The cities are silent in Hindi Moral Stories by Asha Parashar books and stories PDF | शहरे खामोशां

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शहरे खामोशां

बरसात शुरू हो गई, तेज बौछार नहीं, हल्की बूंदा-बांदी हो रही थी। पर जब पानी आंखों में गिरे तो खुले आसमान तले बैठना मुश्किल हो जाता हे। वह उठ कर सामने पेड़ के नीचे वाले बैंच पर जा बैठा, जहां पहले से ही नीली कमीज पहने एक प्रौढ़ व्यक्ति बैठा था। इस व्यक्ति को वह रोज इसी बैंच पर यही कमीज पहने बैठे देखता था। दूर से वह प्रौढ़ नजर आता था, पर आज पास से देखने पर उसे वह उसकी उम्र से चार-पांच वर्ष बड़ा नज़र आया। उसे याद आया उसने भी तो कई दिन से कपड़े नहीं बदले हैं, कपड़े बदलना तो दूर वह तो शायद नहाया भी नहीं है। मार्च का महीना वैसे ही उदासी भरा होता है, पेड़ों से पत्ते गिरते हैं, कभी बादल छा जाते हैं कभी धूल भरी आंधी चलती हे। किसी किताब में पढ़ा था कि अधिकतर आत्म-हत्याएं इसी मौसम में होती हैं। बचपन में इन दिनों परीक्षाएं होती थी, शायद उस तनाव का रिश्ता भी इस महीने से है। बरसात बंद हो गई। पार्क की बत्तियां जल उठी, उसने नज़रे उठा कर देखा, आसपास के बैंच खाली हो गए थे, और नीली कमीज वाला भी जा चुका था। कलाई घड़ी में देखा, इस समय तक तो दफ्तर से सब अपने घरों में पहुंच गये होंगे। उसने दफ्तर से छुट्टी ले रखी है। कुछ काईयां किस्म के सहकर्मी इन दिनों अत्यधिक प्रेम दिखाते हुए उसके घर के चक्कर लगा रहे हैं, ताकि जो सुना है वह उसके मुंह से सुन कर सहानुभूति का नाटक करें और फिर दफ्तर की कैंटीन में चटखारे ले कर सुनायें, उनके डर से वह पार्क के इस सुनसान कोने में आ बैठता है। दूर-दूर बैंचों पर एक-एक व्यक्ति सुस्ता रहा होता है, या अपने विचारों में गुम होता है। उसे लगता है ये सब जीवित नहीं हैं - मुर्दे हैं मुर्दे। अगले दिन उसने देखा कि कोई बैंच खाली नहीं है। वह नीली कमीज वाला व्यक्ति बदस्तूर अपनी जगह पर कायम था उसने देखा वह उसे देखा मुस्कुराया और खिसक कर बैंच पर जगह बनाई “आ जाईये यहां पर।“ वह बैठ गया। मौसम, बीमारी, मंहगाई पर नीली कमीज वाले ने बातों के टुकड़े उसकी ओर उछाले पर उसने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। वह तो यहां रोज मालती को उसकी बेवफाई पर सबक सिखाने की योजनाएंे बनाता था। अखबार में “बंगाली मियांजी“ के विज्ञापन, जिसमें सौत, प्रेमी-प्रेमिका को दस दिन में वश में करने के दावे पढ़कर वहां जाने का मन बनाता।

अब नीली कमीज वाला उसे देख मुस्कुराता और वह भी किसी और अजनबी के साथ बैठने की अपेक्षा उसके पास बैठने लगा। उस दिन सामने वाले बैंच पर एक नवविवाहित जोड़े को देख कर बोला, “आज यह कितने खुश नज़र आ रहे हैं,“ नीली कमीज वाला उसके और पास आकर फुसपुसाया, “कुछ समय बाद इनमें से एक ही हमारी-तुम्हारी तरह किसी बैंच के कौने पर बैठा दिखाई देगा।“ चश्में में उसकी आंखे बहुत बड़ी नज़र आ रही थी।

“आप कुछ परेशान लगते हैं“ नीली कमीज वाले ने उसके कन्धे पर आत्मीयता से हाथ रखा, “कह दीजिये, मन हल्का हो जायेगा, हो सकता है मैं आपकी कुछ मदद कर सकूं।“ उसे लगा वह भरभरा के रो पड़ेगा पर पलकें झपका कर आंसू जप्त कर कठोरता से बोला,

