळ नाम का अंतर है । गुरु का बाह्य(शारीरिक) रूप चाहे जैसा हो किन्तु अंदर से गुरु और गोविंद मे कोई अंतर नही है। मन से अहंकार कि भावना का त्याग करके सरल ओऊ सहज होकार आत्म ध्यान करणे से सद्गुरू का दर्शन प्राप्त होगा । जिससे प्राणी का कल्याण होगा । जब तक मन मे मैलरूपी “माई और तू” कि भावना रहेगी तब तक दर्शन नहीं प्राप्त हो सकता ।

गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष ।
गुरु बिन लखै न सत्य को गुरु बिन मैटैं न दोष ।।
कबीर दास जि कहते है – हे सांसारिक प्राणीयों । बिना गुरु के ज्ञान का मिलना असंभव है । तब टतक मनुष्य अज्ञान रुपी अंधकार मे भटकता हुआ मायारूपी सांसारिक बन्धनो मे जकडा राहता है जब तक कि गुरु कि कृपा नहीं प्राप्तहोती । मोक्ष रुपी मार्ग दिखलाने वाले गुरु हैं । बिना गुरु के सत्य एवम् असत्य का ज्ञान नही होता । उचित और अनुचित के भेद का ज्ञान नहीं होता फिर मोक्ष कैसे प्राप्त होगा ? अतः गुरु कि शरण मे जाओ । गुरु ही सच्ची रह दिखाएंगे ।

गुरु समान दाता नहीं , याचक सीष समान ।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दिन्ही दान ।।
संपूर्ण संसार में गुरु के समान कोई दानी नहीं है और शिष्य के समान कोई याचक नहीं है । ज्ञान रुपी अमृतमयी अनमोल संपती गुरु अपने शिष्य को प्रदान करके कृतार्थ करता है और गुरु द्वारा प्रदान कि जाने वाली अनमोल ज्ञान सुधा केवळ याचना करके ही शिष्य पा लेता है

गुरु को मानुष जानते, ते नार कहिए अन्ध ।
होय दुखी संसार मे , आगे जम की फन्द ।।
कबीरदास जी ने सांसारिक प्राणियो को ज्ञान का उपदेश देते हुए कहा है की जो मनुष्य गुरु को सामान्य प्राणी (मनुष्य) समझते हैं उनसे बडा मूर्ख जगत मे अन्य कोई नहीं है, वह आखो के होते हुए भी अन्धे के समान है तथा जन्म-मरण के भव-बंधन से मुक्त नहीं हो पाता ।

गुरु गोविंद करी जानिए, रहिए शब्द समाय ।
मिलै तो दण्डवत बन्दगी , नहीं पलपल ध्यान लगाय ।।
ज्ञान के प्रकाश का विस्तार करते हुए संत कबीर कहते हैं – हे मानव। गुरु और गोविंद को एक समान जाने । गुरु ने जो ज्ञान का उपदेश किया है उसका मनन कारे और उसी क्षेत्र मे रहें । जब भी गुरु का दर्शन हो अथवा न हो तो सदैव उनका ध्यान करें जिससे तुम्हें गोविंद दर्शन करणे का सुगम (सुविधाजनक) मार्ग बताया ।

गुरु महिमा गावत सदा, मन राखो अतिमोद ।
सो भव फिर आवै नहीं, बैठे प्रभू की गोद ।।
जो प्राणी गुरु की महिमा का सदैव बखान करता फिरता है और उनके आदेशों का प्रसन्नता पूर्वक पालन करता है उस प्राणी का पुनःइस भव बन्धन रुपी संसार मे आगमन नहीं होता । संसार के भव चक्र से मुक्त होकार बैकुन्ठ लोक को प्राप्त होता है ।

गुरु सों ज्ञान जु लीजिए , सीस दीजिए दान ।
बहुतक भोंदु बहि गये , राखि जीव अभिमान ।।
सच्चे गुरु की शरण मे जाकर ज्ञान-दीक्षा लो और दक्षिणा स्वरूप अपना मस्तक उनके चरणों मे अर्पित करदो अर्थात अपना तन मन पूर्ण श्रद्धा से समर्पित कर दो । “गुरु-ज्ञान कि तुलना मे आपकी सेवा समर्पण कुछ भी नहीं है” ऐसा न मानकर बहुत से अभिमानी संसार के माया-रुपी प्रवाह मे बह गये । उनका उद्धार नहीं हो सका ।

गुरु पारस को अन्तरो , जानत हैं सब संत ।
वह लोहा कंचन करे , ये करि लेय महंत ।।
गुरु और पारस के अंतर को सभी ज्ञानी पुरुष जनते हैं । पारस मणी के विषय जग विख्यात है कि उसके स्पर्श से लोहा सोने का बाण जाता है किन्तु गुरु भी इतने महान हैं कि अपने गुण-ज्ञान मे ढालकर शिष्य को अपने जैसा ही महान बना लेते हैं ।
१०
गुरु शरणगति छाडि के, करै भरोसा और ।
सुख संपती को कह चली , नहीं नरक में ठौर ।।
संत जी कहते हैं कि जो मनुष्य गुरु के पावन पवित्र चरणों को त्यागकर अन्य पर भरोसा करता है उसके सुख संपती की बात ही क्या, उसे नरक में भी स्थान नहीं मिलता ।
११
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि गढि काढैं खोट ।
अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ।।
संसारी जीवों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हुए शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं- गुरु कुम्हार है और शिष्य मिट्टी के कच्चे घडे के समान है । जिस तरह घडे को सुंदर बनाने के लिए अंदर हाथ डालकर बाहर से थाप मारता है ठीक उसी प्रकार शिष्य को कठोर अनुशासन में रखकर अंतर से प्रेम भावना रखते हुए शिष्य की बुराईयो कों दूर करके संसार में सम्माननीय बनाता है ।
१२
गुरु को सर पर राखिये चलिये आज्ञा माहि ।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहीं ।।
गुरु को अपने सिर का गज समझिये अर्थात , दुनिया में गुरु को सर्वश्रेष्ठ समझना चाहिए क्योंकि गुरु के समान अन्य कोई नहीं है । गुरु कि आज्ञा का पालन सदैव पूर्ण भक्ति एवम् श्रद्धा से करने वाले जीव को संपूर्ण लोकों में किसी प्रकार का भय नहीं रहता । गुरु कि परमकृपा और ज्ञान बल से निर्भय जीवन व्यतीत करता है ।
१३
गुरु मुरति आगे खडी , दुतिया भेद कछु नाहि ।
उन्ही कूं परनाम करि , सकल तिमिर मिटी जाहिं ।।
आत्म ज्ञान से पूर्ण संत कबीर जी कहते हैं – हे मानव । साकार रूप में गुरु कि मूर्ति तुम्हारे सम्मुख खडी है इसमें कोई भेद नहीं । गुरु को प्रणाम करो, गुरु की सेवा करो । गुरु दिये ज्ञान रुपी प्रकाश से अज्ञान रुपी अंधकार मिट जायेगा ।
१४
कबीर हरि के रुठते, गुरु के शरणै जाय ।
कहै कबीर गुरु रुठते , हरि नहि होत सहाय ।।
प्राणी जगत को सचेत करते हुए कहते हैं – हे मानव । यदि भगवान तुम से रुष्ट होते है तो गुरु की शरण में जाओ । गुरु तुम्हारी सहायता करेंगे अर्थात सब संभाल लेंगे किन्तु गुरु रुठ जाये तो हरि सहायता नहीं करते जिसका तात्पर्य यह है कि गुरु के रुठने पर कोई सहायक नहीं होता ।
१५
कबीर ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि के रुठे ठौर है, गुरु रुठे नहिं ठौर ।।
कबीरदास जी कहते है कि वे मनुष्य अंधों के समान है जो गुरु के महत्व को नहीं समझते । भगवान के रुठने पर स्थान मिल सकता है किन्तु गुरु के रुठने पर कहीं स्थान नहीं मिलता ।
१६
जैसी प्रीती कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों होय ।
कहैं कबीर ता दास का, पला न पकडै कोय ।।
हे मानव । जैसा तुम अपने परिवार से करते हो वैसा ही प्रेम गुरु से करो । जीवन की समस्त बाधाएँ मिट जायेंगी । कबीर जी कहते हैं कि ऐसे सेवक की कोई मायारूपी बन्धन में नहीं बांध सकता , उसे मोक्ष प्राप्ती होगी, इसमें कोई संदेह नहीं ।
१७
मूलध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पांव ।
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सत भाव ।।
कबीर जी कहते है – ध्यान का मूल रूप गुरु हैं अर्थात सच्चे मन से सदैव गुरु का ध्यान करना चाहिये और गुरु के चरणों की पूजा करनी चाहिये और गुरु के मुख से उच्चारित वाणी को ‘सत्यनाम’ समझकर प्रेमभाव से सुधामय अमृतवाणी का श्रवण करें अर्थात शिष्यों के लिए एकमात्र गुरु ही सब कुछ हैं ।
१८
गुरु मुरति गति चन्द्रमा , सेवक नैन चकोर ।
आठ पहर निरखत रहें , गुरु मुरति की ओर ।।
कबीर साहब सांसारिक प्राणियो को गुरु महिमा बतलाते हुए कहते हैं कि हे मानव । गुरु कीपवित्र मूर्ति को चंद्रमा जानकर आठों पहर उसी प्रकार निहारते रहना चाहिये जिस प्रकार चकोर निहारता है तात्पर्य यह कि प्रतिपल गुरु का ध्यान करते रहें ।
१९
कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार ।
धुंवा का सा धौरहरा, बिनसत लगे न बार ।।
संत कबीर जी कहते हैं कि गुरु की भक्ति के बिना संसार में इस जीवन को धिक्कार है क्योंकी इस धुएँ रुपी शरीर को एक दिन नष्ट हो जाना हैं फिर इस नश्वर शरीर के मोह को त्याग कर भक्ति मार्ग अपनाकर जीवन सार्थक करें ।
२०
प्रेम बिना जो भक्ती ही सो निज दंभ विचार ।
उदर भरन के कारन , जन्म गंवाये सार ।।
प्रेम के बिना की जाने वाली भक्ती , भक्ती नहीं बल्की पाखंड ही । वाहय आडम्बर है । प्रदर्शन वाली भक्ति को स्वार्थ कहते है जो पेट पालने के लिए करते है । सच्ची भक्ति के बिना सब कुछ व्यर्थ है । भक्ति का आधार प्रेम है अतः प्रेम पूर्वक भक्ति करे जिससे फल प्राप्त हो ।
२१
भक्ति बिना नहिं निस्तरै , लाख करै जो काय ।
शब्द सनेही है रहै , घर को पहुचे सोय ।।
भक्ति के बिना उद्धार होना संभव नहीं है चाहे कोई लाख प्रयत्न करे सब व्यर्थ है । जो जीव सद्गुरु के प्रेमी है , सत्यज्ञान का आचरण करने वाले है वे ही अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सके है ।
२२
भक्ति दुवारा सांकरा , राई दशवे भाय ।
मन तो मैंगल होय रहा , कैसे आवै जाय ।।
मानव जाति को भक्ति के विषय में ज्ञान का उपदेश करते हुए कबीरदास जी कहते है कि भक्ति का द्वार बहुत संकरा है जिसमे भक्त जन प्रवेश करना चाहते है । इतना संकरा कि सरसों के दाने के दशवे भाग के बरोबर है । जिस मनुष्य का मन हाथी की तरह विशाल है अर्थात अहंकार से भरा है वह कदापि भक्ति के द्वार में प्रवेश नहीं कर सकता ।
२३
भक्ति निसैनी मुक्ति की , संत चढ़े सब धाय ।
जिन जिन मन आलस किया , जनम जनम पछिताय ।।
मुक्ति का मूल साधन भक्ति है इसलिए साधू जन और ज्ञानी पुरुष इस मुक्ति रूपी साधन पर दौड़ कर चढ़ते है । तात्पर्य यह है कि भक्ति साधना करते है किन्तु जो लोग आलस करते है । भक्ति नहीं करते उन्हें जन्म जन्म पछताना पड़ता है क्योंकि यह सुअवसर बार बार नहीं अता ।
२४
भक्ति जुसिढी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय ।
और न कोई चढ़ी सकै, निज मन समझो आय ।।
भक्ति वह सीधी है जिस पर चढ़ने के लिए भक्तो के मन में आपार ख़ुशी होती है क्योंकि भक्ति हो मुक्ति का साधन है । भक्तों के अतिरिक्त इस पर एनी कोई नहीं चढ़ सकता । ऐसा अपने मन में निश्चित कर लो ।
२५
भक्ति भेष बहु अन्तरा , जैसे धरनि आकाश ।
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ।।
भक्ति और वेश में उतना ही अन्तर है जितना अन्तर धरती और आकाश में है । भक्त सदैव गुरु की सेवा में मग्न रहता है उसे अन्य किसी ओर विचार करने का अवसर ही नहीं मिलता किन्तु जो वेशधारी है अर्थात भक्ति करने का आडम्बर करके सांसारिक सुखो की चाह में घूमता है वह दूसरों को तो धोखा देता ही है, स्वयं अपना जीवन भी व्यर्थ गँवाता है ।
२६
भक्ति दुलेही गुरून की, नहिं कायर का काम ।
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ।।
सद्गुरु की भक्ति करना अत्यन्त ही कठिन कार्य है । यह कायरों के वश की बात नहीं है । यह एसे पुरुषार्थ का कार्य है कि जब अपने हाथ से अपना सिर काटकर गुरु के चरणों में समर्पित करोगे तभी मोक्ष को प्राप्त होओगे ।
२७
भक्ति पदारथ तब मिले , जब गुरु होय सहाय ।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ।।
कबीर जी कहते है कि भक्ति रूपी अनमोल तत्व की प्राप्ति तभी होती है जब जब गुरु सहायक होते है, गुरु की कृपा के बिना भक्ति रूपी अमृत रस को प्राप्त कर पाना पूर्णतया असम्भव है ।
२८
भक्ति बीज पलटे नहीं, जो जुग जाय अनन्त ।
ऊँच नीच बर अवतरै , होय सन्त का सन्त ।।
भक्ति का बोया बीज कभी व्यर्थ नहीं जाता चाहे अनन्त युग व्यतीत हो जाये । यह किसी भी कुल अथवा जाति में ही , परन्तु इसमें होने वाला भक्त सन्त ही रहता है । वः छोटा बड़ा या ऊँचा नीचा नहीं होता अर्थात भक्त की कोई जात नहीं होती ।
२९
कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास ।
मन मनसा मा जै नहीं , होन चहत है दास ।।
गुरु की भक्ति करने का मन में बहुत उत्साह है किन्तु ह्रदय को तूने शुद्ध नहीं किया । मन में मोह , लोभ, विषय वासना रूपी गन्दगी भरी पड़ी है उसे साफ़ और स्वच्छ करने का प्रयास ही नहीं किया और भक्ति रूपी दास होना चाहता है अर्थात सर्वप्रथम मन में छुपी बुराइयों को निकालकर मन को पूर्णरूप से शुद्ध करो तभी भक्ति कर पाना सम्भव है ।
३०
तिमिर गया रवि देखते, कुमति गयी गुरु ज्ञान ।
सुमति गयी अति लोभते, भक्ति गयी अभिमान ।।
जिस प्रकार सूर्य उदय होते ही अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार सद्गुरु के ज्ञान रूपी उपदेश से कुबुद्धि नष्ट हो जाती है । अधिक लोभ करने से बुद्धि नष्ट हो जाती है । और अभिमान करने से भक्ति का नाश हो जाता है अतः लोभ आदि से बचकर रहना ही श्रेयस्कर है ।
३१
भाव बिना नहिं भक्ति जग , भक्ति बिना नहिं भाव ।
भक्ति भाव इक रूप है , दोऊ एक सुझाव ।।
भक्ति और भाव का निरूपण करते हुए सन्त शिरोमणि कबीर साहेब जी कहते है कि संसार में भाव के बिना भक्ति नहीं और निष्काम भक्ति के बिना प्रेम नहीं होता है भक्ति और भाव एक दुसरे के पूरक है अर्थात इनके बीच कोई भेद नहीं है । भक्ति एवम भाव के गुण, लक्षण , स्वभाव आदि एक जैसे है ।
३२
भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव ।
परमारथ के कराने , यह तन रहो कि जाव ।।
भक्तो की यह रीति है वे अपने मन एवम इन्द्रिय को पूर्णतया अपने वश में करके सच्चे मन से गुरु की सेवा करते है । लोगो के उपकार हेतु ऐसे सज्जन प्राणी अपने शारीर की परवाह नहीं करते । शारीर रहे अथवा मिट जाये परन्तु अपने सज्जनता रूपी कर्तव्य से विमुख नहीं होते ।
३३
भक्ति पंथ बहु कठिन है , रत्ती न चालै खोट ।
निराधार का खेल है, अधर धार की चोट ।।
भक्ति साधना करना बहुत ही कठिन है । इस मार्ग पर चलने वाले को सदैव सावधान रहना चाहिए क्योंकि यह ऐसा निराधार खेल है कि जरा सा चुकने पर रसातल में गिरकर महान दुःख झेलने होते है अतः भक्ति साधना करने वाले झूठ, अभिमान , लापरवाही आदि से सदैव दूर रहें ।
३४
कामी क्रोधी लालची , इनते भक्ति ना होय ।
भक्ति करै कोई सूरमा , जादि बरन कुल खोय ।।
विषय वासना में लिप्त रहने वाले, क्रोधी स्वभाव वाले तथा लालची प्रवृति के प्राणियों से भक्ति नहीं होती । धन संग्रह करना, दान पूण्य न करना ये तत्व भक्ति से दूर ले जाते है । भक्ति वही कर सकता है जो अपने कुल , परिवार जाति तथा अहंकार का त्याग करके पूर्ण श्रद्धा एवम् विश्वास से कोई पुरुषार्थी ही कर सकता है । हर किसी के लिए संभव नहीं है ।
३५
विषय त्याग बैराग है, समता कहिये जान ।
सुखदायी सब जीव सों, यही भक्ति परमान ।।
कबीर दास जी संसारी जीवो को सन्मार्ग की शिक्षा देते हुए कहते है की पाचो विषयों को त्यागना ही वैराग्य है । भेद भाव आदि दुर्गुणों से रहित होकर समानता का व्यवहार करना ही परमज्ञान है और स्नेह , उचित आचरण भक्ति का सत्य प्रमाण है । भक्तों में ये सद्गुण विद्यमान होते है ।
३६
देखा देखी भक्ति का, कबहू न चढ़सी रंग ।
विपत्ति पड़े यों छाडसि , केचुलि तजसि भुजंग ।।
दूसरों को भक्ति करते हुए देखकर भक्ति करना पूर्ण रूप से सफल भक्ति नहीं हो सकती , जब कोई कठिन घडी आयेगी उस समय दिखावटी भक्ति त्याग देते है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सर्प केचुल का त्याग कर देता है ।
३७
और कर्म सब कर्म है , भक्ति कर्म निह्कर्म ।
कहै कबीर पुकारि के, भक्ति करो ताजि भर्म ।।
कबीर दास जी कहते है कि आशक्ति के वश में होकर जीव जो कर्म करता है उसका फल भी उसे भोगना पड़ता है किन्तु भक्ति ऐसा कर्म है जिसके करने से जीव संसार के भाव बन्धन से मुक्त होकर परमगति को प्राप्त होता है अतः हे सांसारिक जीवों । आशक्ति , विषय भोगों को त्यागकर प्रेमपूर्वक भक्ति करो जिससे तुम्हारा सब प्रकार से कल्याण होगा ।
३८
भक्ति भक्ति सब कोई कहै , भक्ति न जाने भेद ।
पूरण भक्ति जब मिलै , कृपा करै गुरुदेव ।।
भक्ति भक्ति तो हर कोई प्राणी कहता है किन्तु भक्ति का ज्ञान उसे नहीं होता, भक्ति का भेद नहीं जानता । पूर्ण भक्ति तभी प्राप्त हो सकती है जब गुरु देव की कृपा प्राप्त हो अतः भक्ति मार्ग पर चलने से पहले गुरु की शरण में जाना अति आवश्यक है । गुरु के आशिर्वाद और ज्ञान से मन का अन्धकार नष्ट हो जायेगा ।
३९
कबीर माया मोहिनी , भई अंधियारी लोय ।
जो सोये सों मुसि गये, रहे वस्तु को रोय ।।
कबीर साहेब कहते है कि माया मोहिनी उस काली अंधियारी रात्रि के समान है जो सबके ऊपर फैली है । जो वैभव रूपी आनन्द में मस्त हो कर सो गये अर्थात माया रूपी आवरण ने जिसे अपने वश में कर लिया उसे काम , क्रोध और मोहरूपी डाकुओ ने लूट लिया और वे ज्ञान रूपी अमृत तत्व से वंचित रह गये ।
४०
कबीर माया मोहिनी , मांगी मिलै न हाथ ।
मना उतारी जूठ करु, लागी डोलै साथ ।।
कबीर जी के वचनासुनर माया अर्थात धन, सम्पति वैभव संसार के प्रत्येक प्राणी को मोहने वाली है तथा माँगने से किसी के हाथ नहीं आती । जो इसे झूठा समझकर , सांसारिक मायाजाल समझकर उतार फेंकता है उसके पीछे दौड़ी चली आती है तात्पर्य यह कि चाहने पर दूर भागती है और त्याग करने पर निकट आती है ।
४१
कबीर या संसार की, झूठी माया मोह ।
जिहि घर जिता बधावना , तिहि घर तेता दोह ।।
संसार के लोगों का यह माया मोह सर्वथा मिथ्या है । वैभव रूपी माया जिस घर में जितनी अधिक है वहा उतनी ही विपत्ति है अर्थात भौतिक सुखसम्पदा से परिपूर्ण जीव घरेलू कलह और वैरभाव से सदा अशान्त रहता है । दु:खी रहता है ।
४२
कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खंड ।
सद्गुरु की किरपा भई , नातर करती भांड ।।
माया के स्वरुप का वर्णन करते हुए संत कबीर दास जी कहते है कि माया बहुत ही लुभावनी है । जिस प्रकार मीठी खांड अपनी मिठास से हर किसी का मन मोह लेती है उसी प्रकार माया रूपी मोहिनी अपनी ओर सबको आकर्षित कर लेती है । वह तो सद्गुरु की कृपा थी कि हम बच गये अन्यथा माया के वश में होकर अपना धर्म कर्म भूलकर भांड की तरह रह जाते ।
४३
माया छाया एक सी, बिरला जानै कोय ।
भगता के पीछे फिरै , सनमुख भाजै सोय ।।
धन सम्पत्ति रूपी माया और वृक्ष की छाया को एक समान जानो । इनके रहस्य को विरला ज्ञानी ही जानता है । ये दोनों किसी की पकड़ में नहीं आती । ये दोनों चीज़े भक्तों के पीछे पीछे और कंजूसों के आगे आगे भागती है अर्थात वे अतृप्त ही रहते है ।
४४
माया दोय प्रकार की, जो कोय जानै खाय ।
एक मिलावै राम को, एक नरक ले जाय ।।
संत शिरोमणि कबीर जी कहते है कि माया के दो स्वरुप है । यदि कोई इसका सदुपयोग देव सम्पदा के रूप में करे तो जीवन कल्याणकारी बनता है किन्तु माया के दूसरे स्वरुप अर्थात आसुरि प्रवृति का अवलम्बन करने पर जीवन का अहित होता और प्राणी नरक गामी होता है ।
४५
मोटी माया सब तजै , झीनी तजी न जाय ।
पीर पैगम्बर औलिया, झीनी सबको खाय ।।
धन संपत्ति , पुत्र, स्त्री , घर सगे सम्बन्धी अदि मोटी माया का बहुत से लोग त्याग कर देते है किन्तु माया के सूक्ष्म रूप यश सम्मान आदि का त्याग नहीं कर पाते है और यह छोटी माया ही जीव के दुखो का कारण बनती है । पीर पैगम्बर औलिया आदि की मनौती ही सबको खा जाती है.
४६
झीनी माया जिन तजी, मोटी गई बिलाय ।
ऐसे जन के निकट से, सब दुःख गये हिराय ।।
कबीर जी कहते है कि जिसने सूक्ष्म माया का त्याग कर दिया , जिसने मन की आसक्ति रूपी सूक्ष्म माया से नाता तोड़ लिया उसकी मोटी माया स्वतः ही नष्ट हो जाती है और वह ज्ञान रूपी अमृत पाकर सुखी हो जाता है । उसके समस्त दुःख दूर चले जाते है अतः सूक्ष्म माया को दूर भगाने का प्रयत्न करना चाहिए ।
४७
माया काल की खानि है, धरै त्रिगुण विपरीत ।
जहां जाय तहं सुख नहीं , या माया की रीत ।।
माया विपत्ति रूपी काल की वह खान है जो त्रिगुणमयी विकराल रूप धारण करती है यह जहाँ भी जाती है वहाँ सुख चैन का नाश हो जाता है और अशांति फैलती है । यही माया का वास्तविक रूप है । ज्ञानी जन मायारूपी काल से सदैव दूर रहते है ।
४८
माया दीपक नर पतंग , भ्रमि भ्रमि माहि परन्त ।
कोई एक गुरु ज्ञानते , उबरे साधु सन्त ।।
माया , दीपक की लौ के समान है और मनुष्य उन पतंगों के समान है जो माया के वशीभूत होकर उन पर मंडराते है । इस प्रकार के भ्रम से, अज्ञान रूपी अन्धकार से कोई विरला ही उबरता है जिसे गुरु का ज्ञान प्राप्त होने से उद्धार हो जाता है ।
४९
जरा आय जोरा किया , नैनन दीन्ही पीठ ।
आंखो ऊपर आंगुली , वीष भरै पछनीठ ।।
वृध्दावस्था ऊपर आई तो उसने अपना जोर दिखाया , कमजोर शरीर के साथ आँखों ने पीठ फेर ली अर्थात कम दिखायी पड़ने लगा । यहाँ तक कि आँखों के ऊपर अंगुलियों की छाया करने पर बहुत थोडा सा दिखायी पड़ता है ।
५०
काल हमारे संग है , कस जीवन की आस ।
दस दिन नाम संभार ले, जब लग पिंजर सांस ।।
कबीर दास जी कहते है कि जब काल हमारे साथ लगा हुआ है तो फिर जीने की आशा कैसी ? यह जीवन मिथ्या है, जब तक शरीर में प्राण है तभी तक तुम्हारे पास अवसर है अतः इस अल्प जीवन में सतकर्म करके अपना परलोक सुधार लो ।
५१
जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय ।
ते भी होते मानवी , करते रंग रलियाय ।।
जब मनुष्य की मृत्यु हो जाती है तो उसके मृतक शरीर को जला देते है । शरीर जल जाने के बाद वहाँ राख की ढेरी मात्र बचती है जिस पर हरी हरी घास उग जाती है । जरा शान्त मन से विचार करो कि वे भी मनुष्य थे जो रास रंग , आमोद प्रमोद में विलास करते थे और आज उनके जल चुके शरीर की अवशेष राख पर घास उग आयी है ।
५२
हरिजन आवत देखि के, मोहड़े सुख गयो ।
भाव भक्ति समुझयो नहीं , मूरख चूकि गयो ।।
हरी भक्तों को आता हुआ देखकर जिस मानव का मुख सूख गया अर्थात सेवा की भावना उत्पन्न ण हुई बल्कि विचलित हो गया । ऐसे व्यक्ति को महामूर्ख जानो । जिस ने हाथ आया सुअवसर खो दिया । सन्तो के दर्शन बार बार नहीं होते ।
५३
कह आकाश को फेर है , कह धरती को तोल ।
कहा साधु की जाति है, कह पारस का मोल ।।
आकाश की गोलाई , धरती का भार , साधु सन्तो की जाति क्या है तथा पारसमणि का मोल क्या है? कबीर जी कहते है कि इनका अनुमान लगा पाना असम्भव है अतः ऐसी चीजों के चक्कर में न पड़कर सत्य ज्ञान का अनुसरण करिये जिससे परम कल्याण निहित है ।
५४
दीपक सुन्दर देखि करि , जरि जरि मरे पतंग ।
बढ़ी लहर जो विषय की, जरत न मारै अंग ।।
प्रज्जवलित दीपक की सुन्दर लौ को देख कर कीट पतंग मोह पाश में बंधकर उसके ऊपर मंडराते है ओर जल जलकर मरते है । ठीक इस प्रकार विषय वासना के मोह में बंधकर कामी पुरुष अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य से भटक कर दारुण दुःख भोगते है ।

५५
कबीर माया मोहिनी , सब जग छाला छानि ।
कोई एक साधू ऊबरा, तोड़ी कुल की कानि ।।
सन्त कबीर जी कहते है कि यह जग माया मोहिनी है जो लोभ रूपी कोल्हू में पीसती है । इससे बचना अत्यंत दुश्कर है । कोई विरला ज्ञानी सन्त ही बच पाता है जिसने अपने अभिमान को तोड़ दिया है ।।

५६
कबीर गुरु के देश में , बसि जानै जो कोय ।
कागा ते हंसा बनै , जाति वरन कुल खोय ।।
कबीर जी कहते है कि जो सद्गुरु के देश में रहता है अर्थात सदैव सद्गुरु की सेवा में अपना जीवन व्यतीत करता है । उनके ज्ञान एवम् आदेशों का पालन करता है वह कौआ से हंस बन जाता है । अर्थात अज्ञान नष्ट हो जाता है और ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है । समस्त दुर्गुणों से मुक्त होकर जग में यश सम्मान प्राप्त करता है ।

५७
गुरु आज्ञा मानै नहीं , चलै अटपटी चाल ।
लोक वेद दोनों गये , आये सिर पर काल ।।
जो मनुष्य गुरु की आज्ञा की अवहेलना करके अपनी इच्छा से कार्य करता है । अपनी मनमानी करता है ऐसे प्राणी का लोक-परलोक दोनों बिगड़ता है और काल रूपी दु:खो से निरन्तर घिरा रहेगा ।

५८
गुरु आज्ञा लै आवही , गुरु आज्ञा लै जाय ।
कहै कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ।।
गुरु की आज्ञा लेकर आना और गुरु की आज्ञा से ही कहीं जाना चाहिए । कबीर दास जी कहते है किऐसे सेवक गुरु को अत्यन्त प्रिय होते है जिसे गुरु अपने ज्ञान रूपी अमृत रस का पान करा कर धन्य करते है ।

५९
गुरु समरथ सिर पर खड़े , कहा कमी तोहि दास ।
रिद्धि सिद्धि सेवा करै , मुक्ति न छाडै पास ।।
जब समर्थ गुरु तुम्हारे सिर पर खड़े है अर्थात सतगुरु का आशिर्वाद युक्त स्नेहमयी हाथ तुम्हारे सिर पर है , तो ऐसे सेवक को किस वस्तु की कमी है । गुरु के श्री चरणों की जो भक्ति भाव से सेवा करता है उसके द्वार पर रिद्धि सिद्धिया हाथ जोड़े खड़ी रहती है ।

६०
प्रीति पुरानी न होत है , जो उत्तम से लाग ।
सो बरसाजल में रहै , पथर न छोड़े आग ।।
यदि किसी सज्जन व्यक्ति से प्रेम हो तो चाले कितना भी समय व्यतीत हो जाये कभी पुरानी नहीं होती , ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार पत्थर सैकड़ो वर्ष पानी में रहे फिर भी अपनी अग्नि उत्पन्न करने की क्षमता को नहीं त्यागता ।

६१
प्रीती बहुत संसार में , नाना विधि की सोय ।
उत्तम प्रीती सो जानियो, सतगुरु से जो होय ।।
इस जगत में अनेक प्रकार की प्रीती है किन्तु ऐसी प्रीती जो स्वार्थ युक्त हो उसमें स्थायीपन नहीं होता अर्थात आज प्रीती हुई कल किसी बात पर तू-तू , मै-मै होकर विखंडित हो गयी । प्रीती सद्गुरु स्वामी से हो तो यही सर्वश्रेष्ठ प्रीती है । सद्गुरु की कृपा से, सद्गुरु से प्रीती करने पर सदा अच्छे गुणों का आगमन होता है ।

६२
साधु संगत परिहरै, करै विषय को संग ।
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ।।
जो मनुष्य ज्ञानी सज्जनों की संगति त्यागकर कुसंगियो की संगति करता है वह सांसारिक सुखो की प्राप्ती के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है । वह ऐसे मूर्ख की श्रेणी में आता है जो बहते हुए गंगा जल को छोड़ कर कुआँ खुदवाता हो ।

६३
कामी का गुरु कामिनी , लोभी का गुरु दाम ।
कबीर का गुरु सन्त है, संतन का गुरु राम ।।
कुमार्ग एवम् सुमार्ग के विषय में ज्ञान की शिक्षा प्रदान करते हुए महासन्त कबीर दास जी कहते है कि कामी व्यक्ति कुमार्गी होता है वह सदैव विषय वासना के सम्पत्ति बटोर ने में ही ध्यान लगाये रहता है । उसका गुरु, मित्र, भाई – बन्धु सब कुछ धन ही होता है और जो विषयों से दूर रहता है उसे सन्तो की कृपा प्राप्त होती है अर्थात वह स्वयं सन्तमय होता है और ऐसे प्राणियों के अन्तर में अविनाशी भगवान का निवास होता है । दूसरे अर्थो में भक्त और भगवान में कोई भेद नहीं ।

६४
परारब्ध पहिले बना , पीछे बना शरीर ।
कबीर अचम्भा है यही , मन नहिं बांधे धीर ।।
कबीर दास जी मानव को सचेत करते हुए कहते है कि प्रारब्ध की रचना पहले हुई उसके बाद शरीर बना । यही आश्चर्य होता है कि यह सब जानकर भी मन का धैर्य नहीं बंधता अर्थात कर्म फल से आशंकित रहता है ।

६५
जहां काम तहां नहिं , जहां नाम नहिं काम ।
दोनों कबहू ना मिलै , रवि रजनी इक ठाम ।।
जहाँ विषय रूपी काम का वस् होता है उस स्थान पर सद्गुरु का नाम एवम् स्वरुप बोध रूपी ज्ञान नहीं ठहरता और जहाँ सद्गुरु का निवास होता है वहाँ काम के लिए स्थान नहीं होता जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश और रात्रि का अंधेरा दोनों एक स्थान पर नहीं रह सकते उसी प्रकार ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते ।

६६
काला मुंह करूं करम का, आदर लावू आग ।
लोभ बड़ाई छांड़ि के, रांचू के राग ।।
लोभ एवम मोह रूपी कर्म का मुंह काला करके आदर सम्मान को आग लगा दूं । निरर्थक मान सम्मान प्राप्त करने के चक्कर में उचित मार्ग न भूल जाऊ । सद्गुरु के ज्ञान का उपदेश ही परम कल्याण कारी है अतः यही राग अलापना सर्वथा हितकर है ।

६७
कबीर कमाई आपनी , कबहुं न निष्फल जाय ।
सात समुद्र आड़ा पड़े , मिलै अगाड़ी आय ।।
कबीर साहेब कहते है कि कर्म की कमाई कभी निष्फल नहीं होती चाहे उसके सम्मुख सात समुद्र ही क्यों न आ जाये अर्थात कर्म के वश में होकर जीव सुख एवम् दुःख भोगता है अतःसत्कर्म करें ।
६८
दिन गरीबी बंदगी , साधुन सों आधीन ।
ताके संग मै यौ रहूं, ज्यौं पानी संग मीन ।।
जिसमें विनम्रता प्रेम भाव , सेवा भाव तथा साधु संतो की शरण में रहने की श्रद्धा होती है उसके साथ मै इस प्रकार रहू जैसे पानी के साथ मछली रहती है ।
६९
दया का लच्छन भक्ति है, भक्ति से होवै ध्यान ।
ध्यान से मिलता ज्ञान है, यह सिद्धान्त उरान ।।
दया का लक्षण भक्ति है और श्रद्धा पूर्वक भक्ति करने से परमात्मा का ध्यान होता है । जो ध्यान करता है उसी को ज्ञान मिलता है यही सिद्धान्त है जो इस सिद्धान्त का अनुसरण करता है उसके समस्त क्लेश मिट जाते है ।
७०
दया धर्म का मूल है, पाप मूल संताप ।
जहा क्षमा वहां धर्म है, जहा दया वहा आप ।।
परमज्ञानी कबीर दास जी अपनी वाणी से मानव जीवन को ज्ञान का उपदेश करते हुए कहते है । कि दया, धर्म की जड़ है और पाप युक्त जड़ दूसरों को दु:खी करने वाली हिंसा के समान है । जहा क्षमा है वहा धर्म का वास होता है तथा जहा दया है उस स्थान पर स्वयं परमात्मा का निवास होता है अतः प्रत्येक प्राणी को दया धर्म का पालन करना चाहिए ।
७१
तेरे अन्दर सांच जो, बाहर नाहिं जनाव ।
जानन हारा जानि है, अन्तर गति का भाव ।।
तुम्हारे अन्दर जो सत्य भावना निहित है उसका प्रदर्शन मत करो । जो अन्तर गति का रहस्य जानने वाले ज्ञानी का प्रदर्शन करना उचित नहीं है ।
७२
सांचै कोई न पतीयई , झूठै जग पतियाय ।
पांच टका की धोपती , सात टकै बिक जाय ।।
बोलने पर कोई विश्वास नहीं करता , सरे संसार के लोग बनावटीपण लिये हुए झूठ पर आँखे बन्द करके विश्वास करते है जिस प्रकार पाँच तर्क वाली धोती को झूठ बोलकर दूकानदार सात टके में बेच लेता है ।

७३
कामी कबहूँ न गुरु भजै , मिटै न सांसै सूल ।
और गुनह सब बख्शिहैं, कामी डाल न भूल ।।
कम के वशीभूत व्यक्ति जो सांसारिक माया में लिप्त रहता है वह कभी सद्गुरु का ध्यान नहीं करता क्योंकि हर घड़ी उसके मन में विकार भरा रहता है, उसके अन्दर संदेह रूपी शूल गड़ा रहता है जिस से उसका मनसदैव अशान्त रहता है । संत कबीर जी कहते हैं कि सभी अपराध क्षमा योग्य है किन्तु कामरूपी अपराध अक्षम्य है जिसके लिए कोई स्थान नहीं है ।

७४
अपने अपने चोर को, सब कोय डारै मार ।
मेरा चोर मुझको मिलै सरबस डारु वार ।
संसार के लोग अपने अपने चोर को मार डालते है परन्तु मेरा जो मन रूपी चंचल चोर है यदि वह मुझे मिल जाये तो मैं उसे नहीं मारुगा बल्कि उस पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दूँगा अर्थात मित्र भाव से प्रेम रूपी अमृत पिलाकर अपने पास रखूँगा ।

७५
धरती फाटै मेघ मिलै, कपडा फाटै डौर ।
तन फाटै को औषधि , मन फाटै नहिं ठौर ।।
धरती फट गयी है अर्थात दरारे पड़ गयी है तो मेघों द्वारा जल बरसाने पर दरारें बन्द हो जाती हैं और वस्त्र फट गया है तो सिलाई करने पर जुड़ जाता है । चोट लगने पर तन में दवा का लेप किया जाता है जिससे शरीर का घाव ठीक हो जाता है किन्तु मन के फटने पर कोई औषधि या कोई उपाय कारगर सिद्ध नहीं होता ।

७६
माली आवत देखि के, कलियां करे पुकार ।
फूली फूली चुन लई, काल हमारी बार ।।
माली को आता हुआ देखकर कलियां पुकारने लगी, जो फूल खिल चुके थे उन्हें माली ने चुन लिया और जो खिलने वाली है उनकी कल बारी है । फूलों की तरह काल रूपी माली उन्हें ग्रस लेता है जो खिल चुके है अर्थात जिनकी आयु पूर्ण हो चुकी है, कली के रूप में हम है हमारी बारी कल की है तात्पर्य यह कि एक एक करके सभी को काल का ग्रास बनना है ।

७७
झूठा सुख को सुख कहै , मानत है मन मोद ।
जगत – चबेना काल का , कछु मूठी कछु गोद ।।
उपरी आवरण को, भौतिक सुख को सांसारिक लोग सुख मानते है और प्रसन्न होते है किन्तु यह सम्पूर्ण संसार काल का चबेना है । यहां कुछ काल की गेंद में है और कुछ उसकी मुटठी में है । वह नित्य प्रतिदिन सबको क्रमानुसार चबाता जा रहा है ।

७८
जरा कुत्ता जोबन ससा , काल आहेरी नित्त ।
गो बैरी बिच झोंपड़ा , कुशल कहां सो मित्त ।
मनुष्यों को सचेत करते हुए संत कबीर जी कहते है – हे प्राणी ! वृद्धावस्था कुत्ता और युवा वस्था खरगोश के समान है । यौवन रूपी शिकार पर वृद्धावस्था रूपी कुत्ता घात लगाये हुए है । एक तरफ वृद्धावस्था है तो दूसरी ओर काल । इस तरह दो शत्रुओं के बीच तुम्हारी झोंपडी है । यथार्थ सत्य से परिचित कराते हुए संत जी कहते है कि इनसे बचा नहीं जा सकता ।

७९
मूसा डरपे काल सू, कठिन काल का जोर ।
स्वर्ग भूमि पाताल में, जहां जाव तहं गोर ।।
काल की शक्ति अपरम्पार है जिससे मूसा जैसे पीर पैगम्बर भी डरते थे और उसी डर से मुक्ति पाने के लिए अल्लाह और खुदा की बन्दगी करते थे । स्वर्ग , पृथ्वी अथवा पाताल में, जहां कहीं भी जाइये । सर्वत्र काल अपना विकराल पंजा फैलाये हुए है ।

८०
मन गोरख मन गोविंद, मन ही औघड़ सोय ।
जो मन राखै जतन करि, आपै करता होय ।।
मन ही योगी गोरखनाथ है, मन ही भगवान है, मन ही औघड़ है अर्थात मन को एकाग्र करके कठिन साधना करने से गोरखनाथ जी महान योगी हुए, मन की शक्ति से मनुष्य की पूजा भगवान की तरह होती है । मन को वश में करके जो भी प्राणी साधना स्वाध्याय करता है वह स्वयं ही अपना कर्त्ता बन जाती है ।

८१
कबीर माया बेसवा , दोनूं की इक जात ।
आवंत को आदर करै , जात न बुझै बात ।।
माया और वेश्या इन दोनों की एक जात है, एक कर्म है । ये दोनों पहले प्राणी को लुभाकर पूर्ण सम्मान देते है परन्तु जाते समय बात भी नहीं करते ।

८२
कामी अमी न भावई, विष को लेवै सोध ।
कुबुधि न भाजै जीव की , भावै ज्यौं परमोध ।।
विषय भोगी कामी पुरुष को कितना भी उपदेश दो, सदाचार और ब्रह्ममर्य आदि की शिक्षा दो उसे अच्छा नहीं लगता । वह सदा काम रूपी विष को ढूंढता फिरता है । चित्त की चंचलता से उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है । जिसे कारण सद्गुणों को वह ग्रहण नहीं कर पाता है ।

८३
कुमति कीच चेला भरा , गुरु ज्ञान जल होय ।
जनम जनम का मोरचा , पल में डारे धोय ।।
अज्ञान रूपी कीचड़ में शिष्य डूबा रहता है अर्थात शिष्य अज्ञान के अन्धकार में भटकता रहता है जिसे गुरु अपने ज्ञान रूपी जल से धोकर स्वच्छ कर देता है ।

८४
जाका गुरु है आंधरा , चेला खरा निरंध ।
अनेधे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फंद ।।
यदि गुरु ही अज्ञानी है तो शिष्य ज्ञानी कदापि नहीं हो सकता अर्थात शिष्य महा अज्ञानी होगा जिस तरह अन्धे को मार्ग दिखाने वाला अन्धा मिल जाये वही गति होती है । ऐसे गुरु और शिष्य काल के चक्र में फंसकर अपना जीवन व्यर्थ गंवा देते है ।

८५
साधु चलत से दीजिए , कीजै अति सनमान ।
कहैं कबीर कछु भेट धरुं , अपने बित्त अनुमान ।।
साधु जन जब प्रस्थान करने लगे तो प्रेम विह्वल होकर आंखों से आंसू निकल आये । जिस तरह उनका सम्मान करो और सामर्थ्य के अनुसार धन आदि भेंट करो । साधु को अपने द्वार से खाली हाथ विदा नहीं करना चाहिए ।

८६
मास मास नहिं करि सकै , छठै मास अलबत्त ।
यामें ढील न कीजिए, कहैं कबीर अविगत्त ।।
कबीर दास जी कहते है कि हर महीने साधु संतों का दर्शन करना चाहिए । यदि महीने दर्शन करना सम्भव नहीं है तो छठें महीने अव्श्य दर्शन करें इसमें तनिक भी ढील मत करो ।

८७
साधु साधु सबही बड़े, अपनी अपनी ठौर ।
शब्द विवेकी पारखी , ते माथे के मौर ।।
अपने अपने स्थान पर सभी साधु बड़े है । साधुजनों में कोई छोटा अथवा बड़ा नहीं है क्योंकि साधु शब्द ही महानता का प्रतीक है अर्थात सभी साधु सम्मान के अधिकारी है किन्तु जो आत्मदर्शी साधु है वे सिर के मुकुट हैं ।

८८
साधु सती और सूरमा , राखा रहै न ओट ।
माथा बांधि पताक सों , नेजा घालै चोट ।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी साधु , सती और शूरवीर के विषय बताते हैं कि ये तीनों परदे की ओट में नहीं रखे जा सकते । इनके मस्तक पर पुरुषार्थ की ध्वजा बंधी रहती है । कोई उन पर भाले से भी प्रहार करे फिर भी ये अपने मार्ग से विचलित नहीं होते ।

८९
माला तिलक लगाय के, भक्ति न आई हाथ ।
दाढ़ी मूंछ मुंडाय के, चले चुनि का साथ ।।
माला पहन ली और मस्तक पर तिलक लगा लिया फिर भी भक्ति हाथ नहीं आई । दाढ़ी मुंडवा ली, मूंछ बनवा ली और दुनिया के साथ चल पड़े फिर भी कोई लाभ नहीं हुआ । तात्पर्य यह कि ऊपरी आडम्बर से भक्ति नहीं होती मात्र समाज को धोखा देना है और स्वयम अपने अप से छल करना है ।

