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विद्या और प्रफुल्ल हनीमून के लिए नैनीताल गए। पहाड़ों से घिरी घाटी में शहर के बीचोंबीच नाशपाती के आकार की प्राकृतिक झील है, जिसका सौन्दर्य देखते ही बनता है। इस झील को ‘नैनी झील’ कहते हैं। इसी झील के नाम पर शहर का नाम नैनीताल पड़ा है। पहले दिन विद्या और प्रफुल्ल जब नैनीताल पहुँचे तो अँधेरा घिर आया था और सारा शहर जगमगा रहा था। होटलों तथा सार्वजनिक लाइटों की झील के पानी पर पड़ती प्रतिछाया अद्भुत नज़ारे का सृजन कर रही थी। विद्या जिसने अपने जीवन में चण्डीगढ़ की सुखना झील के अलावा और कोई पर्यटक स्थल नहीं देखा था, ऐसे अद्भुत नज़ारे को देखकर अभिभूत हो गई। बिस्तर में लेटे हुए विद्या ने कहा - ‘प्रफुल्ल, ऐसे स्वर्गिक सौन्दर्य से भरपूर शहर में पहुँचकर दिनभर के सफ़र की थकावट छूमंतर हो गई है।’
‘विद्या, यह स्वर्गिक सौन्दर्य भी इसलिए आकर्षक लगता है, क्योंकि हम साथ-साथ हैं। स्वर्ग की सुन्दरता भी आधी रह जाए यदि तुम्हारे साथ उसे साझा करने के लिए कोई अपना न हो।’
‘वाह, क्या बात कही है!’
‘ये जो चार-पाँच दिन के लिए हम यहाँ आए हैं, इन्हें चिरस्मरणीय बनाने के लिए हमें एक-दूसरे को पूरी तरह से समझना है। जीवन-भर प्यार बना रहे, इसके लिए एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि जिससे तुम प्यार करते हो, ज़रूरी नहीं कि उसकी हर बात से भी सहमत हो। स्त्री और पुरुष सही मायनों में सच्चे दोस्त और दम्पत्ति तभी बन सकते हैं, यदि उनके बीच एक-दूसरे के स्वतन्त्र अस्तित्व को सम्मान देने की भावना हो। पति-पत्नी के बीच प्रेम का बन्धन होना चाहिए, अधिकार का नहीं।’
‘प्रफुल्ल, आपके विचारों की क़द्र करती हूँ और कोशिश करूँगी कि अपने जीवन को इनके अनुसार ढाल सकूँ।’
‘विद्या, मैं अपने विचार थोपने के हक़ में नहीं हूँ। विवाह के बाद दो अलग-अलग व्यक्ति एकात्म स्थापित करते हुए भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व क़ायम रख सकते हैं। तुम्हें अपना व्यक्तित्व निखारने का पूरा अवसर मिले, ऐसा मेरा प्रयास रहेगा।’
‘प्रफुल्ल, बौद्धिक बातें तो बहुत हो लीं, आओ! अब कुछ ऐसा करें कि पेड़ों के झरते पत्तों से थरथराएँ, पंछियों के कलरव-सा गीत गाएँ, अपने बीच की दूरियाँ मिटाएँ।’
‘वाह! क्या अंदाज़े-बयां है!’ कहने के साथ ही प्रफुल्ल ने विद्या को आलिंगनबद्ध कर लिया।
……….