“आप ?“ एक पल को रूका, “आपने किसी से बदला लिया है ?“

“बदला ?“ नीली कमीज वाला हंसा “बदला तो नहीं लिया, अलबत्ता बदल जरूर गया हूँ।“

“कैसे ?“ उसे आश्चर्य हुआ

“मुझे मेरे किये की सजा के बदले माफ कर दिया गया।“

“यह किसी के गुनाह पर निर्भर करता है।“ बात चल निकली

“तुम जिसे सजा देना चाहते हो उसका गुनाह क्या है ?“

“बेवफाई“ आवाज भर्रा गई

“सजा दे कर तुम उसे वफादार बना लोगे ?“ नीली कमीज वाला उसकी नादानी पर मुस्कुराया

“नहीं, पर किसी की जिन्दगी में से कोई बेहयाई से निकल जाये दूसरे के संग“ आंसू निकल आये “तो उसे सजा न दें ?“ उसने दांतों पर दांत जमा लिये, और उसकी गर्दन पर नीली नसें फूली दिखाई देने लगीं।

“देव, तुम गुस्से में विषधारी दिखाई देते हो।“ मालती उसे कहा करती थी। नीली कमीज वाले के स्पर्श में न जाने क्या था कि उसकी पीठ पर रखे हाथ ने उससे सब कहलवा लिया। वह खुलता गया।

मालती और देव बहुत अच्छी जिन्दगी गुजार रहे थे। अम्मा ने मालती को किसी रिश्तेदार के पुत्र के विवाह में देखा था। वह वहां जिस सुघड़ता से काम संभाल रही थी, वह किसी भी विवाह योग्य पुत्र की मां को प्रभावित कर सकता था। वहीं देव ने भी उसे देखा और अम्मा उसकी मां से बात कर विदाई के समय मालती के हाथ में इक्कीस रूपये का शुन दे आई थी। वह बहुत खूबसूरत नहीं थी, पर पहनने-ओढ़ने का सलीका और बात करने का ढंग किसी को भी आकर्षित कर लेते थे। वह मुस्कुरा कर जब दांत से अपने होंठ दबाती तो नीची नजरों में भी सौ-सौ दिये जगमगा जाते थे।

देव दूसरे शहर में सरकारी महकमें में लिपिक था। इसलिये मां ने उसके खाने की चिन्ता कर विवाह के पन्द्रह दिन बाद ही मालती को साथ भेज दिया। आमदनी सीमित थी। दो कमरों का छोटा सो सरकारी घर था, पर दोनों खुश थे। अक्सर छुट्टी के दिन समुद्र के किनारे उस बड़ी सी चट्टान पर बैठे रहते, लहरों का आना और लौट जाना देखते। उस चट्टान पर मालती ने एक पत्थर से दिल का निशान बना बीच में तीर की नोक पर दोनों के नाम का पहला अक्षर उकेर दिया था।

“यह हमारी जगह है“, मालती इतरा कर बोली “यहां और कोई नहीं बैठ सकता आं।“

यहां तक सब ठीक था, यहां थोड़ा रूका, मानो अब दुनिया बदलने वाली है। एक दिन पैतृक गांव से एक परिचित उनसे मिलने आया, मां ने कुछ गर्म कपड़े, अचार वगैरह भेजा था। जगत नाम था उसका। अपनी गाड़ी मंे आया था, काॅलोनी के बच्चे गाड़ी छू कर देख रहे थे। उसे भी कुछ अच्छा सा अहसास हुआ। मालती तो उसके सामने ही नहीं आई। रसोई में ही खड़ी रही, वही चाय-पानी ले गया।

“भाभी जी नज़र नहीं आ रहीं“  जगत पहली मुलाकात में ही बेतकल्लुफ हो गया था। मालती दो-तीन बार आवाज देने पर सकुचाती सी नमस्कार कर बैठ गई। जगत आकर्षक व्यक्तित्व के साथ हाजिर जवाब भी था। यहां बहुमंजिला इमारते बनाता था। देव ने मालती की नज़रों में जगत के लिये प्रशंसा के भाव देखे थे। खाने के लिये पूछने पर अगली बार मालती के हाथों से बना खाना खाने का वादा कर चला गया।

“अम्मा जी हद करती हैं“ मालती के चेहरे पर गुस्सा था

“पहले खबर कर देती तो कमरा ठीक कर लेते, तुम भी तीन-तीन दिन एक ही कमीज पहने रहते हो।“

