Anuthi Pahal - 1 in Hindi Fiction Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | अनूठी पहल - 1

Featured Books
Categories
Share

अनूठी पहल - 1

(देहदान के प्रति जागरूकता लाने का एक प्रयास)

लाजपत राय गर्ग

समर्पण

हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा

‘महाकवि सूरदास आजीवन साहित्य साधना सम्मान’

से विभूषित,

रक्तदान अभियान के अग्रदूत,

अग्रज भ्राता,

डॉ. मधुकांत जी

को अपना पाँचवाँ उपन्यास समर्पित करते हुए

मुझे अतीव प्रसन्नता हो रही है।

********

जय माँ शारदे!

आत्मकथ्य

प्रात: वन्दनीय माँ शारदे के आशीर्वाद एवं ‘महाकवि सूरदास आजीवन साहित्य साधना सम्मान’ से अलंकृत अग्रज भ्राता वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मधुकांत जी की प्रेरणा से यह उपन्यास ‘अनूठी पहल’ लिख पाया हूँ। डॉ. मधुकांत जी ने रक्तदान को अपने जीवन का मिशन बनाया हुआ है। इन्होंने व्यवहारिक जीवन में सैंकड़ों रक्तदान शिविरों का आयोजन करवाया है तथा साहित्य की लगभग हर विधा यथा उपन्यास, नाटक, कहानी, कविता, लघुकथा, बाल-साहित्य आदि में रक्तदान विषयक विपुल साहित्य-सृजन करके समाज में रक्तदान के प्रति जागरूकता फैलाने का स्तुत्य कार्य किया है। जीवन के आठवें दशक में पदार्पण कर चुके डॉ. मधुकांत जी ने ‘मनसा, वाचा, कर्मणा’ ‘रक्तदान महादान महायज्ञ’ में अनूठी आहुति डाली है। ‘देहदान’ ‘रक्तदान’ जितना ही महत्त्वपूर्ण विषय है, लेकिन ‘रक्तदान’ की भाँति ‘देहदान’ के प्रति समाज में जागरूकता का अभाव है। हमारे परिवार में मेरे मामा जी स्व. वज़ीर चन्द मंगला ने देहदान का संकल्प लिया था, जिसे परिवार ने पूरा किया। मामा जी का उदाहरण भी इस उपन्यास की रचना के समय मन में सक्रिय था। मेडिकल कॉलेजों तथा अस्पतालों में मृत-शरीरों की आवश्यकता चिकित्सा-विज्ञान के विद्यार्थियों को पढ़ाने तथा जटिल ऑपरेशनों को सरंजाम देने में पड़ती है। कटु सत्य यह है कि जितने मृत-शरीरों की मेडिकल कॉलेजों तथा अस्पतालों में आवश्यकता होती है, उसके बहुत कम प्रतिशत की आपूर्ति हो पाती है। इस दिशा में समाज में जागरूकता लाने के लिए रक्तदान की भाँति ही इसे भी जन-अभियान बनाने की आवश्यकता है। साथ ही लोगों के मन में मृत-देह को लेकर जो रूढ़िवादी सोच है, उसे बदलने की ज़रूरत है। इस उपन्यास के कथानक के माध्यम से इस दिशा में कुछ कहने का प्रयास किया गया है। कथा-नायक भरी जवानी में देहदान को अपने जीवन का ध्येय बनाने का संकल्प लेता है। जब प्रारम्भ में उसे तथा उसके साथियों को कई महीनों तक सफलता नहीं मिलती तो वे कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के सुप्रसिद्ध गीत ‘जोदि तोर दक शुने केऊ ना तबे एकला चलो रे’ (यदि आपकी बात का कोई उत्तर नहीं देता है, तब अकेले ही आगे बढो) को आदर्श मानकर हताश नहीं होते और न ही अपने ध्येय से पीछे हटते हैं। यथाग्नि पवनोध्दूतै: सुसूक्ष्मो अपि महान भवेत, तथा कर्म समादुत्ता दैवं विवर्धते। (जैसे थोड़ी सी अग्नि वायु का संयोग पाकर बहुत विशाल बन जाती है, उसी प्रकार पुरुषार्थ का सहारा पाकर भाग्य का बल भी बढ़ जाता है।) अन्ततः कथा-नायक प्रभुदास और उसके साथियों को उनकी लगन व निष्ठा के फलस्वरूप सफलता भी मिलती है और समाज में प्रतिष्ठा भी।

साहित्य का मूल उद्देश्य समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करना होता है। लघुकथा के पुरोधा डॉ. सतीश पुष्करणा के मतानुसार ‘साहित्य वही है जो मानवोत्थानिक हो, जिसमें शिवत्व हो।’ अत: देहदान के साथ लड़कियों की शिक्षा, गाय का हमारे जीवन में महत्त्व, रासायनिक खादों तथा कीटनाशक दवाओं के दुष्प्रभाव तथा प्राकृतिक ढंग से खेती करने के लाभ, विवाहिता नारी से ससुराल वालों का अमानवीय व्यवहार व उसका उत्पीड़न, युवाओं में नशा-प्रवृत्ति, मित्रता, पारिवारिक सौहार्द जैसे सामाजिक मुद्दों पर भी प्रसंगानुकूल उपन्यास के पात्रों द्वारा समाज की सोच को सकारात्मक दिशा प्रदान करने का प्रयास किया गया है।