सुबह-सुबह उठने की बजाय वे देर तक रज़ाइयों की गरमाहट का आनन्द लेते और दोपहर का खाना खाकर झील के किनारे टहलते और नौका-विहार करते। एक दिन शाम को जब वे नौका-विहार के पश्चात् होटल पहुँचे तो रिसेप्शन वालों ने उन्हें एक तार दिया। तार की बात सुनते ही विद्या को घबराहट होने लगी, लेकिन जब प्रफुल्ल ने लिफ़ाफ़ा खोलकर बताया कि कृष्णा भाभी ने पुत्र को जन्म दिया है तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। कमरे में आते ही वह प्रफुल्ल से लिपट गई। उसने कहा - ‘दो-तीन दिन की छुट्टियाँ बढ़ाने के लिए ऑफिस में तार दे दो, प्रफुल्ल। यहीं से सीधे दौलतपुर चलेंगे।’
‘जो हुक्म महारानी का। बन्दा तो बेगम का गुलाम है।’
‘ना, ऐसा नहीं। आप तो मेरे हृदय सम्राट हो।’
उद्यान में तरु संग लिपटी लता-सी विद्या को प्रफुल्ल ने और कसकर सीने से लगा लिया।
जब ये लोग नैनीताल से दिल्ली होते हुए दौलतपुर पहुँचे तो घर में बधाई देने वालों का ताँता लगा हुआ था, क्योंकि विवाह के लगभग पाँच वर्ष बाद प्रभुदास के घर पोते का जन्म हुआ था। कृष्णा ने प्रफुल्ल की बधाई के उत्तर में कहा - ‘प्रफुल्ल जी, आपके इस घर में पाँव रखते ही ख़ुशियों का अंबार लग गया है।’
‘भाभी जी, फिर तो कोई बड़ा-सा तोहफ़ा देने की तैयारी कर लो।’
‘प्रफुल्ल जी, बड़ा तोहफ़ा तो हमने आपको पहले ही दे दिया है। जिसने लड़की दे दी, उसके पास और देने को क्या रहता है? फिर भी आप चिंता ना करें, आपको ख़ुश करके ही भेजेंगे।’
‘भाभी जी, मैं तो मज़ाक़ कर रहा था। आपकी ख़ुशी में ही हम तो खुश हैं। परमात्मा बेटे को लम्बी उम्र दें और पापा जी की तरह समाज-हित के कार्यों में उन्मुख करें।’
‘और आपकी तरह बड़ा अफ़सर भी बने, यह भी आशीर्वाद दे दो लगे हाथ।’
‘उसके लिए मेरे आशीर्वाद की ज़रूरत नहीं, परिवार के संस्कार ही बहुत हैं।’
…….
नवजात शिशु के नामकरण संस्कार के विषय में प्रभुदास ने मन्दिर के पुजारी से बात की। उसने बताया कि नामकरण संस्कार बच्चे के जन्म के दिन के दस दिन बाद होना चाहिए। उसी के कथनानुसार नामकरण संस्कार का सीमित-सा पारिवारिक कार्यक्रम रखा गया, जिसमें पुजारी जी ने पूजा-अनुष्ठान करने से पूर्व नामकरण संस्कार की वैदिक परम्परा से परिवार के सदस्यों को अवगत कराया।
पुजारी जी ने बताया - ‘वैदिक परम्परा में मनुष्य के जीवन में सोलह संस्कारों के करने का उल्लेख मिलता है। मनुष्य के स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर तथा आत्मा के विकास में इन संस्कारों का विशेष स्थान है। शास्त्रों में उल्लेख आता है कि संस्कार करने से शरीर और आत्मा सुसंस्कृत होते हैं और मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त कर सकता है, और सन्तान अत्यन्त योग्य होती है।
‘नामकरण संस्कार का उद्देश्य केवल शिशु को नाम भर देना नहीं है अपितु उसके श्रेष्ठ व उच्च जीवन का निर्माण करना है। नाम केवल सम्बोधन के लिए ही न होकर माता-पिता द्वारा शिशु के जीवन-लक्ष्य को ध्यान में रखकर देना होता है। नाम ऐसा हो कि श्रवण मात्र से मन में उदात्त भाव उत्पन्न हों। नाम उच्चारण में कठिन नहीं अपितु सुलभ होना चाहिए। नाम से व्यक्ति को पहचान मिलती है, जिससे जीवन भर उसे पहचाना जाता है। अपना नाम पढ़ना, सुनना हमेशा अच्छा लगता है। व्यक्ति अपना नाम सबसे अधिक बार अपने भीतर भरता है। मनुष्य जो भीतर भरता है, वही बाहर निकलता है। इसे ‘ब्रडाब्रनि कडाकनि’ सिद्धान्त कहते हैं अर्थात् ब्रह्म डाल ब्रह्म निकाल, कचरा डाल कचरा निकाल। इसलिए नाम साभिप्राय होना चाहिए। नाम का व्यक्ति के व्यक्तित्व, आचार-व्यवहार तथा कर्मों पर प्रभाव पड़ता है। अच्छा एवं सार्थक नाम बच्चे को संस्कारी इंसान बनने के लिए प्रेरित करता है। इसलिए नाम सोच-समझकर रखना चाहिए, नाम से अच्छा अर्थ ध्वनित होना चाहिए।’
विधिवत पूजा-अर्चना के बाद शिशु का नाम प्रवीण रखा गया।
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