“तुम्हारे मायके से आया था क्या कोई ?“ देव को उसका हीनता का बोध अच्छा नहीं लगा, “हम जैसे भी हैं ठीक हैं।“

रविवार को आने का वादा करने वाला जगत तीसरे दिन ही आ गया। देव अभी दफ्तर से लौटा ही था, और रास्ते में स्कूटर ने बहुत परेशान किया था तो वह किसी अतिथि का आतिथ्य करने के मूड में नहीं था। मालती ने उसे इशारे से रसोई में बुलाया और खाना बनाने के लिये कुछ जरूरी वस्तुओं की सूची उसे थमा दी। कुछ वस्तुएं बाजार में मिलेंगी पर स्कूटर तो खराब है इसके सामने स्टार्ट न हुआ तो ? पैदल ही निकल लिया, जगत को आज का अखबार थमा गया।

लौटा तो देखा, मालती और जगत किसी बात पर खिलखिला कर हंस रहे है, अखबर अनछुआ पड़ा है, और रसोई में खाने की कुछ तैयारी नहीं है, गुस्सा तो बहुत आया पर चुप रहा। उसके बाद जगत की गाड़ी अक्सर उनके घर के बाहर नज़र आती जगत साधारण सी बात भी मिर्च-मसाला लगाकर सुनाता और मालती मंत्रमुग्ध सी सुनती रहती। देव मालती को जानबूझकर किसी काम से कमरे से बाहर भेजता तो जगत साधिकार उसका कन्धा पकड़ कर वापसी बिठा देता। वह ‘भाभीजी’ से कब ‘मालती’ पुकारने लगा, पता ही नहीं चला। देव को संदेह हुआ कि जगत उसकी अनुपस्थिति में भी आता होगा। दफ्तर से आने के बाद वह जानबूझकर स्कूटर की चाबी नीचे फैंक देता और दरवाजे के बाहर धूल में कार के टायर के निशान ढूंढ़ता। कभी रसोई में कचरे के डब्बे में बाजार से लाई खाने की वस्तुओं के लिफाफे ढूंढता। मालती तो उसे अब अजनबी लगने लगी थी। अगले कुछ दिनों में दफ्तर से घर लौटने पर अक्सर ताला मिलता। जगत मालती को अपने साथ ले जाने लगा था। लौटने पर मालती बताती कि जगत के साथ दर्जी को ब्लाउज सिलने देने गई थी, कभी जगत उसे नई बन रही इमारत दिखाने ले गया था। देव आपत्ति जता कर जगत की नज़र में अपनी पत्नी पर अविश्वास रखने वाला पति नहीं बनना चाहता था, रहन-सहन, भाषा सबने कमतर होने के बावजूद वह आधुनिक विचारों से अपने आप को मालती के सामने हीन नहीं होने देना चाहता था। पर इस रवैये ने उन दोनों को और भी स्वच्छन्द बना दिया। और वह मानसिक रूप से बीमार हो गया।

दफ्तर से अचानक घर आ जाता और मालती को सिरदर्द की दवा माथे पर लगाने को कहता और सोचता काश इस समय जगत आये और देखे कि मालती उसका कितना ख्याल रखती है। एक दिन समुद्र के किनारे उस चट्टान पर गया जहां वह अक्सर जाते थे उसे पक्का यकीन था कि मालती जगत को यहां जरूर लाई होगी। उसे गहरा धक्का लगा जब उसने देखा कि पत्थर पर बने दिल के निशान पर मालती के साथ उसका नाम खुरच कर मिटा दिया गया था। घर के बाहर खड़ी जगत की गाड़ी की खिड़कियों के कांच पर जमी धूल पर मोहल्ले के शरारती लड़कों ने उंगली से मालती के साथ जगत का नाम लिख दिया था और जगत ने जानबूझ कर उसे साफ नहीं किया। देव को लगता यह गाड़ी पूरे शहर में जगत और मालती के रिश्तों का विज्ञापन करती होगी। जब जगत जाता तो देव उसे दरवाजे तक छोड़ने जाता। घर के अन्दर वह जगत की उपेक्षा करता पर मौहल्लेवालों के सामने हंस-हंस कर जोर से उसके कन्धे पर धौल जमाता।