९०
मन मैला तन ऊजरा , बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौवा भला , तन मन एकहिं अंग ।।
जिस व्यक्ति का शरीर तो उजला है किन्तु मन मैला है अर्थात मन में पाप की गंदगी भरी हुई है वह बगुले के समान कपटी है उससे अच्छा तो कौवा ही है जिसका तन मन एक जैसा है । ऊपर से सज्जन दिखायी देने वाले और अन्दर से कपट स्वभाव रखने वाले व्यक्तियों से सदा सावधान रहना चाहिए ।

९१
शीलवन्त सुर ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ।।
सद्गुरु की सेवा करने वाले शीलवान , ज्ञानवान और उदार ह्रदय वाले होते हैं और लज्जावान बहुत ही निश्छल स्वभाव और कोमल वाले होते है ।

९२
कबीर गुरु सबको चहै , गुरु को चहै न कोय ।
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ।।
कबीर जी कहते है कि सबको कल्याण करने के लिए गुरु सबको चाहते है किन्तु गुरु को अज्ञानी लोग नहीं चाहते क्योंकि जब तक मायारूपी शरीर से मोह है तह तक प्राणी सच्चा दास नहीं हो सकता ।

९३
भक्ति कठिन अति दुर्लभ , भेश सुगम नित सोय ।
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जानै सब कोय ।।
सच्ची भक्ति का मार्ग अत्यन्त कठिन है । भक्ति मार्ग पर चलने वाले को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है किन्तु भक्ति का वेष धारण करना बहुत ही आसान है । भक्ति साधना और वेष धारण करने में बहुत अन्तर है । भक्ति करने के लिए ध्यान एकाग्र होना आवश्यक है जबकि वेष बाहर का आडम्बर है ।

९४
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा परजा जो रुचै , शीश देय ले जाय ।।
कबीर जी कहते है कि प्रेम की फसल खेतों में नहीं उपजती और न ही बाजारों में बिकती है अर्थात यह व्यापार करने वाली वास्तु नहीं है । प्रेम नामक अमृत राजा रैंक, अमीर – गरीब जिस किसी को रुच कर लगे अपना शीश देकर बदले में ले ।

९५
साधु सीप समुद्र के, सतगुरु स्वाती बून्द ।
तृषा गई एक बून्द से, क्या ले करो समुन्द ।।
साधु सन्त एवम ज्ञानी महात्मा को समुद्र की सीप के समान जानो और सद्गुरु को स्वाती नक्षत्र की अनमोल पानी की बूंद जानो जिसकी एक बूंद से ही सारी प्यास मिट गई फिर समुद्र के निकट जाने का क्या प्रयोजन । सद्गुरु के ज्ञान उपदेश से मन की सारी प्यास मिट जाती है ।

९६
आठ पहर चौसंठ घड़ी , लगी रहे अनुराग ।
हिरदै पलक न बीसरें, तब सांचा बैराग ।।
आठ प्रहर और चौसंठ घड़ी सद्गुरु के प्रेम में मग्न रहो अर्थ यह कि उठते बैठते, सोते जागते हर समय उनका ध्यान करो । अपने मन रूपी मन्दिर से एक पल के लिए भी अलग न करो तभी सच्चा बैराग्य है ।

९७
सुमिरण की सुधि यौ करो, जैसे कामी काम ।
एक पल बिसरै नहीं, निश दिन आठौ जाम ।।
सुमिरण करने का उपाय बहुत ही सरल है किन्तु मन को एकाग्र करके उसमें लगाना अत्यन्त कठिन है । जिस तरह कामी पुरुष का मन हर समय विषय वासनाओं में लगा रहता है उसी तरह सुमिरण करने के लिए ध्यान करो । एक पल भी व्यर्थ नष्ट मत करो । सुबह , शाम, रात आठों पहर सुमिरण करो ।

९८
सुमिरण की सुधि यौ करो, ज्यौं गागर पनिहारि ।
हालै डीलै सुरति में, कहैं कबीर बिचारी ।।
संत कबीर जी सुमिरण करने की विधि बताते हुए कहते है कि सुमिरन इस प्रकार करो जैसे पनिहार न अपनी गागर का करती है । गागर को जल से भरकर अपने सिर पर रखकर चलती है । उसका समूचा शरीर हिलता डुलता है किन्तु वह पानी को छलकने नहीं देती अर्थात हर पल उसे गागर का ध्यान रहता है उसी प्रकार भक्तों को सदैव सुमिरण करना चाहिए ।

९९
सुरति फंसी संसार में , ताते परिगो चूर ।
सुरति बांधि स्थिर करो, आठों पहर हजूर ।।
चंचल मन की वृत्ति संसार के विषय भोग रूपी मोह में फंसी हो तो सद्गुरु परमात्मा से दूरी हो जाती है । यदि संयम धारण करके मन को स्थिर कर आत्म स्वरुप में लगा दिया जाये तो वह आठों पहर उपस्थित रहेगा । मन को एकाग्र करके सद्गुरु के नाम का प्रतिक्षण सुमिरन करते रहना चाहिए । यही मोक्ष का उत्तम मार्ग है ।

१००
माला फेरै कह भयो, हिरदा गांठि न खोय ।
गुरु चरनन चित रखिये, तो अमरापुर जोय ।।
माला फेरने से क्या होता है जब तक हृदय में बंधी गाठ को आप नहीं खोलेंगे । मन की गांठ खोलकर, हृदय को शुध्द करके पवित्र भाव से सदगुरू के श्री चरणों का ध्यान करो । सुमिरन करने से अमर पदवी प्राप्ति होगी ।

१०१
चतुराई क्या कीजिए, जो नहिं शब्द समाय ।
कोटिक गुन सूवा पढै, अन्त बिलाई जाय ।।
वह चतुराई हि किस अर्थ की जब सदगुरू के सदज्ञान के उपदेश ही हृदय में नहीं समाते । उस प्रवचन का क्या लाभ ? जिस प्रकार करोडो की बात तोता सोख्ता पढता है परन्तु अवसर मिलते ही बिल्ली उसी (तोते को) खा जाती है । ठीक उसी प्रकार सदगुरू हो ज्ञानंरुपी प्रवचन सुनकर भी अज्ञानी मनुष्य यूं ही तोते की भांति मर जाते हैं ।

१०२
साधु आवत देखि के, मन में कर मरोर ।
सो तो होसी चुहरा, बसै गांव की ओर ।।
साधु को आता हुआ देखकर जिस व्यक्ति के मन मरोड उठती है अर्थात साधु जन का आगमन भार स्वरूप प्रतीत (महसूस) होता है, वह अगले जन्म में चुडे चान्दाल का जन्म पायेगा और गांव के किनारे जाकर रहेगा । सन्तों से उसकी भेंट नहीं होगी ।

१०३
तन को जोगी सब करै, मन को करै ल कोय ।
सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय ।।
ऊपरी आवरण धारण करके हर कोई योगी बन सकता है किन्तु मन की चंचलता को संयमित करके कोई योगी नहीं बनता । यदि मन को संयमित करके योगी बने तो सहजरूप में उसे समस्त सिद्धीयां प्राप्त हो जायेंगी ।

 

१०४
मांग गये सो मर रहे, मरै जु मांगन जांहि ।
तिनतैं पहले वे मरे, होत करत है नाहिं ।।
जो किसी के घर कुछ मांगने गया, समझो वह मर गया और जो मांगने जायेगा किन्तु उनसे पहले वह मर गया जो होते हुए भी कहता है कि मेरे पास नहीं है ।

१०५
कबीर कुल सोई भला, जा कुल उपजै दास ।
जा कुल दास न ऊपजै, सो कुल आक पलास ।।
कबीर दास जो कहते हैं की उस कुल में उत्पन्न होना अति उतम है जिस कुल में गुरु भक्त और शिष्य उत्पन्न हुए हों किन्तु जिस कुल में भक्त उत्पन्न नहीं होता उस कुल में जन्म लेना मदार और पलास के पेड के समान निरर्थक है ।

१०६
पढि पढि के पत्थर भये, लिखि भये जुईंट ।
कबीर अन्तर प्रेम का लागी नेक न छींट ।।
कबीर जी ज्ञान का सन्देश देते हुए कहते हैं कि बहुत अधिक पढकर लोक पत्थर के समान और लिख लिखकर ईंट के समान अति कठोर हो जाते हैं । उनके हृदय में प्रेम की छींट भी नहीं लगी अर्थात् ‘प्रेम’ शब्द का अभिप्राय ही न जान सके जिस कारण वे सच्चे मनुष्य न बन सके ।

१०७
शब्द जु ऐसा बोलिये, मन का आपा खोय ।
ओरन को शीतल करे, आपन को सुख होय ।।
ऐसी वाणी बोलिए जिसमें अहंकार का नाम न हो और आपकी वाणी सुनकर दुसरे लोग भी पुलकित हो जाँ तथा अपने मन को भी शान्ति प्राप्त हो ।

१०८
जंत्र मंत्र सब झूठ है, मति भरमो जग कोय ।
सार शब्द जाने बिना, कागा हंस न होय ।।
जंत्र मंत्र का आडम्बर सब झूठ है, इसके चक्कर में पडकर अपना जीवन व्यर्थ न गँवाये । गूढ ज्ञान के बिना कौवा कदापि हंस नहीं बन सकता । अर्थातः- दुर्गुण से परिपूर्ण आज्ञानी लोग कभी ज्ञानवान नहीं बन सकते ।

१०९
मन मोटा मन पातरा, मन पानी मन लाय ।
मन के जैसी ऊपजै, तैसे ही हवै जाय ।।
यह मन रुपी भौरा कहीं बहुत अधिक बलवान बन जाता है तो कहीं अत्यन्त सरल बन जाता है । कहीं पानी के समान शीतल तो कहीं अग्नि के समान क्रोधी बन जाता है अर्थात जैसी इच्छा मन में उपजत हैं, यह वैसी ही रूप में परिवर्तित हो जाता हैं ।


११०
कबीर माया पापिनी, लोभ भुलाया लोग ।
पुरी किनहूं न भोगिया, इसका यही यही बिजोग ।।
कबीर जो कहते हैं कि यह माया पापिनी है । इसने लोगों पर लोभ का परदा डालकर अपने वश में कर रखा है । इसे कोई भी पुरी तऱ्ह भोग नहीं पाया अर्थात जिसने जितना भी भोगा वह अधुरा ही रह गया और यही इसका वियोग है ।

१११
काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खान ।
कबीर मूरख पंडिता, दोनो एक समान ।।
संत शिरोमणी काबीर जी मूर्ख और ज्ञानी के विषय में कहते हैं कि जब तक काम, क्रोध, मद एवम् लोभ आदि दुर्गुण मनुष्य के हृदय में भरा है तब तक मूर्ख और पंडित (ज्ञानी) दोनों एक समान है । उपरोक्त दुर्गुणों को अपने हृदय से निकालकर जो भक्ति ज्ञान का अवलम्बन करता है वही सच्चा ज्ञानी है।

११२
झूठा सब संसार है, कोऊ न अपना मीत ।
राम नाम को जानि ले, चलै सो भौजल जीत ।।
यह छल कपट, मोह, विषय आदि सब झूठे हैं । यहाँ पर सभी स्वार्थीं है कोई अपना मित्र नहीं है । जिसने राम नाम रुपी अविनाशी परमात्मा को जान लिया वह भवसागर से पार होकर परमपद को प्राप्त होगा । यही परम सत्य है ।

११३
बिरछा कबहुं न फल भखै, नदी न अंचवै नीर ।
परमारथ के कारने, साधू धरा शरीर ।।
वृक्ष अपने फल को स्वयं नही खाते, नदी अपना जल कभी नहीं पीती । ये सदैव दुसरो की सेवा करके प्रसन्न रहते हैं उसी प्रकार संतों का जीवन परमार्थ के लिए होता है अर्थात् दुसरो का कल्याण करने के लिए शरीर धारण किया है ।

 

११४
आंखों देखा घी भला, ना मुख मेला तेल ।
साधु सों झगडा भला, ना साकट सों मेल ।।
आँखों से देखा हुआ घी दर्शन मात्र भी अच्छा होता है किन्तु तेल तो मुख में डाला हुआ भी अच्छा नहीं होता । ठीक इसी तऱह साधु जनों से झगडा कर लेना अच्छा है किन्तु बुद्धिहीन से मिलाप करना उचित नहीं है ।

११५
साधु बिरछ स्त ज्ञान फल, शीतल शब्द विचार ।
जग में होते साधु नहीं, जर मरता संसार ।।
साधु जन सुख प्रदान करने वाले वृक्ष के समान है और उनके सत्यज्ञान को अमृतमयी फल समझकर ग्रहण करो । सधुओं के शीतल शब्द, मधुर विचार हैं । यदि इस संसार में साधु समझकर नहीं होते तो संसार अज्ञान की अग्नि में जल मरता ।

११६
आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह ।
यह तीनों तबही गये, जबहिं कहा कछु देह ।।
अपनी आन चली गई, यान सम्मान भी गया और आँखों से प्रेम की भावना चली गयी । ये तीनों तब चले गये जब कहा कि कुछ दे दो अर्थात आप जब कभी किसी से कुछ माँगोगे । अर्थात् भिक्षा माँगना अपनी दृष्टी से स्वयं को गिराना है अतः भिक्षा माँगने जैसा त्याज्य कार्य कदापि न करो ।

११७
कबीर संगत साधु कि, नित प्रिती कीजै जाय ।
दुरमति दूर बहावासी, देसी सुमति बताय ।।
संत कबीर दास जी कहते हैं कि सज्जन लोगों की संगत में प्रतिदिन जाना चाहिए । उनके सत्संग से र्दुबुद्धि दूर हो जाता है और सद्ज्ञान प्राप्त होता है ।

११८
कागा कोका धन हरै, कोयल काको देत ।
मीठा शब्द सुनाय के, जग अपनो करि लेत ।।
कौवा किसी का धन नहीं छीनता और न कोयल किसी को कुछ देती है किन्तु कोयल कि मधुर बोली सबको प्रिय लगती है । उसी तरह आप कोयल के समान अपनी वाणी में मिठास का समावेश करके संसार को अपना बना लो ।

११९
कर्म फंद जग फांदिया, जबतब पूजा ध्यान ।
जाहि शब्द ते मुक्ति होय, सो न परा पहिचान ।।
कर्म के फंदे में फसे हुए संसार लोक भोग विलास एवम् कामनाओं के वशी भूत होकर जब तब पूजा पाठ करना भूल गये है किन्तु जिस सत्य स्वरूप ज्ञान से मोक्ष प्राप्त हो है उसे पहचान कि नही सके ।

१२०
राजपाट धन पायके, क्यों करता अभिमान ।
पडोसी की जो दशा, सो अपनी जान ।।
राज पाट सुख सम्पत्ती पाकर तू क्यों अभिमान करता है । मोहरूपी यह अभिमान झूठा और दारूण दुःख देणे वाला है । तेरे पडोसी जो दशा हुई वही तेरी भी दशा होगी अर्थात् मृत्यु अटल सत्य है । एक दिन तुम्हें भी मरना है फिर अभिमान कैसा ?

१२१
कहा भरोसा देह, बिनसी जाय छिन मांहि ।
सांस सांस सुमिरन करो और जतन कछु नाहिं ।।
एस नश्वर शरीर का क्या भरोसा, क्षण मात्र में नष्ट हो सकता है अर्थात एक पल में क्या हो जाय, कोई भरोसा नहीं । यह विचार कर हर सांस मे सत्गुरू का सुमिरन करो । यही एकपात्र उपाय है ।

१२२
जिनके नाम निशान है, तिन अटकावै कौन ।
पुरुष खजाना पाइया, मिटि गया आवा गौन ।।
जिस मनुष्य के जीवन मी सतगुरु के नाम का निशान है उन्हें रोक सकाने की भला किसमें सामर्थ्य है, वे परम पुरुष परमात्मा के ज्ञान रुपी भंडार को पाकर जन्म मरण के भवरूपी सागर से पार उतरकर परमपद को पाते है ।

१२३
बिना सीस का मिरग है, चहूं दिस चरने जाय ।
बांधि लाओ गुरुज्ञान सूं, राखो तत्व लगाय ।।
मन रुपी मृग बिना सिर का है जो स्वच्छद रुपी से दूर दूर तक विचरण करता है । इस सद्गुरू के ज्ञान रुपी उपदेश की दोरी से बांधकर आत्म तत्व की साधन में लागाओ जो कि कल्याण का एक मात्र मार्ग है ।

१२४
सांच कहूं तो मारि हैं, झुठै जग पतियाय ।
यह जगकाली कूतरी, जो छेडै तो खाय ।।
संसार के प्राणियों के विषय में कबीर दास जी कहते हैं कि सत्य बोलने पर लोग मारने दौडते हैं और झुठ बोलने पर बडी आसानी से विश्वास कर लेते हैं । यह संसार काटने वाली काळी कुतिया के समान है जो इसे छेडता है उसे हि काट लेती है ।

१२५
सांचे को सांचा मिलै, अधिका बढै सनेह ।
झूठे को सांचा मिलै, तड दे टुटे नेह ।।
सत्य बोलने वाले को सत्य बोलने वाला मनुष्य मिलता है तो उन दोनों के मध्य अधिक प्रेम बढता है किन्तु झूठ बोलने वाले को जब सच्चा मनुष्य मिलता है तो प्रेम अतिशीघ्र टूट जाता है क्योंकि उनकी विचार धारायें विपरीत होती है ।

१२६
दीन गरीबी दीन को, दुंदुर को अभिमान ।
दुंदुर तो विष से भरा, दीन गरीबी जान ।।
सरळ हृद्य मनुष्य को दीनता, सरलता एवम् सादगी अत्यन्त प्रिय लगती है किन्तु उपद्रवी व्यक्ति अभिमान रुपी विष से भरा रहता है और विनम्र प्राणी अपनी सादगी को अति उत्तम समझता है ।

१२७
गुरु सों प्रीती निबाहिये, जेहि तत निबहै संत ।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत ।।
जिस प्रकार भी सम्भव हो गुरु से प्रेम का निर्वाह करना चाहिए और निष्काम भाव से गुरु की सेवा करके उन्हें प्रसन्न रखना चाहिए । प्रेम बिना वे दूर ही हैं । यदि प्रेम है तो वे सदैव तुम्हारे निकट रहेगें ।

१२८
सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड ।
तीन लोक न पाइये, अरु इक इस ब्राहमण्ड ।।
सम्पूर्ण संसार में सद्गुरू के समान कोई अन्य नहीं है । सातों व्दीप और नौ खण्डों में ढूंढनें पर भी गुरु के समान कोई नहीं मिलेगा । गुरु हि सर्वश्रेष्ठ है । इसे सत्य जानो ।

१२९
सतगुरु हमसों रीझि कै, कह्य एक परसंग ।
बरषै बादल प्रेम को, भिंजी गया सब अंग ।।
सद्गुरू ने मुझसे प्रसन्न होकर एक प्रसंग कहा जिसका वर्णन शब्दों में कर पाना अत्यन्त कठिन है । उनके हृद्य से प्रेम रुपी बादल उमड कर बरसने लगा और मेरा मनरूपी शरीर उस प्रेम वर्षा से भीगकर सराबोर हो गया ।

१३०
मांगन मरण समान है, तोहि दई में सीख ।
कहै कबीर समुझाय के, मति मांगै कोई भीख ।।
कबीर जी कहते है कि दुसरों हाथ फैलाना मृत्यु के समान है । यह शिक्षा ग्रहण के लो । जीवन मी कभी किसी से भिक्षा मत मांगो । भिक्षा मांगना बहुत अभ्रम कार्य है । प्राणी दुसरों कि निगाह में गिरता ही है स्वयं अपनी दृष्टि में पतित हो जाता है ।

१३१
ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत ।
सत्यवान परमार थी, आदर भाव सहेत ।।
ज्ञानी व्यक्ति कभी अभिमानी नहीं होते । उनके हृद्य में सबके हित की भावना बसी रहती है और वे हर प्राणी से प्रेम का व्यवहार करते है । सदा सत्य का पालन करने वाले तथा परमार्थ होते हैं ।

१३२
नाम रसायन प्रेम रस, पीवन अधिक रसाल ।
कबीर पीवन दुर्लभ है, मांगै शीश कलाल ।।
संत कबीर जी कहते है कि सद्गुरू के ज्ञान का प्रेम रस पीनें में बहुत ही मधुर और स्वादिष्ट होता है किन्तु वह रस सभी को प्राप्त नहीं होता । जो इस प्राप्त करने के लिए अनेकों काठीनाइयो को सहन करते हुए आगे बढता है उसे हि प्राप्त होता है क्योंकि उसके बदले में सद्गुरू तुम्हारा शीश मांगते हैं अर्थात् अहंकार का पूर्ण रूप से त्याग करके सद्गुरू को अपना तन मन अर्पित कर दो ।

१३३
प्रेम पियाला सो पिये, शीश दच्छिना देय ।
लोभी शीश न दे सकै, नाम प्रेम का लेय ।।
प्रेम का प्याला वही प्रेमी पी सकता है जो गुरु को दक्षिणा स्वरूप अपना शीश काटकर अर्पित करने को सामर्थ्य रखता हो । कोई लोभी, संसारी कामना में लिप्त मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता वह केवल प्रेम का नाम लेता है । प्रेम कि वास्तविकता का ज्ञान उसे नहीं है ।

१३४
कबीर क्षुधा है कुकरी, करत भजन में भंग ।
वांकू टुकडा डारि के, सुमिरन करूं सुरंग ।।
संत स्वामी कबीर जो कहते हैं कि भूख उस कुतिया के समान है जो मनुष्य को स्थिर नहीं रहने देती । अतः भूख रुपी कुतिया के सामने रोटी का टुकडा डालकर शान्त कर दो तब स्थिर मन से सुमिरन करो


१३५
जिन गुरु जैसा जानिया , तिनको तैसा लाभ ।
ओसे प्यास न भागसी , जब लगि धसै न आस ।।
जिसे जैसा गुरु मिला उसे वैसा ही ज्ञान रूपी लाभ प्राप्त हुआ । जैसे ओस के चाटने से सभी प्यास नहीं बुझ सकती उसी प्रकार पूर्ण सद्गुरु के बिना सत्य ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता ।

१३६
कबीर संगी साधु का दल आया भरपूर ।
इन्द्रिन को मन बांधिया , या तन कीया घूर ।।
कबीर दस जी कहते हैं कि साधुओं का दल जिसें सद्गुण , सत्य, दया , क्षमा , विनय और ज्ञान वैराग्य कहते हैं , जब ह्रदय में उत्पन्न हुआ तो उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों को वश में करके शरीर का त्याग कर दिया । अर्थात वे यह भूल गये कि मै शरीर धारी हूं ।

१३७
हरिजन तो हारा भला , जीतन दे संसार ।
हारा तो हरिं सों मिले , जीता जम के द्वार ।।
संसारी लोग जिस जीत को जीत और जिस हार को हार समझते हैं हरि भक्त उनसे भिन्न हैं । सुमार्ग पर चलने वाले उस हार को उस जीत से अच्छा समझते हैं जो बुराई की ओर ले जाते हैं । संतों की विनम्र साधना रूपी हार संसार में सर्वोत्तम हैं ।

१३८
गाली ही से उपजै, कलह कष्ट औ मीच ।
हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच ।।
गाली एक ऐसी है जिसका उच्चारण करने से कलह और क्लेश ही बढ़ता है । लड़ने मरने पर लोग उतारू हो जाते है । अतः इससे बचकर रहने में ही भलाई है । इससे हारकर जो चलता है वही ज्ञानवान हैं किन्तु जो गाली से लगाव रखता है वह अज्ञानी झगडे में फंसकर अत्यधिक दुःख पाता है ।

१३९
जो जल बाढे नाव में, घर में बाढै दाम ।
दोनों हाथ उलीचिये , यही सयानों काम ।।
यदि नव में जल भरने लगे और घर में धन संपत्ति बढ़ने लगे तो दोनों हाथ से उलीचना आरम्भ कर दो । दोनों हाथो से बाहर निकालों यही बुद्धिमानी का काम है अन्यथा डूब मरोगे । धन अधिक संग्रह करने से अहंकार उत्पन्न होता है जो पाप को जन्म देता है ।

१४०
कबीर पांच पखेरुआ , राखा पोश लगाय ।
एक जू आया पारधी , लगइया सबै उड़ाय ।।
सन्त शिरोमणि कबीर दस जी कहते है कि अपान, उदान , समान , व्यान और प्राण रूपी पांच पक्षियों को मनुष्य अन्न जल आदि पाल पोषकर सुरक्षित रखा किन्तु एक दिन काल रूपी शिकारी उड़ाकर अपने साथ ले गया अर्थात मृत्यु हो गयी ।

१४१
कबीर यह तन जात है, सकै तो ठौर लगाव ।
कै सेवा कर साधु की, कै गुरु के गुन गाव ।।
अनमोल मनुष्य योनि के विषय में ज्ञान प्रदान करते हुए सन्त जी कहते है कि हे मानव ! यह मनुष्य योनि समस्त योनियों उत्तम योनि है और समय बीतता जा रहा है कब इसका अन्त आ जाये , कुछ नहीं पता । बार बार मानव जीवन नहीं मिलता अतः इसे व्यर्थ न गवाँओ । समय रहते हुए साधना करके जीवन का कल्याण करो । साधु संतों की संगति करो,सद्गुरु के ज्ञान का गुण गावो अर्थात भजन कीर्तन और ध्यान करो ।

१४२
बेटा जाये क्या हुआ , कहा बजावै थाल ।
आवन जावन होय रहा , ज्यों कीड़ी की नाल ।।
पुत्र के उत्पन्न होने पर लोग खुशियां मानते है ढोल बजवाते हैं । ऐसी ख़ुशी किस लिए । संसार में ऐसा आना जाना लगा ही रहता है जैसे चीटियों की कतार का आना जाना ।

१४३
सहकामी दीपक दसा , सीखै तेल निवास ।
कबीर हीरा सन्त जन , सहजै सदा प्रकाश ।।
विषय भोग में सदा लिप्त रहने वाले मनुष्यों की दशा जलते हुए उस दीपक के समान है जो अपने आधार रूप तेल को भी चूस लेता है जिससे वह जलता है ।कबीर दास जी कहते है कि सन्त लोग उस हीरे के समान है जिनका प्रकाश कभी क्षीण नहीं होता । वे अपने ज्ञान के प्रकाश से जिज्ञासु के ह्रदय को प्रकाशित करते है ।

१४४
मोह सलिल की धार में, बहि गये गहिर गंभीर ।।
सूक्ष्म मछली सुरति है, चढ़ती उल्टी नीर ।।
मोहरूपी जल की तीव्र धारा में बड़े बड़े समझदार और वीर बह गये , इससे पार न पा सके । सूक्ष्म रूप से शरीर के अन्दर विद्यमान सुरति एक मछली की तरह है जो विपरीत दिशा ऊपर की ओर चढ़ती जाती है । इसकी साधना से सार तत्व रूपी ज्ञान की प्राप्ती होती है ।

१४५
गुरु को कीजै दण्डवत , कोटि कोटि परनाम ।
कीट न जाने भृंग को, गुरु कर ले आप समान ।।
गुरु के चरणों में लेटकर दण्डवत और बार बार प्रणाम करो । गुरु की महिमा अपरम्पार है, जिस तरह कीड़ा भृंग को नहीं जानता किन्तु अपनी कुशलता से स्वयं को भृंग के समान बना लेता है उसी प्रकार गुरु भी अपने ज्ञान रूपी प्रकाश के प्रभाव से शिष्य को अपने सामान बना लेते है ।

१४६
सतगुरु मिले तो सब मिले , न तो मिला न कोय ।
मात पिता सूत बांधवा , ये तो घर घर होय ।।
कबीर दस जी कहते है की सद्गुरु मिले तो जानो सब कोई मिल गये , कुछ मिलने को शेष नहीं रहा । माता-पिता , भाई-बहन , बंधू बांधव तो घर घर में होते है । सांसरिक रिश्तों से सभी परिपूर्ण हैं । सद्गुरु की प्राप्ती सभी को नहीं होती ।

१४७
सहज मिलै सो दूध है, मांगि मिलै सो पानि ।
कहैं कबीर वह रक्त है, जामें ऐंचातानि ।।
जो बिना मांगे सहज रूप से प्राप्त हो जाये वह दूध के समान है और जो मांगने पर प्राप्त हो वह पानी के समान है और किसी को कष्ट पहुंचाकर या दु:खी करके जो प्राप्त हो वह रक्त के समान है । उपरोक्त का निरूपण करते हुण कबीरदास जी कहते है ।

१४८
जो जागत सो सपन में , ज्यौं घट भीतर सांस ।
जो जन जाको भावता, सो जन ताके पास ।।
जिस प्रकार जो सांसे जाग्रत अवस्था में हैं वही सांसें सोते समय स्वप्न अवस्था में घट के अन्दर आता जाता है उसी प्राकर जो जिसका प्रेमी है, वह सदा उसी के पास रहता है । किसी भी अवस्था में दूर नहीं होता ।

१४९
जीवत कोय समुझै नहिं , मुवा न कह संदेस ।
तन मन से परिचय नहीं , ताको क्या उपदेश ।।
जीवित अवस्था में कोई ज्ञान का उपदेश और सत्य की बातें सुनता नहीं । मर जाने पर उन्हें कौन उपदेश देने जायेगा । जिसे अपने तन मन की सुधि ही नहीं है उसे उपदेश देने से क्या लाभ ?

१५०
शब्द सहारे बोलिये , शब्द के हाथ न पाव ।
एक शब्द औषधि करे , एक शब्द करे घाव ।।
मुख से जो भी बोलो, सम्भाल कर बोलो कहने का तात्पर्य यह कि जब भी बोलो सोच समझकर बोलो क्योंकि शब्द के हाथ पैर नहीं होते किन्तु इस शब्द के अनेकों रूप हैं। यही शब्द कहीं औषधि का कार्य करता है तो कहीं घाव पहूँचाता है अर्थात कटु शब्द दुःख देता है ।

१५१
यह तन कांचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ ।
टपका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथ ।।
यह शरीर मिटटी के कच्चे घड़े के समान है जिसे हम अपने साथ लिये फिरते है और काल रूपी पत्थर का एक ही धक्का लगा, मिटटी का शरीर रूपी घड़ा फुट गया । हाथ कुछ भी न लगा अर्थात सारा अहंकार बह गया । खाली हाथ रह गये ।

१५२
जिभ्या जिन बस में करी , तिन बस कियो जहान ।
नहिं तो औगुन उपजे, कहि सब संत सुजान ।।
जिन्होंने अपनी जिह्वा को वश में कर लिया , समझो सरे संसार को अपने वश में कर लिया क्योंकि जिसकी जिह्वा वश में नहीं है उसके अन्दर अनेकों अवगुण उत्पन्न होते है । ऐसा ज्ञानी जन और संतों का मत है ।

१५३
काल पाय जग उपजो , काल पाय सब जाय ।
काल पाय सब बिनसिहैं , काल काल कहं खाय ।।
काल के क्रमानुसार प्राणी की उत्पत्ति होती है और काल के अनुसार सब मिट जाते हैं । समय चक्र के अनुसार निश्चित रुप से नष्ट होना होगा क्योंकि काल से निर्मित वस्तु अन्ततः कालमें ही विलीन हो जाते हैं ।

१५४
काम काम सब कोय कहै , काम न चीन्है कोय ।
जेती मन की कल्पना , काम कहावै सोय ।।
काम शब्द का मुख से उच्चारण करना बहुत ही आसान है परन्तु काम की वास्तविकता को लोग नहीं पहचानते । उसके गूढ़ अर्थ को समझने का प्रयास नहीं करते । मन में जितनी भी विषय रूपी कल्पना है वे सभी मिलकर काम ही कहलाती हैं ।

१५५
बहुत जतन करि कीजिए , सब फल जाय न साय ।
कबीर संचै सूम धन , अन्त चोर लै जाय ।।
कबीरदास जी कहते है कि कठिन परिश्रम करके संग्रह किया गया धन अन्त में नष्ट हो जाता है जैसे कंजूस व्यक्ति जीवन भार पाई पाई करके धन जोड़ता है अन्त में उसे चोर चुरा ले जाता है अर्थात वह उस धन का उपयोग भी नहीं कर पाता ।

१५६
कबीर औंधी खोपड़ी , कबहूं धापै नाहिं ।
तीन लोक की संपदा कब आवै घर मांहि ।।
मनुष्य की यह उल्टी खोपड़ी कभी धन से तृप्त नहीं होती बल्कि जिसके पास जितना अधिक धन होता है उसकी प्यास उतनी ही बढती जाती है । लोभी व्यक्ति के मन में सदैव यही भावना होती है कि कब तीनों लोको की संपत्ति हमारे घर आयेगी ।

१५७
साधु ऐसा चाहिए , जाका पूरा मंग ।
विपत्ति पडै छाडै नहीं , चढै चौगुना रंग ।।
साधु ऐसा होना चाहिए जिसका मन पूर्ण रूप से संतुष्ट हो । उसके सामने कैसा भी विकट परिस्थिति क्यों न आये किन्तु वह तनिक भी विचलित न हो बल्कि उस पर सत्य संकल्प का रंग और चढ़े अर्थात संकल्प शक्ति घटने के बजाय बढे ।

१५८
बहुता पानी निरमला , जो टुक गहिरा होय ।
साधु जन बैठा भला , जो कुछ साधन होय ।।
बहता हुआ पानी निर्मल और स्वच्छ है किन्तु रुका हुआ पानी भी स्वच्छ हो सकता है यदि थोडा गहरा हो इसी तरह बैठे हुए साधु भी अच्छे हो सकते हैं यदि वे साधना की गहराई से परिपूर्ण हो अर्थात ध्यान भजन, पूजा पाठ का ज्ञान हो ।

१५९
साधु आवत देखि कर , हंसी हमारी देह ।
माथा का गहर उतरा , नैनन बढ़ा स्नेह ।।
साधु संतों को आता हुआ देखकर यदि हमारा मन प्रसन्नता से भार जाता है तो समझो हमारे सारे कुलक्षण दूर हो गये । साधु संतों की संगति बहुत बड़े भाग्यशाली को प्राप्त होती है ।

१६०
कबीर हरिरस बरसिया , गिरि परवत सिखराय ।
नीर निवानू ठाहरै , ना वह छापर डाय ।।
सन्त कबीर दस जी कहते है की चाहे वह परवत हो या ऊँचा नीचा धरातल अथवा समतल मैदान , बरसात हर स्थानों पर समान रूप से होती है किन्तु पानी हर स्थान पर नहीं ठहरता , गड्ढे या तालाबों में ही रुक सकता है उसी तरह सद्गुरु का ज्ञान प्रत्येक प्राणी के लिए होता है किन्तु सच्चे जिज्ञासु ही ग्रहण कर सकते है ।

१६१
गुरु बिन माला फेरते , गुरु बिन देते दान ।
गुरु बिन सब निष्फल गया , पूछौ वेद पुरान ।।
गुरु बिना माला फेरना पूजा पाठ करना और दान देना सब व्यर्थ चला जाता है चाहे वेद पुराणों में देख लो अर्थात गुरुं से ज्ञान प्राप्त किये बिना कोई भी कार्य करना उचित नहीं है ।

१६२
क्यों नृपनारी निन्दिये , पनिहारी को मान ।
वह मांग संवारे पीवहित , नित वह सुमिरे राम ।।
राजाओं महाराजाओं की रानी की क्यों निन्दा होती है और हरि का भजन करने वाली की प्रशंसा क्यों होती है ? जरा इस पर विचार कीजिए । रानी तो अपने पति राजा को प्रसन्न करने के लिए नित्य श्रुंगार करके अपनी मांग सजाती है जबकि हरि भक्तिन घट घट व्यापी प्रभु राम नाम की सुमिरण करती है ।

१६३
साधु दर्शन महाफल , कोटि यज्ञ फल लेह ।
इक मन्दिर को का पड़ी , नगर शुद्ध करि लेह ।।
साधु संतों का दर्शन महान फलदायी होता है, इससे करोड़ो यज्ञों के करने से प्राप्त होने वाले पूण्य फलों के बराबर फल प्राप्त होता है । सन्तो का दर्शन , उनके दर्शन के प्रभाव से एक मन्दिर नहीं, बल्कि पूरा नगर पवित्र और शुद्ध हो जाता है । सन्तों के ज्ञान रूपी अमृत से अज्ञानता का अन्धकार नष्ट हो जाता है ।

१६४
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।
दोऊ चुकि खाली पड़े , ताको वार न पार ।।
साधु को वैरागी और संसारी माया से विरक्त होना चाहिए और गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रही प्राणी को उदार चित्त होना चाहिए । यदि ये अपने अपने गुणों से चूक गये तो वे खाली रह जायेगे । उनका उद्धार नहीं होगा ।

१६५
माला तिलक तो भेष है, राम भक्ति कुछ और ।
कहैं कबीर जिन पहिरिया , पाँचो राखै ठौर ।।
माला पहनना और तिलक लगाना तो वेश धारण करना है, इसे वाह्य आडम्बर ही कहेंगे । राम भक्ति तो कुछ और ही है । राम नाम रूपी आन्तरिक माला धारण करता है, वह अपनी पाँचों इन्द्रियों को वश में करके राम माय हो जाता है ।

१६६
कबीर गुरु कै भावते , दुरही से दीसन्त ।
तन छीना मन अनमना , जग से रूठी फिरन्त ।।
सन्त शिरोमणि कबीर दास जी कहते है कि सद्गुरु के लक्षण दूर से ही दिखायी देते है । उनके शरीर जप तप , त्याग तपस्या से दुर्बल और मन व्याकुल सा रहता है । उनका मन विषयों से दूर और संसार से रूठे हुए उदास अवस्था में घुमते रहते है । यही संतों की पहचान है अर्थात सांसरिक मोह से दूर रहते है ।

१६७
यह तो घर है प्रेम का ऊँचा अधिक इकंत ।
शीष काटी पग तर धरै , तब पैठे कोई सन्त ।।
यह प्रेम रूपी घर अधिक ऊँचा और एकांत में बना हुआ है । जो अपना सिर काटकर सद्गुरु के चरणों में अर्पित करने की सामर्थ्य रखता हो वही इसमें आकर बैठ सकता है अर्थात प्रेम के लिए उत्सर्ग की आवश्यकता होती है ।

१६८
सबै रसायन हम पिया , प्रेम समान न कोय ।
रंचन तन में संचरै , सब तन कंचन होय ।।
मैंने संसार के सभी रसायनों को पीकर देखा किन्तु प्रेम रसायन के समान कोइ नहीं मिला । प्रेम अमृत रसायन के अलौकिक स्वाद के सम्मुख सभी रसायनों का स्वाद फीका है । यह शरीर में थोड़ी मात्रा में भी प्रवेश कर जाये तो सम्पूर्ण शरीर शुद्ध सोने की तरह अद्भुत आभा से चमकने लगता है अर्थात शरीर शुद्ध हो जाता है ।

१६९
करता था तो क्यौं रहा, अब करि क्यौं पछताय ।
बोवै पेड़ बबूल का, आम कहां ते खाय ।।
जब तू बुरे कार्यो को करता था , संतों के समझाने पर भी नहीं समझा तो अब क्यों पछता रहा है । जब तूने काँटों वाले बबूल का पेड़ बोया तो बबूल ही उत्पन्न होंगें आम कहां से खायगा । अर्थात जो प्राणी जैसा करता है, कर्म के अनुसार ही उसे फल मिलता है ।

१७०
दुनिया के धोखें मुआ , चला कुटुम्ब की कानि ।
तब कुल की क्या लाज है , जब ले धरा मसानि ।।
सम्पूर्ण संसार स्वार्थी है । स्वार्थ की धोखा धड़ी में ही जीव मरता रहा और संसारी माया के बंधनों में जकड़ा रहा । तुम्हारे कुल की लज्जा तब क्या रहेगी जब तुम्हारे शव को ले जाकर लोग शमशान में रख देंगे ।

१७१
अहिरन की चोरी करै , करे सुई का दान ।
उंचा चढी कर देखता , केतिक दूर विमान ।।
अज्ञानता में भटक रहे प्राणियों को सचेत करते हुए कबीरदास जी कहते है – ए अज्ञानियों । अहरन की चोरी करके सुई का दान करता है । इतना बड़ा अपराध करने के बाद भी तू ऊँचाई पर चढ़कर देखता है कि मेरे लिए स्वर्ग से आता हुआ विमान अभी कितना दूर है । यह अज्ञानता नहीं तो और क्या है ?

