Anuthi Pahal - 6 in Hindi Fiction Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | अनूठी पहल - 6

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अनूठी पहल - 6

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प्रभुदास के घर दो बेटों के बाद जब बेटी का जन्म हुआ तो उसके नामकरण वाले दिन खूब गहमागहमी रही। पंडित जी ने पत्रा देखकर कहा कि बिटिया का नाम ‘व’ अक्षर पर रखना उचित होगा। ‘व’ पर विचार करते हुए चन्द्रप्रकाश ने विभा नाम का सुझाव दिया तो प्रभुदास ने कहा, इसे हम विद्या बुलाया करेंगे। नाम अच्छा था। सभी ने स्वीकार कर लिया।

मेहमानों के विदा होने के पश्चात् दमयंती का बेटा मामा के बेटों के संग खेल-कूद में मस्त था। सुशीला नवजात शिशु के साथ आराम कर रही थी और प्रभुदास, चन्द्रप्रकाश, दमयंती और उसका पति विजय पार्वती के साथ बैठे घरेलू मसलों पर सलाह-मशविरा कर रहे थे। इसी बीच विजय ने चन्द्रप्रकाश के विवाह का प्रसंग छेड़ दिया।

चन्द्रप्रकाश - ‘जीजा जी, मैं पहले भी कह चुका हूँ और आज फिर दुहराता हूँ कि मुझे विवाह नहीं करना। मैं अपना जीवन समाज और गौ-सेवा को समर्पित कर चुका हूँ और कोई भी व्यक्ति या प्रलोभन मुझे अपने इस निश्चय से डिगा नहीं सकता। …… हर व्यक्ति का जीने का अपना-अपना ढंग होता है। मुझे समाज में व्याप्त बुराइयों के प्रति लोगों को जागरूक करना है तथा उन्हें गौ-सेवा का महत्त्व समझाना है ताकि वे अपना भला-बुरा समझ सकें और अपने जीवन को सही पथ पर ले जा सकें।’

‘चन्द्र, दूसरों का जीवन तो सुधार दोगे, लेकिन तुम्हारा अपना क्या बनेगा?’ विजय ने दुनियादारी वाली बात कही।

‘जीजा जी, आपने अभी तक मुझे समझा ही नहीं। खुद के बारे में तो हर कोई सोच लेता है, लेकिन दूसरों के बारे में सोचने, उनके दुखों को कम करने के प्रयास में ही मैं अपने जीवन की सार्थकता समझता हूँ। तुलसीदास जी ने भी कहा है - परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई।’

इस प्रकार की बहस का कोई हल नहीं निकलता, प्रभुदास अच्छी तरह समझता था। दूसरे, उपस्थित अन्य लोग बहस से उकता रहे थे, इसलिए उसने कहा - ‘विजय जी, चन्द्र ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली है। अपना भला-बुरा समझता है। यदि यह विवाह नहीं करना चाहता और प्रचारक का काम करना चाहता है तो मैं नहीं समझता कि हमें उसके रास्ते में कोई रुकावट पैदा करनी चाहिए। मेरी तो इससे यही प्रार्थना है कि समाज के लिए काम करते-करते कहीं हमें ना भूल जाना!’

‘बड़े भाई, आप निश्चिंत रहें, ऐसा नहीं होगा।’

यद्यपि चन्द्रप्रकाश ने अब घर से आर्थिक सहायता लेनी बन्द कर दी थी, फिर भी चन्द्रप्रकाश महीने-दो महीने में जब भी घर आता था तो पार्वती चुपके से दो-चार सौ रुपए उसे पकड़ा दिया करती थी।

बहस बन्द हुई तो प्रभुदास ने कहा - ‘माँ, आज का दिन बहुत अहम है। सारा परिवार इकट्ठा है। मैं अपने मन की बात रखना चाहता हूँ…..।’

सभी उत्सुकता से उसकी ओर देखने लगे। विजय बोल पड़ा - ‘छोटे भाई की सुन ली, अब आप भी कह डालो अपने मन की बात।’

‘माँ, दौलतपुर में लड़कियों का स्कूल दसवीं तक का है। जिन लड़कियों की आगे पढ़ने की इच्छा होती है, उनमें से बहुत-सी मन मारकर रह जाती हैं, क्योंकि उनके घरवाले या तो उन्हें शहर भेजना नहीं चाहते या ऐसा करने के लिए उनकी माली हालत इजाज़त नहीं देती। मैंने सोचा है कि किसी संस्था को ज़मीन दान कर दूँ जो वहाँ लड़कियों के लिए कॉलेज चलाए। पिताजी लड़कियों को शिक्षित करने के हक़ में थे, यदि यहाँ लड़कियों का कॉलेज खुल जाता है तो उनकी आत्मा भी प्रसन्न होगी।’

यह एक ऐसा विचार था जो चन्द्रप्रकाश के विचारों से मेल खाता था, इसलिए वह बड़े उत्साह से बोला - ‘भाई, सबसे पहले तो मेरी बधाई स्वीकार करो इतना बढ़िया आइडिया पेश करने के लिए। मेरे विचार में डी.ए.वी. वालों से बात की जाए तो वे लोग अवश्य तैयार हो जाएँगे।’

विजय - ‘क़स्बे के साथ लगती चार एकड़ ज़मीन यूँ दान में देने का, मेरे विचार में, कोई औचित्य नहीं। आने वाले समय में इस ज़मीन की क़ीमत लाखों में ही नहीं, करोड़ों तक पहुँच सकती है।’

प्रभुदास - ‘आपका अनुमान ग़लत नहीं है। किन्तु सोचो, यदि लड़कियों का कॉलेज बन जाता है तो कितनी लड़कियों के जीवन सुधर जाएँगे! वे अपने परिवारों को ही नहीं, पूरे समाज के जीवन को नई दिशा दे सकेंगी।…. इसके अलावा, पिताजी की आत्मा को शांति मिलेगी, क्योंकि वे लड़कियों की शिक्षा के बहुत बड़े पक्षधर थे।’

प्रभुदास के मुँह से अपने दिवंगत पति की बात सुनकर पार्वती भावुक हो उठी। उसने कहा - ‘बेटे, तुम यह काम ज़रूर करो। तुम्हारे पिता जी ने तो यह बात सुनकर ही स्वर्ग से अपना आशीर्वाद देना शुरू कर दिया होगा!’

प्रभुदास - ‘चन्द्र भाई, माँ का आशीर्वाद तो मिल गया। अब मैं चाहता हूँ कि आगे की कार्रवाई करने के लिए तुम ज़िम्मेदारी उठाओ।’

चन्द्रप्रकाश- ‘मैं कल ही डी.ए.वी. संस्था के प्रादेशिक प्रधान से पत्र-व्यवहार करता हूँ।’

इस प्रकार भविष्य के लिए एक योजना का विचार बीज रूप में अंकुरित हुआ। विजय को छोड़कर सभी ने प्रसन्नता ज़ाहिर की और सभी उठकर अपने-अपने काम में लग गए।

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