इस उपन्यास के प्रेरणा स्रोत रहे डॉ. मधुकांत जी ने अपने आशीर्वचन प्रेषित किए हैं, इसके लिए उनका हृदय की गहराइयों से आभारी हूँ। इसके साथ ही इस उपन्यास की रचना-प्रक्रिया के दौरान प्रतिष्ठित कवि एवं समीक्षक श्री ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’ जी से निरन्तर विचार-विमर्श होता रहा। सृजन समाप्ति पर सर्वप्रथम पांडुलिपि इन्हें ही प्रेषित की थी और इन्होंने बड़े मनोयोग से उसका अनुशीलन करके अपने विचार व्यक्त किए हैं, जिन्हें ज्यों-का-त्यों यहाँ प्रकाशित करने का लोभ संवरण करना मेरे लिए सम्भव न था। श्री पीयूष जी के आत्मीयता से भरपूर स्नेह एवं समर्थन के लिए आभार प्रकट करने के लिए उचित शब्दों का अभाव महसूस होता है, लेकिन वे मेरे मनोभावों को समझते हैं, ऐसा मुझे विश्वास है। इस उपन्यास की एक प्रति पीडीएफ़ फाइल में मैंने अपने अनुज ज्ञान चन्द गर्ग को भेजी थी। उन्होंने बहुत सूक्ष्मता से पढ़ते हुए कुछ-एक त्रुटियों को सुधारने का सुझाव दिया। इसके लिए अनुज का भी आभार बनता है। अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित करने के लिए हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक आदरणीय डॉ. कुमुद बंसल व अपने सीनियर क्लीग श्री देव कुमार ऐरन, सेवानिवृत्त अतिरिक्त आबकारी एवं कराधान आयुक्त, हरियाणा का हृदय से आभारी हूँ। प्रूफ़ रीडिंग में सहयोग देने के लिए प्रतिष्ठित कवयित्री नीरू मित्तल ‘नीर’ का हार्दिक धन्यवाद।

हार्दिक आभार एवं धन्यवाद ‘इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लि.’, का जिनके परिश्रम और लगन से यह पुस्तक आप सुधी पाठकों तक पहुँच पाई है।

लाजपत राय गर्ग

150, सेक्टर 15,

पंचकूला - 134113 (हरियाणा)

मो. 92164-46527

***********

आशीर्वचन

देहदान की जागृति फैलाने का संदेश

लाजपत राय गर्ग हरियाणा प्रदेश के प्रमुख उपन्यासकार हैं, जिनमें अपनी रोचक रचनाओं के फलस्वरुप पाठक वर्ग को बांधे रखने की अभूतपूर्व क्षमता है। पाठक एक बार पुस्तक पढ़ना आरंभ करता है तो समाप्त किए बिना उसे संतोष नहीं होता। यही एक सफल रचनाकार की विशेषता है कि वह पाठक को अपने पात्रों के साथ बांध कर रखता है। रोचकता के साथ-साथ किसी भी रचना की सामाजिक उपादेयता होना भी आवश्यक है। साहित्य का मूल मंत्र है - सबका हित - और सबका हित तभी है जब हमारे संपूर्ण सामाजिक ढांचे का विकास होता है।

लाजपत राय गर्ग ने अपने नवीनतम उपन्यास “अनूठी पहल” में एक ऐसे ज्वलंत मुद्दे को उठाया है, जिसकी समाज में अत्याधिक उपयोगिता है। स्वैच्छिक रक्तदान, नेत्रदान, गुर्दा दान, आदि पर समय-समय पर साहित्य प्रकाशित होने से समाज में जागृति आई है, परंतु इस उपन्यास में देहदान पर विशेष चर्चा की गई है। हमारे देश में देहदान की बहुत कम जागृति है। परिजन चाहे किसी से ऋण लेकर अंतिम संस्कार करें, परंतु देहदान करने के विषय में ना वे जानते हैं और ना ही उनका संस्कार है।

इससे पूर्व भी लेखक के चार उपन्यास - 1. कौन दिलों की जाने 2. पल जो यूं ही गुजरे 3. पूर्णतया की चाहत 4. प्यार के इन्द्रधनुष - प्रकाशित हो चुके हैं, जिनके फलस्वरूप साहित्य जगत में विशेषकर उपन्यास लेखन में उनकी अलग पहचान बनी है।

लेखक ने देहदान को समझाते हुए बताया है कि साधारण लोग यह समझते हैं कि यदि मनुष्य का अंतिम संस्कार ठीक से सम्मान पूर्वक नहीं हुआ तो उसकी आत्मा को मुक्ति कैसे मिलेगी? .... और समाज क्या कहेगा ....? परंतु वास्तविक बात तो भगवान कृष्ण ने अपने गीता के संदेश में बताई है कि आत्मा तो अजर और अमर है, तो उसकी मुक्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। इस प्रकार स्पष्ट है कि मनुष्य की मृत्यु के बाद इस शरीर के निर्जीव खोल को दान कर के मृत्यु के बाद भी पुण्य कमाया जा सकता है।