१७२
कोई आवै भाव लै , कोई अभाव ले आव ।
साधु दोऊ को पोषते , भाव न गिनै अभाव ।।
कोई व्यक्ति श्रद्धा और प्रेम भाव लेकर संतों के निकट जाता है तो कोई बिना भाव के जाता है । किन्तु संतजनों की दृष्टी में कोई अन्तर नहीं पड़ता वे दोनों को समान दृष्टी से देखते है । न तो वे किसी के प्रेम भाव को गिनते है और न ही अभाव को अर्थात अपनी दया दृष्टी से दोनों को पोषण करते हैं ।

१७३
रक्त छोड़ पय हो गहै , ज्यौरे गऊ का बच्छ ।
औगुण छांडै गुण गहै , ऐसा साधु का लच्छ ।।
गाय के थन में दूध और खून दोनों होता है किन्तु बछड़ा जब मुंह लगाता है तो वह खून नहीं पीता बल्कि सिर्फ दूध ही ग्रहण करता है ठीक ऐसे ही लक्षण से साधुजन परिपूर्ण होते हैं । वे दूसरों के अवगुणों को ग्रहण नहीं करते उनके सद्गुणों को ही धारण करते है ।

१७४
सब वन तो चन्दन नहीं , शुरा के दल नाहिं ।
सब समुद्र मोती नहीं , यों साधू जग माहिं ।।
सारा वन चन्दन नहीं होता, सभी दल शूरवीरों के नहीं होते, सारा समुद्र मोतियों से नहीं भरा होता इसी प्रकार संसार में ज्ञानवान विवेकी और सिद्ध पुरुष बहुत कम होते है ।

१७५
आसन तो एकान्त करै , कामिनी संगत दूर ।
शीतल संत शिरोमनी , उनका ऐसा नूर ।।
सन्तो का कहना है कि आसन एकान्त में लगाना चाहिए और स्त्री , की संगत से दूर रहना चाहिए । सन्तों का मधुर स्वभाव ऐसा होता है कि वे सबके पूज्य और शिरोमणि होते है ।

१७६
संगत कीजै साधु की, कभी न निष्फल होय ।
लोहा पारस परसते , सो भी कंचन होय ।।
सन्तो के साथ रहना, उनके वचनों को ध्यानपूर्वक सुनना तथा उस पर अमल करना हितकारी होता है । सन्तों की संगति करने से फल अवश्य प्राप्त होता है जिस प्रकार पारसमणि के स्पर्श से लोहा भी सोना हो जाता है उसी प्रकार साधुओं के दिव्य प्रभाव से साधारण मनुष्य पूज्यनीय हो जाता है ।

१७७
छिनहिं चढै छिन उतरै , सों तो प्रेम न होय ।
अघट प्रेमपिंजर बसै , प्रेम कहावै सोय ।।
वह प्रेम जो क्षण भर में चढ़ जाता है और दुसरे क्षण उतर जाता है वह कदापि सच्चा प्रेम नहीं हो सकता क्योंकि सच्चे प्रेम का रंग तो इतना पक्का होता है कि एक बार चढ़ गया तो उतरता ही नहीं अर्थात प्रेम वह है जिसमें तन मन रम जाये ।

१७८
जब मै था तब गुरु नहीं , अब गुरु है मैं नाहिं ।
प्रेम गली अति सांकरी , तामें दो न समांही ।।
जब अहंकार रूपी मैं मेरे अन्दर समाया हुआ था तब मुझे गुरु नहीं मिले थे , अब गुरु मिल गये और उनका प्रेम रस प्राप्त होते ही मेरा अहंकार नष्ट हो गया । प्रेम की गली इतनी संकरी है कि इसमें एक साथ दो नहीं समा सकते अर्थात गुरु के रहते हुए अहंकार नहीं उत्पन्न हो सकता ।

१७९
कबीर सुमिरण सार है , और सकल जंजाल ।
आदि अंत मधि सोधिया, दूजा देखा काल ।।
संत कबीर जी कहते है की प्रभु का ध्यान सुमिरन , भजन, कीर्तन और आत्म चिन्तन ही परम सत्य है, बाकी सब झूठा है । आदि अन्त और मध्य के विषय में विचार करके सब देख लिया है । सुमिरन के अतिरिक्त बाकी सब काल के चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं ।

१८०
कुल करनी के कारनै , हंसा गया बिगोय ।
तब कुल काको लाजि है, चारिपांव का होय ।।
कुल की मर्यादा के मोह में पड़कर जीव पतित हो गया अन्यथा यह तो हंस स्वरुप था , किन्तु उसे भूलकर अदोगति में पड़ गया । उस समय का तनिक ध्यान करो जब चार पैरों वाला पशु बनकर आना होगा । तब कुल की मान मर्यादा क्या होगी ? अर्थात अभी समय है , शुभ कर्म करके अपनी मुक्ति क उपयोग करो ।

१८१
सार शब्द जानै बिना , जिन पर लै में जाय ।
काया माया थिर नहीं, शब्द लेहु अरथाय ।।
सार तत्व को जाने बिना यह जीव प्रलय रूपी मृत्यु चक्र में पड़कर अत्यधिक दुःख पाता है । मायारूपी धन संपत्ति और पंचत्तत्वों में मिल जायेगा और धन संपत्ति पर किसी अन्य का अधिकार हो जायेगा । अतः काया और माया का अर्थ जानकर उचित मार्ग अपनाये ।

१८२
क्रिया करै अंगूरी गिनै , मन धावै चहु ओर ।
जिहि फेरै सांई मिलै , सों भय काठ कठोर ।।
जप करते समय अंगुली पर जप की गणना करते है कि मैंने कितनी बार नाम पाठ किया किन्तु उस समय भी उनका चंचल मन चारों ओर दौड़ता है, स्थिर नहीं रहता । ऐसे सुमिरन से क्या लाभ ? जब तुम अपने मन रूपी मयूर को स्थिर नहीं रख सकते तप अविनाशी प्रभु रम के दर्शन की इच्छा कैसे करते हो? मन तो सुखी लकड़ी के समान कठोर हो गया है अर्थात प्रभु के दर्शनों के लिए मन को शुद्ध करना होगा तथा मन की चंचलता को रोकना होगा ।

१८३
यह मन ताको दीजिए, सांचा सेवक होय ।
सर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ।।
अपना सत्य ज्ञान रुपी अमृत उसको प्रदान करें जो सेवा करना जानता हो अर्थात् सच्चे सेवक को ज्ञान दें । यदि सिर के ऊपर आरा भी चलता है तो वह प्रसन्नपूर्वक सहन कर लें । तात्पर्य यह कि निष्ठापूर्वक सेवा करने वाले ही ज्ञान प्राप्त करने के पात्र है ।
१८४
तन मन ताको दीजिए, जाको विषय नाहिं ।
आपा सब ही डारि के, राखै साहिब मांहि ।।
अपना तन मन उस गुरु के चरणों में अर्पित करें जो संसारिक विषय विकारों से मुक्त हो । जो पूर्ण रूप से अहंकार मुक्त और आत्मतत्व का ज्ञाता हो । ऐसे गुरु ही आत्म साक्षात्कार कैरा सकते है ।

१८५
अधिक सनेही माछरी, दूजा अपल सनेह ।
जबहि जलते बिछुरै, तब ही त्यागै देह ।।
मछली का बहुत अधिक प्रेम जल से होता है ।
उसके समान प्रेमी कम ही मिलते हैं ।
मछली जब भी जल से बिछुडती है, वह तडप तडप कर जल के लिए अपने प्राण त्याग देती है । ठीक मछली की भांति सच्चा प्रेम करना चाहिए ।

१८६
सुमिरण मारग सहज का, सतगुरु दिया बताय ।
सांस सांस सुमिरण करूं, इक दिन मिलसी आय ।।
सुमरीन करने का बहुत ही सरल मार्ग सद्गुरू ने बता दिया है । उसी मार्ग पर चलते हुए मैं सांस सांस में परमात्मा का सुमिरन करता हूं जिससे मुझे एक दिन उनके दर्शन निश्चित ही प्राप्त होगें । अर्थात् सुमिरन प्रतिदिन की साधना हैं जो भक्त को उसके लक्ष्य की प्राप्ति करती है ।

१८७
बिना सांच सुमिरन नहीं, बिन भेदी भक्ति न सोय ।
पारस में परदा रहा, कस लोहा कंचन होय ।।
बिना सत्य ज्ञान के सुमिरन नहीं होता, बिना गुरु के भक्ति नहीं होती अर्थात् सद्गुरू के बिना सार रहस्य कौन बताये और बताये जब तक सार रहस्य का ज्ञान नहीं होता सुमिरन करना निरर्थक है जैसे पारसमणि पर परदा पडा है तो उसके स्पर्श से लोहा कदापि सोना नहीं बन सकता । वह परदा ही दोष है उसी प्रकार यदि मन में, ज्ञान का अभाव है तो साधना सफल नहीं हो सकता ।

१८८
ऊजल पाहिनै कपडा, पान सुपारी खाय ।
कबीर गुरु की भक्ति बिन, बांधा जमपूर जाय ।।
सफेद रंग के सुन्दर कपडे पहनना और पान सुपारी खाना, यह पहनावा और दर्शन व्यर्थ है संत कबीर दास जी कहते हैं कि जो प्राणी सद्गुरू की भक्ति नहीं करता और विषय वासनाओं में लिप्त रहता है उसे यमदूत अपने पाशों नरक रुपी यातनाएँ सहना होता है ।

१८९
बालपन भोले गया, और जुवा महमंत ।
वृध्दपने आलस गयो, चला जरन्ते अन्त ।।
बाल्यकाल भोलेपन में व्यतीत हो गया अर्थात् अनजान अवस्था में बीत गया युवावस्था आयी तो विषय वासनाओं में गुजार दिया तथा वृद्धावस्था आई तो आलस में बीत गयी और अन्त समय में मृत्यु हो गयी और शरीर चिता पर जलने के लिए तैयार है ।

१९०
भक्ति बिगाडी कामिया, इन्द्रीन केरे स्वाद ।
हीरा खोया हाथ सों, जन्म गंवाया बाद ।।
विषय भोगों के चक्कर में पडकर कामी मूर्ख मनुष्यों ने इन्द्रीयों को अपने वश में नहीं किया और सर्वहित साधन रूपी भक्ति को बिगाड दिया अर्थात् अनमोल हीरे को गंवाकर सारा जीवन व्यर्थ में गुजार दिया ।

१९१
जनोता बूझा नहीं, बुझि किया नहीं गौन ।
अंधे को अंधा मिला, राह बतावै कौन ।।
जो सद्गुरू की शरण में पहुँचे कर भी सन्मार्ग पर नहीं चला । कल्याण का मार्ग सन्मुख होते हुए भी आगे नहीं बढा अर्थात् जान बूझकर उसने भूल कि उसके बाद ऐसे व्यक्ति से मिला जो स्वयं अज्ञानी था । तो फिर मार्ग कौन बताये क्योंकि दोनों अंधकार रुपी अंधेपन के कारण भटक रहे थे ।

१९२
आगे अन्धा कूप इस्तरी, दूजा लिया बुलाय ।
दोनों डुबे बापुरे, निकसे कौन उपाय ।।
अज्ञानता के अंधकार में भटकता हुआ गुरु भ्रमकूप मे स्वयं तो पडा ही था अपने शिष्य को भी बुला लिया और दोनो भ्रम कूप में डूब गये । उनके बाहर निकलने का कोई उपाय ही नहीं है । ऐसे गुरु और शिष्य का कभी कल्याण ही नहीं हो सकता । ये सदैव भौतिक पाया पोह के बन्धन में रहेगे । उबर नहीं सकते ।

१९३
मात पिता सुत इस्तरी, आलस बन्धू कानि ।
साधु दरश को जब चलै, ये अटकावै खानि ।।
जब आप साधु संतों का दर्शन प्राप्त करने कि इच्छा से चलने को तैयार होंगे उस समय माता-पिता, पुत्र-स्त्री, भाई आदि तुम्हें रोकेंगे । ये माया मोह रुपी रिश्ते ही सबसे बडे बाधक है ।

१९४
दुख सुख एक समान है, हरश शोक नहीं व्याप ।
उपकारी निह कामता, उपजै छोह न ताप ।।
सन्त जन सदैव एक समान राहते हैं, उनके लिए सुख-दुख, शोक सन्ताप और प्रसन्नता में कोई अन्तर नहीं है । उपरोक्त व्यथा से रहित साधुजन सदा दुसरों का उपकार करते हैं और स्वयं निष्काम होते हैं । उनके हृद्य में कभी क्रोध का वास नहीं होता । साधुजनों का हृद्य शीतल और मन निर्मल होता है ।

१९५
बहता पानी निरमला, बन्धा गन्दा होय ।
साधु जन रमता भला, दाग न लागै कोय ।
निरन्तर भटा हुआ जल स्वच्छ होय है किन्तु एक स्थान पर रूपा हुआ जल गन्दा होता है । ठीक इसी प्रकार सन्तों की ज्ञान वाणी जितनी तीव्रता से प्रवाहित होती है उतना ही जन कल्याण होता है और विचरण करते हुए उन्हें मोह रुपी दोष कलुषित ।

१९६
दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव ।
ये ते लक्षण साधु के, कहै कबीर सदभाव ।।
दया, विनम्रता, बन्दगी और शील, सत्यभाव आदि सन्तों के शुभ लक्षण हैं । इन सुखदायी लक्षणों के कारण के कारण ही सन्तजन सर्वत्र पूज्यनीय होते हैं ।

१९७
चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस ।
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पडे काल के फंस ।।
चाल तो बुगले की चलते हैं और स्वयं को हंस कहलाना पसंद करते हैं । ऐसे अज्ञानी भला किस तरह ज्ञान रुपी मोती को चुग सकेगें । इस तरह के प्राणी अज्ञान रुपी अंधकार में फंसकर सदा जीवन-मरण के चक्कर में उलझे रहेंगे । उनकी मुक्ति नहीं हो सकती ।

१९८
दर्शन को तो साधु हैं, सुमिरन को गुरु नाम ।
तरने को आधीनता, डूबन को अभिमान ।।
दर्शन के लिए साधु सन्तों का दर्शन उत्तम माना जाता है और चिन्तन के लिए गुरु व्दारा बताये गये नाम-मंत्र का जप । इस संसार रूपी भव से पार उतरने के लिए विनम्र होना अति आवश्यक है और डूब मरणे के लिए अहंकार । अहंकार वह कटू चीज है जिसने बडे बडे महाराथियों को गर्त में मिला दिया ।

१९९
कहता हूं कहि जात हूं, कहूं बजाये ढोल ।
श्वास खाली जात है, तीन लोक का मोल ।।
संसारी मनुष्यों को सचेत करते हुए कबीर दास जी कहते है को ढोल पीट पीट कर कहता हूं, सद्गुरू के सुमिरन के बिना प्रत्येक श्वास खाली जा रही है । इसका सदुपयोग करो । सुमिरन करो, बिना सुमिरन के जीवन व्यर्थ है । जो समय बीता जा रहा है, जो सांसें पुरी हो रही हैं वी पुनः लौटकर नहीं आयेगी । अब भी समय है । ध्यान दो और सुमिरन करो ।

२००
जाकी पूंजी सांस है, छिन आवै दिन जाय ।
ताको ऐसा चाहिए, रहे नाम लौ लग्न ।।

जिसका अनमोल धन श्वास है जिन्हें भली प्रकार ज्ञात है कि यह क्षण में आती है और दुसरे क्षण चली जाती है उसे प्रतिपल सावधान रहना चाहिए तथा परमात्मा के नाम का सुमिरन करना चाहिए अर्थात् मृत्यु कब आ जाये यह किसी को ज्ञान नहीं है किन्तु मृत्यु से पूर्व यदि आपने परमात्मा का ध्यान भजन किया है तो आपका निश्चित रूप से कल्याण होगा ।


२०१
मांगन का भल बोलनो, चोर न को भल चूप ।
माली को भल बरसनो, धोबी को भल धूप ।।
जो भिक्षा माँगता है उसके किए बोलना अच्छा है क्योंकि बोलने से ही उसे भिक्षा मिलेगी । चोरो के लिए चूप रहना अच्छा है, यदि वह भूलवश भी बोल दिया तो पकडा जायेगा । माली जो पुष्प वाटिका लगाता है उसके लिए वर्षा अच्छी है और धोबी के लिए धूप अच्छी है ।

२०२
काम क्रोध तृष्णा तजै, तजै मान अपमान ।
सद्गुरू दाया जाहि पर, जम सिर मरदेमान।।
काम, क्रोध, मद, लोभ, आदि का मन से त्याग करके जो प्राणी सद्गुरू के बताये हुए मार्ग पर चलता है । मान अपमान से रहित होकर गुरु की सेवा करता है और उनके बच्चो का पालन करता है, ऐसे प्राणी मृत्यु तक को जीतने मे समर्थ हो जाते है ।

२०३
कबीर मन्दिर लाख का, जडिया हीरा लाल ।
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायेगा काल ।।
संत कबीर जी कहते है कि यह शरीर लाख के बने हुए मन्दिर के समान है जिसमें गुणरूपी हीरे, पन्ने और लाल जडे हुए है जिस कारण अत्यन्त सुन्दर लगता है किन्तु इसका दिखावा कुछ दिनों का ही है । अन्त में काल कवलित होकर नष्ट हो जायेगा ।

२०४
साधू भुखा भाव का, धन का भूखा नाहिं ।
धन का भुखा जो फिरै, सो ती साधू नाहिं ।।
साधू संत प्रेम रुपी भाव के भूखे होते है, उन्हें धन की अभिलाषा नहीं होती किन्तु जो धन के भिखे होते हैं । जिसके मन में धन प्राप्त करने कि इच्छा होती है वे वास्तव में साधु है ही नहीं ।

२०५
कुलवंता कोटिक मिले, पंडित कोटि पचीस ।
सुपच भक्त की पनही में, तुलै न काहू शीश ।।
उत्तम कुल में उत्पन्न चाहे करोडो व्यक्ति मिले और शास्त्र आदि के ज्ञानि विव्दान चाहे पचीस करोड मिले परन्तु भक्त चाहे भंगी ही क्यों न हो, उसके पैर के जूते में किसी का सिर नहीं तुल सकता तात्पर्य यह कि भक्ति की महिमा के सामने सभी तुच्छ है ।

२०६
घर में रहै तो तो भक्ति करू, नातर करूं बैराग ।
बैरागी बन्धन करें, ताकाबडा अभाग ।।
घर में रहकर साधु सन्तों की सेवा और भक्ति करना चाहिए अन्यथा घर का त्याग करके बैराग्य जीवन बिताना चाहिए । जो बैरागी होकर भी संसारिक माया बन्धनों में जकडा रहता है उसका बहुत बडा दुर्भाग्य है ।


२०७
कोटिन चन्दा उगहीं, सूरज कोटि हजार ।
तीमिर तो नाश नहीं, बिन गुरु वीर अंधार ।।
करोड़ चन्द्रमा उदित हो जाय, करोडो सूर्य अपना प्रकाश फैलायें किन्तु हृदय के अज्ञान रुपी अन्धकार को नष्ट करके प्रकाश नहीं के सकते । हृदय के अन्धकार को गुरु ही मिटा सकता है । गुरु ज्ञान के बिना चारों और अंधेरा छाया रहता है ।

२०८
साधु आया पाहुना, मांगै चार रतन ।
धुनी पानी साथरा, सरधा सेती अन ।।
सन्तजन रिश्तेदारों की तरह आते हैं और भक्तों से धूप दीप, जल आसन और श्रद्धा रुपी चार रत्नों की मांगे करतै हैं और सेवक को यह सर्वथा उचित हैं कि गुरु के आगमन पर श्रद्धा एवम् भक्ति पूर्वक उनका सत्कार करे ।

२०९
साधु बडे परमारथी, घर ज्यों बरसे आय ।
तपन बूझावैं और की, अपनो पारस लाय ।।
साधु सदैव परमारथ करते हैं अर्थात् परोपकारी होते है जिस प्रकार बादल पानी बरसाकर अनेकों प्राणियों की प्यास बुझाते हैं उसी तरह साधुजन अपने ज्ञान रुपू जल की वर्षा करके सबको तृत्प करते हो और अपने स्पर्श से सुख प्रदान करते हैं ।

२१०
मथुरा काशी व्दारिका हरीव्दार जगन्नाथ ।
साधु संगति हरिभजन बिन, कछु न आवै हाथ ।।
मथुरा, काशी, व्दारिकापुरी, हरीव्दार और जगन्नाथ आदि प्रसिध्द तीर्थ स्थलों पर भ्रमण करने से कुछ नहीं होता । जब तक साधु जनों कि सत्सगंति नही प्राप्त होगी, प्रभू के नाम का ध्यान भजन नहीं करोगें तब तक कुछ भी हाथ नहीं आयेगा । तुम्हारा भ्रमण करना व्यर्थ होगा ।

२११
कबीर संगतिसाधु की, जो करि जाने कोय ।
सकल विराछ चन्दन भये, बास न चन्दन होय ।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि साधु जनों की संगति करने वाला ही उनके गुण को जानता है ठीक उसी प्रकार जैसे चन्दन वृक्ष के निकट यासे सभी वृक्ष चन्दन के हो जाते है किन्तु वांस का पेड़ चन्दन नहीं होता क्यों कि वह अन्दर से खोखला और ऊपर से कठोर होता हैं अर्थात् जो अभिमान होते हैं उन पर सत्संग का कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।

२१२
माला फेरत युग गया, मिटा ना मन का फेर ।
कर का मनका डारि दे, मन का मन का फेर ।।
हाथ में मला लेकर फेरते हुए युग व्यतीत हो गया फिर भी मन की चंचलता और संसारिक विषय रुपी मोह भंग नहीं हुआ । कबीर दास जी संसारिक प्राणियों को चेतावनी देते हुए कहते है- हे अज्ञानियों हाथ में जो माला लेकर फिरा रहे हो, उसे फेंक कर सर्वप्रथम अपने हृदय की शुध्द करो और एकाग्र चित्त होकार प्रभु का ध्यान करो ।

२१३
बन्दे तू कर बन्दगी, तो पावै दीदार ।
औसर मानुष जनम का, बहुरि न बारंबार ।।
सदगुरू के भक्तों को बन्दगी करने प्रेरणा देते हुए संत शिरोमणि कबीर जी कहते है कि सद्गुरू की सेवा और बन्दगी कर तभी तुझे आत्म दर्शन का ज्ञान प्राप्त होगा । मनुष्य जीवन बार बार नहीं मिलता समस्त योनियों में मानव योनि सर्वश्रेष्ठ है जो काठिन परिश्रम और सौभाग्य से मिलता है अतः उसे व्यर्थ न गवा । सद्गुरू का ध्यान के जिससे कल्याण होगा । कल्याण का अन्य कोई मार्ग नहीं है ।

२१४
यह तन कांचा कुंभ है, छोट चाहें दिस खाय ।
एकाहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ।।
यह शरीर मिट्टी के बने हुए कच्चे घडे के समान है जो चारों ओर से चोट खाता है अर्थात दुःख, व्याधि रुपी चोट से सदैव पीडित रहता है । मात्र सद्गुरू के नाम का सुमिरन न करने के कारण एस पर अनेक विपत्तियॅा आ रही हैं अन्यथा इसकी ऐसी दुर्दशा न होती । यह एक न एक दिन नष्ट हो जायेगा ।

२१५
जब मन लागा लोभ सों, गया विषय में भोय ।
कहैं कबीर विचारि के, केहि प्रकार धन होय ।।
संसारिक प्राणियों में ज्ञान वितरित करते हुए कबीर दास जी कहते हैं कि जब मानव धन संपत्ति के लोभ में पड़ जाता है तो विषयों के चक्कर में पड़ कर स्वयं के भूल जाता है अर्थात उसे उचित अनुचि, अन्धकार, ज्ञान-अज्ञान कुछ भी दिखायी नहीं देता । हर घडी उसे धन संग्रह की चिन्ता बनी रहती है ।

२१६
कबीर चंदन पर जला, तीतर बैठा मांहि ।
हम तो दाझत पंख बिन, तुम दा जत हो काहि ।
संत कबीर जी कहते हैं कि चंदन के वृक्ष में आग लग गयी, उसी समय एक तीतर पक्षी उस वृक्ष पर आकर बैठ गया तब वृक्ष ने कहा- हे तीतर । हम तो इसलिए जलते हैं कि हम पंखहीन है अर्थात हमारे पास पंख नहीं है इस लिएजलते हैं किन्तु तुम्हारे पास तो पंख है तुम तो उड़ सकते हो फिर क्यों जलते हो ?

२१७
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत कि खान ।
सीस दिये जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।।
यह शरीर विष युक्त बेल के समान है । इसमें संसारिक विषयरुपी विष भर हुआ है किन्तु गुरु तो अमृत कि खान है अर्थात वे विषय विकार से रहित हैं । एसे सद्गुरू यदि शीश अर्पित करने पर भी मिल जाये तो समझो यह सौदा बहुत ही सस्ता है ।

२१८
गुरु नारायन रूप है, गुरु ज्ञान को घाट ।
सतगुरु बचन प्रताप सों, मन के मिटे उचाट ।।
गुरु को साक्षात परमेश्वर का रूप जानों और संसारिक विषयों से मुक्ति प्रदान करने वाला गुरुज्ञान, सरोवर का घाट है । ऐसे गुरु के वाचनों से मन का सारा सन्देह, सारा कलेश मिट जाता है तथा हृदय शान्त हो जाता है ।

२१९
गुरु लोभी शिष लालची, दोनों खेले दानवे ।
दोनों बूडे बापुरे, चढीपाथर की नांव ।।
जहां गुरु लोभी स्वभाव का हो और शिष्य लालची हो और अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कपट का दांव खेलते को उनका कल्याण कदापि नहीं हो सकता । वे दोनों अज्ञान रुपी पत्थत की नौका सवार होकर भव सागर में डूब मरेंगे ।

२२०
बंध को बंधा मिला, छुटै कौन उपाय ।
कर सेवा निरबंध की, पल में लेत छुडाय ।
जो स्वयं ही बंधा हुआ है उसे दुसरा बंधा हुआ मिल गया तो वह किस प्रकार बन्धन मुक्त हो सकता है अतः सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त सद्गुरू की सेवा करो जो पल भर में अपने ज्ञान कि शक्ति से तुम्हें बन्धन मुक्त करा लेंगे ।

२२१
कहैं कबीर तजि भरम को, नन्हा है कर पीव ।
तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव ।।
संत कबीर गुरु जी का कहना है कि भ्रम को त्यागकर गुरु के सन्मुख अबोध बालक बनकर गुरु के ज्ञान रुपी दूध को पियो और अहंकार को त्यागकर गुरु के चरणों को पकड़ लो तभी यह की यातना से यह जीव बच पायेगा ।

२२२
साधुन कि झुपडी भली, न साकट को गांव ।
चन्दन कि कुटकी भली, न बाबुल बन राव ।।
साधु की झोपडी अच्छी है किन्तु साकट अर्थात गुण हीन गॅाव अच्छा नहीं होता । जिस प्रकार बबुल वृक्ष के बहुत बडे जंगल से बहुत अच्छा चन्दन का एक टुकडा होता है । तात्पर्य यह कि गुणहीन गांव में सदा अशान्ति का वातावरण व्याप्त रहता है लेकिन साधु संतों कि झोपडीं में ज्ञान का प्रकाश भरा रहता है ।

२२३
सब धरती कागद करूं, लिखनी सब बनराय ।
सात समुद्र का मसि करूं, गुरु गुण लिखा न जाय ।।
सम्पूर्ण पृथ्वी को कागज मान लें, जंगलों की लकडीयों की ल्क्म बना ली जाय तथा सात महा समुद्रों के जल को स्यांही बना लो जाये फिर भी गुरु के गुणों का वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि गुरु का ज्ञान असीमित है उनकी महिमा अपरम्पार है ।

२२४
गुरु गुरु में भेद है, गुरु गुरु में भाव ।
सोई गुरु नित बन्दिये, शब्द बतावे दाव ।।
गुरु शब्द एक है किन्तु गुरुजनों के भाव, विचार तथा ज्ञान में अन्तर है । उनके मत एक से नहीं होते । जो गुरु सार-शब्द का ज्ञान कराये उसी गुरु कि आप सेवा बन्दगी करें ।

२२५
कबीर नौबत अपनी, दिन दस लेहु बजाय ।
यह पुर पटटन कि गली, बहुरि न देखहु आय ।।
संत कबीर जी कहते हैं कि धन दौलत, शरीर, मकान आदि का गर्व करना उचित नहीं है क्योंकी यह कूछ दिनों के लिए ही है । खुशियों के बाजे दस दिन के लिए बजाव लो जाने के बाद फिर यहॅा लौटकर देखने के लिए नहीं आवोगे ।

२२६
माया मरी न मन मरा, मर मर गये शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गये दास कबीर ।।
कबीर दास जी काहते हैं कि शरीर, मन, माया सब नष्ट हो जाता है परन्तु मन में उठने वाली आशा और तृष्णा कभी नष्ट नहीं होती । इसलिए संसार कि मोह तृष्णा आदि में नहीं फॅसना चाहिए ।

 

२२७
दस व्दारे का पींजरा, तामे पंछी मौन ।
रहे को अचरज भयै, गये अचम्भा कौन ।।
इस शरीर मी जो प्राण रुपी वायू है जिसके रहने से शरीर चलता फिरता है बातचीत करता है, आहार विहार करता है तथा संसार की सभी सुखों का उपभोग करता है । वह प्राणरूपी वायु शरीर के दस व्दारों में से किसी भी व्दार से निकल सकता है । इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है ।

२२८
नहिं शीतल है चन्द्रमा, हिम नहिं शीतल होय ।
कबिरा शीतल संत जन, नाम स्नेही होय ।।
चन्द्रमा शीतल नहीं है और वर्ष भी शीतल नही है क्योंकि बर्फ की शीतलता वास्तविक नहीं है । कबीर जी कहते है कि वास्तव में प्रभू के प्रेमी साधु संतों में ही वास्तविक शीतलता होती है अन्य किसी में नहीं ।

२२९
नींद निशानी मौत की, उठी कबीर जाग ।
और रसायन छोड़ के, नाम रसायन लाग ।।
मृत्यु की निशानी निद्रा है । प्राणी को सचेत करते हुए संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं- हे मानव ! उठ! जाग! निद्रा का त्याग कर और भगवान के नाम रुपी रसायन को पी अर्थात प्रभू का स्मरण कर ।

२३०
कबिर संगति साधु की, जो कि थुसी खाय ।
खीर खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय ।।
संत कबीर जी कहते है कि साधु संतों के साथ रहकर जो कि न्हुसी खाना पडे तो प्रेम से खान चाहिए किन्तु दृष्ट स्वभाव वालों के साथ खीर पकवान मिले तो भी उनके साथ नहीं जाना चाहिए ।

२३१
आए हैं सो जायेगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढि चले, एक बॅाधि जंजीर ।।
इस संसार में जो आया है उसकी एक दिन जाना है यह यथार्थ सत्य है चाहे यह अमीर ही अथवा गरीब । प्राणी अपने कर्मो के अनुसार ही सिंहासन पर बैठता है और दुसरा जंजीरों में बांधाजाता है अर्थात कर्म प्रधान है ।

२३२
चलती चक्की देख के, दिया कबीर परी ।
दुइ पट भीतर आइके, साबित गया न कोय ।।
चलती हुई चक्की देखकर कबीर जी रोने लगे चक्की के दोनों पाटों के बीच आकर कोई भी दाना साबित नही रहा । अर्थात् इस संसार रुपी चक्की के पारों के मध्य हर किसी को पिसना है ।

२३३
में रोऊँ सब जगत को, मोको रोवे न कोय ।
मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ।।
मैं हर किसी के लिए रोता हॅू किन्तु मेरे लिए कोई नहीं रोता अर्थात् मेरे दर्द को कोई नहीं समझता । मेरे दर्द को वही प्राणी देख और समझ सकता है जो ‘शब्द-सार’ को समझता है ।

२३४
यह तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं ।
सीस उतारे भुइॅ धरे, तब घर पैठे माहिं ।।
यह मौसी का घर नहीं है कि जिसमें प्रवेश करने पर पूर्ण आदर और सन्मान प्राप्त होगा । यह प्रेमरूपी घर है । एस प्रेम रुपी घर में प्रवेश करने के लिए कठीन साधना की आवश्यकता होती है । अपना मस्तक काट कर धरती पर चढाना होती है तब भगवान अपने घर में प्रवेश करने कि अनुमति देते हैं अर्थात् तन मन, सब कुछ प्रभु के चरणों में अर्पित करो ।

२३५
सब ते लाघुताई भली, लघुता से सब होय ।
जस दुतिया का चन्द्रमा, शीस नवे सब कोय ।।
सब से छोटा बनकर रहने से सर्वत्र सन्मान प्राप्त होता है तथा सभी कार्य भी सिद्धी ही जाते हैं । व्दितीया के चन्द्रमा को सभी सिर झुकाकर नमन करते हैं ।

२३६
साई ते सब होत है, बन्दे से कुछ नाहिं ।
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माँहि ।।
परमात्मा सर्वशक्तिमान है, वह कुछ भी कर सकने में किन्तु बन्दा कुछ नहीं कर सकता । परमात्मा चाहे तो सरसों के बीज को पर्वत के समान कर हे या पर्वत को सरसो के दाने समान ।

२३७
मोर तोर की जेवरी, गल बंधा संसार ।
दास कबीर क्यों बंधै, जाके नाम अधार ।।
मेरा तेरा, तेरा-मेरा अहंकार और ममता रुपी रस्सी से संसार के अज्ञानी लोगों का गला बंधा है किन्तु जो सद्गुरू के सच्चे भक्त हैं इस रस्सी में नहीं बंधे क्योंकि उन्हें सद्गुरू के ज्ञान का सहारा मिल गया ।

२३८
साधु भौंरा जग कली, निश दिन फिरै उदास ।
टुक-टुक वहां बिलंबिया, जहं शीतल शब्द निवास ।।
साधु संत भवरों के समान है और संसारिक प्राणी कली और फुल हैं । इन कली और फुलों के मध्य साधु जन उदास अवस्था में विचरण करते हैं ।
ज्ञान चर्चा हो रही होती है ।

२३९
जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कहैं कबीर वह क्यों मिलैं, निहकासी नीज देव ।।
जब तक संसारिक भोग कामनाओं कि भक्ति है तब तक उसे प्राणी कि कोई भी सेवा फल दायक नहीं होगी, उसके जीवन के कल्याण का मार्ग नही खुलेगा । कबीर जी कहते हैं कि जो प्राणी कामना रहित होकर आत्म चिन्तन करेगा वही भव संसार होगा ।

२४०
जल में बसै कमोदनी, चन्दा बसै अकास ।
जो है जाको भावता, सो ताही के पास ।।
कमलिनी के स्थान जल लेकीन वह चन्द्रमा से ऐसा प्रेम करती है कि उसे देखते ही प्रसन्नता से खिल उठती है जब कि चन्द्रमा उससे लाखों मील दूर आकाश में रहता है प्रकार जो जिसके प्रेमी हैं वे दूर रहकर भी उनके पास रहते हैं ।

२४१
स्वारथ कू स्वारथ मिले, पडि पडि लूंबा बूंबा ।
निस्प्रेही निरधार को, कोय न राखै झूंब ।।
अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए जब स्वार्थी लोग एक दुसरे से मिलते हैं उस समय वे एक दुसरे की आवश्यकता से अधिक प्रशंसा करते हैं और प्रसन्नता प्रकट करते हुए बडे प्रेम भाव से गले मिलते हैं किन्तु निष्कामी सज्जन पुरुषों का स्वार्थी लोग वाच्नों से भी सन्मान नहीं करते ।


२४२
काल काल सब कोई कहै, काल न चीन्हे कोय ।
जेती मन की कल्पना, काल कहावै सोय ।।
‘काल-काल’ हर कोई कहता है किन्तु काल के वास्तविक स्परूप से अज्ञानी लोग अनजान हैं, वे काल के स्वरूप को परख नहीं सकते । सत्य तो यह है कि संसार की जितनी भी विषय भोग रुपी कल्पनाएं हैं वे सब काल के रूप हैं ।

२४३
कबीर गर्व न किजीए, रंक न हंसिये कोय ।
आजहूं नाव समुद्र में, ना जानौं क्या होय ।।
कबीर दास जी कहते हैं कि जो लोग अपनी धन सम्पदा और शक्ति का अभिमान करते हैं वे महामूर्ख हैं । जो लोग गरीबों को देख कर उनकी हँसी उडाते हैं वे अज्ञानी हैं । अभी तुम्हारी नौका महासागर के जल में ड़गमगा रही है । कब क्या हो जाये कोई भरोसा नहीं है । कोई तुफान आ जाये पार लग जाये ।

२४४
जो तोकूँ कॉटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
तोकूँ फूल के फूल हैं, बाकूँ है तिरशुल ।।
जो तुम्हारे लिए कॉटा बोटं है, उसके लिए तुम फूल बोओ अर्थात् जो तुम्हारी बुराई करता है तू उसकी भलाई कर । तुम्हें फूल बोने के कारण फूल मिलेंगे और जो कॉटे बोता है उसे काँटे मिलेगे तात्पर्य यह कि नेकी के बदले नेकी और बदी के बदले बदी ही मिलता है । यही प्रकृति का नियम है ।

२४५
न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन का मैला न जाय ।
मीन सदा जल में रहै, धोये बस न जाय ।।
नहाने धोने से क्या हुआ जब मन की मैल ही न धुली । मछली सदैव जल में रहती है उसको जल से कितना भी धोओ परन्तु उसकी दुर्गन्ध नहीं जाती ।

२४६
रात गवाँई सोय कर, दिवसं गावँया खाय ।
हीरा जन्म अमोल सा, कौडी बदले जाय ।।
सोने में सारी रात बिता दी और खाने में सारा दिन गुजार दिया । हे प्राणी! काम वासनाओं में लिप्त होकर हीरे कि समान अपनी अनमोल जिन्दगी कौडियों के भाव कर लि अर्थात् अपना जीवन व्यर्थ गुजार दिया ।

२४७
सॅाझ पडे दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय ।
चल चकवा व देश को, जहॉ रैना न होय ।।
दिन बीत गया और जब सन्ध्या होने लगी तब चाकवी रोने लगी और चकवा से बोली- हे प्राणनाथ! अब उस देश को चलो जहाँ रात न होती हो मुझसे यह विरह शन नहीं होती ।

२४८
जाति न पुछो साधु की, पूछि लीजीए ज्ञान ।
मोल करो तलवार की, पडा रहन दो म्यान ।।
संतों की जाति न पुछो बल्कि उनसे ज्ञान पुछो । ज्ञान प्राप्त करने से ही तुम्हे लाभ है उसी प्रकार तलवार की कीमत पूछों, म्यान को पडी रहने दो । म्यान से तुम्हें क्या सरोकार ?


२४९
कबिरा सोंतो क्या करे, जागो जपो मुरार ।
एक दिना है सोवना, लाँबे पाँव पसार ।।
कबीर दास जी स्वयं से कहते है कि- तू सोने में समय को क्यों स्वार्थ गँवा रहा है । उठ और भगवान मुरारी के नाम का स्मरण कर तथा जीवन के सफल कर एक दिन इस नश्वर शरीर का त्याग करके पैर फैलाकर सोना ही है अर्थात् मृत्यु निश्चय है ।

२५०
दुरबल को न सताइये, जाकी मोटी हाय ।
मुई खाल की सांस से, सार भसम होई जाय ।।
दुर्बल को कभी नहीं सताओ अन्यथा उसकी ‘हाय’ तुम्हें लग जायेगी । मरे हुए चमडे की धौकानी से लोहा भी भस्म ही जाता है । अर्थात- दुर्बल को कभी शक्तिहीन मत समझो ।

२५१
जहां न जाको गुन लहै, तहां न ताको ठांव ।
धोबी बसके क्या करे, दीगम्बर के गांव ।।
जहा पर योग्यता का सन्मान नहीं होता, गुण की पूजा नहीं होती उस स्थान पर ठहरना उचित नहीं, जैसे दीगम्बरों को गाँव में रहकर धोबी को क्या लाभ क्योंकी दीगम्बर तो वस्त्र ही नहीं पहनते । अर्थात- अपनी संगति स्वभाव को अनुकूल वातावरण में रहना चाहिए ।

२५२
कुल खोये कुल उबरै, कुल राखै कुल जाय ।
राम निकुल कुल भेटिया, सब कुल गया बिलाय ।।
कुल जाति के अहंकार को मन से निकलकर सरल भाव से सेवा भक्ति करना चाहिए । अहंकार से हित होने के स्थान पर नाश होता है अतः अहम् को त्यागकार आत्म स्वरूप का चिन्तन करने से सब कुल वर्ण स्वतः विलीन हो जाते हैं ।

२५३
सार शब्द निज जानि के, जिन कीन्ही परातीति ।
काग कुमत तजि हंस है, चले सु भौजल जीति ।।
सार तत्व को जानकर जिसने श्रद्धा और विश्वास से प्रेम किया उसने कौवे की कुमति को त्यागकार हंस के सद्गुणों को ग्रहण किया और भव सागर को तैर कर पार कर लिया अर्थात् उसका उध्दार हो गया ।

२५४
कामी लज्जा न करै, मन मांहीं अहलाद ।
नींद न मांगै साथरा, भूख न मांगै स्वाद ।।
काम भावना के वशीभूत प्राणी व लज्जा का अनुभव नहीं करता जिस प्रकार अत्यधिक नींद का वेग होने पर बिस्तर की आवश्यकता नहीं महसूस होती, भूख लगने पर स्वदिष्ट भोजन की बात नहीं होती बल्कि जो कुछ भी मिला वही खाने लगा ।

२५५
कामी कुत्ता तीस दिन, अन्तर होय उदास ।
कामी नर कुत्ता सदा, छह रितु बारह मास ।।
बारह महिने अर्थात् एक वर्ष में कुत्ता एक महिने के लिए ही विषय भोगी बनता है फिर वह उदास होकर दूर रहता है किन्तु कामी मनुष्य छः ऋतुओं और बारहों महिने कामी कुत्ते जैसा व्यवहार करता है ।

२५६
साधु एसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।
सार सार को गहि रहे, थोथा देह उडाय ।।
साधू ऐसा होना चाहिए जैसे सूप का स्वभाव होता है । सूप अपने सद्गुणों से सार वस्तू को ग्रहण करके मिट्टी कंकड़ आदि दूर उडा देता है उसी प्रकार साधुजन को चाहिए कि वे व्यर्थ की वस्तुओं को न ग्रहण करें ।

२५७
साँई इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा ना रहॅू, साधु न भूखा जाय ।।
कबीर दास जी भगवान से अरदार करते हुए कहते हैं कि प्रभू! आप मुझे उतना ही दे जिसमें मैं अपना और अपने परिवार का पालन कर साकूँ तथा मेरे व्दार पर संत जन आये तो उनका सत्कार मैं भली प्रकार कर सकूँ ।


२५८
संगति सों सुख ऊपजे, कुसंगति सों दुख होय ।
कब कबीर तहं जाईये, साधु संग जहं होय ।।
अच्छी संगति करने से सर्वदा सुख प्राप्त होता हैं । किन्तु कुसंगति करने से दुःखों की प्राप्ति होती है । संत जी कहते हैं कि मानव को उसी स्थान पर जाना चाहिए जहाँ अच्छी संगति प्राप्त हो ।

२५९
कबीर सीप समुद्र की, रहे पियास ।
और बूँद को ना गहे, स्वाति बूँद की आस ।।
कबीर दास जी कहते हैं कि समुद्र के अथाह जल में रहकर भी समुद्र की सीप प्यास प्यास रहती है । पानी की और बूदों का वह ग्रहण नहीं करती । वह तो स्वति नक्षत्र की बूदों के सीप में प्रविष्ट होने से मोती बनता है उसी प्रकार प्राणी को सदैव उत्तम वस्तू ही ग्रहण करनी चाहिए ।

२६०
कबिरा-संगति साधु की, हरै और की व्याधि ।
संगति बुरा असाधु की, आठीं पहर उपाधि ।।
कबीर जी संसारिक प्राणियों के सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हुए कहते हैं कि साधु संतों की संगति करना उत्तम हैं । जिससे दुसरों के दुःखों का निवारण होता हैं । असाधु जनों की संगति से सवासनाऍ उत्पन्न होती हैं जो प्राणी को पतन की और ले जाती हैं ।

२६१
आस पराई राखता, खाया घर का खेत ।
औरन को पाठ बोधता, मुख में डाले रेत ।।
दुसरों को ज्ञान की शिक्षा देने वालों को साम्बोधित करते हुए संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं- हे प्राणी । तू दुसरों को ज्ञान सिखाता फिरता है और स्वयं अपने मुख में रेत डाले पडा हैं । सर्वप्रथम तू अपना ध्यान कर और प्रभू का भजन कीर्तन कर ।

२६२
अवगुण कहॅू शराब का, आपा अहमक होय ।
मानुष से पशुआ भया, दाम गांठ से खोय ।।
शराब के अवगुणों के विषय में कबीर दास जी कहते हैं कि शराब पीकर मानव पागल और मूर्ख बन जाता हैं । उसका व्यवहार पशुओं के समान हो जाता हैं तथा जेब के पैसे भी बर्बाद जाते हैं ।।

२६३
ऊँचे पानी ना टिके, नीचे ही ठहराय ।
नीचा होय सो भरि पिये, ऊँचा प्यासा जाय ।।
पानी ऊँचे स्थान पर कभी नहीं ठहरता इसलिए नीचे झुकने वाला ही पानी पी सकता है । जो व्यक्ति ऊँचे स्थान पा खडा रहता है भ प्यासा ही रह जाता है अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने के लिए नम्रता परम आवश्यक है ।

२६४
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहू शीतल होय ।।
मन से घमण् की भवना त्यागकार ऐसी वाणी बोले जिसमें दुसरों का मन प्रसन्नता से खिल उठे । दुसरों को देखकर आप स्वयं भी प्रसन्नता का अनुभव करेंगे ।

२६५
फल कार न सेवा करै, निशि दिन जांचै राम ।
कहैं कबीर सेवक नहीं, चाहै चौगुन दाम ।।
जो प्राणी मन से फल की इच्छा रखकर नित्य प्रतिदिन प्रभू राम से याचना करता है वह लोभी और स्वार्थी है । कबीर जो कहते हैं कि वह सेवक नहीं है, वहतो अपनी सेवा के चौगुण दाम चाहता है ।

२६६
दासातन हिरदै बसै, साधु न सों आधीन ।
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ।।
जिनके हृदय में दास के गुण, दीनता और प्रेम भावना होती है वे साधु जनों के अधीन रहकर उनकी आज्ञा का पालन करते हैं । कबीर जी कहते हैं कि ऐसे ही लोग सचमुच दास हैं, वे ही सदा भक्ति में लवलीन रहते हैं ।

२६७
यह तत वह एक है, एक प्रान दुई गात ।
अपने जिय से जनिए, मेरे जिय की बात ।।
एक यह है एक वह है । परस्पर प्रेमियों में कोई भेद नहीं होता किन्तु सामान्य दृष्टि से देखने पर दो शरीर दिखाई देते हैं किन्तु इनके प्राण एक हैं । प्रेमियों के इस गूढ रहस्य को प्रेमी जन ही जानते हैं ।

२६८
गोता मारा सिंधु में, मोती लाये पैठि ।
वह क्या मोती पायेंगे, रहे किनारे पैठि ।।
प्रेम रुपी गहरे समुद्र में जिसने निर्भय होकर गोता लागाय उसे मोती मिला किन्तु जो डूबने के भय से किनारे पर बैठा रहा उसे क्यों मोती मिलेगा अर्थात् प्रेमरूपी मोती प्राप्त करने के लिए कठिन साधन की आवश्यकता है ।

२६९
आया प्रेम कहां गया, देखा था जब कोय ।
छिन रोवै छिन में हंसै, सो तो प्रेम न होय ।।
जब प्रेमी के हृदय में प्रेम का समावेश हुआ तो उसको सभी ने देखा किन्तु वह कहां चला गया जो मात्र में प्रेम के नाम रोने लगा और दुसरे क्षण हंसने लगा । यह प्रेम का रूप नहीं बल्कि भ्रम है ।

२७०
मान अभिमान न कीजिए, कहैं कबीर पुकार ।
जो सिर साधु न नमैं, तो सिर काटि उतार ।।
मान सन्मान प्रतिष्ठ आदि का कदापि अभिमान मत करो क्यों कि यह व्यर्थ की बातें कल्याण मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती हैं । कबीर दास जो कहते हैं कि जिस प्राणी का सिर साधु सन्तों के सन्मुख नहीं झुकता उस सिर को काटकर फेंक देना चाहिए ।

२७१
पांचतत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम ।
दिन चार के कारने , फिर फिर रोके ठाम ।।
पृथ्वी, जल, वायु, अग्नी और आकाश तत्व से मिलकर बने ढाँचे को ‘मनुष्य’ नाम रख दिया । चार दिन के क्षणिक सुख विलास में लिप्त होकर जीव ने अपने मोक्ष का व्दार बन्द कर लिया ।

२७२
मौत बिसारी बावरी, अजरच कीया कौन ।
तन माटी में मिल गया, ज्यैां आटा में लौंन ।।
ऐ बावरी ! तू मृत्यु को क्यों भूल गयी । मृत्यु की होने वाली दशा पर तुझे किसने आश्चर्य में दाल दिया ? इन सुन्दर शरीर से प्राण निकलते ही यह मिट्टी में इस प्रकार मिल जायेगा जैसे आटे में नमक मिल जाता है ।

२७३
मेरा संगी कोय नहीं, सबै स्वारथी लोय ।
मन परतीति न ऊपजै, जिय विस्वास न होय ।।
मेरा इस संसार में कोई मित्र नहीं है, यहाँ तो सभी स्वार्थी हैं इस लिए मन में चाहे प्रेम न हो, हृदय में विश्वास न हो किन्तु सबको अपने हित लाभ की चिन्ता लगी रहती है ।

२७४
कामी तो निरभय भया, करै न काहूं संक ।
इन्द्री केरे बसि पडा, भूगते नरक निसंक ।।
कामी व्यक्ति निर्लज्ज होने के कारण किसी से भयभीत नहीं होता वह नीर्भीक होता है और अपने विषय में किसी पर कोई शंक भी नहीं करता । वह तो अपनी इन्द्रियों के वश में पडा रहता है तथा अन्त अनेक प्रकार के दुःखों को भोगता है ।

२७५
कहता हॅू काहि जात हॅू, मनें नहीं गंवार ।
बैराग गिरही कहा, कामी वार न वार ।।
पहले भी चुका हॅू और कहता हुआ जाता हॅू कि कामी मनुष्य साधु बैरागी के वेश में हो या गृहस्थ रूप में उसका किसी भी रूप में ठिकाना नहीं है अर्थात् उसका उध्दार नहीं हो सकता ।

२७६
मोह फंद सब फांदिया, कोय न सकै निवार ।
कोई साधू जन पारखी, बिरला तत्व विचार ।
मोह माया के फंडे में सभी लोग फँसे पडे हैं । इससे कोई नहीं छूट पाता । कोई ज्ञानी पारखी आत्मदर्शी सन्त ही इससे मुक्ति प्राप्त कर सकता है ।

२७७
मद अभिमान न कीजिए, कहैं कबीर समुझाय ।
जा सिर अहं जु संचरे, पडै चौरासी जाय ।।
मद का अभिमान कभी मत करो, मद का त्याग करना ही उचित है कबीर दास जी कहते हैं जिसके मास्तिक में अहंकार प्रविष्ट हो जाता है वह अपने को ही सर्वस्व समझने लगता हैं और ‘लख चोरासी’ के चक्कर में पड़कर भटकता है ।

२७८
लेने को हरिनाम है, देने को अंनदान ।
तरने को है दीनता, बूड़ न को अभिमान ।।
संसार में लेने के लिए ‘हरिनाम’ उत्तम है और दान देने के लिए अन्नदान सर्वोत्तम है । भवसागर से तरने के लिए नम्रता और डूबने के लिए अभिमान है । ज्ञानी लोग अभिमान का त्याग करके शांति और सुखमय जीवन व्यतीत करते हैं ।

