Anuthi Pahal - 18 in Hindi Fiction Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | अनूठी पहल - 18

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अनूठी पहल - 18

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पार्वती का मृत-शरीर अस्पताल पहुँचाने के दूसरे दिन से घर में गरुड़ पुराण की कथा का अनुष्ठान हुआ। रस्म-भोग के दिन प्रातः घर में हवन हुआ। तत्पश्चात् ग्यारह ब्राह्मणों को ब्रह्म-भोज करवाकर दक्षिणा आदि देकर विदा करने के उपरान्त घर वाले तथा बाहर से आए हुए रिश्तेदार शोक-सभा स्थल पर पहुँचे। शोक-सभा में ज़िले की बहुत-सी सामाजिक, धार्मिक तथा शैक्षणिक संस्थाओं के प्रतिनिधि पधारे या उनके शोक प्रस्ताव प्राप्त हुए। श्रद्धांजलि देने वालों से सभागार खचाखच भरा हुआ था। नियत समय पर मंच पर पुजारी जी ने गरुड़ पुराण का आख़िरी वाचन करने के बाद दिवंगत आत्मा को याद करते हुए परिवार के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करते हुए श्रद्धांजलि-स्वरूप कुछ शब्द कहे - ‘शोक सभा में उपस्थित मातृशक्ति, बुजुर्गो व समाज के विभिन्न वर्गों से आए बन्धुओ! आज हम पूजनीय माताश्री पार्वती जी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए एकत्रित हुए हैं। माता पार्वती जी को अल्पायु में ही अपने पति की दुखद मृत्यु का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। बच्चों की पूरी परवरिश में कोई कमी नहीं रहने दी। उनके इस महती प्रयास में आदरणीय भाई प्रभुदास जी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। माता जी के आशीर्वाद से इन्होंने न केवल परिवार को समर्थ बनाया है अपितु जनहित, समाज-हित के लिए बहुत सराहनीय कार्य किया है और कर रहे हैं।

‘इस संसार में कोई विरला ही व्यक्ति होता है, जिसे मृत्यु का भय न हों। मृत्यु एक शाश्वत सत्य है। जो इस संसार में आया है, उसे जाना ही है। महान आत्माओं को भी नश्वर शरीर छोड़ना पड़ा है। फिर मृत्यु से भय क्यों? इसका कारण बस इतना है कि हमने जीवन को पूर्णतः जिया नहीं है, जीवन का स्वाद नहीं लिया है। जो व्यक्ति जीवन को पूर्णता में जी लेता है, उसके लिए मृत्यु भय का कारण नहीं बनती, वह मृत्यु का खुले मन से स्वागत करता है। मुझे प्रभुदास जी ने बताया है कि मृत्यु से पहले माता जी ने इन्हें हर तरह के ऋण से मुक्त कर दिया, मातृ-ऋण से भी, क्योंकि उन्होंने अपने जीवन को सार्थक समझ लिया जब उनकी सन्तान विशेषकर प्रभुदास ने उनके आशीर्वाद से जीवन क्या है, को समझ लिया। जो व्यक्ति दूसरे को ऋण-मुक्त कर सकता है, उसपर किसी तरह का ऋण कैसे रह सकता है? माता जी स्वयं ऋण-मुक्त थीं, इसीलिए उन्हें भय नहीं था मृत्यु का। उन्होंने आगे बढ़कर मृत्यु का वरण किया।

‘हमने मृत्यु को भयवश कुरूप बना दिया है। भय इसलिए लगता है क्योंकि मृत्यु सदैव दूसरे की होती देखते हैं। अपनी मृत्यु देखने का तो अवसर ही नहीं मिलता। यह प्रेम को बस बाहर से देखने जैसा है। आप प्रेम को वर्षों तक देखते रह सकते हो, लेकिन प्रेम क्या है, कभी नहीं जान पाते। प्रेम की अनुभूति हो सकती है, उसको अभिव्यक्त किया जा सकता है, लेकिन असल में प्रेम क्या है, क्या कभी कोई जान पाया है? इतना ही ज्ञान हमें मृत्यु के बारे में है। सतही लक्षण - साँस रुक गई, हृदय की धड़कन बन्द हो गई, चलता-फिरता जीवित व्यक्ति एक लाश में परिवर्तित हो गया - इसे हम मृत्यु मान लेते हैं। ये सब बाहरी लक्षण हैं।

‘मृत्यु शरीर की होती है, आत्मा की नहीं। मृत्यु के बाद आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश होता है और कुछ विशेष परिस्थितियों में जब कोई व्यक्ति पूरी तरह जाग्रत हो गया हो तो वह वर्तमान शरीर त्याग कर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में समा जाता है अर्थात् आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाता है। माता पार्वती जी भी अपनी सांसारिक जीवन-यात्रा सम्पूर्ण करके ब्रह्मलीन हुई हैं, इसलिए उनका हमसे बिछुड़ना हमारे लिए भी दु:ख का कारण नहीं होना चाहिए। उनका मृत-शरीर भी व्यर्थ नहीं गया है। प्रभुदास जी और परिवार ने उनके मृत-शरीर का दान करके बहुत उत्तम और पुण्य का कार्य किया है। डॉक्टर तथा चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थी मृत-शरीर के निरीक्षण से बहुत सफल ऑपरेशन करने में कामयाब हो सकते हैं। न जाने कितने लोगों की दुआएँ माता जी को शरीर त्यागने के बाद भी मिलती रहेंगी! इस सभा में उपस्थित सभी महानुभावों से मेरा अनुरोध है कि प्रभुदास जी तथा इनके साथियों ने देहदान का जो बीड़ा उठाया है, उसमें अपना योगदान दें और अपने सम्पर्क में आने वाले अन्य लोगों को भी इस पुनीत कार्य में सहयोग करने के लिए प्रेरित करें।

‘अन्त में इतना ही कहना चाहूँगा कि क्योंकि हमारी प्रज्ञा बडी सीमित है, हमें ईश्वर के क्रियाकलापों का रंचमात्र भी ज्ञान नहीं होता। हम परमपिता परमात्मा से यही प्रार्थना करेंगे कि दिवंगत आत्मा को अपने श्री चरणों में स्थान दें, परिवार को उनके आदर्शों पर चलते रहने की सामर्थ्य प्रदान करें।’

शान्ति-पाठ के साथ शोक-सभा का समापन हुआ।

……..