मालती को घर छोटा लगने लगा था, एक भी साड़ी उसे अब पहनने लायक नहीं लगती थी। और उसे लगता था कि देव को भी एक गाड़ी ले लेनी चाहिये स्कूटर पर शर्म आती है। कभी कहती कि इस बार पहाड़ों पर घूमने चले जगत की पहचान है अच्छे से घुमा देगा। जगत की पत्नी गांव में ही रहती थी। मालती का हर दूसरा वाक्य ‘जगत’ से आरम्भ होता था। धीरे-धीरे जगत नेउसे अपने जाल में फंसा लिया था। और तंग गलियों की घुटन से बाहर निकल खुली सड़क पर हवा खाने की हसरत मालती को घर से बाहर ले ही गई।

वह ठण्डी सांस ले शून्य में ताकने लगा। नीली कमीज वाले व्यक्ति ने उसके कन्धे पर हाथ रख मौन सांत्वना दी। एक दिन मालती ने बड़ी बेशर्मी से जगत के साथ रहने की इच्छा बताई। उसने बहुत समझाया पर वह अपनी बात पर अड़ी रही। हार कर उसने बाहर जाने का दरवाजा खोल मालती को कहा कि या तो वह खुला हुआ दरवाजा वापस बंद कर दे या वह उसके जाने के बाद अंदर से बंद कर लेगा।

“और वह चली गई।“ नीली कमीज वाले ने कहा जैसे उसे पहले से मालूम था। देव ने उसकी ओर आश्चर्य से देखा, वह मुस्कुरा रहा था, पर इस मुस्कुराहट में दर्द दिखाई दिया।

“हां, लेकिन मैं उसे इसकी सजा जरूर दूंगा“ मुट्ठियां कस गई देव की।

“मेरी मानो, माफ कर दो उसे“ नीली कमीज वाला शान्त स्वर में बोला।

“माफ कर दूं ?“ वह भड़क उठा, हरगिज नहीं।

वह मुझसे लड़ती-झगड़ती, मैं माफ कर देता। पर बेवफाई तो गुनाह है और गुनाह की सजा तो ईश्वर भी देता है।“

“तो फिर ईश्वर पर छोड़ दो“ नीली कमीज वाले ने उसका हाथ पकड़ कर कसी हुई मुट्ठियां खोल दीं “माफ करना किसी को बहुत बड़ी सजा देना है जिसे पाने वाला पूरी जिन्दगी तड़पता है, जैसे मैं तड़प रहा हूँ।“

देव उसे आश्चर्यसे देख रहा था, “बेवफाई का शिकार मैं भी हूँ लेकिन मुझसे किसी ने नहीं, बल्कि मैंने बेवफाई की मैंने इसे बहुत आसान समझा, एक कपड़े की तरह रिश्ते बदल लिया। मैं खुश था और इंतजार कर रहा था कि मेरी पत्नी रोयगी, गिड़गिड़ायेगी, मुझे ऐसा करने से रोकेगी, पर नहीं उसने ऐसा कुछनहीं किया, खामोशी से मेरी जिन्दगी से निकल गई। बल्कि एक दिन उसका संदेश मुझे मिला कि उसने मुझे दिल से माफ कर दिया है।“ नीली कमीज वाला सच में दयनीय लग रहा था, मोटे लैंस के चश्मे से उसकी आंखे फटी हुई दिखाई दे रही थीं, और उसका स्वर धीमा हो गया था, “जिसके कारण मैंने अपनी पत्नी से रिश्ता तोड़ा वह भी मुझसे रिश्ता तोड़ गई, उसका विचार था कि जब मैं एक से बेवफाई कर सकता हूँ तो दूसरे से वफा क्या निभाऊंगा। इसलिये मेरे भाई बेवफाओं से नफरत न करो उन पर तरस खाओ, क्योंकि वे कहीं के नहीं रहते।

नीली कमीज वाले की बातें देव पर अपना प्रभाव डालने में कामयाब हो रही थीं,

“यही हाल मालती का भी होगा, जगत उस पर कभी भरोसा नहीं करेगा, एक बार जब तुम बेवफा साबित हो जाओ, फिर लाख वफादार बनो कोई एतबार नहीं करेगा।“ नीली कमीज वाला रो पड़ा, “तुम भी उसे माफ कर दो वह जिन्दगी भर इस बोझ लते सांस न ले सकेगी और तुम भी हल्के हो जाओगे।“ कह कर तेजी से पार्क के गेट से बाहर निकल गया।

देव मुस्कुरा दिया, बहुत हल्का और आजाह महसूस कर रहा था मानो उसका सारा बोझ नीली कमीज वाला ले गया।

बैंच खाली हो गई थी, किसी और मुर्दे के लिये।

 

आशा पाराशर

जयपुर

7014906265