२७९
गुरु की जै जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करै, परै चौरासी खानि ।।
प्राणी को सचेत करते हुए संत कबीर जी कहते हैं आप जिसे भी अपना गुरु बना रहे हैं सर्व प्रथम उनकी और कारनी को जांच परख कर बनाइये और पानी को छान कर पीजिए । जो बिना विचार किये गुरु बना लेता है वह संसार रुपी चौरासी आवागमन के चक्कर में पड़कर भटकता रहता है ।


२८०
नैंनो की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय ।
पलकों की चिक डारि कै, पिय को लिया रियाझ ।।
अपने सद्गुरू को सन्मानित करने के लिए नेत्रों की कोठरी बनाकर पुतली रुपी पलंग बिछा दिया और पलकों की चिक दालकर अपने स्वामी को प्रसन्न कर लिया अर्थात् नयनों में प्रभु को बसाकर अपनी भक्ति अर्पित कर दी ।

२८१
भाला ती कर में फिरै, जीभ फिरै मुख मांहि ।
मनवा तो चहु दिश फिरै, यह तो सुमिर न नांहि ।।
हाथ में माला फिर रही है और मुंह के बीच में जीभ फिर रही है । तथा चंचल मन स्वच्छन्द रूप से चारों दिशाओ में घूम रहा है । फिर यह सुमिरन कहॅा हुआ । यह तो सुमिरन करने का दिखावा है जब तक मन शान्त और एकाग्र नहीं होता तब तक सुमिरन संभव नहीं है ।

२८२
ज्यों कोरी रोजा बुनै, नीरा आवै छोर ।
ऐसी लिखा मीच का, दौरि सकै तो दौर ।।
जिस प्रकार जुलाहा धागे की नही चलाकर एक एक सूत पिरो कर कपडा बुनता है और उसका अन्त निकट आता है उसी प्रकार एक एक पल, एक एक घडी मृत्यु निकट आती है । हे मानव! तुझयें भागने की शक्ति है तो भाग अर्थात् भजन साधक करके अपने कल्याण का मार्ग सुदृढ कर ।

२८३
कबीर माया संपिनी, जनता ही को खाय ।
ऐसी मिला न गारुडि, पकडि पिटारे बांय ।।
कबीर दास जी कहते हैं कि माया मोह का विषैली सर्पिणी के समान जानी यह अपनों को ही खाती है कोई इसका विष उतारने वाला नहीं मिला जो इसे पकड़कर पिटारे में बंद कर सके ।

२८४
गुरु को चेला बीष दे , जो गांठी होय दाम ।
पूत पिता को मारसी , ये माया का काम ।।
यदि गुरु के पास धन दौलत है तो कुछ शिष्य ऐसे होते हैं जो धन के लोभ में गुरु को विष दे कर मार डालते हैं उसी प्रकार लोभ के कारण पुत्र अपने पिता को मार डालते हैं । यही माया का वास्तविक रुप हैं ।

२८५
माया माया सब कहै , माया लखै न कोय ।
जो मन से न उतरे , माया कहिए सोय ।।
माया – माया सभी लोग कहते हैं किन्तु माया माया का वास्तविक स्वरुप क्या है इसे कोई नहीं जानता । मन के ऊपर जिसकी गहन आशक्ति हो अर्थात मन में जो इच्छा उत्पन्न हो और प्राणी वही कार्य करे वह मन से न उतरे माया उसी को कहते हैं ।

२८६
सूम थैली अरु श्वान भग दोनो एक समान ।
घालत में सुख ऊपजै , काढ निकसै प्रान ।।
कंजूस व्यक्ति के धन की थैली और कुत्ते की योनि प्रकृति को एक समान जानो । कंजूस को थैली में धन डालते हुए अत्याधिक प्रसन्नता होती है किन्तु जब निकालने की बारी अति है तो उस समय उसे ऐसा प्रतीत होता है की प्राण ही निकल जायेंगे ।

२८७
जब घट मोह समाइया, सबै भया अंधियार ।
निर्मोह ज्ञान बिचारि, साधु उतरे पार ।।
सांसारिका माया मोह में जब मन लिप्त हो जाता है तो चारों ओर अज्ञान रूपी अन्धकार का साम्राज्य व्याप्त हो जाता है जिस कारण जीव को कुछ भी नहीं धिखायी देता । मोह से मुक्त ज्ञानी साधुजन ही भव से पार होते हैं ।

२८८
करैं बुराई सुख चहैं, कैसे पावै कोय ।
रोप पड़े बबूल का, आम कहां ते होय ।।
जो बुरा कार्य करके भलाई पाने की इच्छा रखता हो उससे बड़ा इस संसार में अन्य कोई मुर्ख नहीं है । स्वयं विचार करें कि बबूल का बीज बोने पर बबूल ही अत्पन्न होगा, वह आम नहीं हो सकता ।
२८९
जो तू चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ।।
मुक्ति की इच्छा यदि तू करता है सबकी आस छोड़ दे और अपना तन मन धन सब कुछ मुझे (भगवान से तात्पर्य है) अर्पित कर दे और मेरे समान हो जा फिर सब कुछ तेरे पास है तुझे किसी वस्तु की कमी नहीं रहेगी ।

२९०
पूरा सतगुरु न मिला ,सुनी अधूरी सीख ।
स्वांग यती का पहिन के, घर घर मांगी भीख ।।
जिसे सच्चे सतगुरु की प्राप्ति न हो उसे यथार्थ ज्ञान प्राप्त नहीं होगा अर्थात जो भी शिक्षा उसे मिलेगी वह अधूरी होगी । साधु सन्यासी का वेश धारण कर घर घर भीख मांगने से कल्याण नहीं होगा ।

२९१
जहां दया वहां धर्म है , जहां लोभ तहं पाप ।
जहां क्रोध वहां काल है, जहां क्षमा वहां आप ।।
जहां दया है उस स्थान पर धर्म का वास होता है और जहां पर लोभ की अधिकता है वहां पाप बसता है । जहां क्रोध है वहां काल है और जिस स्थान पर अर्थात जिस प्राणी के ह्रदय में क्षमा भाव है वहां स्वयं अन्तर्यामी परमात्मा निवास करते है ।

२९२
पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय ।
अब के बिछड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जा ? ।।
वृक्ष को सम्बोधित करते हुए पत्ते ने कहा – हे वृक्ष ! तुमसे बिछड़कर हम न जाने कहां जा पहुचेंगे , यह कोई निश्चित नहीं है , फिर तुमसे कभी मिलन नहीं हो सकेगा । हम कहां होंगे और तुम कहां होंगे । इसी प्रकार मनुष्य के शरीर से प्राण निकलकर कहां जाता है , उसे कौन सी योनि प्राप्त होती है । इसके विषय में जीव नहीं जानता अतः प्रत्येक समय भगवान का स्मरण करें . यही एकमात्र कल्याण का मार्ग है ।

२९३
पाहन पूजे हरि मिलें , तो मैं पूजौं पहार ।
याते ये चक्की भली , पिस खाय संसार ।।
कबीरदास जी कहते है कि यदि पत्थर पूजने से भगवान मिलते है तो मै विशाल पहाड़ का पूजन करूंगा । इससे तो अच्छी घर की चक्की है जिसका पीसा हुआ आटा सारा संसार खाता है ।

२९४
मूर्ख मूढ़ कुकर्मियाँ , नख सिख पाखर आहि ।
बन्धन कारा का करे जब बाँधन लागे ताहि ।।
जिसे पढ़ाने और समझाने से भी ज्ञान न हो उसे अधिक समझाना व्यर्थ है क्योंकि उस पर आपकी बातों का कोई प्रभाव नहीं होता ।

२९५
काह भरोसा देह का , बिनस जात छीन मांहिं ।
सांस – सांस सुमिरण करो , और यतन कछु नाहिं ।।
इस नश्वर शरीर का कोई भरोसा नहीं नहिं । पंचतत्वों से मिलकर निर्मित यह सुन्दर काया कब और किस घडी पंचतत्वों में विलीन हो जाये, यह निश्चित नहीं है । अर्थात मृत्यु कब आ जाये किसी को भी नहीं मालूम अतः जितनी बार सांसों का आवागमन होता है उतनी बार प्रभु के नाम का स्मरण करो ।

२९६
कहता तो बहुत मिले, गहता मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे , जो नहीं गहता कोय ।।
सन्त शिरोमणि कबीर दस जी कहते हैं की उपदेश देने वाले तो बहुत मिले कि आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह कर्म करो वह कर्म करो परन्तु उसको अपनाने वाला कोई नहीं मिला ।

२९७
जो जन भीगे राम रस , विगत कबहूँ ना रुख ।
अनुभव भाव न दरसे ते नर दुःख ना सुख ।।
सुखा हुआ पेड़ सुखी नहीं रह सकता । जिसने ‘राम-नाम’ अपने ह्रदय में धारण कर रखा है उसे कोई दुःख नहीं है ।

२९८
और देव नहिं चित्त बसै , मन गुरु चरण समाय ।
स्वल्पाहार भोजन करूं , तृष्णा दूर पराय ।।
साधु संतों के ह्रदय में कोई देवी देवता नहीं होते अर्थात वे अन्य पर भरोसा नहीं करते । एकमात्र सद्गुरु के श्री चरणों में वे रमे रहते हैं । वे कम भोजन करने वाले और समस्त सांसरिक पिपासाओं से दूर रहते हैं ।

२९९
बाना पाहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल ।
बोली बोले सियार की, कुत्ता खावै खाल ।।
जो सिंह का वेश धारण कर , भेद की चाल चलते हैं और सियार की बोली बोलते हैं । ऐसे कपती वेश धारी की खाल कुत्ता खायेगा अर्थात जो कहते हैं कुछ करते हैं कुछ ऐसे कपट चरित्र वाले समाज से बाहर कर दिये जाते हैं और सर्वत्र अपमानित होते गई ।

३००
भक्ति गेंद चौगन की, भावै कोई लै जाय ।
कहैं कबरी कछु भेद नहिं , कहां टैंक कहं राय ।।
भक्ति खुले मैदान में खेलने वाली गेंद के समान है जिसे प्रिय लगे वह ले जा सकता है । कबीर जी अपने श्री मुख से कहते हैं कि भक्ति में कोई भेद नहीं है । चाहे वह गरीब हो, धनवान हो अथवा राजा हो । हार कोई भक्ति कर सकता है ।

 

३०१
अमृत पीवै ते जना , सैट गुरु लागा कान ।
वस्तु अगोचर मिलि गई, मन नहिं आवा आन ।।
प्रेम रूपी अमृत को वही पीते हैं जिन्हें सतगुरु मिल गये हो उनका ज्ञाना मृत प्राप्त हो गया हो फिर वे अगोचर दिव्य शान्ति को प्राप्त कर लेते हैं । उनके मन में अन्य किसी वस्तु की लालसा शेष नहीं बचती ।

३०२
कबीर हरि हरि सुमिरि ले, प्राण जायेंगें छूट ।
घर के प्यारे आदमी , चलते लेंगे लूट ।।
चेतावनी देते हुए कबीर दस जी कहते है कि हे प्राणी ! भव सागर से पार उतारने वाले मांझी अन्तर्यामी , सर्वशक्तिमान परमात्मा का सुमिरन कर ले । यह सुअवसर तुम्हें बार बार नहीं मिलेगा नहीं तो शरीर से प्राण निकल जायेंगे और तू कुछ नहीं कर पायेगा और तब तेरे अपने घर के लोग तुम्हारे शरीर से गहने वस्त्र उतारकर एक कफन ओढ़ाकर श्मशान में ले जाकर जला देंगे ।

३०३
जीना थोडा ही भला, हरि का सुमिरन होय ।
लाख बरस की जीवना लेखै धरै न कोय ।।
थोड़े दिन का जीवन अच्छा है किन्तु उसे व्यर्थ न गवांकर प्रभु के सुमिरन में लगाना चाहिए । उस लाख बरस के जीवन से क्या लाभ जिसमे भगवान के नाम का चिंतन न हो, वह तो व्यर्थ ही है उसका लेखा कौन करेगा ।

३०४
तन सराय मन पाहरू , मनसा उतरी आय ।
को काहू का है नहीं, देखा ठोकि बजाय ।।
इस शरीर रूपी सराय का मन पहरेदार है और इच्छा रूपी अतिथि आकर ठहर गया है । इस संसार में कोई किसी का अपना नहीं है । सब अपने अपने स्वार्थ को सिद्ध करने में लगे हुए हैं । यह मैंने ठोक बजाकर देख लिया है अतः बुरी इच्छाओं को त्याग कर अपना जीवन सत्कर्म में लगाओ ।

३०५
राम भजो तो अब भजो , बहोरि भजोगे कब्ब ।
हरिया हरिया रुखड़े , ईंधन हो गये सब्ब ।।
राम नाम का भजन करना है तो अभी से आरम्भ कर लो अन्यथा फिर कब भजन करोगे क्योंकि काल की गति बड़ी तीव्र होती है प्रमाण के लिए देखो जो हरे भरे वृक्ष थे वे सुखकर ठूंठ हो गये और जलाने के लिए ईंधन बन गये अतः समय को व्यर्थ न गंवाओ ।

३०६
भय बिन न उपजै , भय बिनु होय न प्रीती ।
जब हिरदे से भय गया , मिटी सकत रसरिती ।।
जब तक मन में भय नहीं होता तब तक जीव के मन में परमात्मा के प्रति प्रेम भाव उत्पन्न ही नहीं होता । मन से सद्गुरु , सन्त जनों का भय चला जाता है तो मान मर्यादा , प्रेम व्यवहार आदि समाप्त हो जाते है ।

३०७
जिही शब्द दुःख ना लगे, सोई शब्द उचार ।
तपत मिटी सीतल भया , सोई शब्द ततसार ।।
जिस शब्द के बोलने से किसी को कष्ट पहुचें कोई दु:खी हो ऐसे शब्द का कदापि उच्चारण नहीं करना चाहिए । ऐसे शब्द बोलो जिसे सुनकर तपता हुआ चेहरा या दुःख से उदास चेहरा भी प्रसन्नता से खिल उठे । शब्द ऐसे हो जिसे सुनने से ऐसे महसूस हो जैसे जल की ठंडी फुहार पद रही है ।

३०८
हाथों परबत फाड़ते , समुन्दर घूट भराय ।
ते मुनिवर धरती गले , का कोई गरब कराय ।।
जो अतुलित बलशाली थे, जिनके बल की सीमा न थी जिन्होंने अपने बल पराक्रम से पर्वत फाड़ डाला और विशाल समुद्र को एक ही घूंट में पी गये जब ऐसे श्रेष्ठ लोग धरती में गल गये फिर यहां किसी के अहंकार का क्या मूल्य । काल के विकराल पंजे से कोई नहीं बच सकता ।

३०९
सुर नर सबको ठगै , मनहिं लिया औतार ।
जो कोई याते बचै , तीन लोग ते न्यार ।।
यह चंचल मन बहुत बड़ा ठग है, यह सुर नर मुनि सभी को ठगता है । यही मन जीव को बार बार जन्म लेने के लिए विवश करता है । जो साधक जो तपस्वी इसकी ठगीसे बच जाये वे तीनों लोकों में सबसे न्यारे होकर दिव्य गति को प्राप्त होंगे ।

३१०
कुंभै बांधा जल रहै , जल बिन कुंभ न होय ।
ज्ञानै बांधा मन रहै , मन बिनु ज्ञान न होय ।।
कुंभ की दीवारें के होने से उसमें जल टिका रहता है और कुंभ का निर्माण बिना जल के सम्भव नहीं है क्योंकि केवल मिटटी से घड़ा नहीं बन सकता जब तक कि उसमे जल न मिले । तात्पर्य यह कि दोनों का सहयोग एक दुसरे के लिए परम आवश्यक है उसी प्रकार मन के बिना ज्ञान अर्जित नहीं किया जा सकता है और चंचल मन को ज्ञान रूपी घड़े से ही स्थिर रखा जा सकता है ।

३११
माया मन की मोहिनी, सुर नर रहे लुभाय ।
इन माया सब खाइया , माया कोय न खाय ।।
मन को मोहने वाली माया के लोभ में सुर , नर मुनि अदि सब फंस जाते हैं । इस माया रूपी मोहिनी ने हार किसी को किसी न किसी प्रकार मार खाया अर्थात इससे कोई नहीं जीत पाया ।

३१२
जग हटबारा स्वाद ठग , माया वेश्या लाय ।
राम नाम गाढ़ा गहो, जनि जन्म गंवा ।।
इस संसार में कामरूपी इन्द्रियों का स्वाद ही ठग है और माया रूपी वेश्या ने विषय भोगों की वस्तुएं चारों और सजा रखी जिसे देखकर प्राणी का मन चंचल हो जाता है । इससे अपने मन को खींच लो । माया के भंवर जाल में मत फंसो क्योंकि माया ही सही मार्ग से हटाकर गलत मार्ग की ओर ले जाती है अपने मन को एकाग्र करके राम नाम के ज्ञान रूपी अमृत को प्राप्त करने के लिए प्रयास करो अन्यथा सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ चला जायेगा ।

३१३
माया तो ठगनी भई , ठगत फिरै सब देस ।
जा ठग ने ठगनी ठगी , ता ठग को आदेस ।।
यह माया अनेक रूप धारण करके सभी देशों के लोगो को ठगती है और सभी इसके चक्कर में फंस कर ठगे जाते हैं परन्तु जिस ठग ने इस ठगनी को भी ठग लिया हो उस महान ठग को मेरा शत शत प्रणाम है । भावार्थ यह कि माया रूपी ठगनी को कोई सन्त महापुरुष ही ठग सकता है ।

३१४
सांच बराबर तप नहीं , झूठ बराबर पाप ।
जाके हिरदे सांच है, ताके हिरदे आप ।
सत्य के बराबर कोई तपस्या नहीं है और झूठ के समान कोई पाप नहीं है ।
जो प्राणी सदा सत्य बोलता है उसके ह्रदय में पारब्रम्ह परमेश्वर स्वयं विराजते हैं ।

३१५
सांच हुआ तो क्या हुआ , नाम न सांचा जान ।
सांचा होय सांचा मिलै , सांचै माहि समान ।।
सच्चा होने से क्या लाभ जब सद्गुरु को ‘सत्य नाम’ ज्ञान को नहीं जानता । सद्गुरु के सत्य नाम ज्ञान को जानना परम आवश्यक है । जो प्राणी सत्य आचरण की साधना से सत्य का दर्शन करता है वह सत्य में ही समा जाता है ।

३१६
कुकट कूटै कन बिना , बिन करनी का ज्ञान ।
ज्यौं बन्दूक गोली बिना , भड़क न मारै आन ।।
बिना ज्ञान प्राप्त किये ज्ञान के विषय में कहना , प्रवचन करना , चावल की भूसी कूटने के समान है । जिस प्रकार बिना गोली के बन्दूक में केवलआवाज उत्पन्न होती है , वह किसी पर वार नहीं कर सकती ।

३१७
कंचन दीया करन ने, द्रौपदी दीया चीर ।
जो दीया सोपाइया , ऐसे कहैं कबीर ।।
दिया हुआ दान कभी व्यर्थ नहीं जाता । जैसा दान दिया जाता है उसी प्रकार का फल भी प्राप्त होता है । कबीर दास जी कहते है की कर्ण ने सोना दान दिया था और द्रौपदी ने चीर दान दिया था जिससे उसके लाज की रक्षा हुई ।

३१८
साधु शब्द समुद्र है , जामें रतन भराय ।
मन्द भाग मुट्ठी भरै , कंकर हाथ लगाय ।।
साधु शब्द ही नही बल्कि ज्ञान रूपी समुद्र के समान हैं जिसमे सद्गुणों के रत्न भरे हुए है परन्तु अज्ञानी लोग ऐसे सन्तों के मिलने पर भी मुट्ठी भर कंकर ही ले जा पते है अर्थात उनका समय संतों के दोष और बुराइयों को खोजने में व्यर्थ चला जाता है ।

३१९
प्रीती ताहि सो कीजिए , जो आप समाना होय ।
कबहुक जो अवगुण पडै , गुन ही लहै समोय ।।
प्रीती उसी से करना चाहिए जो अपने समान आचार विचार वाला शुद्ध हृदय एटीएम विश्वासी और गंभीर हो । यदि कभी भूलवश किसी प्रकार का अनुचित व्यव्हार भी हो जाये तो वह उचित गुण को ही अपने ह्रदय में स्थान दे ।

३२०
जो है जाका भावता , जब तक मिलि हैं आय ।
तन मन ताको सौंपिये , जो कबहुं न छाड़ि जाय ।।
जो जिसको अच्छा लगता है वह उससे कभी कभी अवश्य जाकर मिलता है परन्तु अपना मन उसी को अर्पित कीजिए जो तुम्हें कभी न छोड़कर जाये अर्थात अटूट प्रेम के बन्धन में बंधकर सदैव तुम्हारे निकट रहें ।

३२१
तू तू करता तू भया , मुझमें रही न हूंय ।
बारी तेरे नाम पर , जीत देखूं तित तुंय ।।
हे परमात्मा ! तुम्हारे नाम का सुमिरन करते करते मै तुम जैसा हो गया हु । अब मेरे मन में सांसरिक वासना , ममता एवम तृष्णा नहीं है । मै तेरे अविनाशी नाम ज्ञान के ऊपर न्यौछावर हूं । मेरी दृष्टी जिधर भी घुमती है उधर तुम्हारा ही स्वरुप दिखायी देता है ।

३२२
राम नाम सुमिरन करै , सतगुरु पद निज ध्यान ।
आतम पूजा जीव दया , लहै सो मुक्ति अमान ।।
जो प्राणी तन मन समर्पित करके सद्गुरु के चरणों का ध्यान करता है वह राम नाम को आत्मज्ञान का भजन करता है । जीवों के प्रति जिसके मन में दया है और समता का भाव रखकर सेवा करता हाउ वह प्राणी मोक्ष पद को प्राप्त होता है ।

३२३
लागी लागी क्या करै , लागत रही लगार ।
लागी तब ही जानिये , निकसी जाय दुसार ।।
संसार में मनुष्य को कदम कदम पर चोटें लगती है जिसे सब ‘लागी-लागी’ कहते है । किन्तु उन ठोकरों को तभी कारगर जानों जब उसके लगने से ह्रदय में बसी सभी बुराइयां , सभी अवगुण नष्ट हो जायें अर्थात गुरु-ज्ञान की ठोकर लगनी चाहिए ।

३२४
स्वारथ का सबको सगा , सारा ही जग जान ।
बिन स्वारथ आदर करै, सो नर चतुर सुजान ।।
इस संसार सागर स्वार्थ के ही सब सगे सम्बन्धी है । स्वार्थ के कारण ही एक दुसरे से प्रेम दिखाते हैं किन्तु जो प्राणी बिना स्वार्थ के सम्मान करता है बिना किसी लोभ के दूसरों का आदर करता है वही ज्ञानी हैं ।

३२५
ऐसे सांच न मानई, तिलकी देखो जोय ।
जारि बारि कोयला करै, जमता देखा सोय ।।
यदि विश्वास न हो और ऐसे सत्य पर विश्वास करते हो तो तिल की लकड़ी को देखो जिसे जलाकर और काटकर रख दिया जाता है उसके बाद भी वह अंकुरित हो जाता है तात्पर्य यह की अज्ञान के अंधकार में पड़ा जीव बार बार जन्म लेता है और दुःख भोगता है ।

३२६
कबीर माया डाकिनी , सब काहू को खाय ।
दांत उपारुं पापिनी , सन्तो नियरै जाय ।।
सन्त कबीर दास जी कहते हैं कि माया डाकिनी के समान है जो हार किसी को खाती है अर्थात अज्ञानी लोग माया के वश में होकर अपने कल्याण का मार्ग भूल जाते है । यदि यह माया संतों के निकट चली जाये तो मैं इसके दांत उखाड़ लूँ । भावार्थ यह कि मया संतों के निकट कदापि नहीं जाती ।

३२७
मया तरुवर त्रिविध का, शोक दुःख संताप ।
शीतलता सुपनै नहीं , फल फीका तन ताप ।।
त्रिगुणमयी मया तीन शाखाओं वाले महान वृक्ष के समान है जो रोग , शोक और संताप के रूप में उत्पन्न होती है । इसकी छाया में शीतलता प्राप्त होने की कामना करना महान मुर्खता है । इसका फल निरर्थक और स्वादहीन है तथा शरीर में जलन उत्पन्न करने वाला है ।

३२८
जोगी जंगम सेवडा , ज्ञानी गुनी अपार ।
षट दरशन से क्या बनै , एक लोभ की लार ।।
योगी , यती ,ज्ञानी विद्वान तथा षटदर्शन के सभी लोगों द्वारा इस अकेले लोभ के चक्कर में पद जाने से क्या बनेगा । क्या ये अपने जीवन के कल्याण का साधन कर पायेंगे ।

३२९
अष्ट सिद्धि नव निद्धि लौं , सबही मोह की खान ।
त्याग मोह की वासना , कहैं कबीर सुजान ।।
कबीर दास जी कहते हैं कि संसार की अष्ट सिद्धियां और नौं निदियांमाया मोह का भंडार है, इस मोह रूपी वासना का त्याग करना ही उत्तम है क्योंकि ये कल्याण साधन के मार्ग की बाधा है ।

३३०
पढ़ि पढ़ि के समुझावई , मन नहिं धारै धीर ।
रोटी का संसै पड़ा , यौं कह दास कबीर ।।
जो व्यक्ति स्वयं आचरण से परे है और दूसरों को बढ़ पढ़कर वेद ज्ञान और शास्त्र सुनाता है उसका मन अशान्त रहता है और वे अपने पेट के पालन के ही संशय में पड़े रहते हैं ।

३३१
सदा रहै संतोष में, धरम आप दृढंधार ।
आश एक गुरुदेव की , और न चित्त विचार ।।
संतों के मन में कभी चंचलता एवम व्याकुलता का वास नहीं होता वे सदैव धीर गम्भीर रहते है तथा संतोष रखते है । धर्म की दृढ़ता पर निर्भर रहकर अपने गुरु की ही आशा करते है । अन्य किसी प्रकार का विचार उनके मन में नहीं होता ।

३३२
जो जाने जीव आपना , करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना , मिले न दूजी बार ।।
जो मनुष्य समझता है कि यह जीव हमारा है तो उसे राम नाम के तत्व ज्ञान से भार दो क्योंकि यह जीव ऐसा महमान है जो दूसरी बार मिलना मुश्किल है ।

३३३
साधुन के सन्त संग से, थर थर कांपै देह ।
कबहु भाव – कुभाव तें , मन मिट जाय सनेह ।।
साधु संतों के सत्संग से पाप रूपी शरीर थर थर कांपता है । ये कम्पन पाप वृत्तियों के कारण होता है । सात्विक भावों के होने से बुरी भावनाए धीरे धीरे समाप्त हो जाती है और मन में प्रेम भाव उत्पन्न हो जाता है ।

३३४
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूपी कोई साधु है, तात का छानन हार ।।
प्रभु का नाम दूध के समान है और सांसारिक व्यवहार पानी के समान है तथा संत जन हंस रूपी हैं जो तत्व रूप दूध को पानी से अलग करके ग्रहण कर लेते हैं अर्थात भगवान को पा लेते हैं ।

३३५
हांसी खेल हराम है, जो जन रमते राम ।
माया मन्दिर इस्तरी , नहिं साधु काम काम ।।
जो मनुष्य सदा रम का भजन करते हैं अपने मन रूपी मन्दिर में प्रभु रम की मूर्ति स्थापित करके ध्यान करते है उनके लिए हास्य विनोद और खेल आदि हराम है । सांसारिक माया मोह, मन को रिझाने वाली वस्तुए , स्त्री प्रसंग आदि से कोई सम्बन्ध साधुजनों का नहीं होता ।

३३६
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नांहि ।
भवसागर के जाल में फिर फिर गोता खांही ।।
जिसने वर्ण जाति , रंग रूप , वेश आदि देखकर गुरु बनाया है तो यह जानो उसने भौतिक रूप देखकर गुरु बनाया है । उस प्राणी ने सतगुरु को नहीं पहचाना । ऐसे लोग भवसागर के जाल में फंसकर गोता खाते रहेंगे अर्थात उन्हें बार बार जन्म लेना होगा ।

३३७
गुरु विचारा क्या करै , शब्द न लागा अंग ।
कहैं कबीर मैली गजी , कैसे लागै रंग ।।
जब शिष्य सुपात्र न हो तो ऐसा अवस्था में गुरु बेचारा क्या करे? जैसे मैली चादर पर हो तो उस पर रंग भला कैसे चढ़े ? अर्थात रंग चढ़ाने के लिए स्वच्छ वस्त्र होने चाहिए उसी प्रकार गुरु ज्ञान के लिए शिष्य का सुयोग्य होना परम आवश्यक है ।

३३८
चौसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा मांहि ।
तेहि घर किसका चांदना , जिहि घर सतगुरु नाहिं ।।
चौसठ कलाओ और चौदह विद्याओं का ज्ञान रखने वाला प्राणी भी सतगुरु के ज्ञान बिना अज्ञान रूपी अंधेरें में भटकता रहता है जिसके घर कभी सतगुरु का आना नहीं हुआ वह घर प्रकाशहीन रहता है ।

३३९
जौन भाव ऊपर रहै , भित्तर बसावै सोय ।
भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ।।
जो भाव ऊपर हो वाही भाव अन्तर ह्रदय में भी रखना चाहिए । जो ज्ञान वैराग , आचार विचार की बाते मुख से कहते हैं उसी के अनुसार आचरण करे । भीतर से कुछ और तथा ऊपर से कुछ और । ऐसा भाव नहीं होना चाहिए ।

३४०
गुरवा तो सस्ता भया , पैसा केर पचास ।
रम नाम धन बेचि के, शिष्य करन की आस ।।
धन दौलत के लोभी गुरु आजकल बहुत सस्ते में मिल जाते है । ऐसे गुरु दूसरों को धोखा देकर रूपये पैसा ठगने के अनेक उपाय करते है तथा रम नाम रूपी धन बेचकर अधिक से अधिक शिष्य बनाकर महाज्ञानी कहलाते है । ऐसे लोगों से सावधान रहना ही उचित है ।

३४१
साधु मिलै यह सब टलै, काल जाल जम चोट ।
शीश नवावत ढही परै , उठा पापन के पोट ।।
साधु के मिलने पर काल रूपी जाल तथा मृत्यु के संकटों की चोट आदि से मुक्ति मिल जाती है अर्थात मृत्यु के समय यमदूतों द्वारा प्रताड़ित नहीं होना पड़ता । साधु के सम्मुख शीश झुकाने से ही सारे पाप नष्ट हो जाते है ।

३४२
कमल पात्र हैं साधु जन, बसै जगत के माहिं ।
बालक केरि धाय ज्यों , अपना जानत नाहिं ।।
संसार में साधुजन कमल पात्र की रहते है अर्थात जिस तरह जल में रहते हुए भी कमल पात्र जल में नहीं डूबता । उसी प्रकार साधुजन इस माया रूपी संसार में रहकर भी मोह के वश में नहीं होते । जैसे बालक की सेवा टहल करने वाली दायी उसे अपना नहीं जानतीं ।

३४३
जैसी करनी जासु की तैसी भुगते सोय ।
बिन सतगुरु की भक्ति के, जनम जनम दुःख होय ।।
जो प्राणी जैसी करनी करता है उसको वैसा ही फल भुगतना पड़ता है । सद्गुरु की सेवा भक्ति के बिना जन्म जन्म का दुःख भोगना पड़ता है । जब तक सद्गुरु की सेवा करके पवित्र ज्ञान नहीं प्राप्त करोगे तब तक जीवन मरण के बन्धन से मुक्त नहीं होओगे ।

३४४
जब तू आया जगत में , लोग हंसे तू रोय ।
ईएसआई करनी ना करो , पीछे हंसे सब कोय ।।
जब तेरा जन्म हुआ तो उस समय तेरे आने की ख़ुशी में तेरे माता पीता भाई बन्धु सगे-सम्बन्धी प्रसन्नता से हंसने लगे पर तू रो रहा था अब ऐसी करनी मत करना कि तेरी मृत्यु के पश्चात तुझ पर लोग हंसे अर्थात सत्कर्म करो जिससे लोग तुझे तेरी मृत्यु के पश्चात भी याद करें तेरे सद्गुणों के सम्मुख सिर झुकायें ।

३४५
कबीर सोई पीर है , जो जानैपर पीर ।
जो पर पीर न जानई , सों काफ़िर बेपीर ।।
संत शिरोमणि कबीर दास जी अपने श्रीमुख कहते है कि जो मनुष्य दूसरों के दुःख दर्द को अपने दुःख दर्द के समान जानता है वाही सच्चा मानव है परन्तु जो दूसरों की पीड़ा का अनुभव नहीं करता वह निर्दयी और निष्ठुर है ।

३४६
निज स्वारथ के कारनै , सेव करै संसार ।
बिन स्वारथ भक्ति करै , सों भावै करतार ।।
अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए संसार के लोग सेवा करते है अर्थात सेवा भाव के पीछे स्वार्थ निहित होता है जो निष्काम भाव से , स्वार्थ रहित होकर भक्ति करता है वह परमात्मा को अत्यन्त प्रिय होता है ।

३४७
कबिरा मनहिं गयन्द है, आंकुश दै दै राखि ।
विष की बेली परिहरै , अमृत को फल चाखि ।।
कबीर दास जी कहते है कि मन हाथी के समान बलवान है । जिस प्रकार हाथी को वश में करने के लिए महावत अंकुश मारता है उसी प्रकार मन रूपी हाथी को अंकुश मारकर अपने वश में करना चाहिए । इसका फल विष के प्याले को त्याग कर अमृत फल पाने के समान होता है ।

३४८
एक कहू तो है नहीं , दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा रहे , रहे कबीर विचार ।।
मै उसे एक कहूं तो वह एक नहीं है क्योंकि वह सर्वत्र दिखायी देता है यदि दो कहूँ तो बुराई है । कबीर जी कहते है कि बास यही सोचकर कहता हूं कि जैसा है वैसा ही रहे ।

३४९
कबिरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर ।
ताही का बखतर बने , ताही की शमशीर ।।
संत कबीर जी कहते है कि लोहा एक है किन्तु उसे गढकर अनेक प्रकार की वस्तुएँ बनाई जा सकती है । लोहे का ही बख्तर बनता है जिसे युद्ध क्षेत्र में पहनकर तलवार के प्रहार से बचा सकता है और लोहे की ही तलवार भी बनती है उसी प्रकार परमात्मा के अनेक रूप है ।

३५०
कस्तूरी कुंडल बसे , मृग ढूंढे बन माहिं ।
ऐसे घट घट राम है, दुनिया देखे नाहिं ।।
अति सुगन्धित कस्तूरी मृग के नाभि में होती है , जब घास चरने के लिए मृग अपनी सिर नीचे करता है तो कस्तूरी के सुगन्ध उसे मिलती है और उसे ढूंढने के लिए वह जंगल में इधर उधर दौड़ता फिरता है जबकि कस्तूरी तो उसकी नाभि में है जिसका ज्ञान उसे नहीं है उसी प्रकार अविनाशी भगवान तुम्हारे अपने ह्रदय में विद्यमान है किन्तु सांसरिक प्राणी उन्हें देख नहीं पाते ।

३५१
माटी कहे कुम्हार से, तू क्यों रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आयेगा , मैं रौंदूंगी तोय ।।
मिटटी कुम्हार से कहती है कि तू मुझे क्यों रौंदता है । एक दिन ऐसा आयेगा कि मै तुझे रौंदूगी अर्थात मृत्यु होने के पश्चात मिटटी में दफना दिया जायेगा ।

३५२
यह माया है चुहड़ी ,और चूहड़ा की जोय ।
बाप पूत उरझाय के, संग न काहो के होय ।।
यह माया भंगी की जोरू है जिसने बाप और बेटे दोनों को उलझा रखा है परन्तु किसी का साथ नहीं देगी । तुम भी इसके धोखे में न आओ ।

३५३
फूटो आँख विवेक की , लखें न सन्त असन्त ।
जिसके संग दस बीस है , ताको नाम महंत ।।
सज्जन और दुर्जन का विश्लेषण करते हुए संत कबीरदास जी कहते है कि जिसके ज्ञानरुपी नेत्र नष्ट हो गये हैं वह भला सज्जन और दुर्जन का अन्तर कैसे जान सकता है । संसार के लोग जिसके साथ चलने वाले दस बीस चेले देखते है उसे बहुत बड़ा सन्यासी समझते है ।

३५४
कलि खोत जग आंधरा , शब्द न माने कोय ।
चाहे कहूँ सत आइना , सों जग बैरी होय ।।
यह कलियुग खोता है और सरे संसार के लोग नेत्रहीन है । जो मेरी बात कोई नहीं मानता । यहां की उलटी रीति है । मै जिसे ज्ञान बताता हूँ , जिसके भले की कहता हूँ वही मेरा शत्रु बन जाता है ।

३५५
माया कू माया मिले , कर कर लंबे हाथ ।
निस्प्रेही निरधार को, गाहक दीनानाथ ।।
एक स्वार्थी से दूसरा स्वार्थी बहुत ही प्रेम से हाथ बढ़ाकर मिलते हैं परन्तु जो स्वार्थरहित हैं उनसे कोई नहीं मिलता । ऐसे निष्कामी मनुष्य को चाहने वाले एकमात्र परमात्मा ही हैं जो अपने कण्ठ से लगाते है ।

३५६
पानी मिलै न आप को , और न बकसत छीर ।
आपने मन निहचल नहीं , और बंधावत धीर ।।
स्वयं तो पानी नहीं पाते और दूसरों को दूध देता है अर्थात जो स्वयं अभावग्रस्त है वह दूसरों को क्या सुख देगा । अपना मन तो वश में नहीं और दूसरों को धीरज बंधाता है ।

३५७
जहां आपा तहां आपदा , जहां संसै तहां सोग ।
कहैं कबीर कैसे मिटै , चारौ दीरघ रोग ।।
जहां पर अहंकार का निवास होता है उस स्थान पर अनेक विपत्तियाँ आती है और जहाँ पर अज्ञान होता है वहाँ महान शोक होता है । संत कबीर जी कहते है कि ये चारों आपा,आपदा ,संशय , शोक नाम चारों विपत्तियों से कैसे मुक्ति मिलेगी ।

३५८
दीप कू झोला पवन है , नर को झोला नारि ।
ज्ञानी झोला गर्व है , कहैं कबीर पुकारि ।।
कबीर साहब पुकार पुकार कर सांसारिक प्राणियों से कहते है कि दीपक को बुझाने वाली आयु है और पुरुष को पतन के गर्त की ओर से जाने वाली स्त्री है । ज्ञानी जनों को गर्व हो जाये तो उनका ज्ञान नष्ट हो जाता है अर्थात गर्व , विनाश की जड़ है ।

३५९
जैसा भोजन खाइये , तैसा ही मन होय ।
जैसा पानी पीजिए , तैसी बानी होय ।।
जैसा भोजन करोगे , भोजन के अनुरूप ही मन होगा अर्थात सात्विक भोजन करोगे तो शुद्ध विचार होंगे तामसी भोजन करोगे तो राक्षसी प्रवृत्ति के विचार होंगे उसी प्रकार जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी । तात्पर्य यह कि जैसी संगति करता है उसके आचार विचार भी उसी प्रकार के हो जाते हैं ।

३६०
मारग चलते जो गिरै , ताको नाहीं दोस ।
कहैं कबीर बैठा रहै , ता सिर करड़ै कोस ।।
कबीर दास जी कहते है कि सन्मार्ग पर चलने वाला मनुष्य यदि गिर जाये तो उसका दोष नहीं है । महादोशी तो वह है जो खाली बैठा रहता है अर्थात चलने का नाम ही नहीं लेता । ऐसे प्राणी के सामने सारा कठिन मार्ग ही पड़ा है ।

३६१
रहनी के मैदान में, कथनी आवै जाय ।
कथनी पीसै पीसना , रहनी अमल कमाय ।।
जहाँ पवित्र आचरण का क्षेत्र है वहां कथनी स्वतः स्वाभाविक रूप में आ जाती है । कथनी कथना ती पिसाई पीसने के समान है और रहनी रहना उस कथन कमाई का जीवन में प्रयोग करना है ।

३६२
कबिरा माला मनहि की, और संसारी मेख ।
माला फेरे हरि मिलें , गले रहट के देख ।।
संत कबीर जी कहते है कि सच्ची माला मन से फेरी जाती है , लकड़ी की माला फेरने वाले इस संसार में बहुत से दिखाई देते है प्रमाण स्वरुप रहट को देखो, उसके गले पर कितनी माला फिरती है किन्तु उसे कोई लाभ नहीं होता अतः समस्त प्राणियों के लिए यही उचित है कि दिखावती माला अर्थात वाह्य आडम्बर का त्याग करके सच्चेमन से प्रभु का ध्यान करें । इसी में भला है ।

३६३
मुँड़ मुडाये हरि मिले , सब कोय लेय मुड़ाय ।
बार बार के मुड़ते , भेड़ न बैकुण्ठ जाय ।।
ज्ञान की शिक्षा देते हुए संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते है कि बाल कटवाने से यदि भगवान मिलते है तो हर प्राणी बाल कटवा कर भगवान को पा ले । भेड़ के शरीर के सारे बालों को गडरिया अनेको बार काटता है फिर भी वह बैकुण्ठ नहीं जाती ।

३६४
नीचै नीचै सब तिरै ,संत चरण लौलीन ।
जातिहि के अभिमान ते , बूड़े सकल कुलीन ।।
गरीब लोग विनम्र होकर सन्तों के चरण पकड़कर भवसागर से पार हो गये किन्तु उच्च कुल और जाति के अभिमान में बड़े लोग अज्ञानता के कारण डूब गये । अर्थात अभिमान प्राणी का सबसे बड़ा शत्रु है । विनम्रता ही मित्र है । विनम्रता से असम्भव वास्तु भी सहजता से प्राप्त हो जाती है ।


३६५
कबीर यह मन मसखरा , कहूँ तो मानै रोस ।
जा मारग साहिब मिलै , तहां न चालै कोस ।।
कबीर जी कहते है कि यह मन बहुत ही चुलबुला और चंचल है । इसे समझाओ तो बुरा मान जाता है और दुखी होता है । जिस भक्ति मार्ग पर चलने से परमात्मा की निकटता प्राप्त होती है उस मार्ग पर चलने के लिए तैयार ही नहीं होता । अर्थात कल्याण के मार्ग पर चलने के लिए मन के वश में नहीं बल्कि मन को अपने वश में करना हितकारी है ।

३६६
कहत सुनत जग जात है , विषय न सूझै काल ।
कहैं कबीर सुन प्रानिया , साहिब नाम सम्भाल ।।
संसार के अज्ञानी लोग विषय वासना सम्बन्धी चर्चा बहुत ही प्रेम निमग्न होकर करते हैं और प्रसन्नता का अनुभव करते है । उन्हें मृत्यु का ध्यान नहीं रहता । मृत्यु के यथार्थ सत्य को भी भूल जाते है । ऐसे वासना के अन्धे प्राणियों के सचेत करते हुए महात्मा जी कहते है कि ऐ मानव । तू स्वामी के नाम का सुमिरण कर पल पल उनके नाम रूप का ध्यान कर । कल्याण का यही एक मात्र मार्ग है ।

३६७
राम नाम जाना नहिं , पाला सकल कुटुम्ब ।
धन्धाही में पचि मरा , बार भई नहिं बुम्ब ।।
हे जीव ! राम के नाम से अनजान रहकर तू अपने कुटुम्ब परिवार का पालन पोषण करने में सदैव व्यस्त रहा । जिससे तेरा कल्याण होगा , जो मार्ग तेरे कल्याण का है उस मार्ग को तूने अपनाया ही नहीं और धन्धा करते करते मोह माया में ही मर गया । न तो तुझे यश प्राप्त हुआ और न ही सद्गति मिली ।

३६८
पकी खेती देखि के , गरब किया किसान ।
अजहुं झोला बहुत है , घर आवै तब जान ।।
पकी हुई तैयार फसल देखकर किसान प्रसन्नता से फूला नहीं समाता । उसे गर्व हो जाता है कि अभी आगे अनेक कठिनाइयाँ हैं । जब सुरक्षित रूप से अनाज घर में पहुँच जाये तब अपना जानो । तात्पर्य यह कि कालचक्र का कोई भरोसा नहीं । पल भर में कुछ भी हो सकता है ।

३६९
मेरा मुझमे कुछ नहीं , जो कुछ है सब तोर ।
तेरा तुझ को सौंपते , क्या लागेगा मोर ।।
ईश्वर को सम्बोधित करते हुए संत जी कहते है कि मेरा मुझमे कुछ नहीं है । जो है सब तेरा है । तेरी वस्तु तुझे सौंपते हुए मेरा क्या लगता है ?