भारत देश धर्मपरायण देश है। यदि कोई बात हमारे धार्मिक संत-महात्माओं द्वारा कही जाती है तो लोग सहजता से उसका अनुकरण कर लेते हैं। इसलिए लेखक ने समाज में देहदान की जागृति फैलाने के लिए एक जैन मुनि के द्वारा इस बात को कहलवाया है - देहदान की जागृति फैलाना चाहते हैं तो इस 'शुभ कार्य का आरम्भ स्वयं से करो। सिविल अस्पताल में जाकर देहदान करने का फार्म भरो। इसके बाद अपने सम-विचारक चार-पांच मित्रों की मंडली बनाओ और मंडी में जिस व्यक्ति की मृत्यु हो, उसके घर जाकर उसके परिवार वालों को समझाओ कि माटी हो चुके शरीर को जलाने की अपेक्षा मेडिकल कॉलेज अथवा अस्पताल में देने के क्या फायदे हैं।' अनेक प्रचार माध्यमों का उपयोग करके समाज में देहदान के प्रति जागृति लाई जा सकती है।

देहदान के अतिरिक्त भी इस उपन्यास में कई सामाजिक सेवाओं को प्रोत्साहित किया गया है, जैसे गौ-माता की सेवा, जैविक खेती, वृक्षारोपण, स्त्री-सम्मान आदि पर भी प्रकाश डाला गया है।

अमरनाथ गुफा, बाबा बर्फानी के दर्शन और रास्ते में सेवा-धारियों द्वारा सेवा-कार्य का सुंदर यात्रा वर्णन इस उपन्यास में किया गया है।

उत्तरी भारत में दो भयानक त्रासदिओं की भयानकता आज भी लोगों के चेहरे पर कभी-कभी उभर आती है। हिंदुस्तान-पाकिस्तान के विभाजन की त्रासदी व पंजाब में आतंकवाद - दोनों घटनाओं का सटीक चित्रण लेखक ने इस उपन्यास में किया है।

प्रभुदास ने अपनी माता का देहदान करके समाज के सामने एक अनुकरणीय प्रयास किया। उसने 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' पर न चलकर स्वयं अपना भी देहदान करने का फैसला किया। ऐसे समाज में नई जागृति फैलाने वाले व्यक्तियों के लिए प्रख्यात कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने लिखा है:-

लीक पर वे चलें, जिनके चरण दुर्बल और हारे हैं,

हमें तो जो हमारी यात्रा से बने, ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।

अचानक 'देहदान महादान संस्था' का सरकारी पत्र आया कि स्वर्गीय प्रभुदास का नाम मरणोपरांत 'पद्म श्री' पुरस्कार के लिए चयन किया गया है ....। राष्ट्रपति भवन में जब सुशीला ने सुना, 'समाज में देहदान की जागृति लाने के लिए पद्म श्री पुरस्कार प्रभुदास के मरणोपरांत उसकी पत्नी श्रीमती सुशीला को प्रदान किया जा रहा है,' तब उसकी आंखें नम हो गईं ।

देहदान जैसे नए विषय को चुनकर श्री लाजपत राय गर्ग ने अपने उपन्यास का सृजन कर एक बड़े सम्मान के लिए कदम आगे बढ़ाया है। मुझे विश्वास है, ईश्वरीय प्रेरणा से सृजित उपन्यास समाज में नई जागृति लाएगा।

डा.  मधुकांत

211एल, मॉडल टाउन, डबल-पार्क,

रोहतक-124001   Mob. 98966-67714

**********

स्नेहसिक्त अभिमत

देहदान एवं सामाजिक मुद्दों से अनुप्राणित अप्रतिम उपन्यास ‘अनूठी पहल'

हरियाणा साहित्य अकादमी पंचकूला से ‘मुंशी प्रेमचंद श्रेष्ठ कृति सम्मान’ से अलंकृत यशस्वी उपन्यासकार लाजपत राय गर्ग की पाँचवीं अप्रतिम औपन्यासिक कृति 'अनूठी पहल' की पांडुलिपि का अवलोकन एवं अनुशीलन करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। यह एक सशक्त सामाजिक उपन्यास है, जो देहदान की लोक-कल्याणकारी उदात्त भावना पर केंद्रित है तथा देहदान के अतिरिक्त गौ-सेवा, नारी-शिक्षा, प्राकृतिक खेती, वृक्षारोपण, हरीतिमा-संवर्धन, मानवीय मूल्यों की प्रस्थापना, संस्कारों की उपादेयता, राष्ट्रभाषा हिंदी की गरिमा, दहेज-उन्मूलन और नशाखोरी की कुप्रवृत्ति के खिलाफ़ जन-जागरण अभियान की मूल भावना से अनुप्राणित है।

