man eater in Hindi Horror Stories by Asha Parashar books and stories PDF | आदमखोर

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आदमखोर

दिवाकरजी ने पीछे देखे बिना ही अहसास किया कि उनकी पत्नी उन्हें बलिहारी होने वाली नजरों से देख रही हे। पिछले काफी लम्बे अर्से से यह उनकी दिनचर्या हो गई थी। पत्नी के लाख मना करने के बावजूद वह समाज सेवा करने के प्रण पर अड़िग थे। पत्नी का तर्क था कि सेवानिवृति के पश्चात् उन्हें घर पर आराम करना चाहिये, साठ साल की उम्र में ‘समाज सेवा’ का जुनून ठीक नहीं है। पर वह नियमपूर्वक साढ़े नौ-दस बजे तक अपने खिजाब लगाये अर्द्धचन्द्राकार रूप से सिर पर सजे बालों पर हैलमेट लगाये खटारा हुए स्कूटर पर निकल पड़ते थे। शहर की ट्रैफिक पुलिस द्वारा हैलमेट लगाने की अनिवार्यता का वह मुस्तैदी से पालन करते थे। यही सही वक्त होता था सच्ची ‘समाज सेवा’ का। इस समय अक्सर वह लड़कियां या महिलायें हताश मुद्रा में सड़क किनारे कलाई घड़ी देखते हुए मिल जाती थी, जिनकी बस छूट गई हो। तीन चार दिनों में एक बार किसी न किसी लड़की अथवा महिला को उसके गन्तव्य या अगले बस स्टाॅप तक छोड़ने का अवसर मिल ही जाता था। हर बार वह नये रास्तों पर निकलते थे। एक ही स्टाॅपेज पर रोज जोन से कुछ होशियार महिलाओं द्वारा पहचाने जाने का भय था। बहुत सावधानी बरतनी पड़ती थी।

काॅलेज जोने वाली लड़कियां अपने आपको बिंदास घोषित करती हुई उनके स्कूटर पर बेहिचक बैठ जाया करती थी; पर कन्धे पर जिप खुले पर्स को लटकाये ‘बहनजीनुमा’ महिलायें उन्हें शंकित निगाहों से देखती थी। जब कोई झिझकती हुई महिला या युवती उनसे लिफ्ट ले लेती थी तो उनके परिपक्व चेहरे पर अजीव सी रंगत आ जाती थी। स्पीड ब्रेकर आने पर तो लगता था मानो दिल उछल कर बाहर ही आ जायेगा। हर सड़क पर आने वाले स्पीड ब्रेकर्स के बारे में उनकी जानकारी बेमिसाल थी। सेक्रेटरियट जाने वाली सड़क पर तीन, तो दयानन्द महाविद्यालय की सड़क पर थोड़ी-थोड़ी दूर पांच स्पीड ब्रेकर्स थे। पिछले रविवार को उन्हें याद नहीं रहा कि आज तो सार्वजनिक अवकाश है। बस सुबह-सुबह नहा धोकर पत्नी के हाथ से बने बेस्वाद से नाश्ते के दो-तीन टुकड़े हलक से उतारे ही थे कि दरवाजे पर घंटी बजी, दरवाजा खोलते ही मन खराब हो गया देखकर, रिश्ते के एक भाई और उनकी पत्नी मुस्कुराते हुए खड़े थे। मन मार कर उन्हें अन्दर बैठाया। बातें चल निकली, पर वे बार-बार घड़ी देख रहे थे, कम्बख्त इन्हें भी इसी समय आना था, और यह मूर्खा पत्नी उनके लाख मना करने के बावजूद उनकी समाज सेवा भाव का बढ़-चढ़ कर बखान कर रही है।

“ये तो भईया, रिटायर होने के बाद कभी शांति से बैठे ही नहीं“, मुग्ध दृष्टि से उन्हें देखते हुए बोली।

“क्या करते है भाई साहब आप ?“ रिश्तेदार की पत्नी ने पूछा, “इन्हें भी ले जाया करें, ये तो कहीं जाते ही नहीं है, आपके साथ इन्हें  भी कुछ सीखने को मिले।“

“समाज सेवा करते हैं, कोई संस्था है जिसके सदस्य हैं, गरीबों को खाना, कम्बल, दवाईयां बांटते हैं।“ दिवाकर जी का मन किया इस औरत के मुंह पर टेप चिपका दंे, बोले चली जा रही है।

“क्या नाम है संस्था का ? बड़े अच्छे काम है“, इस बार भाई ने मुंह खोला, “मैं भी चलता हूँ साथ।“ वैसे भी आज रविवार है, कुछ काम नहीं है खास। दिवाकर जी को मानो मुक्ति मिली। रविवार तो याद ही नहीं था, “जरूर-जरूर, पर वह रविवार को बंद रहता है।“

उसके बाद दिवाकर जी, आराम से पैर फैला कर बैठे-बैठे पत्नी से उन्हें खाना खिलाये बिना न जाने देने का निर्देश देते रहे।

आज ग्रीन एवेन्यू के बस स्टाॅप पर जीन टाॅप पहने, कानों में बड़ी-बड़ी बालियां झुलाती भारी सा बैग लिये एक व्यस्क लड़की खड़ी थी। उन्होंने अपना स्कूटर दूर ही रोक कर उसकी हरकतों पर नजर रखी। लड़की शायद सत्रह सेक्टर के बस स्टाॅप पर जाना चाहती थी, क्योंकि यहां से वहां तक पांच रू. प्रति सवारी वाला आॅटो नहीं जाता था। इसलिये वह आने-जाने वाले खाली आॅटो को रोक कर मोल भाव कर रही थी, पर लगता था वह उनका मांगा हुआ किराया नहीं देने चाहती थी। आॅटो वाले भी शायद बैग को देखते हुए मनचाहा किराया मांग रहे थे। उन्होंने तत्परता से स्कूटर पर किक लगाई, यही सही समय है आज की समाज सेवा का। इससे पहले कि लड़की अथवा कोई आॅटो वाला समझौता करे, उन्हें यह अवसर नहीं गंवाना चाहिये।

वह पहले तो उस पर उड़ती सी नजर डाले स्कूटर थोड़ा आगे ले गये, फिर चेहरे पर थोडी़ गम्भीरता ओढ़ स्कूटर पीछे ले आये-

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