३७०
राम बुलावा भेजिया , दिया कबीर रोय ।
जो सुख साधु संग में , सों बैकुण्ठ न होय ।।
कबीरदास जी कहते है कि जब भगवान राम ने मुझे अपने पास बुलाने के लिए बुलावा भेजा उस समय में रोने लगा । मृत्यु के डर से नहीं बल्कि सन्तों की संगति से मुझे जो सुख प्राप्त होता था वह सुख बैकुण्ठ में भी नहीं है अर्थात सत्संग सुख के समान अन्य कोई सुख नहीं है ।

३७१
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर भी नाम बिन , मुक्ति कैसे होय ।।
एक दिन में आठ पहर होते है और आंठ पहर में से पाँच पहर धन्धा करते हुए बीत गया और तीन पहर सोने में बिता दिया । ऐ मानव! इस तरह तूने आठों पहर का समय गुजार दिया । किन्तु एक पहर भी भगवान के नाम का स्मरण नहीं किया तो भला किस प्रकार तेरी मुक्ति होगी ।

३७२
लाग लगन छूटे नहीं , जीभ चोंच जरि जाय ।
मीठा कहाँ अंगार में , जाहि चकोर चबाया ।।
जब प्राणी को कोई वास्तु प्राप्त करने की लगन लग जाती है तो वह लाभ हानि की नहीं सोचता उसे तो वह वस्तु किसी भी हालत में चाहिए जैसे चकोर पक्षी अंगार को खोता है जबकि अंगार कोई मीठा वास्तु नहीं है । दूसरे शब्दों में भगवान की भक्ति जो प्राणी करता है वह लाभ अथवा हानि की चिन्ता नहीं करता ।

३७३
सीखै सुनै विचार ले, ताहि शब्द सुख देय ।
बिना समझै शब्द गहै , कछु न लोहा लेय ।।
जो मनुष्य सत्य को उचित रूप से सुनता है , समझता है और उस पर विचार करता है । उसके अन्दर सीखने की भावना होती है । ऐसे प्राणी के लिए शब्द सुखदायी होता है अर्थात वह लाभान्वित होता है । किन्तु जो बिना विचारे शब्दों को ग्रहण करता है उसे कोई लाभ नहीं होता क्योंकि वह शब्द के गूढ़ अर्थ को नहीं समझता ।

३७४
सन्त सन्तोषी सर्वदा , शब्दही भेद विचार ।
सतगुरु के परताप ते , सहज मील मतसार ।।
सत्य के रहस्य का विचार कर साधु सन्त सदैव सन्तोष किया करते है और सतगुरु की कृपा से , उनके आशीर्वाद से शील धारण किये रहते है ।

३७५
टीला टीली दाहि के, फोरि करै मैदान ।
समझ सका करता चलै , सोई शब्द निरबान ।।
राग द्वेष मनमुटाव और ऊँच नीच के भेद की जो ऊँची नीची खाइयाँ और टीले है उन्हें तोड़ फोड़ कर जीवन रूपी मैदान को समतल बनाकर जो चलता है । शुद्ध विचार से सभी बुराइयों को साफ़ करता हुआ चलता है वही मुक्त निर्बन्ध ठोस शब्द ज्ञान है ।

३७६
लौ लागी विष भागिया , कालख डारी धोय ।
कहैं कबीर गुरु साबुन सों , कोई इक ऊजल होय ।।
गुरु से प्रीति होने के पश्चात वासना रूपी विष दूर भाग जाता है और मन में बुराइयों की जितनी भी कालिख होती है गुरु के ज्ञान रूपी साबुन से धुल जाती है । कबीरदास जी कहते है कि गुरुज्ञान के साबुन से कोई भक्त ही निर्मल होता है ।

३७७
सतगुरु शरण न आवहीं , फ़िरिफ़िरि होय अकाज ।
जीव खोय सब जायेंगे , काल तिहुं पुर राज ।।
जो सतगुरु की शरण में नहीं आते , उनसे दूर रहते है उन्हें बारबार हानि होती है बिगड़ी बनाने वाले, अशरणो को शरण प्रदान कर जीवन के दुखो को दूर करने वाले एकमात्र सद्गुरु ही तो हैं । जो उनकी शरण में नहीं आयेंगे वे यूं ही नष्ट हो जायेंगे क्योंकि तीनों लोको में काल का ही साम्राज्य है ।

३७८
चित चोखा मन निरमला , बुधि उत्तम मति धीर ।
सों धोखा नहिं बिरहहीं , सतगुरु मिले कबीर ।।
जिन्हें सतगुरु की प्राप्ति हो जाती है उनका मन निर्मल और बुद्धि प्रखर हो जाती है । कबीर साहब कहते है कि उत्तम बुद्धि वाले कपट – प्रपंच आदि जैसे पथ भ्रष्टकारी जाल में फंसकर धोखा नहीं खा सकते ।

३७९
जा गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिवकी जाय ।
सो गुरु झूठा जानिये , त्यागत देर न लाय ।।
जिस गुरु के संग से भ्रम रूपी अज्ञान का अन्त न हो । ह्रदय में बसी भ्रान्ति दूर न हो तो ऐसा गुरु सही नहीं हो सकता । ऐसे गुरु को झूठा , पाखंडी और अज्ञानी जानकर उसका त्याग कर दो । उसके साथ रहकर बिताने का अर्थ है अपने जीवन की अनमोल घड़ियों को व्यर्थ नष्ट करना ।

३८०
प्रेमी ढूंढता मै फिरूं , प्रेमी मिलै न कोय ।
प्रेमी सो प्रेमी मिलै , विष से अमृत होय ।।
इस संसार सागर में अनेक प्रकार के लोग रहते है किन्तु मेरे लिए वे सभी किसी अर्थ के नहीं हैं क्योंकि मुझे प्रेमी चाहिए । मै प्रेमी को ढूंढता फिर रहा हु जो मुझे नहीं मिला । अर्थात प्रेमियों का अभाव है । सच्चे प्रेमी के मिलने से विष भी अमृत समान हो जाता है । बुराइयाँ , अच्छाइयों में बदल जाती है ।

३८१
कबीर हम गुरु रास पिया , बाकि रही न छाक ।
पाका कलश कुम्हार का, बहुरि न चाढ़सी चाक ।।
कबीर दास जी कहते है कि मैंने सद्गुरु का प्रेम रास छककर पिया है अब पीने की तनिक भी इच्छा नहीं है । जिस प्रकार कुम्हार का घड़ा आग में पक जाने के पश्चात फिर चाक पर नहीं चढ़ता ।

३८२
सहकामी सुमिर न करै , पावै उत्तम धाम ।
निहकामी सुमिर न करै , पावै अविचल राम ।।
जो प्राणी कामना अर्थात इच्छाओं से वशी भूत होकर सुमिरन करता है उसे संसार के भौतिक सुखो की प्राप्ती होती है किन्तु जो कामना रहित होकर निष्काम भाव भगवदभक्ति करता है उसे परमात्मा के दर्शन मिलते है और वह धन्य हो जाता है ।

३८३
निज सुख आतम राम है , दूजा दुःख अपार ।
मनसा वाचा करमना , कबीर सुमिरन सार ।।
अपना सुख आत्मरूपी राम हैं बाकी संसार में सभी दुःख रूप है मन वजन और कर्म से आत्मा राम का सुमिरन करने के लिए कबीर दास जी कहते है कि सुमिरन ही समस्त पदार्थों का सार है ।

३८४
मालासांस उंसास की, फेरै कोई निज दास ।
ध्दचौरासी भरमै नहीं , कटै करम की फांस ।।
हाथ में लकड़ी की बनी माना लेकर कोई भी फेर सकता है परन्तु सांसों के आवागमन की माला सद्गुरु का कोई सच्चा भक्त ही फेर सकता है । ऐसे भगवद भक्तों को भवसागर के चौरासी वाले चक्र में भरमना नहीं होता अर्थात सुमिरन करने से भवबाधा कट जाती है और जीव बार बार आवागमन से मुक्त हो जाता है ।

३८५
देह धरे का गन यही , देह देह कछु देह ।
बहुरि न देही पाइये , अबकी देह सुदेह ।।
मनुष्य तन पाने का लाभ यही है कि कुछ दे । देने से तात्पर्य यह है कि जितना सम्भव हो सके उतना दान कर दो क्योंकि क्या मालूम कि यह मानव तन फिर , ना मिले ।

३८६
तीन ताप में ताप है , ताका अनंत उपाय ।
ताप आतम महाबली , संत बिना नहिं जाय ।।
दैहिक , दैविक और भौतिक से तीन ताप संसार में माने गये हैं । इन तापों से बचने के लिए लोग अनेकों उपाय करते है किन्तु सबसे महान ताप तो वह है जिसे प्राणी भूलकर संसार की खुशियों से लिप्त है । वह ताप है आत्म-स्वरुप की भूल जो सद्गुरु की संगति के बिना नहीं जाता ।

३८७
बाले जैसी किरकिरी, ऊजल जैसी धूप ।
ऐसी मीठी कछु नहीं , जैसी मीठी चूप ।।
बालू में जितना किर किरापन होता है उतना किर किरापन अन्य किसी वस्तु में नहीं और जितना उज्वल सूर्य का प्रकाश चुप रहना बहुत मीठा होता है उतना मीठा कि इसकी समानता संसार की कोई वस्तु में नहीं होती ।

३८८
पाव पलक की सुधि नहीं , करै काल का साज ।
काल अचानक मारसी , ज्यौं तीतर को बाज ।।
एक पल के चौथाई भाग का भी कुछ पता नहीं । और तू कल के लिए बनाव श्रुंगार करता है । काल कब धोखे से आकर मार डालेगा जैसे तीतर पक्षी को बाज झपट्टा मार कर दबोच लेता है । उसी प्रकार काल का भी आगमन होता है ।

३८९
आगे दिन पीछे गये, गुरु सों किया न हेत ।
अब पछितावा क्या करै , जब चिड़िया चुग गई खेत ।।
तुम्हारे अच्छे दिन पीछे चले गये अर्थात बीत गये किन्तु तुमने न तो भक्ति की और न सद्गुरु से प्रेम किया । जब अन्तिम समय निकट आया तो पछताने से क्या लाभ । जो समय बीत गया वह लौटकर वापस नहीं आता । तुम्हारे तन में बसी विषय भोग रूपी चिड़िया जीवन रूपी खेत का सारा दाना चुग गई ।

३९०
कुटिल बचन नहिं बोलिये , शीतल बैन ले चीन्हि ।
गंगा जल शीतल भया , परबत फोड़ा तीन्ही ।।
कड़वी वाणी का प्रयोग कभी मत करो क्योंकि कड़वी वाणी तीखे जहर के समान है । सदैव मीठी वाणी बोलो शीतल वचन कहो । शीतलता के कारण गंगा के जल में पर्वत फोड़कर अपना मार्ग बना लिया अर्थात मीठे वचनों के बोलने से तुम हर किसी के प्रिय बन जाओगे । संसार में तुम्हे यश सम्मान प्राप्त होगा ।

३९१
मुख आवै सोई कहै , बोलै नहीं विचार ।
हते पराई आत्मा , जीभ बांधि तलवार ।।
मुख में जो आया वाही बोल दिया , यह विचार ही नहीं किया कि जो कुछ भी मै बोल रहा हूँ वह उचित है या अनुचित ऐसे लोग अपनी जीभ में कड़वे वचनों की तलवार बांध कर दूसरों की आत्मा दुखी करते है ।

३९२
यह जीव आया दूर टे , जाना है बहुदुर ।
बिच के वासै बसि गया , काल रहा सिर पूर ।।
यह जीव न जाने कितनी योनियों में जन्म लेने के बाद मनुष्य तन प्राप्त किया है और आगे न जाने कितनी योनियों में भटकना है । आवागमन रूपी भव से मुक्त होने का उपाय करने के बजाय यह विषय रूपी सांसारिक माया में लिप्त हो गया । इसके सिर पर काल नाच रहा है जो सचेत नहीं हो रहा है ?

३९३
चहूँ दिस ठाढ़े सूरमा हाथ लिये तलवार ।
सबही यह तन देखता , काल ले गया मार ।।
चारों ओर बड़े बड़े वीर हाथ में तलवार लिये सतर्क होकर खड़े थे किन्तु सबके देखते देखते काल आया और शरीर से प्राण निकाल कर अपने साथ ले गया । सभी वीर यूँ खड़े रह गये । काल का कुछ भी नहीं बिगाड़ सके ।

३९४
जब लग मरने से डरै , तब लगि प्रेमी नाहिं ।
बड़ी दूर है प्रेम घर , समझ लेहु मन मांहि ।।
जब तक तुम्हारे मन में मृत्यु का डर समाया हुआ है तब तक प्रेम नहीं कर सकते । प्रेम घर बहुत दूर है । वहाँ तक पहुँचने के लिए मृत्यु भय का पार करना होगा जो कि बहुत ही कठिन है । यह बात अपने मन में अच्छी तरह समझ लो ।

३९५
संत समागम परम सुख , जानअल्प सुख और ।
मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ।।
संतो का समागम अर्थात संतो का मिलन परम सुख है । इनके सम्मुख संसार के भौतिक सुख तुच्छ है । हंस हमेशा मान सरोवर में मिलते हा और बगुले इधर उधर कहीं भी दिखायी पड़ जाते है अर्थ यह कि संत जन के सत्संग रूपी ज्ञान को पाने के लिए संतो के मान सरोवर में जाना होगा ।

३९६
ऊँचे कुल में जनमिया , करनी ऊँच न होय ।
सबरं कलस सुराभरा , साधू निन्दा सोय ।।
ऊँचे कुल में जन्म लेने से क्या हुआ जब तुम्हारे कर्म ही ऊँचे नहीं है अर्थात कर्म की प्रधानता है । अच्छा कर्म करने से प्राणी महान होता है जिस तरह सोने के कलश में शराब भरी हुई हो तो भी सज्जनों के लिए वह निन्दनीय है ।

३९७
कबिरा कलह अरु कल्पना , सतसंगति से जाय ।
दुःख बासे भागा फिरै , सुख में रहै समाय ।।
संतो के साथ रहने से मन के अन्दर बसी कल्पना और कलह रूपी व्याधियाँ नष्ट हो जाती है । जो व्यक्ति संतो की सेवा करता है उसके निकट दुःख आने का साहस नहीं करता अर्थात संत सेवक सदैव सुखी रहता है ।

३९८
कबिरा संगत साधु की , ज्यों गन्धी की बास ।
जो कुछ गन्धी दे नहीं , तो भी बास सुबास ।।
संत कबीर जी कहते है कि साधु की संगति सगुन्धित द्रव्य बेचने वाले गन्धी के बास की तरह है । जबकि गन्धी प्रत्यक्ष में कुछ नहीं देता फिर भी उसके सुगन्धित द्रव्यों के सुगन्ध से मन प्रसन्न हो जाता है । इसी तरह संतों से चाहे प्रत्यक्ष लाभ कुछ न हो फिर भी मन एवम आत्मा को शान्ति मिलती है ।

३९९
भूखा भूखा क्या करे , क्या सुनावे लोग ।
भांडा घड़ा निज मुख दिया , सोई पूरण जोग ।।

तू अपने को भूखा भूखा कहकर लोगों को क्या सुनाता फिरता है क्या लोग तेरी क्षुधा भा देंगे । जिस परम पिता परमेश्वर ने तुझे मुंह दिया है । उस पर विश्वास रख । वही तेरे पेट भर ने का साधन भी देगा ।

कबीर साहिब ने अपनी रचना ‘कर नैनों दीदार महल में प्यारा है’ में
सब कमलों का वर्णन विस्तार पूर्वक इस प्रकार किया है-


कर नैनो दीदार महल में प्यारा है ॥टेक॥
काम क्रोध मद लोभ बिसारो, सील संतोष छिमा सत धारो ।
मद्य मांस मिथ्या तजि डारो, हो ज्ञान घोड़े असवार, भरम से न्यारा है ॥1॥
धोती नेती वस्ती पाओ, आसन पद्म जुगत से लाओ ।
कुंभक कर रेचक करवाओ, पहिले मूल सुधार कारज हो सारा है ॥2॥
मूल कँवल दल चतुर बखानो, कलिंग जाप लाल रंग मानो ।
देव गनेस तह रोपा थानो, रिध सिध चँवर ढुलारा है ॥3॥
स्वाद चक्र षट्दल बिस्तारो, ब्रह्मा सावित्री रूप निहारो ।
उलटि नागिनी का सिर मारो, तहां शब्द ओंकारा है ॥4॥
नाभी अष्टकँवल दल साजा, सेत सिंहासन बिस्नु बिराजा ।
हिरिंग जाप तासु मुख गाजा, लछमी सिव आधारा है ॥5॥
द्वादस कँवल हृदय के माहीं, जंग गौर सिव ध्यान लगाई ।
सोहं शब्द तहां धुन छाई, गन करै जैजैकारा है ॥6॥
षोड़श दल कँवल कंठ के माहीं, तेहि मध बसे अविद्या बाई ।
हरि हर ब्रह्मा चँवर ढुराई, जहं शारिंग नाम उचारा है ॥7॥
ता पर कंज कँवल है भाई, बग भौरा दुह रूप लखाई ।
निज मन करत तहां ठुकराई, सौ नैनन पिछवारा है ॥8॥
कंवलन भेद किया निर्वारा, यह सब रचना पिण्ड मंझारा ।
सतसंग कर सतगुरु सिर धारा, वह सतनाम उचारा है ॥9॥
आंख कान मुख बंद कराओ अनहद झिंगा सब्द सुनाओ ।
दोनों तिल इकतार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है ॥10॥
चंद सूर एकै घर लाओ, सुषमन सेती ध्यान लगाओ ।
तिरबेनी के संघ समाओ, भोर उतर चल पारा है ॥11॥
घंटा संख सुनो धुन दोई सहस कँवल दल जगमग होई ।
ता मध करता निरखो सोई, बंकनाल धस पारा है ॥12॥
डाकिन साकिनी बहु किलकारें, जम किंकर धर्म दूत हकारें ।
सत्तनाम सुन भागें सारे, जब सतगुरु नाम उचारा है ॥13॥
गगन मंडल विच उर्धमुख कुइआ, गुरुमुख साधू भर भर पीया ।
निगुरे प्यास मरे बिन कीया, जा के हिये अंधियारा है ॥14॥
त्रिकुटी महल में विद्या सारा, घनहर गरजें बजे नगारा ।
लाला बरन सूरज उजियारा, चतुर कंवल मंझार सब्द ओंकारा है ॥15॥
साध सोई जिन यह गढ़ लीना, नौ दरवाजे परगट चीन्हा ।
दसवां खोल जाय जिन दीन्हा, जहां कुंफुल रहा मारा है ॥16॥
आगे सेत सुन्न है भाई, मानसरोवर पैठि अन्हाई ।
हंसन मिल हंसा होइ जाई, मिलै जो अमी अहारा है ॥17॥
किंगरी सारंग बजै सितारा, अच्छर ब्रह्म सुन्न दरबारा ।
द्वादस भानु हंस उजियारा, खट दल कंवल मंझार सब्द रारंकारा है ॥18॥
महासुन्न सिंध बिषमी घाटी, बिन सतगुर पावै नाही बाटी ।
ब्याघर सिंह सरप बहु काटी, तहं सहज अचिंत पसारा है ॥19॥
अष्ट दल कंवल पारब्रह्म भाई, दाहिने द्वादस अचिंत रहाई ।
बायें दस दल सहज समाई, यूं कंवलन निरवारा है ॥20॥
पांच ब्रह्म पांचों अंड बीनो, पांच ब्रह्म निःअक्षर चीन्हो ।
चार मुकाम गुप्त तहं कीन्हो, जा मध बंदीवान पुरुष दरबारा है ॥21॥
दो पर्बत के संध निहारो, भंवर गुफा ते संत पुकारो ।
हंसा करते केल अपारो, तहां गुरन दरबारा है ॥22॥
सहस अठासी दीप रचाये, हीरे पन्ने महल जड़ाये ।
मुरली बजत अखंड सदाये, तहं सोहं झुनकारा है ॥23॥
सोहं हद्द तजी जब भाई, सत्त लोक की हद पुनि आई ।
उठत सुगंध महा अधिकाई, जा को वार न पारा है ॥24॥
षोड़स भानु हंस को रूपा, बीना सत धुन बजै अनूपा ।
हंसा करत चंवर सिर भूपा, सत्त पुरुष दरबारा है ॥25॥
कोटिन भानु उदय जो होई, एते ही पुनि चंद्र लखोई ।
पुरुष रोम सम एक न होई, ऐसा पुरुष दीदारा है ॥26॥
आगे अलख लोक है भाई, अलख पुरुष की तहं ठकुराई ।
अरबन सूर रोम सम नाहीं, ऐसा अलख निहारा है ॥27॥
ता पर अगम महल इक साजा, अगम पुरुष ताहि को राजा ।
खरबन सूर रोम इक लाजा, ऐसा अगम अपारा है ॥28॥
ता पर अकह लोक हैं भाई, पुरुष अनामी तहां रहाई ।
जो पहुँचा जानेगा वाही, कहन सुनन से न्यारा है ॥29॥
काया भेद किया निर्बारा, यह सब रचना पिंड मंझारा ।
माया अवगति जाल पसारा, सो कारीगर भारा है ॥30॥
आदि माया कीन्ही चतुराई, झूठी बाजी पिंड दिखाई ।
अवगति रचन रची अंड माहीं, ता का प्रतिबिंब डारा है ॥31॥
सब्द बिहंगम चाल हमारी, कहैं कबीर सतगुर दइ तारी ।
खुले कपाट सब्द झुनकारी, पिंड अंड के पार सो देस हमारा है ॥

साखी

(1)गुरुदेव कौ अंग (2) सुमिरण कौ अंग (3) बिरह कौ अंग
(4) ग्यान बिरह कौ अंग (5) परचा कौ अंग (6) रस कौ अंग
(7) लांबि कौ अंग (8) जर्णा कौ अंग (9) हैरान कौ अंग
(10) लै कौ अंग (11) निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग (12) चितावणी कौ अंग
(13) मन कौ अंग (14) सूषिम मारग कौ अंग (15) सूषिम जनम कौ अंग
(16) माया कौ अंग (17) चाँणक कौ अंग (18) करणीं बिना कथणीं कौ अंग
(19) कथणीं बिना करणी कौ अंग (20) कामी नर कौ अंग (21) सहज कौ अंग
(22) साँच कौ अंग (23) भ्रम विधौंसण कौ अंग (24) भेष कौ अंग
(25) कुसंगति कौ अंग (26) संगति कौ अंग (27) असाध कौ अंग
(28) साध कौ अंग (29) साध साषीभूत कौ अंग (30) साध महिमाँ कौ अंग
(31) मधि कौ अंग (32) सारग्राही कौ अंग (33) विचार कौ अंग
(34) उपदेश कौ अंग (35) बेसास कौ अंग (36) पीव पिछाँणन कौ अंग
(37) बिर्कताई कौ अंग (38) सम्रथाई कौ अंग (39) कुसबद कौ अंग
(40) सबद कौ अंग (41) जीवन मृतक कौ अंग (42) चित कपटी कौ अंग
(43) गुरुसिष हेरा कौ अंग (44) हेत प्रीति सनेह कौ अंग (45) सूरा तन कौ अंग
(46) काल कौ अंग (47) सजीवनी कौ अंग (48) अपारिष कौ अंग
(49) पारिष कौ अंग (50) उपजणि कौ अंग (51) दया निरबैरता कौ अंग
(52) सुंदरि कौ अंग (53) कस्तूरियाँ मृग कौ अंग (54) निंद्या कौ अंग
(55) निगुणाँ कौ अंग (56) बीनती कौ अंग (57) साषीभूत कौ अंग
(58) बेलि कौ अंग (59) अबिहड़ कौ अंग

 

(1) गुरुदेव कौ अंग
सतगुर सवाँन को सगा, सोधी सईं न दाति।
हरिजी सवाँन को हितू, हरिजन सईं न जाति॥1॥
बलिहारी गुर आपणैं द्यौं हाड़ी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार॥2॥
टिप्पणी: क-ख-देवता के आगे ‘कया’ पाठ है जो अनावश्यक है।
सतगुर की महिमा, अनँत, अनँत किया उपगार।
लोचन अनँत उघाड़िया, अनँत दिखावणहार॥3॥
राम नाम के पटतरे, देबे कौ कुछ नाहिं।
क्या ले गुर सन्तोषिए, हौंस रही मन माहिं॥4॥
सतगुर के सदकै करूँ, दिल अपणी का साछ।
सतगुर हम स्यूँ लड़ि पड़ा महकम मेरा बाछ॥5॥
टिप्पणी: ख-सदकै करौं। ख-साच। तुक मिलाने के लिऐ ‘साछ’ ‘साक्ष’ लिखा है।
सतगुर लई कमाँण करि, बाँहण लागा तीर।
एक जु बाह्यां प्रीति सूँ, भीतरि रह्या सरीर॥6॥
सतगुर साँवा सूरिवाँ, सबद जू बाह्या एक।
लागत ही में मिलि गया, पढ़ा कलेजै छेक॥7॥
सतगुर मार्‌या बाण भरि, धरि करि सूधी मूठि।
अंगि उघाड़ै लागिया, गई दवा सूँ फूंटि॥8॥
हँसै न बोलै उनमनी, चंचल मेल्ह्या मारि।
कहै कबीर भीतरि भिद्या, सतगुर कै हथियार॥9॥
गूँगा हूवा बावला, बहरा हुआ कान।
पाऊँ थै पंगुल भया, सतगुर मार्‌या बाण॥10॥
पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।
आगै थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि॥11॥
दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट।
पूरा किया बिसाहूणाँ, बहुरि न आँवौं हट्ट॥12॥
टिप्पणी: क-ख-अघट, हट।
ग्यान प्रकास्या गुर मिल्या, सो जिनि बीसरि जाइ।
जब गोबिंद कृपा करी, तब गुर मिलिया आइ॥13॥
टिप्पणी: क-गोब्यंद।
कबीर गुर गरवा मिल्या, रलि गया आटैं लूँण।
जाति पाँति कुल सब मिटै, नांव धरोगे कौण॥14॥
जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध।
अंधा अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत॥15॥
टिप्पणी: क-चेला हैजा चंद (? है गा अंध)।
नाँ गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव।
दुन्यूँ बूड़े धार मैं, चढ़ि पाथर की नाव॥16॥
चौसठ दीवा जोइ करि, चौदह चन्दा माँहि।
तिहिं धरि किसकौ चानिणौं, जिहि घरि गोबिंद नाहिं॥17॥
टिप्पणी: ख-चाँरिणौं। ख-तिहि...जिहि।
निस अधियारी कारणैं, चौरासी लख चंद।
अति आतुर ऊदै किया, तऊ दिष्टि नहिं मंद॥18॥
भली भई जू गुर मिल्या, नहीं तर होती हाँणि।
दीपक दिष्टि पतंग ज्यूँ, पड़ता पूरी जाँणि॥19॥
माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पड़ंत।
कहै कबीर गुर ग्यान थैं, एक आध उबरंत॥20॥
सतगुर बपुरा क्या करै, जे सिषही माँहै चूक।
भावै त्यूँ प्रमोधि ले, ज्यूँ वंसि बजाई फूक॥21॥
टिप्पणी: ख-प्रमोदिए। जाँणे बास जनाई कूद।
संसै खाया सकल जुग, संसा किनहुँ न खद्ध।
जे बेधे गुर अष्षिरां, तिनि संसा चुणि चुणि खद्ध॥22॥
टिप्पणी: ख-सैल जुग।
चेतनि चौकी बैसि करि, सतगुर दीन्हाँ धीर।
निरभै होइ निसंक भजि, केवल कहै कबीर॥23॥
सतगुर मिल्या त का भयां, जे मनि पाड़ी भोल।
पासि बिनंठा कप्पड़ा, क्या करै बिचारी चोल॥24॥
बूड़े थे परि ऊबरे, गुर की लहरि चमंकि।
भेरा देख्या जरजरा, (तब) ऊतरि पड़े फरंकि॥25॥
टिप्पणी: ख-जाजरा। इस दोहे के आगे ख प्रति में यह दोहा है-
कबीर सब जग यों भ्रम्या फिरै ज्यूँ रामे का रोज।
सतगुर थैं सोधी भई, तब पाया हरि का षोज॥27॥
गुरु गोविन्द तौ एक है, दूजा यह आकार।
आपा मेट जीवत मरै, तो पावै करतार॥26॥
कबीर सतगुर नाँ मिल्या, रही अधूरी सीप।
स्वांग जती का पहरि करि, घरि घरि माँगै भीष॥27॥
टिप्पणी: इसके आगे ख प्रति में यह दोहा है-
कबीर सतगुर ना मिल्या, सुणी अधूरी सीष।
मुँड मुँडावै मुकति कूँ, चालि न सकई वीष॥29॥
सतगुर साँचा सूरिवाँ, तातै लोहिं लुहार।
कसणो दे कंचन किया, ताई लिया ततसार॥28॥
टिप्पणी: ख-सतगुर मेरा सूरिवाँ।
थापणि पाई थिति भई, सतगुर दीन्हीं धीर।
कबीर हीरा बणजिया, मानसरोवर तीर॥29॥
टिप्पणी: इसके आगे ख प्रति में यह दोहा है-
कबीर हीरा बणजिया, हिरदे उकठी खाणि।
पारब्रह्म क्रिपा करी सतगुर भये सुजाँण॥
निहचल निधि मिलाइ तत, सतगुर साहस धीर।
निपजी मैं साझी घणाँ, बांटै नहीं कबीर॥30॥
चौपड़ि माँडी चौहटै, अरध उरध बाजार।
कहै कबीरा राम जन, खेलौ संत विचार॥31॥
पासा पकड़ा प्रेम का, सारी किया सरीर।
सतगुर दावा बताइया, खेलै दास कबीर॥32॥
सतगुर हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का भीजि गया अब अंग॥33॥
कबीर बादल प्रेम का, हम परि बरष्या आइ।
अंतरि भीगी आत्माँ हरी भई बनराइ॥34॥
टिप्पणी: ख-में नहीं हैं।
पूरे सूँ परचा भया, सब दुख मेल्या दूरि।
निर्मल कीन्हीं आत्माँ ताथैं सदा हजूरि॥35॥
टिप्पणी: ख-में नहीं है।

(2) सुमिरण कौ अंग

कबीर कहता जात हूँ, सुणता है सब कोइ।
राम कहें भला होइगा, नहिं तर भला न होइ॥1॥
कबीर कहै मैं कथि गया, कथि गया ब्रह्म महेस।
राम नाँव सतसार है, सब काहू उपदेस॥2॥
तत तिलक तिहूँ लोक मैं, राम नाँव निज सार।
जब कबीर मस्तक दिया सोभा अधिक अपार॥3॥
भगति भजन हरि नाँव है, दूजा दुक्ख अपार।
मनसा बचा क्रमनाँ, कबीर सुमिरण सार॥4॥
कबीर सुमिरण सार है, और सकल जंजाल।
आदि अंति सब सोधिया दूजा देखौं काल॥5॥
चिंता तौ हरि नाँव की, और न चिंता दास।
जे कछु चितवैं राम बिन, सोइ काल कौ पास॥6॥
पंच सँगी पिव पिव करै, छटा जू सुमिरे मन।
मेरा मन सुमिरै राम कूँ, मेरा मन रामहिं आहि॥7॥
मेरा मन सुमिरै राम कूँ, मेरा मन रामहिं आहि।
अब मन रामहिं ह्नै रह्या, सीस नवावौं काहि॥8॥
तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही न हूँ।
वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूँ॥9॥
कबीर निरभै राम जपि, जब लग दीवै बाति।
तेल घट्या बाती बुझी, (तब) सोवैगा दिन राति॥10॥
कबीर सूता क्या करै, जागि न जपै मुरारि।
एक दिनाँ भी सोवणाँ, लंबे पाँव पसारि॥11॥
कबीर सूता क्या करै, काहे न देखै जागि।
जाका संग तैं बीछुड़ा, ताही के संग लागि॥12॥
कबीर सूता क्या करै उठि न रोवै दुक्ख।
जाका बासा गोर मैं, सो क्यूँ सोवै सुक्ख॥13॥
कबीर सूता क्या करै, गुण गोबिंद के गाइ।
तेरे सिर परि जम खड़ा, खरच कदे का खाइ॥14॥
कबीर सूता क्या करै, सुताँ होइ अकाज।
ब्रह्मा का आसण खिस्या, सुणत काल को गाज॥15॥
केसो कहि कहि कूकिये, नाँ सोइयै असरार।
राति दिवस के कूकणौ, (मत) कबहूँ लगै पुकार॥16॥ {ख-में नहीं है।}
जिहि घटि प्रीति न प्रेम रस, फुनि रसना नहीं राम।
ते नर इस संसार में, उपजि षये बेकाम॥17॥ (क-आइ संसार में।)
कबीर प्रेम न चाषिया, चषि न लीया साव।
सूने घर का पाहुणाँ, ज्यूँ आया त्यूँ जाव॥18॥
पहली बुरा कमाइ करि, बाँधी विष की पोट।
कोटि करम फिल पलक मैं, (जब) आया हरि की वोट॥19॥
कोटि क्रम पेलै पलक मैं, जे रंचक आवै नाउँ।
अनेक जुग जे पुन्नि करै, नहीं राम बिन ठाउँ॥20॥
जिहि हरि जैसा जाणियाँ, तिन कूँ तैसा लाभ।
ओसों प्यास न भाजई, जब लग धसै न आभ॥21॥
राम पियारा छाड़ि करि, करै आन का जाप।
बेस्वाँ केरा पूत ज्यूँ, कहे कौन सूँ बाप॥22॥
कबीर आपण राम कहि, औरां राम कहाइ।
जिहि मुखि राम न ऊचरे, तिहि मुख फेरि कहाइ॥23॥
टिप्पणी: ख- जा युष, ता युष
जैसे माया मन रमै, यूँ जे राम रमाइ।
(तौ) तारा मण्डल छाँड़ि करि, जहाँ के सो तहाँ जाइ॥24॥
लूटि सकै तो लूटियो, राम नाम है लूटि।
पीछै ही पछिताहुगे, यहु तन जैहै छूटि॥25॥
लूटि सकै तो लूटियो, राम नाम भण्डार।
काल कंठ तै गहैगा, रूंधे दसूँ दुवार॥26॥
लम्बा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहु मार।
कहौ संतो क्यूँ पाइये, दुर्लभ हरिदीदार॥27॥
गुण गाये गुण ना कटै, रटै न राम बियोग।
अह निसि हरि ध्यावै नहीं, क्यूँ पावै दुरलभ जोग॥28॥
कबीर कठिनाई खरी, सुमिरतां हरि नाम।
सूली ऊपरि नट विद्या, गिरूँ तं नाहीं ठाम॥29॥
कबीर राम ध्याइ लै, जिभ्या सौं करि मंत।
हरि साग जिनि बीसरै, छीलर देखि अनंत॥30॥
कबीर राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ।
फूटा नग ज्यूँ जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ॥31॥
कबीर चित्त चमंकिया, चहुँ दिस लागी लाइ।
हरि सुमिरण हाथूं घड़ा, बेगे लेहु बुझाइ॥32॥67॥

(3) बिरह कौ अंग

रात्यूँ रूँनी बिरहनीं, ज्यूँ बंचौ कूँ कुंज।
कबीर अंतर प्रजल्या, प्रगट्या बिरहा पुंज॥1॥
अबंर कुँजाँ कुरलियाँ, गरिज भरे सब ताल।
जिनि थे गोविंद बीछुटे, तिनके कौण हवाल॥2॥
चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति।
जे जन बिछुटे राम सूँ, ते दिन मिले न राति॥3॥
बासुरि सुख नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माँहि।
कबीर बिछुट्या राम सूँ ना सुख धूप न छाँह॥4॥
बिरहनि ऊभी पंथ सिरि, पंथी बूझै धाइ।
एक सबद कहि पीव का, कब रे मिलैगे आइ॥5॥
बहुत दिनन की जोवती, बाट तुम्हारी राम।
जिव तरसै तुझ मिलन कूँ, मनि नाहीं विश्राम॥6॥
बिरहिन ऊठै भी पड़े, दरसन कारनि राम।
मूवाँ पीछे देहुगे, सो दरसन किहिं काम॥7॥
मूवाँ पीछै जिनि मिलै, कहै कबीरा राम।
पाथर घाटा लोह सब, (तब) पारस कौंणे काम॥8॥
अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेसो कहियाँ।
कै हरि आयां भाजिसी, कै हरि ही पासि गयां॥9॥
आइ न सकौ तुझ पै, सकूँ न तूझ बुझाइ।
जियरा यौही लेहुगे, बिरह तपाइ तपाइ॥10॥
यहु तन जालौं मसि करूँ, ज्यूँ धूवाँ जाइ सरग्गि।
मति वै राम दया, करै, बरसि बुझावै अग्गि॥11॥
यहु तन जालै मसि करौं, लिखौं राम का नाउँ।
लेखणिं करूँ करंक की, लिखि लिखि राम पठाउँ॥12॥
कबीर पीर पिरावनीं, पंजर पीड़ न जाइ।
एक ज पीड़ परीति की, रही कलेजा छाइ॥13॥
चोट सताड़ी बिरह की, सब तन जर जर होइ।
मारणहारा जाँणिहै, कै जिहिं लागी सोइ॥14॥
कर कमाण सर साँधि करि, खैचि जू मार्‌या माँहि।
भीतरि भिद्या सुमार ह्नै जीवै कि जीवै नाँहि॥15॥
जबहूँ मार्‌या खैंचि करि, तब मैं पाई जाँणि।
लांगी चोट मरम्म की, गई कलेजा जाँणि॥16॥
जिहि सर मारी काल्हि सो सर मेरे मन बस्या।
तिहि सरि अजहूँ मारि, सर बिन सच पाऊँ नहीं॥17॥
बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्रा न लागै कोइ।
राम बियोगी ना जिवै, जिवै त बीरा होइ॥18॥
बिरह भुवंगम पैसि करि, किया कलेजै घाव।
साधू अंग न मोड़ही, ज्यूँ भावै त्यूँ खाव॥19॥
सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त।
और न कोई सुणि सकै, कै साई के चित्त॥20॥
बिरहा बिरहा जिनि कहौ, बिरहा है सुलितान।
जिह घटि बिरह न संचरै, सो घट सदा मसान॥21॥
अंषड़ियाँ झाई पड़ी, पंथ निहारि निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड़्या, राम पुकारि पुकारि॥22॥
इस तन का दीवा करौं, बाती मेल्यूँ जीव।
लोही सींचौ तेल ज्यूँ, कब मुख देखौं पीव॥23॥
नैंना नीझर लाइया, रहट बहै निस जाम।
पपीहा ज्यूँ पिव पिव करौं, कबरू मिलहुगे राम॥24॥
अंषड़िया प्रेम कसाइयाँ, लोग जाँणे दुखड़ियाँ।
साँई अपणैं कारणै, रोइ रोइ रतड़िया॥25॥
सोई आँसू सजणाँ, सोई लोक बिड़ाँहि।
जे लोइण लोंहीं चुवै, तौ जाँणों हेत हियाँहि॥26॥
कबीर हसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौं चित्त।
बिन रोयाँ क्यूँ पाइये, प्रेम पियारा मित्त॥27॥
जौ रोऊँ तो बल घटे, हँसौं तो राम रिसाइ।
मनही माँहि बिसूरणाँ, ज्यूँ घुंण काठहि खाइ॥28॥
हंसि हंसि कंत न पाइए, जिनि पाया तिनि रोइ।
जो हाँसेही हरि मिलै, तो नहीं दुहागनि कोइ॥29॥
हाँसी खेलौ हरि मिलै, तौ कौण सहे षरसान।
काम क्रोध त्रिष्णाँ तजै, ताहि मिलैं भगवान॥30॥
पूत पियारो पिता कौं, गौंहनि लागा धाइ।
लोभ मिठाई हाथ दे, आपण गया भुलाइ॥31॥
डारि खाँड़ पटकि करि, अंतरि रोस उपाइ।
रोवत रोवत मिलि गया, पिता पियारे जाइ॥32॥
टिप्पणी: ख-में इसके अनंतर यह दोहा है-
मो चित तिलाँ न बीसरौ, तुम्ह हरि दूरि थंयाह।
इहि अंगि औलू भाइ जिसी, जदि तदि तुम्ह म्यलियांह॥
नैना अंतरि आचरूँ, निस दिन निरषौं तोहि।
कब हरि दरसन देहुगे सो दिन आवै मोंहि॥33॥
कबीर देखत दिन गया, निस भी देखत जाइ।
बिरहणि पीव पावे नहीं, जियरा तलपै भाइ॥34॥
कै बिरहनि कूं मींच दे, कै आपा दिखलाइ।
आठ पहर का दाझणां, मोपै सह्या न जाइ॥35॥
बिरहणि थी तो क्यूँ रही, जली न पीव के नालि।
रहु रहु मुगध गहेलड़ी, प्रेम न लाजूँ मारि॥36॥
हौं बिरहा की लाकड़ी, समझि समझि धूंधाउँ।
छूटि पड़ौं यों बिरह तें, जे सारीही जलि जाउँ॥37॥
कबीर तन मन यों जल्या, बिरह अगनि सूँ लागि।
मृतक पीड़ न जाँणई, जाँणैगि यहूँ आगि॥38॥
बिरह जलाई मैं जलौं, जलती जल हरि जाउँ।
मो देख्याँ जल हरि जलै, संतौं कहीं बुझाउँ॥39॥
परबति परबति में फिर्‌या, नैन गँवाये रोइ।
सो बूटी पाऊँ नहीं, जातें जीवनि होइ॥40॥
फाड़ि फुटोला धज करौं, कामलड़ी पहिराउँ।
जिहि जिहिं भेषा हरि मिलैं, सोइ सोइ भेष कराउँ॥41॥
नैन हमारे जलि गये, छिन छिन लोड़ै तुझ।
नां तूं मिलै न मैं खुसी, ऐसी बेदन मुझ॥42॥
भेला पाया श्रम सों, भौसागर के माँह।
जो छाँड़ौ तौ डूबिहौ, गहौं त डसिये बाँह॥43॥
नोट: ख-में इसके आगे यह दोहा है-
बिरह जलाई मैं जलौं, मो बिरहिन कै दूष।
छाँह न बैसों डरपती, मति जलि ऊठे रूष॥46॥

रैणा दूर बिछोहिया, रह रे संषम झूरि।
देवलि देवलि धाहड़ी, देखी ऊगै सूरि॥44॥
सुखिया सब संसार है, खाये अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवै॥45॥112॥

(4) ग्यान बिरह कौ अंग

दीपक पावक आंणिया, तेल भी आंण्या संग।
तीन्यूं मिलि करि जोइया, (तब) उड़ि उड़ि पड़ैं पतंग॥1॥
मार्‌या है जे मरेगा, बिन सर थोथी भालि।
पड्या पुकारे ब्रिछ तरि, आजि मरै कै काल्हि॥2॥
हिरदा भीतरि दौ बलै, धूंवां प्रगट न होइ।
जाके लागी सो लखे, के जिहि लाई सोइ॥3॥
झल उठा झोली जली, खपरा फूटिम फूटि।
जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूत॥4॥
अगनि जू लागि नीर में, कंदू जलिया झारि।
उतर दषिण के पंडिता, रहे विचारि बिचारि॥5॥
दौं लागी साइर जल्या, पंषी बैठे आइ।
दाधी देह न पालवै सतगुर गया लगाइ॥6॥
गुर दाधा चेल्या जल्या, बिरहा लागी आगि।
तिणका बपुड़ा ऊबर्‌या, गलि पूरे के लागि॥7॥
आहेड़ी दौ लाइया, मृग पुकारै रोइ।
जा बन में क्रीला करी, दाझत है बन सोइ॥8॥
पाणी मांहे प्रजली, भई अप्रबल आगि।
बहती सलिता रहि गई, मेछ रहे जल त्यागि॥9॥
समंदर लागी आगि, नदियां जलि कोइला भई।
देखि कबीरा जागि, मंछी रूषां चढ़ि गई॥10॥122॥
टिप्पणी: ख-में इसके आगे यह दोहा है-
बिरहा कहै कबीर कौं तू जनि छाँड़े मोहि।
पारब्रह्म के तेज मैं, तहाँ ले राखौं तोहि॥

(5) परचा कौ अंग

कबीर तेज अनंत का, मानी ऊगी सूरज सेणि।
पति संगि जागी सूंदरी, कौतिग दीठा तेणि॥1॥
कोतिग दीठा देह बिन, मसि बिना उजास।
साहिब सेवा मांहि है, बेपरवांही दास॥2॥
पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान।
कहिबे कूं सोभा नहीं, देख्याही परवान॥3॥
अगम अगोचर गमि नहीं, तहां जगमगै जोति।
जहाँ कबीरा बंदिगी, ‘तहां’ पाप पुन्य नहीं छोति॥4॥
हदे छाड़ि बेहदि गया, हुवा निरंतर बास।
कवल ज फूल्या फूल बिन, को निरषै निज दास॥5॥
कबीर मन मधुकर भया, रह्या निरंतर बास।
कवल ज फूल्या जलह बिन, को देखै निज दास॥6॥
टिप्पणी : ख-कवल जो फूला फूल बिन
अंतर कवल प्रकासिया, ब्रह्म बास तहां होइ।
मन भवरा तहां लुबधिया, जांणैगा जन कोइ॥7॥
सायर नाहीं सीप बिन, स्वाति बूँद भी नाहिं।
कबीर मोती नीपजै, सुन्नि सिषर गढ़ माँहिं॥8॥
घट माँहे औघट लह्या, औघट माँहैं घाट।
कहि कबीर परचा भया, गुरु दिखाई बाट॥9॥
टिप्पणी: क-औघट पाइया।
सूर समांणो चंद में, दहूँ किया घर एक।
मनका च्यंता तब भया, कछू पूरबला लेख॥10॥
हद छाड़ि बेहद गया, किया सुन्नि असनान।
मुनि जन महल न पावई, तहाँ किया विश्राम॥11॥
देखौ कर्म कबीर का, कछु पूरब जनम का लेख।
जाका महल न मुनि लहैं, सो दोसत किया अलेख॥12॥
पिंजर प्रेमे प्रकासिया, जाग्या जोग अनंत।
संसा खूटा सुख भया, मिल्या पियारा कंत॥13॥
प्यंजर प्रेम प्रकासिया, अंतरि भया उजास।
मुख कसतूरी महमहीं, बांणीं फूटी बास॥14॥
मन लागा उन मन्न सों, गगन पहुँचा जाइ।
देख्या चंदबिहूँणाँ, चाँदिणाँ, तहाँ अलख निरंजन राइ॥15॥
मन लागा उन मन सों, उन मन मनहि बिलग।
लूँण बिलगा पाणियाँ, पाँणीं लूँणा बिलग॥16॥
पाँणी ही तें हिम भया, हिम ह्नै गया बिलाइ।
जो कुछ था सोई भया, अब कछू कह्या न जाइ॥17॥
भली भई जु भै पड्या, गई दशा सब भूलि।
पाला गलि पाँणी भया, ढुलि मिलिया उस कूलि॥18॥
चौहटै च्यंतामणि चढ़ी, हाडी मारत हाथि।
मीरा मुझसूँ मिहर करि, इब मिलौं न काहू साथि॥19॥
पंषि उडाणी गगन कूँ, प्यंड रह्या परदेस।
पाँणी पीया चंच बिन, भूलि गया यहु देस॥20॥
पंषि उड़ानी गगन कूँ, उड़ी चढ़ी असमान।
जिहिं सर मण्डल भेदिया, सो सर लागा कान॥21॥
सुरति समाँणो निरति मैं, निरति रही निरधार।
सुरति निरति परचा भया, तब खूले स्यंभ दुवार॥22॥
सुरति समाँणो निरति मैं, अजपा माँहै जाप।
लेख समाँणाँ अलेख मैं, यूँ आपा माँहै आप॥23॥
आया था संसार में, देषण कौं बहु रूप।
कहै कबीरा संत ही, पड़ि गया नजरि अनूप॥24॥
अंक भरे भरि भेटिया, मन मैं नाँहीं धीर।
कहै कबीर ते क्यूँ मिलैं, जब लग दोइ सरीर॥25॥
सचु पाया सुख ऊपनाँ, अरु दिल दरिया पूरि।
सकल पाप सहजै गये, जब साँई मिल्या हजूरि॥26॥
टिप्पणी: ख-सकल अघ।
धरती गगन पवन नहीं होता, नहीं तोया, नहीं तारा।
तब हरि हरि के जन होते, कहै कबीर बिचारा॥27॥
जा दिन कृतमनां हुता, होता हट न पट।
हुता कबीरा राम जन, जिनि देखै औघट घट॥28॥
थिति पाई मन थिर भया, सतगुर करी सहाइ।
अनिन कथा तनि आचरी, हिरदै त्रिभुवन राइ॥29॥
हरि संगति सीतल भया, मिटा मोह की ताप।
निस बासुरि सुख निध्य लह्या, जब अंतरि प्रकट्या आप॥30॥
तन भीतरि मन मानियाँ, बाहरि कहा न जाइ।
ज्वाला तै फिरि जल भया, बुझी बलंती लाइ॥31॥
तत पाया तन बीसर्‌या, जब मुनि धरिया ध्यान।
तपनि गई सीतल भया, जब सुनि किया असनान॥32॥
जिनि पाया तिनि सू गह्या गया, रसनाँ लागी स्वादि।
रतन निराला पाईया, जगत ढंढाल्या बादि॥33॥
कबीर दिल स्याबति भया, पाया फल सम्रथ्थ।
सायर माँहि ढंढोलताँ, हीरै पड़ि गया हथ्थ॥34॥
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाँहि।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥35॥
जा कारणि मैं ढूंढता, सनमुख मिलिया आइ।
धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ॥36॥
जा कारणि मैं जाइ था, सोई पाई ठौर।
सोई फिर आपण भया, जासूँ कहता और॥37॥
कबीर देख्या एक अंग, महिमा कही न जाइ।
तेज पुंज पारस धणों, नैनूँ रहा समाइ॥38॥
मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं।
मुकताहल मुकता चुगैं, अब उड़ि अनत न जाहिं॥39॥
गगन गरिजि अमृत चवै, कदली कंवल प्रकास।
तहाँ कबीरा बंदिगी, कै कोई निज दास॥40॥
नींव बिहुणां देहुरा, देह बिहूँणाँ देव।
कबीर तहाँ बिलंबिया करे अलप की सेव॥41॥
देवल माँहै देहुरी, तिल जेहैं बिसतार।
माँहैं पाती माँहिं जल, माँहे पुजणहार॥42॥
कबीर कवल प्रकासिया, ऊग्या निर्मल सूर।
निस अँधियारी मिटि गई, बाजै अनहद तूर॥43॥
अनहद बाजै नीझर झरै, उपजै ब्रह्म गियान।
अविगति अंतरि प्रगटै, लागै प्रेम धियान॥44॥
आकासै मुखि औंधा कुवाँ, पाताले पनिहारि।
ताका पाँणीं को हंसा पीवै, बिरला आदि बिचारि॥45॥
सिव सकती दिसि कौंण जु जोवै, पछिम दिस उठै धूरि।
जल मैं स्यंघ जु घर करै, मछली चढ़ै खजूरि॥46॥
अमृत बरसै हीरा निपजै, घंटा पड़ै टकसाल।
कबीर जुलाहा भया पारषू, अगभै उतर्‌या पार॥47॥
ममिता मेरा क्या करै, प्रेम उघाड़ी पौलि।
दरसन भया दयाल का, सूल भई सुख सौड़ि॥48॥170॥