यह कृति औपन्यासिक तत्त्वों के निकष पर खरी उतरती है एवं अत्यंत प्रभविष्णु है। इसकी कथावस्तु, पात्र चरित्र-चित्रण व संवाद-योजना बहुत रोचक, प्रभावशाली, ज्ञानवर्धक एवं शिक्षाप्रद है। दौलतपुर निवासी कथानायक प्रभुदास दानी और सकारात्मक सोच का उदार इंसान है। वह महात्मा गांधी की विचारधारा का समर्थक है। उसका मानना है कि शिक्षा स्त्री के सोए हुए आत्मविश्वास को जगाती है। शिक्षित नारी समाज की प्रगति का आधार है। वह महिला कॉलेज के लिए अपनी बेशकीमती जमीन का दान कर देता है तथा अपनी माँ के निधन पर उसके मृत-शरीर को मेडिकल कॉलेज को दान में देता है और मरणोपरांत अपनी देह का दान करने का संकल्प लेता है एवं कुछ समाज-सेवकों व कार्यकर्ताओं को साथ लेकर देहदान के लिए जन-जागरण अभियान की अलख जगाता है। इसके लिए उसे सरकार द्वारा मरणोपरान्त पद्मश्री सम्मान से अलंकृत किया जाता है। वह आर्थिक दृष्टि से विपन्न लोगों की अनेक प्रकार से मदद करता है। विभाजन के समय सियालकोट, पाकिस्तान से किसी प्रकार अपनी जान बचा कर आए रामरतन की सहायता करता है, उसके व्यवसाय में हिस्सेदार बन कर उसे सहयोग प्रदान करता है। प्रभुदास अपनी योग्यता और कार्य-दक्षता से निर्विरोध सरपंच का पद प्राप्त कर सामाजिक उत्थान के लिए जन-कल्याणकारी कार्य करता है। उसमें कथानायक के समस्त गुण विद्यमान हैं।

मुख्य कथा के साथ कुछ अवान्तर प्रसंग एवं उपकथाएँ भी चलती हैं, जो कृति के मूल प्रतिपाद्य एवं अभिप्रेत में अत्यंत सहायक हैं। नारी पात्र जमना, प्रीति और विद्या तथा पुरुष पात्र रामरतन, दीपक, विजय और प्रफुल्ल आदि कतिपय अन्य पात्र कथा की गति को आगे बढ़ाते हैं, कलेवर को विस्तार देते हैं तथा कृति की अर्थवत्ता और उद्देश्य को सार्थकता प्रदान करते हैं।

रामरतन नारी का सम्मान करने वाला आदर्श और ईमानदार पात्र है। वह प्रभुदास को अपना मित्र बना कर जमना जो कि पाकिस्तान में किन्हीं वहशी युवकों की दरिंदगी का शिकार हो जाती है और जिंदा बचकर किसी प्रकार दौलतपुर आ जाती है, को अपनी जीवन-संगिनी बना लेता है तथा उसके साथ मिल कर गौ-सेवा व फलदार वृक्ष आदि लगाने का समाजोपयोगी कार्य करता है।

प्रीति दहेज-प्रथा से पीड़ित नारी है। ससुराल वालों ने उसे प्रताड़ित कर घर से बाहर निकाल दिया है। दीपक जो प्राकृतिक तरीके से खेती करता है और कृषि के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए जयपुर में मुख्यमंत्री द्वारा 'आदर्श कृषक सम्मान' भी प्राप्त कर चुका है, वह परिश्रमी और दूसरों की मदद करने वाला इंसान है, प्रीति को अपनी पत्नी बना कर पार्षद का चुनाव लड़वाता है। प्रीति चुनाव जीतने पर जन-कल्याण के उपयोगी कार्य करती है।

विद्या और प्रफुल्ल भी शिक्षित आदर्श युवा दम्पत्ति और कर्त्तव्यनिष्ट हैं।

लाजपत राय गर्ग ने प्रस्तुत उपन्यास में नारी की समस्याओं को रेखांकित करते हुए उसकी वर्तमान में सशक्त भूमिका और महनीयता पर प्रभावी तरीके से प्रकाश डाला है।

जैन मुनि द्वारा देहदान की महत्ता व संस्कारों पर सरल शब्दों में प्रवचन और प्रभुदास द्वारा अपने पोते प्रवीण को 'बर्फानी बाबा' की कथा सुनाना आदि प्रसंग कथावस्तु की उपयोगिता को तो सिद्ध करते ही हैं, उसकी रोचकता, सरसता और पठनीयता में भी वृद्धि करते हैं। इन्हें पढ़कर पाठक अभिभूत और संस्कारित होते हैं।

लेखक ने देश-विभाजन की त्रासदी से वर्तमान सामाजिक परिवेश की यथार्थपरक स्थिति का गागर में सागरवत सारभूत विवेचन सरल शब्दों में बड़ी सरसता से प्रस्तुत किया है, जो बड़ा श्लाघनीय बन पड़ा है।

हिंदी के व्यवहृत तत्सम शब्दों के साथ पात्रानुकूल पंजाबी और अंग्रेजी के शब्दों द्वारा उद्गारों की अभिव्यक्ति क़ाबिले-तारीफ़ है, जो भावों की सम्प्रेषणीयता और पारदर्शिता में चार चाँद लगाती है तथा अपने अभिमत और भावों की पुष्टि में गीतों, कविताओं, सूक्तिओं और उद्धरणों की व्यंजना  कृति में लालित्य व मार्दव का सृजन करती है।