उस दिन बाहर से आए रिश्ते-नातेदारों के चले जाने के बाद केवल विजय और दमयंती ही रुके थे। शाम को बैठक में प्रभुदास के साथ विजय, चन्द्रप्रकाश, रामरतन बैठे थे। बातें पार्वती के संघर्ष तथा उनके दिए संस्कारों की हो रही थीं कि विजय ने कहा - ‘प्रभु, माँ और आपके संस्कारों तथा बच्चों के परिश्रम का ही फल है कि अपनी विद्या इस छोटे-से क़स्बे के कॉलेज में पढ़कर भी यूनिवर्सिटी में बी.ए. में प्रथम आई है। एक तुम्हारा भानजा राजीव है। मैट्रिक के बाद पढ़ने के लिए जयपुर भेजा। पैसा तो जो खर्च हुआ सो हुआ ही, मुश्किल से पास हुआ है। इतना ही होता तो भी कोई बात नहीं थी। वहाँ बुरी संगत में पड़ गया, नशा करने लगा है। मुझे तो बहुत फ़िक्र हो रही है। एक-दो रिश्ते आए, लेकिन उसके नशे की भनक लगते ही पीछे हट गए। क्या बनेगा राजीव का?’

जवाब प्रभुदास की बजाय रामरतन ने दिया - ‘विजय बाबू, आपका फ़िक्रमंद होना स्वाभाविक है, किन्तु एक बात यदि आप बुरा न मानें तो कहना चाहता हूँ?’

‘हाँ राम भाई, कहिए। आपकी बात का बुरा क्यों मानूँगा, आप हम सबमें बड़े हैं, आपका अनुभव भी बहुत है।’

‘विजय बाबू, राजीव के बुरी संगत में फँसने के लिए आप भी कहीं-न-कहीं ज़िम्मेदार हैं। पढ़ाई के लिए जितने पैसों की ज़रूरत रही होगी, आपने उससे अधिक दिया होगा, तभी राजीव नशों का आदी हुआ है। अगर उसके हाथ में खुले पैसे न होते तो वह कहाँ से नशे के लिए पैसे लाता? …’

विजय कुछ बोल नहीं पाया, क्योंकि उसे पता था कि उसने कभी भी राजीव की पैसों की माँग पर सवाल नहीं किया था।

रामरतन ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा - ‘दूसरी बात, मैट्रिक करने के समय बच्चा बड़ी नाज़ुक उम्र से गुजर रहा होता है, ऐसे में उसे बे-लगाम छोड़ दोगे तो बिगड़ने के पूरे-पूरे चांस रहते हैं। बी.ए. के बाद बड़े शहर में आगे की पढ़ाई के लिए भेजना दूसरी बात होती है, क्योंकि तब तक बच्चा समझदार हो चुका होता है, उसे भले-बुरे की पहचान होने लगती है।’

‘राम भाई, अब राजीव पर थोड़ी नज़र रखने लगे हैं तो पता चला है कि उसने एक-आध बार घर से पैसा चुराने की भी कोशिश की है। वह तो मैं चौकस रहने लगा हूँ तो उसकी हरकत सामने आ गई वरना शायद हमें पता भी न चलता।’

रामरतन सोचने लगा, अब विजय को कैसे कहूँ कि यह तुम्हारी बुरी नियत का फल है जो तुम्हें भोगना ही पड़ेगा। तुमने तो बड़ी होशियारी से प्रभुदास से उसकी आधी जमीन हथिया ली थी, यह उसी का परिणाम है। रामरतन तो चुप रहा, किन्तु चन्द्रप्रकाश स्वयं को नहीं रोक पाया। उसने कह ही दिया - ‘जीजा जी, बिना मेहनत का धन बर्बादी की ओर ही ले जाता है। आपने भाई की आधी जमीन पर क़ब्ज़ा करते समय रिश्तों को भी ताक पर रख दिया था। अब यह तो भुगतना ही पड़ेगा।… राजीव आपका इकलौता बेटा है तो हमारा भी भानजा है। जो कुछ आपने बताया है, उससे हमें भी दु:ख हुआ है। यदि आप चाहते हैं कि उसका आने वाला जीवन सुधर जाए तो उसे महीने-दो महीने के लिए मेरे साथ भेजो। उसे श्रम की क़ीमत महसूस होगी तो सुधर भी सकता है।’

‘चन्द्र, पुरानी बातों को मत याद दिलाओ। मैं शर्मिंदा हूँ। दीपक ने तो अपनी मेहनत और लगन से आधी जमीन के बलबूते पर ही राज्य भर में नाम कमा लिया है। ….. मैं तुम्हारा ताउम्र ऋणी रहूँगा यदि तुम राजीव को सही रास्ते पर ला सके।’

रामरतन और प्रभुदास ने चैन की साँस ली, क्योंकि इतनी कड़वी बात कहना उनके बस में नहीं था।

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