(6) रस कौ अंग

कबीर हरि रस यौं पिया बाकी रही न थाकि।
पाका कलस कुँभार का, बहुरि न चढ़हिं चाकि॥1॥
राम रसाइन प्रेम रस पीवत, अधिक रसाल।
कबीर पीवण दुलभ है, माँगै सीस कलाल॥2॥
कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आइ।
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तो पिया न जाइ॥3॥
हरि रस पीया जाँणिये, जे कबहूँ न जाइ खुमार।
मैंमंता घूँमत रहै, नाँही तन की सार॥4॥
मैंमंता तिण नां चरै, सालै चिता सनेह।
बारि जु बाँध्या प्रेम कै, डारि रह्या सिरि षेह॥5॥
मैंमंता अविगत रहा, अकलप आसा जीति।
राम अमलि माता रहै, जीवन मुकति अतीकि॥6॥
जिहि सर घड़ा न डूबता, अब मैं गल मलि न्हाइ।
देवल बूड़ा कलस सूँ, पंषि तिसाई जाइ॥7॥
सबै रसाइण मैं किया, हरि सा और न कोइ।
तिल इक घट मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होइ॥8॥168॥
टिप्पणी: ख-रिचक घट में संचरे।

(7) लांबि कौ अंग

कया कमंडल भरि लिया, उज्जल निर्मल नीर।
तन मन जोबन भरि पिया, प्यास न मिटी सरीर॥1॥
मन उलट्या दरिया मिल्या, लागा मलि मलि न्हांन।
थाहत थाह न आवई, तूँ पूरा रहिमान॥2॥
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ।
बूँद समानी समंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥3॥
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ।
समंद समाना बूँद मैं, सो कत हेरह्या जाइ॥4॥172॥

(8) जर्णा कौ अंग

भारी कहौं त बहु डरौ, हलका कहूँ तो झूठ।
मैं का जाँणौं राम कूं, नैनूं कबहुं न दीठ॥1॥
टिप्पणी: क-हलवा कहूँ।
दीठा है तो कस कहूँ, कह्या न को पतियाइ।
हरि जैसा है तैसा रहौ, तूं हरिषि हरिषि गुण गाइ॥2॥
ऐसा अद्भूत जिनि कथै, अद्भुत राखि लुकाइ
बेद कुरानों गमि नहीं, कह्याँ न को पतियाइ॥3॥
करता की गति अगम है, तूँ चलि अपणैं उनमान।
धीरैं धीरैं पाव दे, पहुँचैगे परवान॥4॥
पहुँचैगे तब कहैंगे, अमड़ैगे उस ठाँइ।
अजहूँ बेरा समंद मैं, बोलि बिगूचै काँइ॥5॥


(9) हैरान कौ अंग

पंडित सेती कहि रहे, कह्या न मानै कोइ।
ओ अगाध एका कहै, भारी अचिरज होइ॥1॥
बसे अपंडी पंड मैं, ता गति लषै न कोइ।
कहै कबीरा संत हौ, बड़ा अचम्भा मोहि॥2॥179॥

(10) लै कौ अंग

जिहि बन सोह न संचरै, पंषि उड़ै नहिं जाइ।
रैनि दिवस का गमि नहीं, तहां कबीर रह्या ल्यो आइ॥1॥
सुरति ढीकुली ले जल्यो, मन नित ढोलन हार।
कँवल कुवाँ मैं प्रेम रस, पीवै बारंबार॥2॥
टिप्पणी: ख-खमन चित।
गंग जमुन उर अंतरै, सहज सुंनि ल्यौ घाट।
तहाँ कबीरै मठ रच्या, मुनि जन जोवैं बाट॥3॥182॥

(11) निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग

कबीर प्रीतडी तौ तुझ सौं, बहु गुणियाले कंत।
जे हँसि बोलौं और सौं, तौं नील रँगाउँ दंत॥1॥
नैना अंतरि आव तूँ, ज्यूँ हौं नैन झँपेउँ।
नाँ हौं देखौं और कूं, नाँ तुझ देखन देउँ॥2॥
मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।
तेरा तुझको सौंपता, क्या लागै है मेरा॥3॥
कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ।
नैनूं रमइया रमि रह्या, दूजा कहाँ समाइ॥4॥
कबीर सीप समंद की, रटै पियास पियास।
संमदहि तिणका बरि गिणै स्वाँति बूँद की आस॥5॥
कबीर सुख कौ जाइ था, आगै आया दुख।
जाहि सुख घरि आपणै हम जाणैं अरु दुख॥6॥
दो जग तो हम अंगिया, यहु डर नाहीं मुझ।
भिस्त न मेरे चाहिये, बाझ पियारे तुझ॥7॥
टिप्पणी: ख-भिसति।
जे वो एकै न जाँणियाँ तो जाँण्याँ सब जाँण।
जो वो एक न जाँणियाँ, तो सबहीं जाँण अजाँण॥8॥
कबीर एक न जाँणियाँ, तो बहु जाँण्याँ क्या होइ।
एक तैं सब होत है, सब तैं एक न होइ॥9॥
जब लगि भगति सकांमता, तब लग निर्फल सेव।
कहै कबीर वै क्यूं मिलैं, निहकामी निज देव॥10॥
आसा एक जू राम की, दूजी आस निरास।
पाँणी माँहै घर करैं, ते भी मरै पियास॥11॥
टिप्पणी: इसके आगे ख में ये दोहे हैं-
आसा एक ज राम की, दूजी आस निवारी।
आसा फिरि फिर मारसी, ज्यूँ चौपड़ि का सारि॥11॥
आसा एक ज राम की जुग जुग पुरवे आस।
जै पाडल क्यों रे करै, बसैहिं जु चंदन पास॥12॥
जे मन लागै एक सूँ, तो निरबाल्या जाइ।
तूरा दुइ मुखि बाजणाँ न्याइ तमाचे खाइ॥12॥
कबीर कलिजुग आइ करि, कीये बहुतज मीत।
जिन दिल बँधी एक सूँ, ते सुखु सोवै नचींत॥13॥
कबीर कुता राम का, मुतिया मेरा नाउँ।
गलै राम की जेवडी, जित खैचे तित जाउँ॥14॥
तो तो करै त बाहुड़ों, दुरि दुरि करै तो जाउँ।
ज्यूँ हरि राखैं त्यूँ रहौं, जो देवै सो खाउँ॥15॥
मन प्रतीति न प्रेम रस, नां इस तन मैं ढंग।
क्या जाणौं उस पीव सूं, कैसे रहसी रंग॥16॥
उस संम्रथ का दास हौं, कदे न होइ अकाज।
पतिब्रता नाँगी रहै, तो उसही पुरिस कौ लाज॥17॥
धरि परमेसुर पाँहुणाँ, सुणौं सनेही दास।
षट रस भोजन भगति करि, ज्यूँ कदे न छाड़ैपास॥18॥200॥

(12) चितावणी कौ अंग

कबीर नौबति आपणी, दिन दस लेहु बजाइ।
ए पुर पटन ए गली, बहुरि न देखै आइ॥1॥
जिनके नौबति बाजती, मैंगल बँधते बारि।
एकै हरि के नाँव बिन, गए जन्म सब हारि॥2॥
ढोल दमामा दड़बड़ी, सहनाई संगि भेरि।
औसर चल्या बजाइ करि, है कोइ राखै फेरि॥3॥
सातो सबद जु बाजते, घरि घरि होते राग।
ते मंदिर खाली पड़े, बैसण लागे काग॥4॥
कबीर थोड़ा जीवणा माड़े बहुत मँडाण।
सबही ऊभा मेल्हि गया, राव रंक सुलितान॥5॥
इक दिन ऐसा होइगा, सब सूँ पड़ै बिछोइ।
राजा राणा छत्रापति, सावधान किन होइ॥6॥
टिप्पणी: ख-में इसके आगे यह दोहा है-
ऊजड़ खेड़ै ठीकरी, घड़ि घड़ि गए कुँभार।
रावण सरीखे चलि गए, लंका के सिकदार॥7॥

कबीर पटल कारिवाँ, पंच चोर दस द्वार।
जन राँणौं गढ़ भेलिसी, सुमिरि लै करतार॥7॥
टिप्पणी: ख-जम...भेलसी, बोल गले गोपाल।

कबीर कहा गरबियौ, इस जीवन की आस।
टेसू फूले दिवस चारि, खंखर भये पलास॥8॥
कबीर कहा गरबियो, देही देखि सुरंग।
बिछड़ियाँ मिलिनौ नहीं, ज्यूँ काँचली भुवंग॥9॥
कबीर कहा गरिबियो, ऊँचे देखि अवास।
काल्हि पर्‌यूँ भ्वै लेटणाँ, ऊपरि जामैं घास॥10॥
कबीर कहा गरबियौ, चाँम लपेटे हड।
हैबर ऊपरि छत्रा सिरि, ते भी देबा खड॥11॥
कबीर कहा गरबियो, काल गहै कर केस।
नां जाँणों कहाँ मारिसी, कै घरि कै परदेस॥12॥
टिप्पणी: ख-कत मारसी।
यहु ऐसा संसार है जैसा सैबल फूल।
दिन दस के व्योहार को, झूठै रंगि न भूल॥13॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
मीति बिसारी बाबरे, अचिरज कीया कौन।
तन माटी में मिलि गया, ज्यूँ आटे मैं लूण॥15॥
जाँभण मरण बिचारि करि, कूडे काँम निहारि।
जिनि पंथू तुझ चालणां, सोई पंथ सँवारि॥14॥
बिन रखवाले बहिरा, चिड़ियैं खाया खेत।
आधा प्रधा ऊबरै, चेति कै तो चेति॥15॥
हाड़ जलै ज्यूँ लाकड़ी, केस जलै ज्यूँ घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास॥16॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे ये दोहे हैं-
मड़ा जलै लकड़ी जलै, जलै जलावणहार।
कौतिगहारे भी जलैं, कासनि करौ पुकार॥23॥
कबीर देवल हाड का, मारी तणा बधाँण।
खड हडता पाया नहीं, देवल का रहनाँण॥24॥

कबीर मंदिर ढहि पड़ा, सेंट भई सैबार।
कोई मंदिर चिणि गया, मिल्या न दूजी बार॥17॥
टिप्पणी: ख-देवल ढहि।
(16, 17)नंबर के दोहे ‘क’ प्रति में 22, 23 नंबर पर हैं।
आजि कि काल्हि कि पचे दिन, जंगल होइगा बास।
ऊपरि ऊपरि फिरहिंगे, ढोर चरंदे घास॥18॥
मरहिंगे मरि जाहिंगे, नांव न लेखा कोइ।
ऊजड़ जाइ बसाहिंगे, छाँड़ि बसंती लोइ॥19॥
कबीर खेति किसाण का, भ्रगौ खाया खाड़ि।
खेत बिचारा क्या करे, जो खसम न करई बाड़ि॥20॥
कबीर देवल ढहि पड़ा, ईंट भई सैवार।
करि चेजारा सौ प्रीतिड़ी, ज्यौं ढहै न दूजी बार॥18॥
कबीर मंदिर लाष का, जड़िया हीरै लालि।
दिवस चारि का पेषणां, विनस जाइगा काल्हि॥19॥
कबीर धूलि सकेलि करि, पुड़ी ज बाँधी एह।
दिवस चारि का पेषणाँ, अंति षेह का षेह॥20॥
टिप्पणी: ख-धूलि समेटि।
कबीर जे धंधै तौ धूलि, बिन धंधे धूलै नहीं।
ते नर बिनठे मूलि, जिनि धंधे मैं ध्याया नहीं॥21॥
कबीर सुपनै रैनि कै, ऊघड़ि आयै नैन।
जीव पड्या बहु लूटि मैं, जागै तो लैण न दैण॥22॥
टिप्पणी: ख- बहु भूलि मैं।
कबीर सुपनै रैनि के, पारस जीय मैं छेक।
जे सोऊँ तो दोइ जणाँ, जे जागूँ तो एक॥23॥
टिप्पणी: इसके आगे ख में यह दोहा है-
कबीर इहै चितावणी, जिन संसारी जाइ।
जे पहिली सुख भोगिया, तिन का गूड ले खाइ॥30॥
कबीर इस संसार में घणै मनिप मतिहींण।
राम नाम जाँणौं नहीं, आये टापी दीन॥24॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
पीपल रूनों फूल बिन, फलबिन रूनी गाइ।
एकाँ एकाँ माणसाँ, टापा दीन्हा आइ॥32॥

कहा कियौ हम आइ करि, कहा करेंगे जाइ।
इत के भए न उत के, चाले मूल गँवाइ॥25॥
आया अणआया भया, जे बहुरता संसार।
पड़ा भुलाँवा गफिलाँ, गये कुबंधी हारि॥26॥
कबीर हरि की भगति बिन, धिगि जीमण संसार।
धूँवाँ केरा धौलहर जात न लागै वार॥27॥
जिहि हरि की चोरी करि, गये राम गुण भूलि।
ते बिंधना बागुल रचे, रहे अरध मुखि झूलि॥28॥
माटी मलणि कुँभार की, घड़ीं सहै सिरि लात।
इहि औसरि चेत्या नहीं, चूका अबकी घात॥29॥
इहि औसरि चेत्या नहीं, पसु ज्यूँ पाली देह।
राम नाम जाण्या नहीं, अति पड़ी मुख षेह्ड्ड30॥
राम नाम जाण्यो नहीं, लानी मोटी षोड़ि।
काया हाँडी काठ की, ना ऊ चढ़े बहोड़ि॥31॥
राम नाम जाण्या नहीं, बात बिनंठी मूलि।
हरत इहाँ ही हारिया, परति पड़ी मुख धूलि॥32॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे ये दोहे हैं-
राम नाम जाण्या नहीं, मेल्या मनहिं बिसारि।
ते नर हाली बादरी, सदा परा पराए बारि॥42॥
राम नाम जाण्या नहीं, ता मुखि आनहिं आन।
कै मूसा कै कातरा, खाता गया जनम॥43॥
राम नाम जाण्यो नहीं हूवा बहुत अकाज।
बूडा लौरे बापुड़ा बड़ा बूटा की लाज॥44॥
राम नाम जाँण्याँ नहीं, पल्यो कटक कुटुम्ब।
धंधा ही में मरि गया, बाहर हुई न बंब॥33॥
मनिषा जनम दुर्लभ है, देह न बारम्बार।
तरवर थैं फल झड़ि पड़ा बहुरि न लागै डार॥34॥
कबीर हरि की भगति करि, तजि बिषिया रस चोज।
बारबार नहीं पाइए, मनिषा जन्म की मौज॥35॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
पाणी ज्यौर तालाब का दह दिसी गया बिलाइ।
यह सब योंही जायगा, सकै तो ठाहर लाइ॥48॥
कबीर यहु तन जात है, सकै तो ठाहर लाइ।
कै सेवा करि साध की, कै गुण गोविंद के गाइ॥36॥
टिप्पणी: ख-के गोबिंद गुण गाइ।
कबीर यह तन जात है, सकै तो लेहु बहोड़ि।
नागे हाथूँ ते गए, जिनके लाख करोड़ि॥37॥
टिप्पणी: ख-नागे पाऊँ।
यह तनु काचा कुंभ है, चोट चहूँ दिसि खाइ।
एक राम के नाँव बिन, जदि तदि प्रलै जाइ॥38॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
यह तन काचा कुंभ है, मांहि कया ढिंग बास।
कबीर नैंण निहारियाँ, तो नहीं जीवन आस॥52॥
यह तन काचा कुंभ है, लिया फिरै था साथि।
ढबका लागा फुटि गया, कछू न आया हाथि॥39॥
काँची कारी जिनि करै, दिन दिन बधै बियाधि।
राम कबीरै रुचि भई, याही ओषदि साधि॥40॥
कबीर अपने जीवतै, ए दोइ बातैं धोइ।
लोग बड़ाई कारणै, अछता मूल न खोइ॥41॥
खंभा एक गइंद दोइ, क्यूँ करि बंधिसि बारि।
मानि करै तो पीव नहीं, पीव तौ मानि निवारि॥42॥
दीन गँवाया दुनी सौं, दुनी न चाली साथि।
पाइ कुहाड़ा मारिया, गाफिल अपणै हाथि॥43॥
यह तन तो सब बन भया, करम भए कुहाड़ि।
आप आप कूँ काटिहैं, कहैं कबीर विचारि॥44॥
कुल खोया कुल ऊबरै, कुल राख्यो कुल जाइ।
राम निकुल कुल भेंटि लैं, सब कुल रह्या समाइ॥45॥
दुनिया के धोखे मुवा, चलै जु कुल की काँण।
तबकुल किसका लाजसी, जब ले धर्‌या मसाँणि॥46॥
टिप्पणी: ख-का कौ लाजसी।
दुनियाँ भाँडा दुख का भरी मुँहामुह भूष।
अदया अलह राम की, कुरलै ऊँणी कूष॥47॥
टिप्पणी: इसके आगे ख में यह दोहा है-
दुनियां के मैं कुछ नहीं, मेरे दुनी अकथ।
साहिब दरि देखौं खड़ा, सब दुनियां दोजग जंत॥61॥
जिहि जेबड़ी जग बंधिया, तूँ जिनि बँधै कबीर।
ह्नैसी आटा लूँण ज्यूँ, सोना सँवाँ शरीर॥48॥
कहत सुनत जग जात है, विषै न सूझै काल।
कबीर प्यालै प्रेम कै, भरि भरि पिवै रसाल॥49॥
कबीर हद के जीव सूँ, हित करि मुखाँ न बोलि
जे लागे बेहद सूँ, तिन सूँ अंतर खोलि॥50॥
टिप्पणी: इसके आगे ख प्रति में यह दोहा है-
कबीर साषत की सभा, तू मत बैठे जाइ।
एकै बाड़ै क्यू बड़ै, रीझ गदहड़ा गाइ॥65॥
कबीर केवल राम की, तूँ जिनि छाड़ै ओट।
घण अहरणि बिचि लोह ज्यूँ, घड़ी सहे सिर चोट॥51॥
कबीर केवल राम कहि, सुध गरीबी झालि।
कूड़ बड़ाई बूड़सी, भारी पड़सी काल्हि॥52॥
काया मंजन क्या करै, कपड़ धोइम धोइ।
उजल हूवा न छूटिए, सुख नींदड़ी न सोह॥53॥
उजल कपड़ा पहरि करि, पान सुपारी खाँहि।
एके हरि का नाँव बिन, बाँधे जमपुरि जाँहि॥54॥
टिप्पणी: इसके आगे ख प्रति में यह दोहा है-
थली चरंतै म्रिघ लै, बीध्या एक ज सौंण।
हम तो पंथी पंथ सिरि, हर्‌या चरैगा कौण॥74॥
तेरा संगी कोइ नहीं, सब स्वारथ बँधी लोइ।
मनि परतीति न ऊपजै, जीव बेसास न होइ॥55॥
मांइ बिड़ाणों बाप बिड़, हम भी मंझि बिड़ाह।
दरिया केरी नाव ज्यूँ, संजोगे मिलियाँह॥56॥
इत प्रधर उत घर बड़जण आए हाट।
करम किराणाँ बेचि करि, उठि ज लागे बाट॥57॥
टिप्पणी: ख एथि परिघरि उथि घरि, जोवण आए हाट।
नान्हाँ काती चित दे, महँगे मोलि बिकाइ।
गाहक राजा राम है और न नेड़ा आइ॥58॥
डागल उपरि दौड़णां, सुख नींदड़ी न सोइ।
पुनै पाए द्यौंहणे, ओछी ठौर न खोइ॥59॥
टिप्पणी: ख पुन पाया देहड़ी, बोछां ठौर न खाइ।
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
ज्यूँ कोली पेताँ बुणै, बुणतां आवै बोड़ि।
ऐसा लेख मीच का, कछु दौड़ि सके तो दौड़ि॥76॥
मैं मैं बड़ी बलाइ है, सके तो निकसी भाजि।
कब लग राखौं हे सखी, रूई पलेटी आगि॥60॥
मैं मैं मेरी जिनि करै, मेरी मूल बिनास।
मेरी पग का पैषड़ा, मेरी गल की पास॥61॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे ये दोहे हैं-
मेरे तेर की जीवणी, बसि बंध्या संसार।
कहाँ सुकुँणबा सुत कलित, दाक्षणि बारंबार॥79॥
मेरे तेरे की रासड़ी, बलि बंध्या संसार।
दास कबीरा किमि बँधै, जाकैं राम अधार॥82॥
कबीर नांव जरजरी, भरी बिराणै भारि।
खेवट सौं परचा नहीं, क्यो करि उतरैं पारि॥83॥
कबीर नाव जरजरी, कूड़े खेवणहार।
हलके हलके तिरि गए, बूड़े तिनि सिर भार॥62॥262॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर पगड़ा दूरि है, जिनकै बिचिहै राति।
का जाणौं का होइगा, ऊगवै तैं परभाति॥84॥

(13) मन कौ अंग

मन कै मते न चालिये, छाड़ि जीव की बाँणि।
ताकू केरे सूत ज्यूँ, उलटि अपूठा आँणि॥1॥
टिप्पणी: ख तेरा तार ज्यूँ।
चिंता चिति निबारिए, फिर बूझिए न कोइ।
इंद्री पसर मिटाइए, सहजि मिलैगा सोइ॥2॥
टिप्पणी: ख-परस निबारिए।
आसा का ईंधन करूँ, मनसा करुँ विभूति।
जोगी फेरी फिल करौं, यों बिनवाँ वै सूति॥3॥
कबीर सेरी साँकड़ी चंचल मनवाँ चोर।
गुण गावै लैलीन होइ, कछू एक मन मैं और॥4॥
कबीर मारूँ मन कूँ, टूक टूक ह्नै जाइ।
विष की क्यारी बोई करि, लुणत कहा पछिताइ॥5॥
इस मन कौ बिसमल करौं, दीठा करौं अदीठ।
जै सिर राखौं आपणां, तौ पर सिरिज अंगीठ॥6॥
मन जाणैं सब बात, जाणत ही औगुण करै।
काहे की कुसलात, कर दीपक कूँ बैं पड़ै॥7॥
हिरदा भीतरि आरसी, मुख देषणाँ न जाइ।
मुख तौ तौपरि देखिए, जे मन की दुविधा जाइ॥8॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे ये दोहे हैं-
कबीर मन मृथा भगा, खेत बिराना खाइ।
सूलाँ करि करि से किसी जब खसम पहूँचे आइ॥9॥
मन को मन मिलता नहीं तौ होता तन का भंग।
अब ह्नै रहु काली कांवली, ज्यौं दूजा चढ़ै न रंग॥10॥
मन दीया मन पाइए, मन बिन मन नहीं होइ।
मन उनमन उस अंड ज्यूँ, खनल अकासाँ जोइ॥9॥
मन गोरख मन गोविंदो, मन हीं औघड़ होइ।
जे मन राखै जतन करि, तौ आपै करता सोइ॥10॥
एक ज दोसत हम किया, जिस गलि लाल कबाइ।
एक जग धोबी धोइ मरै, तौ भी रंग न जाइ॥11॥
पाँणी ही तैं पातला, धूवाँ ही तै झींण।
पवनाँ बेगि उतावला, सो दोसत कबीरै कीन्ह॥12॥
कबीर तुरी पलांड़ियाँ, चाबक लीया हाथि।
दिवस थकाँ साँई मिलौं, पीछे पड़िहै राति।॥13॥
मनवां तो अधर बस्या, बहुतक झीणां होइ।
आलोकत सचु पाइया, कबहूँ न न्यारा सोइ॥14॥
मन न मार्‌या मन करि, सके न पंच प्रहारि।
सीला साच सरधा नहीं, इंद्री अजहुँ उद्यारि॥15॥
कबीर मन बिकरै पड़ा, गया स्वादि के साथ।
गलका खाया बरज्ताँ, अब क्यूँ आवै हाथि॥16॥
कबीर मन गाफिल भया, सुमिरण लागै नाहिं।
घणीं सहैगा सासनाँ, जम की दरगह माहिं॥17॥
कोटि कर्म पल मैं करै, यहु मन बिषिया स्वादि।
सतगुर सबद न मानई, जनम गँवाया बादि॥18॥
मैंमंता मन मारि रे, घटहीं माँहै घेरि।
जबहीं चालै पीठि दै, अंकुस दे दे फेरि॥19॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
जौ तन काँहै मन धरै, मन धरि निर्मल होइ।
साहिब सौ सनमुख रहै, तौ फिरि बालक होइ॥
मैंमंता मन मारि रे, नान्हाँ करि करि पीसि।
तब सुख पावै सुंदरी, ब्रह्म झलकै सीसि॥20॥
कागद केरी नाँव री, पाँणी केरी गंग।
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग॥21॥
कबीर यह मन कत गया, जो मन होता काल्हि।
डूंगरि बूठा मेह ज्यूँ, गया निबाँणाँ चालि॥22॥
मृतक कूँ धी जौ नहीं, मेरा मन बी है।
बाजै बाव बिकार की, भी मूवा जीवै॥23॥
काटि कूटि मछली, छींकै धरी चहोड़ि।
कोइ एक अषिर मन बस्या, दह मैं पड़ी बहोड़ि॥24॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे ये दोहे हैं-
मूवा मन हम जीवत, देख्या जैसे मडिहट भूत।
मूवाँ पीछे उठि उठि लागै, ऐसा मेरा पूत॥47॥
मूवै कौंधी गौ नहीं, मन का किया बिनास।
कबीर मन पंषी भया, बहुतक चढ़ा अकास।
उहाँ ही तैं गिरि पड़ा, मन माया के पास॥25॥
भगति दुबारा सकड़ा राई दसवैं भाइ।
मन तौ मैंगल ह्नै रह्यो, क्यूँ करि सकै समाइ॥26॥
करता था तो क्यूँ रह्या, अब करि क्यूँ पछताइ।
बोवै पेड़ बबूल का, अब कहाँ तैं खाइ॥27॥
काया देवल मन धजा, विष्रै लहरि फरराइ।
मन चाल्याँ देवल चलै, ताका सर्बस जाइ॥28॥
मनह मनोरथ छाँड़ि दे, तेरा किया न होइ।
पाँणी मैं घीव गीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ॥29॥
काया कसूं कमाण ज्यूँ, पंचतत्त करि बांण।
मारौं तो मन मृग को, नहीं तो मिथ्या जाँण॥30॥292॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर हरि दिवान कै, क्यूँकर पावै दादि।
पहली बुरा कमाइ करि, पीछे करै फिलादि॥35॥

(14) सूषिम मारग कौ अंग

कौंण देस कहाँ आइया, कहु क्यूँ जाँण्याँ जाइ।
उहू मार्ग पावै नहीं, भूलि पड़े इस माँहि॥1॥
उतीथैं कोइ न आवई, जाकूँ बूझौं धाइ।
इतथैं सबै पठाइये, भार लदाइ लदाइ॥2॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर संसा जीव मैं, कोइ न कहै समुझाइ।
नाँनाँ बांणी बोलता, सो कत गया बिलाइ॥3॥
सबकूँ बूझत मैं फिरौं, रहण कहै नहीं कोइ।
प्रीति न जोड़ी राम सूँ, रहण कहाँ थैं होइ॥3॥
चलो चलौं सबको कहे, मोहि अँदेसा और।
साहिब सूँ पर्चा नहीं, ए जांहिगें किस ठौर॥4॥
जाइबे को जागा नहीं, रहिबे कौं नहीं ठौर।
कहै कबीरा संत हौ, अबिगति की गति और॥5॥
कबीरा मारिग कठिन है, कोइ न सकई जाइ।
गए ते बहुडे़ नहीं, कुसल कहै को आइ॥6॥
जन कबीर का सिषर घर, बाट सलैली सैल।
पाव न टिकै पपीलका, लोगनि लादे बैल॥7॥
जहाँ न चींटी चढ़ि सकै, राइ न ठहराइ।
मन पवन का गमि नहीं, तहाँ पहूँचे जाइ॥8॥
कबीर मारग अगम है, सब मुनिजन बैठे थाकि।
तहाँ कबीरा चलि गया गहि सतगुर कीसाषि॥9॥
सुर न थाके मुनि जनां, जहाँ न कोई जाइ।
मोटे भाग कबीर के, तहाँ रहे घर छाइ॥10॥602॥

(15) सूषिम जनम कौ अंग

कबीर सूषिम सुरति का, जीव न जाँणै जाल।
कहै कबीरा दूरि करि, आतम अदिष्टि काल॥1॥
प्राण पंड को तजि चलै, मूवा कहै सब कोइ।
जीव छताँ जांमैं मरै, सूषिम लखै न कोइ॥2॥304॥
टिप्पणी: ख-में इसके आगे ये दोहे हैं-
कबीर अंतहकरन मन, करन मनोरथ माँहि।
उपजित उतपति जाँणिए, बिनसे जब बिसराँहि॥3॥

कबीर संसा दूरि करि, जाँमण मरन भरम।
पंच तत्त तत्तहि मिलै, सुनि समाना मन॥4॥

(16) माया कौ अंग

जग हठवाड़ा स्वाद ठग, माया बेसाँ लाइ।
रामचरण नीकाँ गही, जिनि जाइ जनम ठगाइ॥1॥
टिप्पणी: ख-में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर जिभ्या स्वाद ते, क्यूँ पल में ले काम।
अंगि अविद्या ऊपजै, जाइ हिरदा मैं राम॥2॥

कबीर माया पापणीं, फंध ले बैठि हाटि।
सब जग तो फंधै पड़ा, गया कबीरा काटि॥2॥
कबीर माया पापणीं, लालै लाया लोंग।
पूरी कीनहूँ न भोगई, इनका इहै बिजोग॥3॥
कबीरा माया पापणीं, हरि सूँ करे हराम।
मुखि कड़ियाली कुमति की, कहण न देईं राम॥4॥
जाँणी जे हरि को भजौ, मो मनि मोटी आस।
हरि बिचि घालै अंतरा, माया बड़ी बिसास॥5॥
टिप्पणी: ख-हरि क्यों मिलौं।
कबीर माया मोहनी, मोहे जाँण सुजाँण।
भागाँ ही छूटै नहीं, भरि भरि मारै बाँण॥6॥
कबीर माया मोहनी, जैसी मीठी खाँड़।
सतगुर की कृपा भई, नहीं तो करती भाँड़॥7॥
कबीर माया मोहनी, सब जग घाल्या घाँणि।
कोइ एक जन ऊबरै, जिनि तोड़ी कुल की काँणि॥8॥
कबीर माया मोहनी, माँगी मिलै न हाथि।
मनह उतारी झूठ करि, तब लागी डौलै साथि॥9॥
माया दासी संत की, ऊँभी देइ असीस।
बिलसी अरु लातौं छड़ी सुमरि सुमरि जगदीस॥10॥
माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर।
आसा त्रिस्नाँ ना मुई, यों कहि गया कबीर॥11॥
टिप्पणी: ख-यूँ कहै दास कबीर।
आसा जीवै जग मरै, लोग मरे मरि जाइ।
सोइ मूबे धन संचते, सो उबरे जे खाइ॥12॥
टिप्पणी: ख-सोई बूड़े जु धन संचते।
कबीर सो धन संचिए, जो आगै कूँ होइ।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्या कोइ॥13॥
त्रीया त्रिण्णाँ पापणी, तासूँ प्रीति न जोड़ि।
पैड़ी चढ़ि पाछाँ पड़े, लागै मोटी खोड़ि॥14॥
त्रिष्णाँ सींची नाँ बुझे, दिन दिन बढ़ती जाइ।
जबासा के रूप ज्यूँ, घण मेहाँ कुमिलाइ॥15॥
कबीर जग की को कहे, भौ जलि बूड़ै दास।
पारब्रह्म पति छाड़ि कर, करैं मानि की आस॥16॥
माया तजी तौ का भया, मानि तजी नहीं जाइ।
मानि बड़े गुनियर मिले, मानि सबनि की खाइ॥17॥
रामहिं थोड़ा जाँणि करि, दुनियाँ आगैं दीन।
जीवाँ कौ राजा कहै, माया के आधीन॥18॥
रज बीरज की कली, तापरि साज्या रूप।
राम नाम बिन बूड़ि है, कनक काँमणी कूप॥19॥
माया तरवर त्रिविध का, साखा दुख संताप।
सीतलता सुपिनै नहीं, फल फीको तनि ताप॥20॥
कबीर माया ढाकड़ी, सब किसही कौ खाइ।
दाँत उपाणौं पापड़ी, जे संतौं नेड़ी जाइ॥21॥
नलनी सायर घर किया, दौं लागी बहुतेणि।
जलही माँहै जलि मुई, पूरब जनम लिपेणि॥22॥
कबीर गुण की बादली, ती तरबानी छाँहिं।
बाहरि रहे ते ऊबरे, भीगें मंदिर माँहिं॥23॥
कबीर माया मोह की, भई अँधारी लोइ।
जे सूते ते मुसि लिये, रहे बसत कूँ रोइ॥24॥
टिप्पणी: ख-में इसके आगे यह दोहा हैं-
माया काल की खाँणि है, धरि त्रिगणी बपरौति।
जहाँ जाइ तहाँ सुख नहीं, यह माया की रीति॥
संकल ही तैं सब लहे, माया इहि संसार।
ते क्यूँ छूटे बापुड़े, बाँधे सिरजनहार॥25॥
बाड़ि चढ़ती बेलि ज्यूँ, उलझी, आसा फंध।
तूटै पणि छूटै नहीं, भई ज बाना बंध॥26॥
सब आसण आस तणाँ, त्रिबर्तिकै को नाहिं।
थिवरिति कै निबहै नहीं, परिवर्ति परपंच माँहि॥27॥
कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह।
जिहि घरि जिता बधावणाँ, तिहि घरि तिता अँदोह॥28॥
माया हमगौ यों कह्या, तू मति दे रे पूठि।
और हमारा हम बलू गया कबीरा रूठि॥29॥
टिप्पणी: माया मन की मोहनी, सुरनर रहे लुभाइ।
इहि माया जग खाइया माया कौं कोई न खाइ॥26॥
टिप्पणी: ख-गया कबीरा छूटि
ख-रूई लपेटी आगि।
बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़ा कलंक।
और पँखेरू पी गए, हंस न बोवै चंच॥30॥
कबीर माया जिनि मिलैं, सो बरियाँ दे बाँह।
नारद से मुनियर मिले, किसौ भरोसे त्याँह॥31॥
माया की झल जग जल्या, कनक काँमणीं लागि।
कहुँ धौं किहि विधि राखिये, रूई पलेटी आगि॥32॥346॥

(17) चाँणक कौ अंग

जीव बिलव्या जीव सों, अलप न लखिया जाइ।
गोबिंद मिलै न झल बुझै, रही बुझाइ बुझाइ॥1॥
इही उदर के कारणै, जग जाँच्यो निस जाम।
स्वामी पणौ जु सिर चढ़ो, सर्‌या न एको काम॥2॥
स्वामी हूँणाँ सोहरा, दोद्धा हूँणाँ दास।
गाडर आँणीं ऊन कूँ, बाँधी चरै कपास॥3॥
स्वामी हूवा सीतका, पैका कार पचास।
राम नाँम काँठै रह्या, करै सिषां की आस॥4॥
कबीर तष्टा टोकणीं, लीए फिरै सुभाइ।
रामनाम चीन्हें नहीं, पीतलि ही कै चाइ॥5॥
कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि धरी षटाइ।
राज दुबाराँ यौं फिरै, ज्यूँ हरिहाई गाइ॥6॥
कलि का स्वामी लोभिया, मनसा धरी बधाइ।
दैहिं पईसा ब्याज कौं, लेखाँ करताँ जाइ॥7॥
कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ।
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ॥8॥
टिप्पणी: ख-कबीर कलिजुग आइया।
चारिउ बेद पढ़ाइ करि, हरि सूँ न लाया हेत।
बालि कबीरा ले गया, पंडित ढूँढ़ै खेत॥9॥
टिप्पणी: ख-चारि बेद पंडित पढ्या, हरि सों किया न हेत।
बाँम्हण गुरु जगत का, साधू का गुरु नाहिं।
उरझि पुरझि करि मरि रह्या, चारिउँ बेदाँ माहिं॥10॥
टिप्पणी:
ख- बाँम्हण गुरु जगत का, भर्म कर्म का पाइ।
उलझि पुलझि करि मरि गया, चारों बेंदा माँहि॥
ख में इसके आगे ये दोहे हैं-
कलि का बाँम्हण मसकरा, ताहि न दीजै दान।
स्यौं कुँटउ नरकहि चलैं, साथ चल्या जजमान॥11॥
बाम्हण बूड़ा बापुड़ा, जेनेऊ कै जोरि।
लख चौरासी माँ गेलई, पारब्रह्म सों तोडि॥12॥
साषित सण का जेवणा, भीगाँ सूँ कठठाइ।
दोइ अषिर गुरु बाहिरा, बाँध्या जमपुरि जाइ॥11॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे ये दोहे हैं-
कबीर साषत की सभा, तूँ जिनि बैसे जाइं।
एक दिबाड़ै क्यूँ बडै, रीझ गदेहड़ा गाइ॥14॥
साषत ते सूकर भला, सूचा राखे गाँव।
बूड़ा साषत बापुड़ा, बैसि समरणी नाँव॥15॥
साषत बाम्हण जिनि मिलैं, बैसनी मिलौ चंडाल।
अंक माल दे भेटिए, मानूँ मिले गोपाल॥16॥
पाड़ोसी सू रूसणाँ, तिल तिल सुख की हाँणि।
पंडित भए सरावगी, पाँणी पीवें छाँणि॥12॥
पंडित सेती कहि रह्या, भीतरि भेद्या नाहिं।
औरूँ कौ परमोधतां, गया मुहरकाँ माँहि॥13॥
टिप्पणी: ख-कबीर व्यास कहै, भीतरि भेदै नाहिं।
चतुराई सूवै पढ़ी, सोई पंजर माँहि।
फिरि प्रमोधै आन कौ, आपण समझै नाहिं॥14॥
रासि पराई राषताँ, खाया घर का खेत।
औरौं कौ प्रमोधतां, मुख मैं पड़िया रेत॥15॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर कहै पोर कुँ, तूँ समझावै सब कोइ।
संसा पड़गा आपको, तौ और कहे का होइ॥21॥
तारा मंडल बैसि करि, चंद बड़ाई खाइ।
उदै भया जब सूर का, स्यूँ ताराँ छिपि जाइ॥16॥
देषण के सबको भले, जिसे सीत के कोट।
रवि के उदै न दीसहीं, बँधे न जल की पोट॥17॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
सुणत सुणावत दिन गए, उलझि न सुलझा मान।
कहै कबीर चेत्यौ नहीं, अजहुँ पहलौ दिन॥24॥
तीरथ करि करि जग मुवा, डूँधै पाँणी न्हाइ।
राँमहि राम जपंतड़ाँ, काल घसीट्याँ जाइ॥18॥
कासी काँठै घर करैं, पीवैं निर्मल नीर।
मुकति नहीं हरि नाँव बिन, यों कहें दास कबीर॥19॥
कबीर इस संसार को, समझाऊँ कै बार।
पूँछ जु पकड़ै भेड़ की, उतर्‌या चाहै पार॥20॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
पद गायाँ मन हरषियाँ, साषी कह्यां आनंद।
सो तत नाँव न जाणियाँ, गल मैं पड़ि गया फंद॥
कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं ध्रंम।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रंम॥21॥
मोर तोर की जेवड़ी, बलि बंध्या संसार।
काँ सिकडूँ बासुत कलित, दाझड़ बारंबार॥22॥68॥

(18) करणीं बिना कथणीं कौ अंग

कथणीं कथी तो क्या भया, जे करणी नाँ ठहराइ।
कालबूत के कोट ज्यूँ, देषतहीं ढहि जाइ॥1॥
जैसी मुख तैं नीकसै, तैसी चालै चाल।
पारब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल॥2॥
जैसी मुष तें नीकसै, तैसी चालै नाहिं।
मानिष नहीं ते स्वान गति, बाँध्या जमपुर जाँहिं॥3॥
पद गोएँ मन हरषियाँ, सापी कह्याँ अनंद।
सों तन नाँव न जाँणियाँ, गल मैं पड़िया फंध॥4॥
करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तूंड।
जाँणै बूझे कुछ नहीं, यौं ही आँधां रूंड॥5॥373॥

(19) कथणीं बिना करणी कौ अंग

मैं जान्यूँ पढ़िबौ भलो, पढ़िवा थें भलो जोग।
राँम नाँम सूँ प्रीति करि, भल भल नींदी लोग॥1॥
कबिरा पढ़िबा दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ।
बांवन अषिर सोधि करि, ररै ममैं चित लाइ॥2॥
कबीर पढ़िया दूरि करि, आथि पढ़ा संसार।
पीड़ न उपजी प्रीति सूँद्द, तो क्यूँ करि करै पुकार॥3॥
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै आषिर पीव का, पढ़ै सु पंडित होइ॥4॥337॥