समस्त पात्रों का चरित्र-चित्रण मनोविज्ञानपरक है, जो उनकी प्रकृति, स्वभाव और चरित्रगत विशेषताओं का समग्र आकलन प्रस्तुत करता है तथा पात्रों के संवाद कथा की गति को आगे बढ़ाने वाले, पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालने वाले सुगठित, संक्षिप्त, सारगर्भित, सटीक, भावानुकूल और पात्रानुकूल हैं। एक दृष्टांत देखिए - ‘रात को खाने के उपरान्त प्रभुदास ने विद्या को बुलाया और पूछा - ‘बेटे, मुझे तुझ पर गर्व महसूस हो रहा है। यूनिवर्सिटी में प्रथम स्थान पाकर तुमने लड़कियों के लिए कॉलेज खोलने के मेरे निर्णय को सही सिद्ध कर दिया है। …. अब क्या विचार है बेटे?’

‘पापा, मैं हिन्दी में एम.ए. करने के लिए चण्डीगढ़ जाने की सोच रही हूँ।’

दीपक जो पास ही बैठा था, बोल उठा - ‘विद्या, हिन्दी का क्या फ्यूचर है? एम.ए. ही करनी है तो इंग्लिश में कर या कंपीटिशन की तैयारी कर।’

‘भइया, तुमने प्राकृतिक ढंग से खेती करके नाम कमाया है तो क्या मैं अपनी राजभाषा में एम.ए. करके कुछ नहीं कर सकती? दूसरी बात, हिन्दी में एम.ए. करते हुए भी मैं एच.सी.एस. की तैयारी करूँगी और जब भी परीक्षा होगी तो अवश्य चांस लूँगी।’

देशकाल, परिवेश और परिस्थिति कथावस्तु के अनुरूप है। प्रकृति-चित्रण, सूर्योदय, संध्या, मौसम आदि का वर्णन बड़ा मनोहारी और चित्ताकर्षक है। भाषा व शिल्प सौष्ठव, प्रौढ़ एवं परिष्कृत है। कृति का शीर्षक 'अनूठी पहल' जिज्ञासावर्धक, आकर्षक, उपयुक्त, सार्थक एवं समीचीन है। उद्देश्य, सन्देश एवं अभिप्रेत देहदान के संग कुप्रवृत्तियों के विरुद्ध मानव-मन में सकारात्मक सोच, चिंतन व लोक-कल्याण की महनीय भावना का बीजारोपण करना है।

निष्कर्षतः उपन्यास पठनीय और संग्रहणीय है। यह उपन्यास भी लेखक द्वारा रचित अन्य उपन्यासों की तरह चर्चित एवं प्रशंसित रहेगा और उपन्यास-जगत में अपना एक अहम स्थान बना पाने में सक्षम होगा, ऐसा मेरा अटल विश्वास है।

शुभकामनाओं सहित ….

ज्ञानप्रकाश 'पीयूष' आर.ई.एस.

1/258, मस्जिद वाली गली,

तेलियान मोहल्ला,नजदीक सदर बाजार,

सिरसा-125055(हरि.)

संपर्क- 94145-37902, 70155-43276

*******

अनूठी पहल

- 1 -

शनिवार का दिन था। कॉलेज की छुट्टी थी। सुबह के दस ही बजे थे, लेकिन सूर्य-नारायण अपने पूर्ण यौवन की ऊर्जा उत्सर्जित कर रहे थे। पृथ्वी-लोक के प्राणियों का गर्मी ने हाल बेहाल कर रखा था। जिनके पास आधुनिक विज्ञान द्वारा आविष्कृत साधन थे, वे उनका भरपूर उपयोग करते हुए गर्मी को धत्ता बता रहे थे। प्रवीण को भी पारिवारिक समृद्धि के कारण ये सुविधाएँ उपलब्ध थीं और वह चौबारे में बैठा ए.सी. चलाकर आराम से पढ़ाई कर रहा था कि कृष्णा ने आकर कहा - ‘बेटे, एक बार तुझे दुकान तक जाना होगा। तेरे पापा का शिकंजी के लिए फ़ोन आया था, उन्हें दे आ।’ पढ़ाई के बीच विघ्न अच्छा तो उसे नहीं लगा, लेकिन वह उन बच्चों जैसा नहीं था जो मम्मी-पापा की बात  मानने में आनाकानी करते हैं। अतः अन्यमनस्क-सा वह उठा, ए.सी. बन्द किया और मम्मी के पीछे-पीछे नीचे उतर आया।

वह दुकान पर बैठा था कि डाकिया आया। अन्य डाक के साथ एक पत्र ‘देहदान महादान संस्था (रजि.), दिल्ली’ की ओर से आया था। पवन ने डाक देखते हुए कहा - ‘प्रवीण, देख ज़रा, इस पत्र में क्या लिखा है?’