(20) कामी नर कौ अंग

कामणि काली नागणीं, तीन्यूँ लोक मँझारि।
राग सनेही, ऊबरे, बिषई खाये झारि॥1॥
काँमणि मीनीं पाँणि की, जे छेड़ौं तौ खाइ।
जे हरि चरणाँ राचियाँ, तिनके निकटि न जाइ॥2॥
परनारी राता फिरै, चोरी बिढता खाँहिं।
दिवस चारि सरसा रहै, अंति समूला जाँहिं॥3॥
पर नारी पर सुंदरी बिरला बंचै कोइ।
खाताँ मीठी खाँड सी, अंति कालि विष होइ॥4॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
जहाँ जलाई सुंदरी, तहाँ तूँ जिनि जाइ कबीर।
भसमी ह्नै करि जासिसी, सो मैं सवा सरीर॥5॥
नारी नाहीं नाहेरी, करै नैन की चोट।
कोई एक हरिजन ऊबरै पारब्रह्म की ओट॥6॥
पर नारी कै राचणै, औगुण है गुण नाँहि।
षीर समंद मैं मंझला, केता बहि बहि जाँहि॥5॥
पर नारी को राचणौं, जिसी ल्हसण की पाँनि।
पूणैं बैसि रषाइए परगट होइ दिवानि॥6॥
टिप्पणी: क-प्रगट होइ निदानि।
नर नारी सब नरक है, जब लग देह सकाम।
कहै कबीर ते राँम के, जे सुमिरै निहकाम॥7॥
नारी सेती नेह, बुधि बबेक सबही हरै।
काँढ गमावै देह, कारिज कोई नाँ सरै॥8॥
नाना भोजन स्वाद सुख, नारी सेती रंग।
बेगि छाँड़ि पछताइगा, ह्नै है मूरति भंग॥9॥
नारि नसावै तीनि सुख, जा नर पासैं होइ।
भगति मुकति निज ग्यान मैं, पैसि न सकई कोइ॥10॥
एक कनक अरु काँमनी, विष फल कीएउ पाइ।
देखै ही थे विष चढ़े, खायै सूँ मरि जाइ॥11॥
एक कनक अरु काँमनी दोऊ अंगनि की झाल।
देखें ही तन प्रजलै, परस्याँ ह्नै पैमाल॥12॥
कबीर भग की प्रीतड़ी, केते गए गड़ंत।
केते अजहूँ जायसी, नरकि हसंत हसंत॥13॥
टिप्पणी: ख-गरकि हसंत हसंत।
जोरू जूठणि जगत की, भले बुरे का बीच।
उत्यम ते अलगे रहै, निकटि रहै तैं नीच॥14॥
नारी कुण्ड नरक का, बिरला थंभै बाग।
कोई साधू जन ऊबरै, सब जग मूँवा लाग॥15॥
सुंदरि थे सूली भली, बिरला बचै कोय।
लोह निहाला अगनि मैं, जलि बलि कोइला होय॥16॥
अंधा नर चैते नहीं, कटै ने संसे सूल।
और गुनह हरि बकससी, काँमी डाल न मूल॥17॥
भगति बिगाड़ी काँमियाँ, इंद्री केरै स्वादि।
हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि॥18॥
कामी अमीं न भावई, विषई कौं ले सोधि।
कुबधि न जाई जीव की, भावै स्यंभ रहो प्रमोधि॥19॥
विषै विलंबी आत्माँ, मजकण खाया सोधि।
ग्याँन अंकूर न ऊगई, भावै निज प्रमोध॥20॥
विषै कर्म की कंचुली, पहरि हुआ नर नाग।
सिर फोड़ै, सूझै नहीं, को आगिला अभाग॥21॥
कामी कदे न हरि भजै, जपै न कैसो जाप।
राम कह्याँ थैं जलि मरे, को पूरिबला पाप॥22॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
राम कहंता जे खिजै, कोढ़ी ह्नै गलि जाँहि।
सूकर होइ करि औतरै, नाक बूड़ंते खाँहि॥25॥
काँमी लज्जा ना करै, मन माँहें अहिलाद।
नीद न माँगैं साँथरा, भूष न माँगै स्वाद॥23॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
कामी थैं कुतो भलौ, खोलें एक जू काछ।
राम नाम जाणै नहीं, बाँबी जेही बाच॥27॥
नारि पराई आपणीं, भुगत्या नरकहिं जाइ।
आगि आगि सबरो कहै, तामै हाथ न बाहि॥24॥
कबीर कहता जात हौं, चेतै नहीं गँवार।
बैरागी गिरही कहा, काँमी वार न पार॥25॥
ग्यानी तो नींडर भया, माँने नाँही संक।
इंद्री केरे बसि पड़ा, भूंचै विषै निसंक॥26॥
ग्याँनी मूल गँवाइया, आपण भये करंता।
ताथै संसारी भला, मन मैं रहे डरंता॥27॥404॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
काँम काँम सबको कहैं, काँम न चीन्हें कोइ।
जेती मन में कामना, काम कहीजै सोइ॥32॥

(21) सहज कौ अंग

सहज सहज सबकौ कहै, सहज न चीन्है कोइ।
जिन्ह सहजै विषिया तजी, सहज कही जै सोइ॥1॥
सहज सहज सबको कहै, सहज न चीन्हें कोइ।
पाँचू राखै परसती, सहज कही जै सोइ॥2॥
सहजै सहजै सब गए, सुत बित कांमणि कांम।
एकमेक ह्नै मिलि रह्या, दास, कबीरा रांम॥3॥
सहज सहज सबको कहै, सहज न चीन्हैं कोइ।
जिन्ह सहजै हरिजी मिलै, सहज कहीजै सोइ॥4॥408॥

(22) साँच कौ अंग

कबीर पूँजी साह की, तूँ जिनि खोवै ष्वार।
खरी बिगूचनि होइगी, लेखा देती बार॥1॥
लेखा देणाँ सोहरा, जे दिल साँचा होइ।
उस चंगे दीवाँन मैं, पला न पकड़े कोइ॥2॥
कबीर चित्त चमंकिया, किया पयाना दूरि।
काइथि कागद काढ़िया, तब दरिगह लेखा पूरि॥3॥
काइथि कागद काढ़ियां, तब लेखैं वार न पार।
जब लग साँस सरीर मैं, तब लग राम सँभार॥4॥
यहु सब झूठी बंदिगी, बरियाँ पंच निवाज।
साचै मारै झूठ पढ़ि, काजी करै अकाज॥5॥
कबीर काजी स्वादि बसि, ब्रह्म हतै तब दोइ।
चढ़ि मसीति एकै कहै, दरि क्यूँ साचा होइ॥6॥
काजी मुलाँ भ्रमियाँ, चल्या दुनीं कै साथि।
दिल थैं दीन बिसारिया, करद लई जब हाथि॥7॥
जोरी कलिर जिहै करै, कहते हैं ज हलाल।
जब दफतर देखंगा दई, तब हैगा कौंण हवाल॥8॥
जोरी कीयाँ जुलम है, माँगे न्याव खुदाइ।
खालिक दरि खूनी खड़ा, मार मुहे मुहि खाइ॥9॥
साँई सेती चोरियाँ, चोराँ सेती गुझ।
जाँणैगा रे जीवड़ा, मर पड़ैगी तुझ॥10॥
सेष सबूरी बाहिरा, क्या हज काबैं जाइ।
जिनकी दिल स्याबति नहीं, तिनकौं कहाँ खुदाइ॥11॥
खूब खाँड है खोपड़ी, माँहि पड़ै दुक लूँण।
पेड़ा रोटी खाइ करि, गला कटावै कौंण॥12॥
पापी पूजा बैसि करि, भषै माँस मद दोइ।
तिनकी दष्या मुकति नहीं, कोटि नरक फल होइ॥13॥
सकल बरण इकत्रा है, सकति पूजि मिलि खाँहिं।
हरि दासनि की भ्रांति करि, केवल जमपुरि जाँहिं॥14॥
कबीर लज्या लोक की, सुमिरै नाँही साच।
जानि बूझि कंचन तजै, काठा पकड़े काच॥15॥
कबीर जिनि जिनि जाँणियाँ, करत केवल सार।
सो प्राणी काहै चलै, झूठे जग की लार॥16॥
झूठे को झूठा मिलै, दूणाँ बधै सनेह।
झूठे कूँ साचा मिलै, तब ही तूटै नेह॥17॥425॥

(23) भ्रम विधौंसण कौ अंग

पांहण केरा पूतला, करि पूजै करतार।
इही भरोसै जे रहे, ते बूड़े काली धार॥1॥
काजल केरी कोठरी, मसि के कर्म कपाट।
पांहनि बोई पृथमी, पंडित पाड़ी बाट॥2॥
पाँहिन फूँका पूजिए, जे जनम न देई जाब।
आँधा नर आसामुषी, यौंही खोवै आब॥3॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
पाथर ही का देहुरा, पाथर ही का देव।
पूजणहारा अंधला, लागा खोटी सेव॥4॥
कबीर गुड कौ गमि नहीं, पाँषण दिया बनाइ।
सिष सोधी बिन सेविया, पारि न पहुँच्या जाइ॥5॥

हम भी पाहन पूजते, होते रन के रोझ।
सतगुर की कृपा भई, डार्‌या सिर थैं बोझ॥4॥
टिप्पणी: ख-होते जंगल के रोझ।
जेती देषौं आत्मा, तेता सालिगराँम।
साथू प्रतषि देव हैं, नहीं पाथर सू काँम॥5॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर माला काठ की, मेल्ही मुगधि झुलाइ।
सुमिरण की सोधी नहीं, जाँणै डीगरि घाली जाइ॥6॥
सेवैं सालिगराँम कूँ, मन की भ्रांति न जाइ।
सीतलता सुषिनै नहीं, दिन दिन अधकी लाइ॥6॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
माला फेरत जुग भया, पाय न मन का फेर।
कर का मन का छाँड़ि दे, मन का मन का फेर॥8॥
सेवैं सालिगराँम कूँ, माया सेती हेत।
बोढ़े काला कापड़ा, नाँव धरावैं सेत॥7॥
जप तप दीसै थोथरा, तीरथ ब्रत बेसास।
सूवै सैबल सेविया, यों जग चल्या निरास॥8॥
तीरथ त सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाइ।
कबीर मूल निकंदिया, कोण हलाहल खाइ॥9॥
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाँणि।
दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछाँणि॥10॥
कबीर दुनियाँ देहुरै, सोस नवाँवण जाइ।
हिरदा भीतर हरि बसै, तूँ ताही सौ ल्यौ लाइ॥11॥436॥

(24) भेष कौ अंग

कर सेती माला जपै, हिरदै बहै डंडूल।
पग तौ पाला मैं गिल्या, भाजण लागी सूल॥1॥
कर पकरै अँगुरी गिनै, मन धावै चहुँ वीर।
जाहि फिराँयाँ हरि मिलै, सो भया काठ की ठौर॥2॥
माला पहरैं मनमुषी, ताथैं कछु न होइ।
मन माला कौं फेरताँ, जुग उजियारा सोइ॥3॥
माला पहरे मनमुषी, बहुतैं फिरै अचेत।
गाँगी रोले बहि गया, हरि सूँ नाँहीं हेत॥4॥
कबीर माला काठ की, कहि समझावै तोहि।
मन न फिरावै आपणों, कहा फिरावै मोहि॥5॥
कबीर माला मन की, और संसारी भेष।
माला पहर्‌या हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देष॥6॥
माला पहर्‌याँ कुछ नहीं, रुल्य मूवा इहि भारि।
बाहरि ढोल्या हींगलू भीतरि भरी भँगारि॥7॥
माला पहर्‌याँ कुछ नहीं, काती मन कै साथि।
जब लग हरि प्रकटै नहीं, तब लग पड़ता हाथि॥8॥
माला पहर्‌याँ कुछ नहीं, गाँठि हिरदा की खोइ।
हरि चरनूँ चित्त राखिये, तौ अमरापुर होइ॥9॥
टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है-
माला पहर्‌याँ कुछ नहीं बाम्हण भगत न जाण।
ब्याँह सराँधाँ कारटाँ उँभू वैंसे ताणि॥2॥
माला पहर्‌या कुछ नहीं, भगति न आई हाथि।
माथौ मूँछ मुँड़ाइ करि, चल्या जगत कै साथि॥10॥
साँईं सेती साँच चलि, औराँ सूँ सुध भाइ।
भावै लम्बे केस करि, भावै घुरड़ि मुड़ाइ॥11॥
टिप्पणी: ख-साधौं सौं सुध भाइ।
केसौं कहा बिगाड़िया, जे मूड़े सौ बार।
मन कौं न काहे मूड़िए, जामै बिषै विकार॥12॥
मन मेवासी मूँड़ि ले, केसौं मूड़े काँइ।
जे कुछ किया सु मन किया, केसौं कीया नाँहि॥13॥
मूँड़ मुँड़ावत दिन गए, अजहूँ न मिलिया राम
राँम नाम कहु क्या करैं, जे मन के औरे काँम॥14॥
स्वाँग पहरि सोरहा भया, खाया पीया षूँदि।
जिहि सेरी साधू नीकले, सो तौ मेल्ही मूँदि॥15॥
टिप्पणी: ख-जिहि सेरी साधू नीसरै, सो सेरी मेल्ही मूँदी॥
बेसनों भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक।
छापा तिलक बनाइ करि, दगध्या लोक अनेक॥16॥
तन कौं जोगी सब करैं, मन कों बिरला कोइ।
सब सिधि सहजै पाइए, जे मन जोगी होइ॥17॥
कबीर यहु तौ एक है, पड़दा दीया भेष।
भरम करम सब दूरि करि, सबहीं माँहि अलेष॥18॥
भरम न भागा जीव का, अनंतहि धरिया भेष।
सतगुर परचे बाहिरा, अंतरि रह्या अलेष॥19॥
जगत जहंदम राचिया, झूठे कुल की लाज।
तन बिनसे कुल बिनसि है, गह्या न राँम जिहाज॥20॥
पष ले बूडी पृथमीं, झूठी कुल की लार।
अलष बिसारौं भेष मैं, बूड़े काली धार॥21॥
चतुराई हरि नाँ मिले, ऐ बाताँ की बात।
एक निसप्रेही निरधार का, गाहक गोपीनाथ॥22॥
नवसत साजे काँमनीं, तन मन रही सँजोइ।
पीव कै मन भावे नहीं, पटम कीयें क्या होइ॥23॥
जब लग पीव परचा नहीं, कन्याँ कँवारी जाँणि।
हथलेवा होसै लिया, मुसकल पड़ी पिछाँणि॥24॥
कबीर हरि की भगति का, मन मैं परा उल्लास।
मैं वासा भाजै नहीं, हूँण मतै निज दास॥25॥
मैं वासा मोई किया, दुरिजिन काढ़े दूरि।
राज पियारे राँम का, नगर बस्या भरिपूरि॥26॥462॥

(25) कुसंगति कौ अंग

निरमल बूँद अकास की, पड़ि गइ भोमि बिकार।
मूल विनंठा माँनबी, बिन संगति भठछार॥1॥
मूरिष संग न कीजिए, लोहा जलि न तिराइ
कदली सीप भवंग मुषी, एक बूँद तिहुँ भाइ॥2॥
हरिजन सेती रूसणाँ, संसारी सूँ हेत।
ते नर कदे न नीपजै, ज्यूँ कालर का खेत॥3॥
नारी मरूँ कुसंग की, केला काँठै बेरि।
वो हालै वो चीरिये, साषित संग न बेरि॥4॥
मेर नसाँणी मीच की, कुसंगति ही काल।
कबीर कहै रे प्राँणिया, बाँणी ब्रह्म सँभाल॥5॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर केहने क्या बणै, अणमिलता सौ संग।
दीपक कै भावैं नहीं, जलि जलि परैं पतंग॥6॥
माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंष रही लपटाइ।
ताली पीटै सिरि धुनै, मीठै बोई माइ॥6॥
ऊँचे कुल क्या जनमियाँ, जे करणीं ऊँच न होइ।
सोवन कलस सुरे भर्या, साथूँ निंद्या सोइ ॥7॥269॥

(26) संगति कौ अंग

देखा देखी पाकड़े, जाइ अपरचे छूटि।
बिरला कोई ठाहरे, सतगुर साँमी मूठि॥1॥
देखा देखी भगति है, कदे न चढ़ई रंग।
बिपति पढ्या यूँ छाड़सी, ज्यूं कंचुली भवंग॥2॥
करिए तौ करि जाँणिये, सारीपा सूँ संग।
लीर लीर लोइ थई, तऊ न छाड़ै रंग॥3॥
यहु मन दीजे तास कौं, सुठि सेवग भल सोइ।
सिर ऊपरि आरास है, तऊ न दूजा होइ॥4॥
टिप्पणी: ख-तऊ न न्यारा होइ।
पाँहण टाँकि न तौलिए, हाडि न कीजै वेह।
माया राता मानवी, तिन सूँ किसा सनेह॥5॥
कबीर तासूँ प्रीति करि, जो निरबाहे ओड़ि।
बनिता बिबिध न राचिये, दोषत लागे षोड़ि॥6॥
कबीर तन पंषी भया, जहाँ मन तहाँ उड़ि जाइ।
जो जैसी संगति करे, सो तैसे फल खाइ॥7॥
काजल केरी कोठढ़ी, तैसा यहु संसार।
बलिहारी ता दास की, पैसि रे निकसणहार॥8॥477॥

(27) असाध कौ अंग

कबीर भेष अतीत का, करतूति करै अपराध।
बाहरि दीसै साध गति, माँहैं महा असाध॥1॥
उज्जल देखि न धीजिये, बग ज्यूँ माँड़ै ध्यान।
धीरे बैठि चपेटसी, यूँ ले बूड़ै, ग्याँन॥2॥
जेता मीठा बोलणाँ, तेता साध न जाँणि।
पहली थाह दिखाई करि, ऊँड़ै देसी आँणि॥3॥480॥
टिप्पणी: ख-तेता भगति न जाँणि।

(28) साध कौ अंग

कबीर संगति साध की, कदे न निरफल होइ।
चंदन होसी बाँवना, नीब न कहसी कोइ॥1॥
कबीर संगति साध की, बेगि करीजैं जाइ।
दुरमति दूरि गँवाइसी, देसी सुमति बताइ॥2॥
मथुरा जावै द्वारिका, भावैं जावैं जगनाथ।
साध संगति हरि भगति बिन, कछू न आवै हाथ॥3॥
मेरे संगी दोइ जणाँ एक बैष्णों एक राँम।
वो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नाँम॥4॥
टिप्पणी: ख-सुमिरावै राम।
कबीरा बन बन में फिरा, कारणि अपणें राँम।
राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सब काँम॥5॥
कबीर सोई दिन भला, जा दिन संत मिलाहिं।
अंक भरे भरि भेटिया, पाप सरीरौ जाँहिं॥6॥
कबीर चन्दन का बिड़ा, बैठ्या आक पलास।
आप सरीखे करि लिए जे होत उन पास॥7॥
कबीर खाईं कोट की, पांणी पीवे न कोइ
आइ मिलै जब गंग मैं, तब सब गंगोदिक होइ॥8॥
जाँनि बूझि साचहि तजै, करैं झूठ सूँ नेह।
ताको संगति राम जी, सुपिनै हो जिनि देहु॥9॥
कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तूँ बसै।
वहि तर वेगि उठाइ, नित को गंजन को सहै॥10॥
केती लहरि समंद की, कत उपजै कत जाइ।
बलिहारी ता दास की, उलटी माँहि समाइ॥11॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
पंच बल धिया फिरि कड़ी, ऊझड़ ऊजड़ि जाइ।
बलिहारी ता दास की, बवकि अणाँवै ठाइ॥12॥
काजल केरी कोठड़ी, तैसा यह संसार।
बलिहारी ता दास की, पैसि जु निकसण हार॥13॥
काजल केरी कोठढ़ी, काजल ही का कोट।
बलिहारी ता दास की, जे रहै राँम की ओट॥12॥
भगति हजारी कपड़ा, तामें मल न समाइ।
साषित काली काँवली, भावै तहाँ बिछाइ॥13॥493॥

(29) साध साषीभूत कौ अंग


निरबैरी निहकाँमता, साँई सेती नेह।
विषिया सूँ न्यारा रहै, संतहि का अँग एह॥1॥
संत न छाड़ै संतई, जे कोटिक मिलै असंत।
चंदन भुवंगा बैठिया, तउ सीतलता न तजंत॥2॥
कबीर हरि का भाँवता, दूरैं थैं दीसंत।
तन षीणा मन उनमनाँ, जग रूठड़ा फिरंत॥3॥
कबीर हरि का भावता, झीणाँ पंजर तास।
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मास॥4॥
टिप्पणी: ख-अंगनि बाढ़ै घास।
अणरता सुख सोवणाँ, रातै नींद न आइ।
ज्यूँ जल टूटै मंछली यूँ बेलंत बिहाइ॥5॥
टिप्पणी: ख-तलफत रैण बिहाइ।
जिन्य कुछ जाँण्याँ नहीं तिन्ह, सुख नींदणी बिहाइ।
मैंर अबूझी बूझिया, पूरी पड़ी बलाइ॥6॥
जाँण भगत का नित मरण अणजाँणे का राज।
सर अपसर समझै नहीं, पेट भरण सूँ काज॥7॥
जिहि घटिजाँण बिनाँण है, तिहि घटि आवटणाँ घणाँ।
बिन षंडै संग्राम है नित उठि मन सौं झूमणाँ॥8॥
राम बियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्है कोइ।
तंबोली के पान ज्यूँ, दिन दिन पीला होइ॥9॥
पीलक दौड़ी साँइयाँ, लोग कहै पिंड रोग।
छाँनै लंधण नित करै, राँम पियारे जोग॥10॥
काम मिलावै राम कूँ, जे कोई जाँणै राषि।
कबीर बिचारा क्या करे, जाकी सुखदेव बोले साषि॥11॥
काँमणि अंग बिरकत भया, रत भया हरि नाँहि।
साषी गोरखनाथ ज्यूँ, अमर भए कलि माँहि॥12॥
टिप्पणी: ख-सिध भए कलि माँहिं।
जदि विषै पियारी प्रीति सूँ, तब अंतर हरि नाँहि।
जब अंतर हरि जी बसै, तब विषिया सूँ चित नाँहि॥13॥
जिहि घट मैं संसौ बसै, तिहिं घटि राम न जोइ।
राम सनेही दास विचि, तिणाँ न संचर होइ॥14॥
स्वारथ को सबको सगा, सब सगलाही जाँणि।
बिन स्वारथ आदर करै, सो हरि की प्रीति पिछाँणि॥15॥
जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूँ छाँनाँ होइ।
जतन जतन करि दाबिए, तऊ उजाजा सोइ॥16॥
फाटै दीदे मैं फिरौं, नजरि न आवै कोइ।
जिहि घटि मेरा साँइयाँ, सो क्यूँ छाना होइ॥17॥
सब घटि मेरा साँइयाँ, सूनी सेज न कोइ।
भाग तिन्हौ का हे सखी, जिहि घटि परगड होइ॥18॥
पावक रूपी राँम है, घटि घटि रह्या समाइ।
चित चकमक लागै नहीं, ताथैं धुँवाँ ह्नै ह्नै जाइ॥19॥
कबीर खालिक जागिया, और न जागै कोइ।
कै जागै बिसई विष भर्‌या, कै दास बंदगी होइ॥20॥
कबीर चाल्या जाइ था, आगैं मिल्या खुदाइ।
मीराँ मुझ सौं यौं कह्या, किनि फुरमाई गाइ॥21॥514॥

(30) साध महिमाँ कौ अंग

चंदन की कुटकी भली, नाँ बँबूर की अबराँउँ।
बैश्नों की छपरी भली, नाँ साषत का बड गाउँ॥1॥
टिप्पणी: ख-चंदन की चूरी भली।
पुरपाटण सूबस बसै, आनँद ठाये ठाँइ।
राँम सनेही बाहिरा, ऊँजड़ मेरे भाँइ॥2॥
जिहिं घरि साथ न पूजिये, हरि की सेवा नाँहिं।
ते घर मरड़हट सारषे, भूत बसै तिन माँहि॥3॥
है गै गैंवर सघन घन, छत्रा धजा फहराइ।
ता सुख थैं भिष्या भली, हरि सुमिरत दिन जाइ॥4॥
हैं गै गैंवर सघन घन, छत्रापति की नारि।
तास पटंतर नाँ तुलै, हरिजन की पनिहारि॥5॥
क्यूँ नृप नारी नींदये, क्यूँ पनिहारी कौं माँन।
वामाँग सँवारै पीव कौ, वा नित उठि सुमिरै राँम॥6॥
टिप्पणी: ‘वा मांग’ या ‘वामांग’ दोनों पाठ हो सकता है।
कबीर धनि ते सुंदरी, जिनि जाया बैसनों पूत।
राँम सुमिर निरभैं हुवा, सब जग गया अऊत॥7॥
कबीर कुल तौ सो भला, जिहि कुल उपजै दास।
जिहिं कुल दास न ऊपजै, सो कुल आक पलास॥8॥
साषत बाँभण मति मिलै, बैसनों मिलै चंडाल।
अंक माल दे भटिये, माँनों मिले गोपाल॥9॥
राँम जपत दालिद भला, टूटी घर की छाँनि।
ऊँचे मंदिर जालि दे, जहाँ भगति न सारँगपाँनि॥10॥
कबीर भया है केतकी, भवर गये सब दास।
जहाँ जहाँ भगति कबीर की, तहाँ तहाँ राँम निवास॥11॥525॥

(31) मधि कौ अंग

कबीर मधि अंग जेको रहै, तौ तिरत न लागै बार।
दुइ दुइ अंग सूँ लाग करि, डूबत है संसार॥1॥
कबीर दुविधा दूरि करि, एक अंग ह्नै लागि।
यहु सीतल वहु तपति है दोऊ कहिये आगि॥2॥
अनल अकाँसाँ घर किया, मधि निरंतर बास।
बसुधा ब्यौम बिरकत रहै, बिनठा हर बिसवास॥3॥
बासुरि गमि न रैंणि गमि, नाँ सुपनै तरगंम।
कबीर तहाँ बिलंबिया, जहाँ छाहड़ी न घंम॥4॥
जिहि पैडै पंडित गए, दुनिया परी बहीर।
औघट घाटी गुर कही, तिहिं चढ़ि रह्या कबीर॥5॥
टिप्पणी: ख-दुनियाँ गई बहीर। औघट घाटी नियरा।
श्रग नृकथै हूँ रह्या, सतगुर के प्रसादि।
चरन कँवल की मौज मैं, रहिसूँ अंतिरु आदि॥6॥
हिंदू मूये राम कहि, मुसलमान खुदाइ।
कहै कबीर सो जीवता, दुइ मैं कदे न जाइ॥7॥
दुखिया मूवा दुख कों, सुखिया सुख कौं झूरि।
सदा आनंदी राम के, जिनि सुख दुख मेल्हे दूरि॥8॥
कबीर हरदी पीयरी, चूना ऊजल भाइ।
रामसनेही यूँ मिले, दुन्यूँ बरन गँवाइ॥9॥
काबा फिर कासी भया, राँम भया रहीम।
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीभ॥10॥
धरती अरु आसमान बिचि, दोइ तूँबड़ा अबध।
षट दरसन संसै पड़ा, अरु चौरासी सिध॥11॥526॥

(32) सारग्राही कौ अंग

षीर रूप हरि नाँव है नीर आन ब्यौहार।
हंस रूप कोई साध है, तात को जांनणहार॥1॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
सार संग्रह सूप ज्यूँ, त्यागै फटकि असार।
कबीर हरि हरि नाँव ले, पसरै नहीं बिकार॥2॥
कबीर साषत कौ नहीं, सबै बैशनों जाँणि।
जा मुख राम न ऊचरै, ताही तन की हाँणि॥2॥
कबीर औगुँण ना गहैं गुँण ही कौ ले बीनि।
घट घट महु के मधुप ज्यूँ, पर आत्म ले चीन्हि॥3॥
बसुधा बन बहु भाँति है, फूल्यो फल्यौ अगाध।
मिष्ट सुबास कबीर गहि, विषमं कहै किहि साथ॥4॥540॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
कबीर सब घटि आत्मा, सिरजी सिरजनहार।
राम कहै सो राम में, रमिता ब्रह्म बिचारि॥5॥
तत तिलक तिहु लोक में, राम नाम निजि सार।
जन कबीर मसतिकि देया, सोभा अधिक अपार॥6॥

(33) विचार कौ अंग

राम नाम सब को कहै, कहिबे बहुत बिचार।
सोई राम सती कहै, सोई कौतिग हार॥1॥
आगि कह्याँ दाझै नहीं, जे नहीं चंपै पाइ।
जब लग भेद न जाँणिये, राम कह्या तौ काइ॥2॥
कबीर सोचि बिचारिया, दूजा कोई नाँहि।
आपा पर जब चीन्हिया, तब उलटि समाना माँहि॥3॥
कबीर पाणी केरा पूतला, राख्या पवन सँवारि।
नाँनाँ बाँणी बोलिया, जोति धरी करतारि॥4॥
नौ मण सूत अलूझिया, कबीर घर घर बारि।
तिनि सुलझाया बापुड़े, जिनि जाणीं भगति मुरारि॥5॥
आधी साषी सिरि कटैं, जोर बिचारी जाइ।
मनि परतीति न ऊपजे, तौ राति दिवस मिलि गाइ॥6॥
टिप्पणी: ख-भरि गाइ।
सोई अषिर सोइ बैयन, जन जू जू बाचवंत।
कोई एक मेलै लवणि, अमीं रसाइण हुँत॥7॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर भूल दंग में लोग कहैं यहु भूल।
कै रमइयौ बाट बताइसी, कै भूलत भूलैं भूल॥8॥

हरि मोत्याँ की माल है, पोई काचै तागि।
जतन करि झंटा घँणा, टूटेगी कहूँ लागि॥8॥
मन नहीं छाड़ै बिषै, बिषै न छाड़ै मन कौं।
इनकौं इहै सुभाव, पूरि लागी जुग जन कौं॥9॥
खंडित मूल बिनास कहौ किम बिगतह कीजै।
ज्यूँ जल में प्रतिब्यंब त्यूँ सकल रामहिं जांणीजै॥10॥
सो मन सो तन सो बिषे, सो त्रिभवन पति कहूँ कस।
कहै कबीर ब्यंदहु नरा, ज्यूँ जल पूर्‌या सक रस॥11॥549॥

(34) उपदेश कौ अंग

हरि जी यहै बिचारिया, साषी कहौ कबीर।
भौसागर मैं जीव है, जे कोई पकड़ैं तीर॥1॥
कली काल ततकाल है, बुरा करौ जिनि कोइ।
अनबावै लोहा दाहिणै बोबै सु लुणता होइ॥2॥
टिप्पणी: ख-बुरा न करियो कोइ।
ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
जीवन को समझै नहीं, मुबा न कहै संदेस।
जाको तन मन सौं परचा नहीं, ताकौ कौण धरम उपदेस॥3॥
कबीर संसा जीव मैं, कोई न कहै समझाइ।
बिधि बिधि बाणों बोलता सो कत गया बिलाइ॥3॥
टिप्पणी: ख-नाना बाँणी बोलता।
कबीर संसा दूरि करि जाँमण मरण भरंम।
पंचतत तत्तहि मिले सुरति समाना मंन॥4॥
ग्रिही तौ च्यंता घणीं, बैरागी तौ भीष।
दुहुँ कात्याँ बिचि जीव है, दौ हमैं संतौं सीष॥5॥
बैरागी बिरकत भला, गिरहीं चित्त उदार।
दुहै चूकाँ रीता पड़ै, ताकूँ वार न पार॥6॥
जैसी उपजै पेड़ मूँ, तैसी निबहै ओरि।
पैका पैका जोड़ताँ, जुड़िसा लाष करोड़ि॥7॥
कबीर हरि के नाँव सूँ, प्रीति रहै इकतार।
तौ मुख तैं मोती झड़ैं, हीरे अंत न पार॥8॥
टिप्पणी: ख-सुरति रहै इकतार। हीरा अनँत अपार॥
ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ॥9॥
कोइ एक राखै सावधान, चेतनि पहरै जागि।
बस्तन बासन सूँ खिसै, चोर न सकई लागि॥10॥559॥

(35) बेसास कौ अंग

जिनि नर हरि जठराँह, उदिकै थैं षंड प्रगट कियौ।
सिरजे श्रवण कर चरन, जीव जीभ मुख तास दीयो॥
उरध पाव अरध सीस, बीस पषां इम रषियौ।
अंन पान जहां जरै, तहाँ तैं अनल न चषियौ॥
इहिं भाँति भयानक उद्र में, न कबहू छंछरै।
कृसन कृपाल कबीर कहि, इम प्रतिपालन क्यों करै॥1॥
भूखा भूखा क्या करै, कहा सुनावै लोग।
भांडा घड़ि जिनि मुख दिया, सोई पूरण जोग॥2॥
रचनहार कूँ चीन्हि लै, खैचे कूँ कहा रोइ।
दिल मंदिर मैं पैसि करि, तांणि पछेवड़ा सोइ॥3॥
राम नाम करि बोहड़ा, बांही बीज अधाइ।
अंति कालि सूका पड़ै, तौ निरफल कदे न जाइ॥4॥
च्यंतामणि मन में बसै, सोई चित्त मैं आंणि।
बिन च्यंता च्यंता करै, इहै प्रभू की बांणि॥5॥
कबीर का तूँ चितवै, का तेरा च्यंत्या होइ।
अणच्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ॥6॥
करम करीमां लिखि रह्या, अब कछू लिख्या न जाइ।
मासा घट न तिल बथै, जौ कोटिक करै उपाइ॥7॥
जाकौ चेता निरमया, ताकौ तेता होइ।
रती घटै न तिल बधै, जौ सिर कूटै कोइ॥8॥
टिप्पणी: इसके आगे ख प्रति में यह दोहा है-
करीम कबीर जु विह लिख्या, नरसिर भाग अभाग।
जेहूँ च्यंता चितवै, तऊ स आगै आग॥10॥
च्यंता न करि अच्यंत रहु, सांई है संभ्रथ।
पसु पंषरू जीव जंत, तिनको गांडि किसा ग्रंथ॥9॥
संत न बांधै गाँठड़ी, पेट समाता लेइ।
सांई सूँ सनमुख रहै, जहाँ माँगै तहाँ देइ॥10॥
राँम राँम सूँ दिल मिलि, जन हम पड़ी बिराइ।
मोहि भरोसा इष्ट का, बंदा नरकि न जाइ॥11॥
कबीर तूँ काहे डरै, सिर परि हरि का हाथ।
हस्ती चढ़ि नहीं डोलिये, कूकर भूसैं जु लाष॥12॥
मीठा खाँण मधूकरी, भाँति भाँति कौ नाज।
दावा किसही का नहीं, बित बिलाइति बड़ राज॥13॥
टिप्पणी: ख-शिर परि सिरजणहार।
हस्ती चढ़ि क्या डोलिए। भुसैं हजार।
ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
हसती चढ़िया ज्ञान कै, सहज दुलीचा डारि।
स्वान रूप संसार है, पड़ा भुसौ झषि माँरि॥15॥
मोनि महातम प्रेम रस, गरवा तण गुण नेह।
ए सबहीं अह लागया, जबहीं कह्या कुछ देह॥14॥
माँगण मरण समान है, बिरला वंचै कोइ।
कहै कबीर रघुनाथ सूँ, मतिर मँगावै माहि॥15॥
टिप्पणी: ख-जगनाथ सौं।
पांडल पंजर मन भवर, अरथ अनूपम बास।
राँम नाँम सींच्या अँमी, फल लागा वेसास॥16॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
कबीर मरौं पै मांगौं नहीं, अपणै तन कै काज।
परमारथ कै कारणै, मोहिं माँगत न आवै लाज॥20॥
भगत भरोसै एक कै, निधरक नीची दीठि।
तिनकू करम न लागसी, राम ठकोरी पीठि॥21॥
मेर मिटी मुकता भया, पाया ब्रह्म बिसास।
अब मेरे दूजा को नहीं, एक तुम्हारी आस॥17॥
जाकी दिल में हरि बसै, सो नर कलपै काँइ।
एक लहरि समंद की, दुख दलिद्र सब जाँइ॥18॥
पद गाये लैलीन ह्नै, कटी न संसै पास।
सबै पिछीड़ै, थोथरे, एक बिनाँ बेसास॥19॥
गावण हीं मैं रोज है, रोवण हीं में राग।
इक वैरागी ग्रिह मैं, इक गृही मैं वैराग॥20॥
गाया तिनि पाया नहीं, अणगाँयाँ थैं दूरि।
जिनि गाया बिसवास सूँ, तिन राम रह्या भरिपूरि॥21॥580॥

(36) पीव पिछाँणन कौ अंग

संपटि माँहि समाइया, सो साहिब नहीसीं होइ।
सफल मांड मैं रमि रह्या, साहिब कहिए सोइ॥1॥
रहै निराला माँड थै, सकल माँड ता माँहि।
कबीर सेवै तास कूँ, दूजा कोई नाँहि॥2॥
भोलै भूली खसम कै, बहुत किया बिभचार।
सतगुर गुरु बताइया, पूरिबला भरतार॥3॥
जाकै मह माथा नहीं, नहीं रूपक रूप।
पुहुप बास थैं पतला ऐसा तत अनूप॥4॥584॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
चत्रा भुजा कै ध्यान मैं, ब्रिजबासी सब संत।
कबीर मगन ता रूप मैं, जाकै भुजा अनंत॥5॥

(37) बिर्कताई कौ अंग

मेरे मन मैं पड़ि गई, ऐसी एक दरार।
फटा फटक पषाँण ज्यूँ, मिल्या न दूजी बार॥1॥
मन फाटा बाइक बुरै, मिटी सगाई साक।
जौ परि दूध तिवास का, ऊकटि हूवा आक॥2॥
चंदन माफों गुण करै, जैसे चोली पंन।
दोइ जनाँ भागां न मिलै, मुकताहल अरु मंन॥3॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
मोती भागाँ बीधताँ, मन मैं बस्या कबोल।
बहुत सयानाँ पचि गया, पड़ि गई गाठि गढ़ोल॥4॥
मोती पीवत बीगस्या, सानौं पाथर आइ राइ।
साजन मेरी निकल्या, जाँमि बटाऊँ जाइ॥5॥

पासि बिनंठा कपड़ा, कदे सुरांग न होइ।
कबीर त्याग्या ग्यान करि, कनक कामनी दोइ॥4॥
चित चेतनि मैं गरक ह्नै, चेत्य न देखैं मंत।
कत कत की सालि पाड़िये, गल बल सहर अनंत॥5॥
जाता है सो जाँण दे, तेरी दसा न जाइ।
खेवटिया की नाव ज्यूँ, धणों मिलैंगे आइ॥6॥
नीर पिलावत क्या फिरै, सायर घर घर बारि।
जो त्रिषावंत होइगा, तो पीवेगा झष मारि॥7॥
सत गंठी कोपीन है, साध न मानै संक।
राँम अमलि माता रहै, गिणैं इंद्र कौ रंक॥8॥
दावै दाझण होत है, निरदावै निरसंक।
जे नर निरदावै रहैं, ते गणै इंद्र कौ रंक॥9॥
कबीर सब जग हंडिया, मंदिल कंधि चढ़ाइ।
हरि बिन अपनाँ को नहीं, देखे ठोकि बजाइ॥10॥514॥

(38) सम्रथाई कौ अंग

नाँ कुछ किया न करि सक्या, नाँ करणे जोग सरीर।
जे कुछ किया सु हरि किया, ताथै भया कबीर कबीर॥1॥
कबीर किया कछू न होत है, अनकीया सब होइ।
जे किया कछु होत है, तो करता औरे कोइ॥2॥
जिसहि न कोई तिसहि तूँ, जिस तूँ तिस सब कोइ।
दरिगह तेरी साँईंयाँ, नाँव हरू मन होइ॥3॥
एक खड़े ही लहैं, और खड़ा बिललाइ।
साईं मेरा सुलषना, सूता देइ जगाइ॥4॥
सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ॥5॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
बाजण देह बजंतणी, कुल जंतड़ी न बेड़ि।
तुझै पराई क्या पड़ी, तूँ आपनी निबेड़ि॥8॥

अबरन कौं का बरनिये, मोपै लख्या न जाइ।
अपना बाना बाहिया, कहि कहि थाके माइ॥6॥
झल बाँवे झल दाँहिनैं, झलहिं माँहि ब्यौहार।
आगैं पीछै झलमई, राखै सिरजनहार॥7॥
साईं मेरा बाँणियाँ, सहजि करै ब्यौपार।
बिन डाँडी बिन पालड़ै, तोलै सब संसार॥8॥
टिप्पणी: ख- ब्यौहार।

कबीर वार्‌या नाँव परि, कीया राई लूँण।
जिसहिं चलावै पंथ तूँ, तिसहिं भुलावै कौंण॥9॥
कबीर करणी क्या करै, जे राँम न कर सहाइ।
जिहिं जिहिं डाली पग धरै, सोई नवि नवि जाइ॥10॥
जदि का माइ जनमियाँ, कहूँ न पाया सुख।
डाली डाली मैं फिरौं, पाती पाती दुख॥11॥
साईं सूँ सब होत है, बंदे थै कछु नाहिं।
राई थैं परबत करै, परबत राई माहिं॥12॥606॥
टिप्पणी: ख प्रति में बारहवें दोहे के स्थान पर यह दोहा है-
रैणाँ दूरां बिछोड़ियां, रहु रे संषम झूरि।
देवल देवलि धाहिणी, देसी अंगे सूर॥13॥

(39) कुसबद कौ अंग

टिप्पणी: ख प्रति में इस अंग का पहला दोहा यह है-
साईं सौं सब होइगा, बंदे थैं कुछ नाहिं।
राई थैं परबत करे, परबत राई माहिं॥1॥
अणी सुहेली सेल की, पड़ताँ लेइ उसास।
चोट सहारै सबद की, तास गुरु मैं दास॥1॥
खूंदन तो धरती सहै, बाढ़ सहै बनराइ।
कुसबद तो हरिजन सहै, दूजै सह्या न जाइ॥2॥
सीतलता तब जाणिए, समिता रहे समाइ।
पष छाड़ै निरपष रहै, सबद न दूष्या जाइ॥3॥
टिप्पणी: ख काट सहैं। साधू सहै।
कबीर सीतलता भई, पाया ब्रह्म गियान।
जिहिं बैसंदर जग जल्या, सो मेरे उदिक समान॥4॥610॥

(40) सबद कौ अंग

कबीर सबद सरीर मैं, बिनि गुण बाजै तंति।
बाहरि भीतरि भरि रह्या, ताथैं छूटि भरंति॥1॥
सती संतोषी सावधान, सबद भेद सुबिचार।
सतगुर के प्रसाद थैं, सहज सील मत सार॥2॥
सतगुर ऐसा चाहिए, जैसा सिकलीगर होइ।
सबद मसकला फेरि करि, देह द्रपन करे सोइ॥3॥
सतगुर साँचा सूरिवाँ, सबद जु बाह्या एक।
लागत ही में मिलि गया, पड़ा कलेजे छेक॥4॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
सहज तराजू आँणि करि, सन रस देख्या तोलि।
सब रस माँहै जीभ रत, जे कोइ जाँणै बोलि॥5॥
हरि रस जे जन बेधिया, सतगुण सी गणि नाहि।
लागी चोट सरीर में, करक कलेजे माँहि॥5॥
ज्यूँ ज्यूँ हरिगुण साभलूँ, त्यूँ त्यूँ लागै तीर।
साँठी साँठी झड़ि पड़ि, झलका रह्या सरीर॥6॥
ज्यूँ ज्यूँ हरिगुण साभलूँ, त्यूँ त्यूँ लागै तीर।
लागै थैं भागा नहीं, साहणहार कबीर॥7॥
सारा बहुत पुकारिया, पीड़ पुकारै और।
लागी चोट सबद की, रह्या कबीरा ठौर॥8॥618॥
टिप्पणी: ख प्रति में यह दोहा नहीं है।

(41) जीवन मृतक कौ अंग

जीवन मृतक ह्नै रहै, तजै जगत की आस।
तब हरि सेवा आपण करै, मति दुख पावै दास॥1॥
टिप्पणी: ख प्रति में इस अंग में पहला दोहा यह है-
जिन पांऊँ सै कतरी हांठत देत बदेस।
तिन पांऊँ तिथि पाकड़ौ, आगण गया बदेस॥1॥

कबीर मन मृतक भया, दुरबल भया सरीर।
तब पैडे लागा हरि फिरै, कहत कबीर कबीर॥2॥
कबीर मरि मड़हट रह्या, तब कोइ न बूझै सार।
हरि आदर आगै लिया, ज्यूँ गउ बछ की लार॥3॥
घर जालौं घर उबरे, घर राखौं घर जाइ।
एक अचंभा देखिया, मड़ा काल कौं खाइ॥4॥
मरताँ मरताँ जग मुवा, औसर मुवा न कोइ।
कबीर ऐसैं मरि मुवा, ज्यूँ बहूरि न मरना होइ॥5॥
बैद मुवा रोगी मुवा, मुवा सकल संसार।
एक कबीरा ना मुवा, जिनि के राम अधार॥6॥
मन मार्‌या ममता मुई, अहं गई सब छूटि।
जोगी था सो रमि गया, आसणि रही विभूति॥7॥
जीवन थै मरिबो भलौ, जौ मरि जानै कोइ।
मरनै पहली जे मरे, तौ कलि अजरावर होइ॥8॥
खरी कसौटी राम की, खोटा टिकैं न कोइ।
राम कसौटी सो टिकै, जो जीवन मृतक होइ॥9॥
आपा मेट्या हरि मिलै, हरि मेट्या सब जाइ।
अकथ कहाणी प्रेम की, कह्या न को पत्याइ॥10॥
निगु साँवाँ वहि जायगा, जाकै थाघी नहीं कोइ।
दीन गरीबी बंदिगी, करता होइ सु होइ॥11॥
दीन गरीबी दीन कौ, दुँदर को अभिमान।
दुँदर दिल विष सूँ भरी, दीन गरीबी राम॥12॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे ये दोहा है-
कबीर नवे स आपको, पर कौं नवे न कोइ।
घालि तराजू तौलिये, नवे स भारी होइ॥14॥
बुरा बुरा सब को कहै, बुरा न दीसे कोइ।
जे दिल खोजौ आपणो, बुरा न दीसे कोइ॥15॥
कबीर चेरा संत का, दासिन का परदास।
कबीर ऐसे ह्नै रह्या, ज्यूँ पांऊँ तलि घास॥13॥
रोड़ा ह्नै रही बाट का, तजि पादंड अभिमान।
ऐसा जे जन ह्नै रहे, ताहि मिले भगवान॥14॥632॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
रोड़ा भया तो क्या भया, पंथी को दुख देइ।
हरिजन ऐसा चाहिए, जिसी जिमीं की खेह॥18॥
खेह भई तो क्या भया, उड़ि उड़ि लागे अंग।
हरिजन ऐसा चाहिए, पाँणीं जैसा रंग॥19॥
पाणीं भया तो क्या भया, ताता सीता होइ।
हरिजन ऐसा चाहिए, जैसा हरि ही होइ॥20॥
हरि भया तो क्या भया, जैसों सब कुछ होइ।
हरिजन ऐसा चाहिए, हरि भजि निरमल होइ॥21॥

(42) चित कपटी कौ अंग

कबीर तहाँ न जाइए, जहाँ कपट का हेत।
जालूँ कली कनीर की, तन रातो मन सेत॥1॥
टिप्पणी: ख प्रति में इस अंग का पहला दोहा यह है-
नवणि नयो तो का भयो, चित्त न सूधौं ज्यौंह।
पारधिया दूणा नवै, मिघ्राटक ताह॥1॥
संसारी साषत भला, कँवारी कै भाइ।
दुराचारी वेश्नों बुरा, हरिजन तहाँ न जाइ॥2॥
निरमल हरि का नाव सों, के निरमल सुध भाइ।
के ले दूणी कालिमा, भावें सों मण साबण लाइ॥3॥635॥

(43) गुरुसिष हेरा कौ अंग

ऐसा कोई न मिले, हम कों दे उपदेस।
भौसागर में डूबता, कर गहि काढ़े केस॥1॥
ऐसा कोई न मिले, हम को लेइ पिछानि।
अपना करि किरपा करे, ले उतारै मैदानि॥2॥
ऐसा कोई ना मिले, राम भगति का गीत।
तनमन सौपे मृग ज्यूँ, सुने बधिक का गीत॥3॥
ऐसा कोई ना मिले, अपना घर देइ जराइ।
पंचूँ लरिका पटिक करि, रहै राम ल्यौ लाइ॥4॥
ऐसा कोई ना मिले, जासौ रहिये लागि।
सब जग जलता देखिये, अपणीं अपणीं आगि॥5॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
ऐसा कोई न मिले, बूझै सैन सुजान।
ढोल बजंता ना सुणौं, सुरवि बिहूँणा कान॥6॥
ऐसा कोई ना मिले, जासूँ कहूँ निसंक।
जासूँ हिरदे की कहूँ, सो फिरि माडै कंक॥6॥
ऐसा कोई ना मिले, सब बिधि देइ बताइ।
सुनि मण्डल मैं पुरिष एक, ताहि रहै ल्यो लाइ॥7॥
हम देखत जग जात है, जग देखत हम जाँह।
ऐसा कोई ना मिले, पकड़ि छुड़ावै बाँह॥8॥
तीनि सनेही बहु मिले, चौथे मिले न कोइ।
सबे पियारे राम के, बैठे परबसि होइ॥9॥
माया मिले महोर्बती, कूड़े आखै बेउ।
कोइ घाइल बेध्या ना मिलै, साईं हंदा सैण॥10॥
सारा सूरा बहु मिलें, घाइला मिले न कोइ।
घाइल ही घाइल मिले, तब राम भगति दिढ़ होइ॥11॥
टिप्पणी: ख-जब घाइल ही घाइल मिलै।
प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरौं, प्रेमी मिलै न कोइ।
प्रेमी कौं प्रेमी मिलै, तब सब बिष अमृत होइ॥12॥
टिप्पणी: ख-जब प्रेमी ही प्रेमी मिलें।
हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जै चलै हमारे साथि॥13॥648॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
जाणै ईछूँ क्या नहीं, बूझि न कीया गौन।
भूलौ भूल्या मिल्या, पंथ बतावै कौन॥15॥
कबीर जानींदा बूझिया, मारग दिया बताइ।
चलता चलता तहाँ गया, जहाँ निरंजन राइ॥16॥

(44) हेत प्रीति सनेह कौ अंग

कमोदनी जलहरि बसै, चंदा बसै अकासि।
जो जाही का भावता, सो ताही कै पास॥1॥
टिप्पणी: ख-जो जाही कै मन बसै।
कबीर गुर बसै बनारसी, सिष समंदा तीर।
बिसार्‌या नहीं बीसरे, जे गुंण होइ सरीर॥2॥
जो है जाका भावता, जदि तदि मिलसी आइ।
जाकी तन मन सौंपिया, सो कबहूँ छाँड़ि न जाइ॥3॥
स्वामी सेवक एक मत, मन ही मैं मिलि जाइ।
चतुराई रीझै नहीं, रीझै मन कै भाइ॥4॥

(45) सूरा तन कौ अंग

काइर हुवाँ न छूटिये, कछु सूरा तन साहि।
भरम भलका दूरि करि, सुमिरण सेल सँबाहि॥1॥
षूँड़ै षड़ा न छूटियो, सुणि रे जीव अबूझ।
कबीर मरि मैदान मैं, करि इंद्राँ सूँ झूझ॥2॥
कबीर साईं सूरिवाँ, मन सूँ माँडै झूझ।
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज॥3॥
टिप्पणी: ख-पंच पयादा पकड़ि ले।
सूरा झूझै गिरदा सूँ, इक दिसि सूर न होइ।
कबीर यौं बिन सूरिवाँ, भला न कहिसी कोइ॥4॥
कबीर आरणि पैसि करि, पीछै रहै सु सूर।
सांईं सूँ साचा भया, रहसी सदा हजूर॥5॥
टिप्पणी: ख-जाके मुख षटि नूर।
गगन दमाँमाँ बाजिया, पड़ा निसानै घाव।
खेत बुहार्‌या सूरिवै, मुझ मरणे का चाव॥6॥
कबीर मेरै संसा को नहीं, हरि सूँ लागा हेत।
काम क्रोध सूँ झूझणाँ, चौड़े माँड्या खेत॥7॥
सूरै सार सँबाहिया, पहर्‌या सहज संजोग।
अब कै ग्याँन गयंद चढ़ि, खेत पड़न का जोग॥8॥
सूरा तबही परषिये, लडै धणीं के हेत।
पुरिजा पुरिजा ह्नै पड़ै, तऊ न छाड़ै खेत॥9॥
खेत न छाड़ै सूरिवाँ, झूझै द्वै दल माँहि।
आसा जीवन मरण की, मन आँणे नाहि॥10॥
अब तो झूझ्याँही वणौं, मुढ़ि चाल्या घर दूरि।
सिर साहिब कौ सौंपता, सोच न कीजै सूरि॥11॥
अब तो ऐसी ह्नै पड़ी, मनकारु चित कीन्ह।
मरनै कहा डराइये, हाथि स्यँधौरा लीन्ह॥12॥
जिस मरनै थे जग डरै, सो मरे आनंद।
कब मारिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमाँनंद॥13॥
कायर बहुत पमाँवही बहकि न बोलै सूर।
कॉम पड्याँ ही जाँणिहै, किसके मुख परि नूर॥14॥
जाइ पूछौ उस घाइलै, दिवस पीड निस जाग।
बाँहणहारा जाणिहै, कै जाँणै जिस लाग॥15॥
घाइल घूमै गहि भर्‌या, राख्या रहे न ओट।
जतन कियाँ जावै नहीं, बणीं मरम की चोट॥16॥
ऊँचा विरष अकासि फल, पंषी मूए झूरि।
बहुत सयाँने पचि रहे, फल निरमल परि दूरि॥17॥
टिप्पणी: ख-पंथी मूए झूरि।
दूरि भया तौ का भया, सिर दे नेड़ा होइ।
जब लग सिर सौपे नहीं, कारिज सिधि न होइ॥18॥
कबीर यहु घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
सीस उतारै हाथि करि, सो पैसे घर माँहि॥19॥
कबीर निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध।
सीर उतारि पग तलि धरै, तब निकटि प्रेम का स्वाद॥20॥
प्रेम न खेती नींपजे, प्रेम न हाटि बिकाइ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥21॥
सीस काटि पासंग दिया, जीव सरभरि लीन्ह।
जाहि भावे सो आइ ल्यौ, प्रेम आट हँम कीन्ह॥22॥
सूरै सीस उतारिया, छाड़ी तन की आस।
आगै थैं हरि मुल किया, आवत देख्या दास॥23॥
भगति दुहेली राम की, नहिं कायर का काम।
सीस उतारै हाथि करि, सो लेसी हरि नाम॥24॥
भगति दुहेली राँम की, नहिं जैसि खाड़े की धार।
जे डोलै तो कटि पड़े, नहीं तो उतरै पार॥25॥
भगति दुहेली राँम की, जैसी अगनि की झाल।
डाकि पड़ै ते ऊबरे, दाधे कौतिगहार॥26॥
कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार।
ग्याँन षड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार॥27॥
कबीरा हीरा वणजिया, महँगे मोल अपार।
हाड़ गला माटी गली, सिर साटै ब्यौहार॥28॥
जेते तारे रैणि के, तेते बैरी मुझ।
घड़ सूली सिर कंगुरै, तऊ न बिसारौं तुझ॥29॥
जे हारर्‌या तौ हरि सवां, जे जीत्या तो डाव।
पारब्रह्म कूँ सेवता, जे सिर जाइ त जाव॥30॥
सिर माटै हरि सेविए, छाड़ि जीव की बाँणि।
जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाँणि न जाणि॥31॥
टिप्पणी: ख-सिर साटै हरि पाइए।
टूटी बरत अकास थै, कोई न सकै झड़ झेल।
साथ सती अरु सूर का, अँणी ऊपिला खेल॥32॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
ढोल दमामा बाजिया, सबद सुणइ सब कोइ।
जैसल देखि सती भजे, तौ दुहु कुल हासी होइ॥32॥
सती पुकारै सलि चढ़ी, सुनी रे मीत मसाँन।
लोग बटाऊ चलि गए, हम तुझ रहे निदान॥33॥
सती बिचारी सत किया, काठौं सेज बिछाइ।
ले सूती पीव आपणा, चहुँ दिसि अगनि लगाइ॥34॥
सती सूरा तन साहि करि, तन मन कीया घाँण।
दिया महौल पीव कूँ, तब मड़हट करै बषाँण॥35॥
सती जलन कूँ नीकली, पीव का सुमरि सनेह।
सबद सुनन जीव निकल्या, भूति गई सब देह॥36॥
सती जलन कूँ नीकली, चित धरि एकबमेख।
तन मन सौंप्या पीव कूँ, तब अंतर रही न रेख॥37॥
टिप्पणी: ख-जलन को नीसरी।
हौं तोहि पूछौं हे सखी, जीवत क्यूँ न मराइ।
मूंवा पीछे सत करै, जीवत क्यूँ न कराइ॥38॥
कबीर प्रगट राम कहि, छाँनै राँम न गाइ।
फूस कौ जोड़ा दूरि करि, ज्यूँ बहुरि लागै लाइ॥39॥
कबीर हरि सबकूँ भजै, हरि कूँ भजै न कोइ।
जब लग आस सरीर की, तब लग दास न होइ॥40॥
आप सवारथ मेदनी, भगत सवारथ दास।
कबीर राँम सवारथी, जिनि छाड़ीतन की आस॥41॥696॥

(46) काल कौ अंग

झूठे सुख कौ सुख कहैं, मानत है मन मोद।
खलक चवीणाँ काल का, कुछ मुख मैं कुछ गोद॥1॥
आज काल्हिक जिस हमैं, मारगि माल्हंता।
काल सिचाणाँ नर चिड़ा, औझड़ औच्यंताँ॥2॥
काल सिहाँणै यों खड़ा, जागि पियारो म्यंत।
रामसनेही बाहिरा तूँ क्यूँ सोवै नच्यंत॥3॥
सब जग सूता नींद भरि, संत न आवै नींद।
काल खड़ा सिर उपरै, ज्यूँ तोरणि आया बींद॥4॥
टिप्पणी: ख-निसह भरि।
आज कहै हरि काल्हि भजौगा, काल्हि कहे फिरि काल्हि।
आज ही काल्हि करंतड़ाँ, औसर जासि चालि॥5॥
कबीर पल की सुधि नहीं, करै काल्हि का साज।
काल अच्यंता झड़पसी, ज्यूँ तीतर को बाज॥6॥
कबीर टग टग चोघताँ, पल पल गई बिहाइ।
जीव जँजाल न छाड़ई, जम दिया दमामा आइ॥7॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
जूरा कूंती, जीवन सभा, काल अहेड़ी बार।
पलक बिना मैं पाकड़ै, गरव्यो कहा गँवार॥8॥
मैं अकेला ए दोइ जणाँ छेती नाँहीं काँइ।
जे जम आगै ऊबरो, तो जुरा पहूँती आइ॥8॥
बारी-बारी आपणीं, चेले पियारे म्यंत।
तेरी बारी रे जिया, नेड़ी आवै निंत॥9॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
मालन आवत देखि करि, कलियाँ करी पुकार।
फूले फूले चुणि लिए, काल्हि हमारी बार॥11॥
बाढ़ी आवत देखि करि, तरवर डोलन लाग।
हम कटे की कुछ नहीं, पंखेरू घर भाग॥12॥
फाँगुण आवत देखि करि, बन रूना मन माँहि।
ऊँची डाली पात है, दिन दिन पीले थाँहि॥13॥
पात पंडता यों कहै, सुनि तरवर बणराइ।
अब के बिछुड़े ना मिलै, कहि दूर पड़ैगे जाइ॥14॥
दों की दाधी लाकड़ी, ठाढ़ी करै पुकार।
मति बसि पड़ौं लुहार के, जालै दूजी बार॥10॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
मेरा बीर लुहारिया, तू जिनि जालै मोहि।
इक दिन ऐसा होइगा, हूँ जालौंगी तोहि॥15॥
जो ऊग्या सो आँथवै, फूल्या सो कुमिलाइ।
जो चिणियाँ सो ढहि पड़ै, जो आया सो जाइ॥11॥
जो पहर्‌या सो फाटिसी, नाँव धर्‌या सो जाइ।
कबीर सोइ तत्त गहि, जो गुरि दिया बताइ॥12॥
निधड़क बैठा राम बिन, चेतनि करै पुकार।
यहु तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार॥13॥
पाँणी केरा बुदबुदा, इसी हमारी जाति।
एक दिनाँ छिप जाँहिंगे, तारे ज्यूँ परभाति॥14॥
टिप्पणी: ख-एक दिनाँ नटि जाहिगे, ज्यूँ तारा परभाति।
ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर पंच पखेरुवा, राखे पोष लगाइ।
एक जु आया पारधी, ले गयो सबै उड़ाइ॥21॥
कबीर यहु जग कुछ नहीं, षिन षारा षिन मीठ।
काल्हि जु बैठा माड़ियां, आज नसाँणाँ दीठ॥15॥
टिप्पणी: ख-काल्हि जु दीठा मैंड़िया।
कबीर मंदिर आपणै, नित उठि करती आलि।
मड़हट देष्याँ डरपती, चौड़े दीन्हीं जालि॥16॥
टिप्पणी: ख-बैठी करतौं आलि।
मंदिर माँहि झबूकती, दीवा केसी जोति।
हंस बटाऊ चलि गया, काढ़ौ घर की छोति॥17॥
ऊँचा मंदिर धौलहर, माटी चित्री पौलि।
एक राम के नाँव बिन, जँम पाड़गा रौलि॥18॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
काएँ चिणावै मालिया, चुनै माटी लाइ।
मीच सुणैगी पायणी, उधोरा लैली आइ॥26॥
काएँ चिणावै मालिया, लाँबी भीति उसारि।
घर तौ साढ़ी तीनि हाथ, घणौ तौ पौंणा चारि॥27॥
ऊँचा महल चिणाँइयाँ, सोवन कलसु चढ़ाइ।
ते मंदर खाली पड़ा, रहे मसाणी जाइ॥28॥
कबीर कहा गरबियो, काल गहै कर केस।
नाँ जाँणै कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस॥19॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
इहर अभागी माँछली, छापरि माँणी आलि।
डाबरड़ा छूटै नहीं, सकै त समंद सँभालि॥30॥
मँछी हुआ न छूटिए, झीवर मेरा काल।
जिहिं जिहिं डाबर हूँ फिरौ, तिहि तिहिं माँड़ै जाल॥31॥
पाँणी माँहि ला माँछली, सक तौ पाकड़ि तीर।
कड़ी कूद की काल की, आइ पहुँता कीर॥32॥
मंद बिकंता देखिया, झीवर के करवारि।
ऊँखड़िया रत बालियाँ, तुम क्यूँ बँधे जालि॥33॥
पाँणी मँहि घर किया, चेजा किया पतालि।
पासा पड़ा करम का, यूँ हम बीधे जाल॥34॥
सूकण लगा केवड़ा, तूटीं अरहर माल।
पाँणी की कल जाणताँ, गया ज सीचणहार॥35॥
कबीर जंत्रा न बाजई, टूटि गए सब तार।
जंत्रा बिचारा क्या करै, चलै बजावणहार॥20॥
टिप्पणी: ख-कबीर जंत्रा न बाजई।
धवणि धवंती रहि गई, बुझि गए अंगार।
अहरणि रह्या ठमूकड़ा, जब उठि चले लुहार॥21॥
टिप्पणी: ख-ठमेकड़ा उठि गए।
ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर हरणी दूबली, इस हरियालै तालि।
लख अहेड़ी एक जीव, कित एक टालौ भालि॥38॥
पंथी ऊभा पंथ सिरि, बुगचा बाँध्या पूठि।
मरणाँ मुँह आगै खड़ा, जीवण का सब झूठ॥22॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
जिसहि न हरण इत जागि, सी क्यूँ लौड़े मीत।
जैसे पर घर पाहुण, रहै उठाए चीत॥40॥

यहु जिव आया दूर थैं, अजौ भी जासी दूरि।
बिच कै बासै रमि रह्या, काल रह्या सर पूरि॥23॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
कबीर गफिल क्या फिरै, सोवै कहा न चीत।
एवड़ माहि तै ले चल्या, भज्या पकड़ि षरीस॥45॥
साईं सू मिसि मछीला, के जा सुमिरै लाहूत।
कबही उझंकै कटिसी, हुँण ज्यों बगमंकाहु॥46॥
राम कह्या तिनि कहि लिया, जुरा पहूँती आइ।
मंदिर लागै द्वार यै, तब कुछ काढणां न जाइ॥24॥
बरिया बीती बल गया, बरन पलट्या और।
बिगड़ीबात न बाहुणै, कर छिटक्याँ कत ठौर॥25॥
टिप्पणी: ख-कर छूटाँ कत ठौर।
बरिया बीती बल गया, अरू बुरा कमाया।
हरि जिन छाड़ै हाथ थैं, दिन नेड़ा आया॥26॥
कबीर हरि सूँ हेत करि, कूड़ै चित्त न लाव।
बाँध्या बार षटीक कै, तापसु किती एक आव॥27॥
टिप्पणी: ख- कड़वे तन लाव।
बिष के बन मैं घर किया, सरप रहे लपटाइ।
ताथैं जियरे डरैं गह्या, जागत रैणि बिहाइ॥28॥
कबीर सब सुख राम है, और दुखाँ की रासि।
सुर नर मुनिवर असुर सब, पड़े काल की पासि॥29॥
काची काया मन अथिर, थिर थिर काँम करंत।
ज्यूँ ज्यूँ नर निधड़क फिरै, त्यूँ त्यूँ काल हसंत॥30॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
बेटा जाया तो का भया, कहा बजावै थाल।
आवण जाणा ह्नै रहा, ज्यौ कीड़ी का थाल॥51॥
रोवणहारे भी मुए, मुए जलाँवणहार।
हा हा करते ते मुए, कासनि करौं पुकार॥31॥
जिनि हम जाए ते मुए, हम भी चालणहार।
जे हमको आगै मिलै, तिन भी बंध्या मार॥32॥725॥

(47) सजीवनी कौ अंग

जहाँ जुरा मरण ब्यापै नहीं, मुवा न सुणिये कोइ।
चलि कबीर तिहि देसड़ै, जहाँ बैद विधाता होइ॥1॥
टिप्पणी: ख-जुरा मीच।
कबीर जोगी बनि बस्या, षणि खाये कंद मूल।
नाँ जाणौ किस जड़ी थैं, अमर गए असथूल॥2॥
कबीर हरि चरणौं चल्या, माया मोह थैं टूटि।
गगन मंडल आसण किया, काल गया सिर कूटि॥3॥
यहु मन पटकि पछाड़ि लै, सब आपा मिटि जाइ।
पंगुल ह्नै पिवपिव करै, पीछै काल न खाइ॥4॥
कबीर मन तीषा किया, बिरह लाइ षरसाँड़।
चित चणूँ मैं चुभि रह्या तहाँ नहीं काल का पाण॥5॥
टिप्पणी: ख-मन तीषा भया।
तरवर तास बिलंबिए, बारह मास फलंत।
सीतल छाया गहर फल, पंषी केलि करंत॥6॥
दाता तरवर दया फल, उपगारी जीवंत।
पंषी चले दिसावराँ, बिरषा सुफल फलंत॥7॥732॥

(48) अपारिष कौ अंग

पाइ पदारथ पेलि करि, कंकर लीया हाथि।
जोड़ी बिछुटी हंस की, पड़ा बगाँ के साथि॥1॥
टिप्पणी: ख-चल्याँ बगाँ के साथि।
टिप्पणी: ख प्रति में इसके पहिले ये दोहे हैं-
चंदन रूख बदस गयो, जण जण कहे पलास।
ज्यों ज्यों चूल्है लोंकिए, त्यूँ त्यूँ अधिकी बास॥1॥
हंसड़ो तो महाराण को, उड़ि पड्यो थलियाँह।
बगुलौ करि करि मारियो, सझ न जाँणै त्याँह॥2॥
हंस बगाँ के पाहुँना, कहीं दसा कै केरि।
बगुला कांई गरबियाँ, बैठा पाँख पषेरि॥3॥
बगुला हंस मनाइ लै, नेड़ों थकाँ बहोड़ि।
त्याँह बैठा तूँ उजला, त्यों हंस्यौ प्रीति न तोड़ि॥4॥
एक अचंभा देखिया, हीरा हाटि बिकाइ।
परिषणहारे बाहिरा, कौड़ी बदले जाइ॥2॥
कबीर गुदड़ी बीषरी, सौदा गया बिकाइ।
खोटा बाँध्याँ गाँठड़ी, इब कुछ लिया न जाइ॥3॥
पैड़ै मोती बिखर्‌या, अंधा निकस्या आइ।
जोति बिनाँ जगदीश की, जगत उलंघ्या जाइ॥4॥
कबीर यहु जग अंधला, जैसी अंधी गाइ।
बछा था सो मरि गया, ऊभी चाँम चटाइ॥5॥737॥

(49) पारिष कौ अंग

जग गुण कूँ गाहक मिलै, तब गुण लाख बिकाइ।
जब गुण कौ गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाइ॥1॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर मनमना तौलिए, सबदाँ मोल न तोल।
गौहर परषण जाँणहीं, आपा खोवै बोल॥7॥
कबीर लहरि समंद की मोती बिखरे आइ।
बगुला मंझ न जाँणई, हंस जुणे चुणि खाइ॥2॥
हरि हीराजन जौहरी, ले ले माँडिय हाटि।
जबर मिलैगा पारिषु, तब हीराँ की साटि॥3॥740॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
कबीर सपनही साजन मिले, नइ नइ करै जुहार।
बोल्याँ पीछे जाँणिए, जो जाको ब्योहार॥4॥
मेरी बोली पूरबी, ताइ न चीन्है कोइ।
मेरी बोली सो लखै, जो पूरब का होइ॥5॥

(50) उपजणि कौ अंग

नाव न जाणै गाँव का, मारगि लागा जाँउँ।
काल्हि जु काटा भाजिसी, पहिली क्यों न खड़ाउँ॥1॥
सीप भई संसार थैं, चले जु साईं पास।
अबिनासी मोहिं ले चल्या, पुरई मेरी आस॥2॥
इंद्रलोक अचरिज भया, ब्रह्मा पड्या बिचार।
कबीर चाल्या राम पै, कौतिगहार अपार॥3॥
टिप्पणी: ख-ब्रह्मा भया विचार।
ऊँचा चढ़ि असमान कू, मेरु ऊलंधे ऊड़ि।
पसू पंषेरू जीव जंत, सब रहे मेर में बूड़ि॥4॥
टिप्पणी: ख-ऊँचा चाल।
सद पाँणी पाताल का, काढ़ि कबीरा पीव।
बासी पावस पड़ि मुए, बिषै बिलंबे जीव॥5॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर हरिका डर्पतां, ऊन्हाँ धान न खाँउँ।
हिरदय भीतर हरि बसै, ताथै खरा डराउँ॥7॥

कबीर सुपिनै हरि मिल्या, सूताँ लिया जगाइ।
आषि न मीचौं डरपता, मति सुपिनाँ ह्नै जाइ॥6॥
गोब्यंद कै गुण बहुत है, लिखे जु हरिदै माँहि।
डरता पाँणी ना पिऊँ, मति वे धोये जाँहि॥7॥
कबीर अब तौ ऐसा भया, निरमोलिक निज नाउँ।
पहली काच कबीर था, फिरता ठाँव ठाँवै ठाउँ॥8॥
भौ समंद विष जल भर्‌या, मन नहीं बाँधै धीर।
सबल सनेही हरि मिले, तब उतरे पारि कबीर॥9॥
भला सहेला ऊतरîर, पूरा मेरा भाग।
राँम नाँव नौका गह्या, तब पाँणी पंक न लाग॥10॥
कबीर केसौ की दया, संसा घाल्या खोइ।
जे दिन गए भगति बिन, ते दिन सालै मोहि॥11॥
टिप्पणी: ख-संता मेल्हा।
कबीर जाचण जाइया, आगै मिल्या अंच।
ले चाल्या घर आपणै, भारी खाया खंच॥12॥

(51) दया निरबैरता कौ अंग

कबीर दरिया प्रजल्या, दाझै जल थल झोल।
बस नाँहीं गोपाल सौ, बिनसै रतन अमोल॥1॥
ऊँनमि बिआई बादली, बर्सण लगे अँगार।
उठि कबीरा धाह थे, दाझत है संसार॥2॥
दाध बली ता सब दुखी, सुखी न देखौ कोइ।
जहाँ कबीरा पग धरै, तहाँ टुक धीरज होइ॥3॥755॥

(52) सुंदरि कौ अंग

कबीर सुंदरि यों कहै, सुणि हो कंत सुजाँण।
बेगि मिलौ तुम आइ करि, नहीं तर तजौं पराँण॥1॥
कबीर जाकी सुंदरी, जाँणि करै विभचार।
ताहि न कबहूँ आदरै, प्रेम पुरिष भरतार॥2॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
दाध बली तो सब दुखी, सुखी न दीसै कोइ।
को पुत्र को बंधवाँ, को धणहीना होइ॥3॥
जे सुंदरि साईं भजै, तजै आन की आस।
ताहि न कबहूँ परहरै, पलक न छाड़ै पास॥3॥
इस मन को मैदा करौ, नान्हाँ करि करि पीसि।
तब सुख पावै सुंदरी, ब्रह्म झलकै सीस॥4॥
हरिया पारि हिंडोलना, मेल्या, कंत मचाइ।
सोई नारि सुलषणी, नित प्रति झूलण जाइ॥5॥760॥

(53) कस्तूरियाँ मृग कौ अंग

कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।
ऐसै घटि घटि राँम हैं, दुनियाँ देखै नाँहि॥1॥
कोइ एक देखै संत जन, जाँकै पाँचूँ हाथि।
जाके पाँचूँ बस नहीं, ता हरि संग न साथि॥2॥
सो साईं तन में बसै, भ्रम्यों न जाणै तास।
कस्तूरी के मृग ज्यूँ फिरि फिरि सूँघै घास॥3॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
हूँ रोऊँ संसार कौ, मुझे न रोवै कोइ।
मुझको सोई रोइसी, जे राम सनेही होइ॥5॥
मूरो कौ का रोइए, जो अपणै घर जाइ।
रोइए बंदीवान को, जो हाटै हाट बिकाइ॥6॥
बाग बिछिटे मिग्र लौ, ति हि जि मारै कोइ।
आपै हौ मरि जाइसी, डावाँ डोला होइ॥7॥
कबीर खोजी राम का, गया जु सिंघल दीप।
राम तौ घट भीतर रमि रह्या, जो आवै परतीत॥4॥
घटि बधि कहीं न देखिए, ब्रह्म रह्या भरपूरि।
जिनि जान्या तिनि निकट है, दूरि कहैं थे दूरि॥5॥
मैं जाँण्याँ हरि दूरि है, हरि रह्या सकल भरपूरि।
आप पिछाँणै बाहिरा, नेड़ा ही थैं दूरि॥6॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
कबीर बहुत दिवस भटकट रह्या, मन में विषै विसाम।
ढूँढत ढूँढत जग फिर्‌या, तिणकै ओल्है राँम॥7॥
तिणकै ओल्हे राम है, परबत मेहैं भाइ।
सतगुर मिलि परचा भया, तब हरि पाया घट माँहि॥7॥
राँम नाँम तिहूँ लोक मैं, सकलहु रह्या भरपूरि।
यह चतुराई जाहु जलि, खोजत डोलैं दूरि॥8॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
हरि दरियाँ सूभर भरिया, दरिया वार न पार।
खालिक बिन खाली नहीं, जेंवा सूई संचार॥10॥
ज्यूँ नैनूँ मैं पूतली, त्यूँ खालिक घट माँहि।
मूरखि लोग न जाँणहिं, बाहरि ढूँढण जाँहि॥9॥769॥

(54) निंद्या कौ अंग

लोगे विचारा नींदई, जिन्ह न पाया ग्याँन।
राँम नाँव राता रहै, तिनहूँ, न भावै आँन॥1॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
निंदक तौ नाँकी, बिना, सोहै नकटयाँ माँहि।
साधू सिरजनहार के, तिनमैं सोहै नाँहि॥2॥
दोख पराये देखि करि, चल्या हसंत हसंत।
अपने च्यँति न आवई, जिनकी आदि न अंत॥2॥
निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।
बिन साबण पाँणी बिना, निरमल करै सुभाइ॥3॥
न्यंदक दूरि न कीजिये, दीजै आदर माँन।
निरमल तन मन सब करै, बकि बकि आँनहिं आँन॥4॥
जे को नींदे साध कूँ, संकटि आवै सोइ।
नरक माँहि जाँमैं मरैं, मुकति न कबहूँ होइ॥5॥
कबीर घास न नींदिये, जो पाऊँ तलि होइ।
उड़ि पड़ै जब आँखि में, खरा दुहेली होइ॥6॥
आपन यौं न सराहिए, और न कहिए रंक।
नाँ जाँणौं किस ब्रिष तलि, कूड़ा होइ करंक॥7॥
टिप्पणी: आपण यौ न सराहिये, पर निंदिए न कोइ।
अजहूँ लांबा द्योहड़ा, ना जाणौ क्या होइ॥8॥
कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोइ।
आप ठग्याँ सुख ऊपजै, और ठग्याँ दुख होइ॥8॥
अब कै जे साईं मिलैं, तौ सब दुख आपौ रोइ।
चरनूँ ऊपर सीस धरि, कहूँ ज कहणाँ होइ॥9॥778॥
टिप्पणी: ख-प्रति में यह दोहा नहीं है।

(55) निगुणाँ कौ अंग

हरिया जाँणै रूषड़ा, उस पाँणीं का नेह।
सूका काठ न जाणई, कबहू बूठा मेह॥1॥
झिरिमिरि झिरिमिरि बरषिया, पाँहण ऊपरि मेह।
माटी गलि सैंजल भई, पाँहण वोही तेह॥2॥
पार ब्रह्म बूठा मोतियाँ, बाँधी सिषराँह।
सगुराँ सगुराँ चुणि लिया, चूक पड़ी निगुराँह॥3॥
कबीर हरि रस बरषिया, गिर डूँगर सिषराँह।
नीर मिबाणाँ ठाहरै, नाऊँ छा परड़ाँह॥4॥
कबीर मूँडठ करमिया, नव सिष पाषर ज्याँह।
बाँहणहारा क्या करै, बाँण न लागै त्याँह॥5॥
कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझा मन।
कहि कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सुपहला दिन॥6॥
टिप्पणी: ख-प्रति में यह दोहा नहीं है।
कहि कबीर कठोर कै, सबद न लागै सार।
सुधबुध कै हिरदै भिदै, उपजि विवेक विचार॥7॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
बेकाँमी को सर जिनि बाहै, साठी खोवै मूल गँवावे।
दास कबीर ताहि को बाहैं, गलि सनाह सनमुखसरसाहै॥8॥
पसुआ सौ पानी पड़ो, रहि रहि याम खीजि।
ऊसर बाह्यौ न ऊगसी, भावै दूणाँ बीज॥9॥
मा सीतलता के कारणै, माग बिलंबे आइ।
रोम रोम बिष भरि रह्या, अमृत कहा समाइ॥8॥
सरपहि दूध पिलाइये, दूधैं विष ह्नै जाइ।
ऐसा कोई नाँ मिले, स्यूँ सरपैं विष खाइ॥9॥
जालौ इहै बड़पणाँ, सरलै पेड़ि खजूरि।
पंखी छाँह न बीसवै, फल लागे ते दूरि॥10॥
ऊँचा कूल के कारणै, बंस बध्या अधिकार।
चंदन बास भेदै नहीं, जाल्या सब परिवार॥11॥
कबीर चंदन के निड़ै, नींव भि चंदन होइ।
बूड़ा बंस बड़ाइताँ, यौं जिनि बूड़ै कोइ॥12॥

(56) बीनती कौ अंग

कबीर साँईं तो मिलहगे, पूछिहिगे कुसलात।
आदि अंति की कहूँगा, उर अंतर की बात॥1॥
टिप्पणी: ख-प्रति में यह दोहा नहीं है।
कबीर भूलि बिगाड़िया, तूँ नाँ करि मैला चित।
साहिब गरवा लोड़िये, नफर बिगाड़ै नित ॥2॥
करता करै बहुत गुण, औगुँण कोई नाहिं।
जे दिल खोजौ आपणीं, तो सब औगुण मुझ माँहिं॥3॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
बरियाँ बीती बल गया, अरु बुरा कमाया।
हरि जिनि छाड़ै हाथ थैं, दिन नेड़ा आया॥3॥
औसर बीता अलपतन, पीव रह्या परदेस।
कलंक उतारी केसवाँ, भाँना भरँम अंदेस॥4॥
कबीर करत है बीनती, भौसागर के ताँई।
बंदे ऊपरि जोर होत है, जँम कूँ बरिज गुसाँई॥5॥
टिप्पणी: ख-कबीरा विचारा करै बिनती।
हज काबै ह्नै ह्नै गया, केती बार कबीर।
मीराँ मुझ मैं क्या खता, मुखाँ न बोलै पीर॥6॥
ज्यूँ मन मेरा तुझ सों, यौं जे तेरा होइ।
ताता लोबा यौं मिले, संधि न लखई कोइ॥7॥797॥

(57) साषीभूत कौ अंग

कबीर पूछै राँम कूँ, सकल भवनपति राइ।
सबही करि अलगा रहौ, सो विधि हमहिं बताइ॥1॥
जिहि बरियाँ साईं मिलै, तास न जाँणै और।
सब कूँ सुख दे सबद करि, अपणीं अपणीं ठौर॥2॥
कबीर मन का बाहुला, ऊँचा बहै असोस।
देखत ही दह मैं पड़े, दई किसा कौं दोस॥3॥800॥

(58) बेलि कौ अंग

अब तौ ऐसी ह्नै पड़ी, नाँ तूँ बड़ी न बेलि।
जालण आँणीं लाकड़ी, ऊठी कूँपल मेल्हि॥1॥
आगै आगै दौं जलैं, पीछै हरिया होइ।
बलिहारी ता विरष की, जड़ काट्याँ फल होइ॥2॥
टिप्पणी: ख-दौं बलै।
जे काटौ तो डहडही, सींचौं तौ कुमिलाइ।
इस गुणवंती बेलि का, कुछ गुँण कहाँ न जाइ॥3॥
आँगणि बेलि अकासि फल, अण ब्यावर का दूध।
ससा सींग की धूनहड़ी, रमै बाँझ का पूत॥4॥
कबीर कड़ई बेलड़ी, कड़वा ही फल होइ।
साँध नाँव तब पाइए, जे बेलि बिछोहा होइ॥5॥
सींध भइ तब का भया, चहूँ दिसि फूटी बास।
अजहूँ बीज अंकूर है, भीऊगण की आस॥6॥806॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
सिंधि जू सहजै फुकि गई, आगि लगी बन माँहि।
बीज बास दून्यँ जले, ऊगण कौं कुछ नाँहि॥7॥

(59) अबिहड़ कौ अंग

कबीर साथी सो किया, जाके सुख दुख नहीं कोइ।
हिलि मिलि ह्नै करि खेलिस्यूँ कदे बिछोह न होइ॥1॥
कबीर सिरजनहार बिन, मेरा हितू न कोइ।
गुण औगुण बिहड़ै नहीं, स्वारथ बंधी लोइ॥2॥
आदि मधि अरु अंत लौं, अबिहड़ सदा अभंग।
कबीर उस करता की, सेवग तजै न संग॥3॥809॥

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बिन ही मुख सारंग राग सुन, बिन ही तंती तार।
बिना सुर अलगोजे बजैं, नगर नांच घुमार।।
घण्टा बाजै ताल नग, मंजीरे डफ झांझ।
मूरली मधूर सुहावनी, निसबासर और सांझ।।
बीन बिहंगम बाजहिं, तरक तम्बूरे तीर।
राग खण्ड नहीं होत है, बंध्या रहत समीर।।
तरक नहीं तोरा नहीं, नांही कशीस कबाब।
अमृत प्याले मध पीवैं, ज्यों भाटी चवैं शराब।।
मतवाले मस्तानपुर, गली-2 गुलजार।
संख शराबी फिरत हैं, चलो तास बजार।।
संख-संख पत्नी नाचैं, गावैं शब्द सुभान।
चंद्र बदन सूरजमुखी, नांही मान गुमान।।
संख हिंडोले नूर नग, झूलैं संत हजूर।
तख्त धनी के पास कर, ऐसा मुलक जहूर।।
नदी नाव नाले बगैं, छूटैं फुहारे सुन्न।
भरे होद सरवर सदा, नहीं पाप नहीं पुण्य।।
ना कोई भिक्षुक दान दे, ना कोई हार व्यवहार।
ना कोई जन्मे मरे, ऐसा देश हमार।।
जहां संखों लहर मेहर की उपजैं, कहर जहां नहीं कोई।
दासगरीब अचल अविनाशी, सुख का सागर सोई।।

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कबीरदासजी एकमात्र भक्ति संत ही नहीं बल्कि समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अपनी रचनाओं से समाज में व्याप्त कुरीतियों पर जमकर प्रहार किया। चाहे वह हिन्दू धर्म हो या मुस्लिम, उनके कटाक्षों से कोई नहीं बचा। कबीर ने हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रयास किया व राम-रहीम एकत्व पर जोर दिया और प्रेम के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त करने की बात कही। उन्होंने धर्मों के बाह्य आडम्बरों का विरोध किया तथा आंतरिक एकता पर बल दिया। इस प्रकार समन्वयकारी दृष्टिकोण अपनाया। कबीर ने मूर्तिपूजा एवं कर्मकाण्डों का भी खण्डन किया तथा सामान्य भक्ति पर जोर दिया। इसके तहत उन्होंने निगुर्ण ब्रह्म की उपासना की बात कही। कबीर ने हिन्दू तथा मुस्लिम धर्म दोनों की रूढ़ियों पर प्रहार किया। पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूँजू पहाड़।  ताते वे चाकी भली, पीस खाय संसार।।  काकर पाथर जोड़ि के, मस्जिद लई चिनाय । ता चढ़ मुल्ला बांग दे, का बहिरा भया खुदाय।। 

उन्होंने धार्मिक विश्वासों का अंधानुकरण करने का भी विरोध किया और मानव विवेक पर जोर दिया।

 दिन भर रोजा रखत है, रात हनत है गया। 

यह खून, यह बंदगी कैसे खुशी खुदाय।।

दार्शनिक दृष्टि से कबीर आत्मा को परमात्मा का ही रूप स्वीकार करते थे। कबीर ने अपनी भक्ति में गुरु को अत्यंत उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित किया है।  

काशी में हम प्रकट भए, रामानन्द चेताए । 

कबीर के विचारों ने तत्कालीन जनता को अन्दर तक झकझोरा और उनके स्वाभिमान को जगाया। उन्होंने सूफी वाद व अद्वैतवाद को मिलाकर हिन्दू मुस्लिम समन्वय के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कबीर और तुलसीदास के सत्संग (एनकाउंटर) की अनेक कथाऐं व्याप्त हैं वामदृष्टि मसिजीवी चाहे जो भी कहें। मसलन, एक कथा सबने सुनी है कि भूजा भूजने वाली भरभूज से कबीर भूजा मांगते हैं कि ‘ऐ मेरे बाप की मेहर’ भूजा दे और स्त्री उनको चइला ले के दौड़ा लेती है दूसरी तरफ तुलसीदास कहते हैं कि ‘माताजी’ भूजा देने की कृपा करें तुम्हारे इस ब्राह्मण पुत्र को भूख लगी है तिस पर उन्हें सतन्जा भूजा चटनी गुड़ के साथ मिलता है। निश्चित ही यह रूपक भाषा की मारकता और संस्कार को प्रदर्शित करने के लिए प्रयोग हुआ ऐसा ही एक मजेदार दृष्टान्त हमें आदरणीय रवींद्र उपाध्याय जी की वाल पर मिला। इतना सुंदर लिखा है कि साझा करने से न रोक पाया। प्रस्तुत कथ्य एक बहुत पुराने संशय को भी इंगित करता है। दाशरथि राम और परब्रह्म राम के बीच के संशय को। खैर, संशय-विहग उड़ावन हारी कथा पढ़िए तुलसीदास द्वारा कबीर की फ़ज़ीहत दसरथ सुत तिहुँ लोक बखाना। राम नाम को मरम है आना। -कबीरदास (तीनों लोकों में दशरथ के पुत्र को राम कहा जाता है लेकिन राम नाम का असली मर्म ‘आना’ अर्थात् अन्य या अलग या भिन्न है।) श्री होसिला प्रसाद मिश्र जी ने कबीर के इस उद्धरण के साथ गोस्वामी जी की चौपाई ‘बन्दउँ नाम राम रघुबर को/हेतु कृसानु भानु हिमकर को।’ के अर्थों का सामंजस्य बैठाते हुए यह लिखा कि वास्तविक राम वह हैं जो सबके हृदय में बसते हैं अर्थात् जो निर्गुण ब्रह्म स्वरूप हैं, दशरथ पुत्र राम नहीं। मैंने मिश्रा जी की पोस्ट पर लिखा कि गोस्वामी जी को कबीरदास की यह उक्ति बुरी लगी थी और उन्होंने श्री रामचरितमानस में इसी बात पर कबीर को खूब गरियाया था। मैंने सोचा क्यों न यह मनोरंजक प्रसंग अलग से पोस्ट कर दूँ? निवेदन है कि कबीरदास जी द्वारा प्रयोग में लाए गए ‘आना’ और ‘दसरथ सुत’ को याद रखिएगा। बालकाण्ड में शिव जी पार्वती से कहते हैं-
“एक बात नहिं मोहि सुहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी। तुम जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना। कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच। पाखण्डी हरिपद विमुख जानहिं झूठ न साँच।(११४)” (शिवजी ने कहा-भवानी! आपकी एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी, यद्यपि आप ने मोह के वशीभूत होकर कहा।आपने कैसे राम को ‘आना’ अर्थात् कोई अन्य कह दिया जिसे केवल श्रुतियाँ गाती हैं और जिसका मुनिगण ध्यान करते हैं? ऐसा तो अधम मनुष्य कहते हैं जिन्हें मोह रूपी पिशाच ने ग्रस रखा है।ऐसा कहने वाले पाखण्डी हैं, भगवान के चरणों से विमुख हैं और झूठ सच कुछ नहीं जानते।)  इसके बाद तो राम को ‘आना’ कहने वालों के लिए तुलसीदास इस प्रकार निन्दित करते हैं-अग्य अकोबिद अंध अभागी।काई विषय मुकुर मन लागी। लंपट कपटी कुटिल विसेषी।सपनेहुँ संत सभा नहिं देखी। कहहिं ते बेद असंमत बानी।जिन्हके सूझ लाभ नहिं हानी। मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना।राम रूप देखहिं किमि दीना। जिन्हके अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका। आदि आदि। इसके बाद गोस्वामी जी स्पष्ट कर देते हैं कि-“जिमि गावहिं बिधि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान। सोई दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान।(११८)”

[जिन्हें वेद, ब्रह्मा और ज्ञानीजन जपते हैं और मुनिगण ध्यान करते हैं वे भगवान् ही भक्तों के लिए दशरथ-पुत्र हैं, (अन्य कोई नहीं)।] तुलसी ने कबीर का नाम तो नहीं लिया लेकिन उनके द्वारा प्रयुक्त शब्दों ‘आना’ और ‘दसरथ सुत’ को पकड़ कर उन्हें जी भर कर कोसा है।कबीर तो पूर्ववर्ती थे, वे कैसे जवाब दे पाते और चेलों में वह ताक़त थी नहीं जो तुलसी को जवाब दे पाते।

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मय्यनन्तमहांभोधा- वाश्चर्यं जीववीचयः।
उद्यन्ति घ्नन्ति खेलन्ति प्रविशन्ति स्वभावतः॥२-२५॥

आश्चर्य, मुझ अनंत महासागर में जीव रूपी लहरें उत्पन्न होती हैं, मिलती हैं, खेलती हैं और स्वभाव से मुझमें प्रवेश कर जाती हैं॥२५॥

 

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##मैं पिछले20 वर्षो से थाइराइड,डायबेटिक,हार्ट संबंधित रोग,लीवर आदि प्रमुख बीमारियों का खानपान में परिवर्तन कर शतप्रतिशत इलाज का प्रयास कर रहा हू, सही आहार एंव न्युनतम होम्योपेथिक दवाओं से पूर्णतया बीमारी को जड़ से खत्म किया जा सकता है ऐसा मेरा यह मानना है, तथा मैने शतप्रतिश हजारो लोगों में तथा हर आयुवर्ग में सफल प्रयोग किया है, न्युनतम व्यय- प्राय हम हम जो सात्विक भोजन पर व्यय करते है उसी के अनुरूप ही व्यय है को किया जाकर हमारी दैनिक आदतों में बीमारी से लड़ने तथा ठीक होने के प्रयास मोजूद है । यह  कि आहार में प्रमुख परिवर्तन करके ही बीमारियों से लड़ा जा सकता है तथा बीमारियों से निजात पाई जा सकती है ।

//PL USE THE BARLEY,SHORGUM,MILLET,GRAM,MAIZE LENTIL LIKE MOONG AND MOTH//

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For the last 20 years, I am trying to cure 100% of the major diseases like thyroid, diabetic, heart related diseases, liver etc. It is, and I have done 100% successful experiment in thousands of people and in every age group, the minimum expenditure - usually the expenditure we spend on sattvik the whole grain 8-9 type coarse gains- the veg food is the same as it should be done in our daily habits to fight disease and get cured. The effort exists. That only by making major changes in the diet, diseases can be fought and diseases can be overcome.

Benefits of Multigrain-Health.gov's 2015-2020 Dietary Guidelines for Americans suggests that you eat 6 ounces of grain daily and get at least half of that from whole grains,

Benefits of Multigrain - How can We are diet plan with whole grains,bean and lentils Present study was undertaken for development of gluten free processed products i.e. cookies and pasta by incorporation of gluten-free ingredients in different proportions. Gluten free raw ingredients i. e. finger millet (FM), pearl millet (PM), soya bean (SB) and ground

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