जब उसने पत्र खोलकर पढ़ा तो उसे इतनी प्रसन्नता हुई कि उसके मन में आया कि दादाजी इस समय उसके सामने होते तो तुरन्त उनके चरणों की धूल माथे पर लगा लेता। किन्तु ऐसा तो सम्भव  नहीं था। कुछ लोग अपने जीवन में कुछ ऐसे काम कर जाते हैं कि उनके मरणोपरान्त भी उनके कामों की समाज में प्रशंसा होती है, वे दूसरों के लिए प्रेरणा-स्रोत बने रहते हैं।

पवन ने डाक में आए तीन-चार पत्रों पर नज़र डालकर दराज में रख दिया था। उसने प्रवीण के चेहरे पर आई प्रसन्नता को लक्ष्य करते हुए पूछा - ‘कुछ ख़ास बात है क्या?’

‘पापा, आप पूछते हैं कुछ बात है क्या, यहाँ तो ऐसा समाचार है कि आप सुनते ही उछल पड़ोगे।’

‘ऐसा क्या समाचार है?’ पवन ने सामान्य रूप से पूछा।

‘पापा, दादाजी ने बहुत बड़ी सौग़ात भेजी है!’

‘तुम्हारे दादाजी ने सौग़ात भेजी है, कैसी बात कर रहा है तू?’

‘पापा, मैं ठीक कह रहा हूँ। देखो ना यह पत्र!’

‘तू ही बता दे, क्या लिखा है ?’

‘पापा, ‘देहदान महादान संस्था (रजि.), दिल्ली’ के सचिव ने सूचित किया है कि दादाजी ने देहदान को लेकर समाज में जागरूकता फैलाने का जो उल्लेखनीय काम किया है और स्वयं का शरीर दान करने की शपथ लेने वाले इस इलाक़े के प्रथम व्यक्ति होने के नाते संस्था ने उनका नाम नागरिक सम्मान - पद्मश्री - के लिए अनुशंसित किया था, जिसे सरकार द्वारा गठित चयन समिति ने स्वीकार कर लिया है। इसलिए मैं इतना ख़ुश हूँ कि यदि वे मेरे सामने आ जाएँ तो उनके चरणों की धूल का तिलक लगा लूँ।’

‘बेटे, यह तो वाक़ई बहुत ख़ुशी का समाचार है,’ कहने के साथ ही उसे अपने बचपन की याद ताज़ा हो आई, जिसे बताते हुए उसने आगे कहा - ‘प्रवीण, बात मेरे जन्म के तीन-चार साल बाद की है, जब तेरे दादाजी ने देहदान का संकल्प लिया था। उस समय लोगों ने इसे उनका पागलपन समझा था। मेरी दादी भी चाहे उस समय पापा के साथ थी जब चौमासे में एक जैन मुनि के प्रवचन से प्रभावित होकर पापा ने देहदान का संकल्प लिया था, किन्तु शुरू में दादी ने भी इसका विरोध किया था। और किसी की क्या कहूँ, माँ भी इस फ़ैसले से खुश नहीं थी। लेकिन, धीरे-धीरे तेरी पड़दादी और दादी उनके इस जनून के रहस्य को समझने लग गई थीं। तू घर जा और यह ख़ुशी का समाचार अपनी दादी को सुना।’

जब प्रवीण घर आया तो उसकी दादी सुशीला कृष्णा के साथ रसोई में दोपहर का खाना बनाने की तैयारी कर रही थी कि प्रवीण आते ही सुशीला से लिपट गया और बोला - ‘दादी! दादाजी ने बहुत बड़ी सौग़ात भेजी है हमारे लिए।’

‘तेरे दादाजी ने! और सौग़ात, मैं कुछ समझी नहीं?’

तब प्रवीण ने सारी बातें सुशीला को बताईं और कहा - ‘दादी, यह सब दादाजी की दूरदर्शिता का परिणाम है कि हमारे परिवार को राष्ट्रपति से दादाजी को मरणोपरान्त दिया जाने वाला सम्मान प्राप्त करने का सौभाग्य मिलेगा वरना क्या कभी हम सोच सकते थे कि एक दिन हम राष्ट्रपति के साथ मंच पर खड़े होंगे!’

सुशीला भावुक हो उठी। उसकी आँखें अश्रुपूरित हो गईं। उसने प्रवीण को गले से लगा लिया।

……

कभी परिस्थितियों, तो कभी पारिवारिक विवशताओं के कारण बहुत-सी प्रतिभाएँ पूर्णतः विकसित होने से वंचित रह जाती हैं, लेकिन इनमें से कुछ व्यक्ति अपनी लगन व परिश्रम से इन विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए भी समाज में अपनी उपयोगिता सिद्ध करने में सफल हो जाते हैं, अपना एक विशेष स्थान बना लेते हैं। प्रभुदास भी ऐसा ही एक व्यक्ति था।

वह पढ़ने का शौक़ीन होने पर भी अधिक नहीं पढ़ सका था, क्योंकि जब वह आठवीं कक्षा में आया, उन्हीं दिनों उसके पिता नन्द लाल का कत्ल हो गया था। नंबरदार होते हुए भी नन्द लाल ने कभी बेईमानी से पैसा नहीं कमाया था। अपनी ईमानदारी की वजह से ही वह गाँव के ज़मींदार को फूटी आँखों नहीं सुहाता था। अन्ततः ज़मींदार ने उसका कत्ल करवा दिया था। घर में बड़ा होने के कारण सरकारी नियमानुसार प्रभुदास नंबरदार बनने का अधिकारी था। उन दिनों नंबरदार का पद उत्तराधिकार से मिलता था। लेकिन उसकी माता पार्वती ने उसे यह ज़िम्मेदारी लेने से रोक दिया, क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि उसका बड़ा बेटा भी अपने पिता की भाँति गाँव की गंदी राजनीति का शिकार बने। इस प्रकार प्रभुदास के नाज़ुक कंधों पर छोटे भाई और बहन की ज़िम्मेदारी आन पड़ी। उसे स्कूल छोड़ना पड़ा। पिता गाँव के नंबरदार होने के साथ छोटी-सी दुकान भी चलाते थे। रोज़मर्रा की ज़रूरतों की चीजें इस दुकान पर उपलब्ध होती थीं। अत: उनकी मृत्यु के बाद दुकान ही परिवार के गुज़ारे का साधन थी। लेकिन प्रभुदास का गाँव की दुकान पर बैठने का बिल्कुल मन नहीं था। उसने पार्वती से सलाह-मशविरा किया और पास ही के क़स्बे दौलतपुर में एक छोटी-सी दुकान किराए पर ले ली। सस्ता ज़माना था, उसी के अनुसार साधन भी सीमित थे। कोई नया काम आरम्भ करने की बजाय प्रभुदास ने गाँव की दुकान का सामान ही नई जगह ले जाकर अड्डा जमा लिया। पार्वती घर पर कई तरह के अचार-चटनियाँ बनाया करती थी। प्रभुदास को ये बहुत स्वादिष्ट लगते थे। एक दिन उसने पार्वती से कहा - ‘माँ, तुम इतने स्वादिष्ट अचार बनाती हो, यदि यहाँ की एक-आध ज़रूरतमंद स्त्री की मदद से इन्हें ज़्यादा मात्रा में बना सको तो दुकान पर बेचा जा सकता है। मुझे पक्का यक़ीन है कि जो भी आदमी एक बार तुम्हारे हाथ का बना अचार खा लेगा, वह फिर दूसरे किसी अचार का स्वाद भूल जाएगा।’

‘प्रभु, यदि तू ऐसा सोचता है तो अभी किसी मददगार की ज़रूरत नहीं। तू सामान ला देना, मैं दो-तीन तरह के अचार डाल दूँगी। जब लोगों को मेरा बनाया अचार पसन्द आने लगेगा और माँग बढ़ेगी तो मददगार भी रख लूँगी।’

‘ठीक है माँ। मुझे सामान लिखवा दो, मैं कल लेता आऊँगा।’

इस प्रकार माँ-बेटे की मेहनत से काम चल निकला। जैसे-जैसे लोगों को पता लगता गया, उसके ग्राहकों की संख्या बढ़ती गई। बहुत जल्दी ही उसने प्रतिदिन उपयोग में आने वाली अन्य वस्तुएँ भी रखनी शुरू कर दीं। अब पार्वती ने घर पर अचार के साथ कई तरह की चटनियाँ और शरबत आदि भी तैयार करने शुरू कर दिए। प्रभुदास की मीठी ज़ुबान और मिलनसार स्वभाव के कारण दुकान का काम दिन दुगुनी रात चौगुनी गति से बढ़ने लगा। अब तो दौलतपुर के हर निवासी की ज़ुबान पर प्रभुदास पंसारी का ही नाम था। उसने पार्वती से घरेलू नुस्ख़ों पर चर्चा की तो उसे बड़ी हैरानी हुई कि माँ के पास तो ज्ञान का भंडार था। उसने छोटी-मोटी बीमारियों के लिए कुछ देसी दवाइयाँ बनानी शुरू कर दीं। लोगों को उसकी दवाइयों से आराम होने लगा तो थोड़े-से समय में ही उसकी ख्याति वैद्य के रूप में आसपास के गाँवों में फैल गई, क्योंकि गरीब लोगों से वह दवाओं के पैसे नहीं लेता था। साल पूरा होते-होते दुकान का काम तो बढ़ा ही, उसके पास पाँच सौ रुपए जमा हो गए।

अभी तक वह रोज़ गाँव से दौलतपुर आया ज़ाया करता था। एक दिन उसने, पटवारी जो उसकी दुकान पर घरबार की चीजें ख़रीदने के लिए आया करता था और कभी-कभार बैठकर घंटा आधा-घंटा गपशप कर लेता था, को कोई मकान दिलवाने के लिए कहा। पटवारी ने तुरन्त कहा - ‘एक मकान मेरी निगाह में है। सेठ तो शहर में रहने लग गया है। मकान बिकाऊ है। कहो तो शहर जाकर उससे बात करूँ?’

प्रभुदास ने पूछा - ‘पटवारी जी, उस मकान की कितनी-एक क़ीमत होगी?’

‘यही कोई पाँचेक हज़ार होगी। मकान दस मरले का है। अच्छा बना हुआ है।’

पाँच हज़ार सुनकर प्रभुदास सोच में पड़ गया। जब काफ़ी देर तक वह कुछ नहीं बोला तो पटवारी ने उसे टोका - ‘प्रभु, किस सोच में पड़ गए? ऐसा मकान पाँच हज़ार में महँगा नहीं।’

‘पटवारी जी, लेकिन मेरे पास तो केवल पाँच सौ रुपए नक़दी हैं,’ प्रभुदास ने संकोच से बताया।

‘कोई बात नहीं। तुम मुझे पाँच सौ दे दो, मैं कल ही शहर जाकर बात करता हूँ। सेठ मेरी बहुत इज़्ज़त करता है। पाँच सौ बयाना देने पर वह बाक़ी रक़म छह महीने बाद लेने के लिए मान सकता है। इतने में तो तुम भी इंतज़ाम कर लोगे?’

‘छह महीने तो नहीं, साल भर में तो मैं बाक़ी रक़म का बंदोबस्त कर सकता हूँ, पटवारी जी।’

‘चलो, मैं देखता हूँ। हो सकता है, सेठ साल की मोहलत दे दे। उसके पास पैसे की कोई कमी नहीं। लेकिन, यह मकान छोड़ने वाला नहीं है, यह याद रखना!’

‘अगर सेठ साल की मोहलत देने पर राज़ी हो जाए तो सौदा कर आना। कल सुबह जाते हुए पाँच सौ रुपए लेते जाना।’

रात को खाना खाने के पश्चात् प्रभुदास अपनी माँ के पास थोड़ा समय अवश्य बिताया करता था। उसकी बहन दमयंती माँ के पास ही सोया करती थी। दूसरे कमरे में छोटा भाई चन्द्र और वह स्वयं सोते थे। जब तक वह माँ के कमरे में से वापस आता तो चन्द्र खा-पीकर चारपाई पर पसरा नींद का इंतज़ार कर रहा होता था अथवा सो चुका होता था। आज जब वह माँ के पास गया तो दमयंती पार्वती की चारपाई पर बैठी बातों में मशगूल थी। उसे आया देख दमयंती अपनी चारपाई पर जाने के लिए उठने लगी तो उसने कहा - ‘दमयंती, तू बैठी रह। मैं इधर तेरी चारपाई पर बैठता हूँ।’

चारपाई पर बैठने के पश्चात् उसने पार्वती को सम्बोधित करते हुए कहा - ‘माँ, आज पटवारी दुकान पर आया था। उसने बताया कि उसकी जान-पहचान के एक आदमी का दस मरले का मकान बिकाऊ है। पटवारी के कहे मुताबिक़ मकान अच्छा बना हुआ है और पाँच हज़ार में मिल सकता है। …... मैं सोचता हूँ कि अब हमें गाँव छोड़ देना चाहिए। अगर हम दौलतपुर में रहने लग जाएँ तो चन्द्र और दमयंती की रोज़ स्कूल तक जाने-आने की फटिक बच जाया करेगी…..।’

पार्वती - ‘बेटा, बात तो तेरी ठीक है, लेकिन पाँच हज़ार कहाँ से आएँगे?’

तब प्रभुदास ने माँ को पटवारी से हुई सारी बातें बताईं। कुछ देर सोचने के बाद पार्वती ने कहा - ‘जेब में पाँच सौ हैं और तू सौदा करने चला है पाँच हज़ार का? बेटा, जब कोई इस तरह का सौदा करना हो तो अपने पास कम-से-कम आधी रक़म हाज़िर होनी चाहिए।’

‘माँ, आधी रक़म तो हो जाएगी।’

‘वो कैसे?’ पार्वती ने आश्चर्यचकित होते हुए पूछा।

‘अगर मकान का सौदा सिरे चढ़ गया तो इस घर को बेच देंगे। कम-से-कम दो ढाई हज़ार तो इसके भी मिल जाएँगे।’

‘तो क्या तू इस घर को बेचना चाहता है?’

‘हाँ, जब दौलतपुर में रहने लगेंगे तो इसका और क्या करेंगे? ख़ाली पड़ा तो खंडहर ही होगा ना! यहाँ किराए पर तो कोई लेने से रहा।’

पार्वती सोचने लगी, बात तो प्रभु की ठीक है। दौलतपुर जाने के बाद यह घर खंडहर ही तो हो जाएगा। एक बार जाने के बाद यहाँ आने का किसका मन करेगा! यहाँ की दुखद यादों से छुटकारा जितनी जल्दी हो जाए, उतना ही अच्छा है। प्रभु ने थोड़े से समय में ही दौलतपुर में अच्छा नाम कमा लिया है। यही सब सोचते हुए उसने कहा - ‘बेटा, तेरे बापू के कत्ल के बाद एकबारगी तो मुझे लगा था कि जीवन की नौका कैसे पार लगेगी, किन्तु तूने अपनी समझदारी और लगन से परिवार की नाव मँझधार से बाहर ही नहीं निकाली, थोड़े-से समय में ही काफ़ी तरक़्क़ी भी कर ली है। परमात्मा का आशीर्वाद सदा तेरे साथ रहे। …. अब तू भी जाकर आराम कर।’

प्रभुदास वहाँ से उठा। दूसरे कमरे में आकर अपनी चारपाई पर लेट गया। माँ के प्रोत्साहन के पश्चात् उसका मन शान्त था। अत: नींद भी शीघ्र ही आ गई।

॰॰॰॰॰