मौत....कहीं सन्नाटा ओढ़े बैठी थी तो कहीं चीत्कार बनकर गूंजी थी। कुणाल मर गया था। सुबह की धूप निकलने से पहले ही बर्मन विला अंधेरे की काली मनहूस चादर ओढ़ चुका था। अखिलेश जी ने जिस पहले वाली पत्नी को वापस पाने की चाह में अपने ही अंश को मरने के लिए छोड़ दिया था, वहीं पत्नी इस वक़्त उनके खून की प्यासी हो गई थी। कुणाल की मौत ने जैसे सकुंतला जी की समस्त चेतनाओं का गोला घोट दिया था। इस वक़्त उन्हें एक कमरे में अकेले बन्द कर के रखा गया था। जब से उन्होंने कुणाल के खून से सने जिस्म को देखा और उनके लाख पुकारने पर भी जब कुणाल ने कोई हरक़त नहीं की तब से वे अपना होश पूरी तरह खो बैठी थी। अखिलेश जी बार बार ये झूठ बोलते जा रहे थे, कि वे कुणाल को बचाने ही तो उपर जा रहे थे, लेकिन सकुंतला जी ये बात मानने को तैयार ही नहीं थी। वे बार बार यहीं रट रही थी अखिलेश जी ने ही कुणाल को उपर से नीचे धक्का दिया था। हालांकि ये बात सच नहीं थी लेकिन पूरी तरह झूठ भी तो नहीं था।
अखिलेश जी ने पूरे परिवार से भी यहीं झूठ बोला था, लेकिन भीतर का अपराधबोध और पत्नी की हालत ने उन्हें तोड़कर रख दिया। आनन फानन में कुणाल की लाश को दफना दिया गया। अंतिम पलों तक उसके चेहरे में अपार शांति नज़र आ रही थी लेकिन उस वक़्त कोई कहां सोच पाया था ये शांति आने वाले किसी बड़ी तबाही का इशारा भर था। घर के बाहर बैठे बुजुर्ग ने जब ये ख़बर सुनी की इस घर के इकलौते बच्चे की सीढियों से गिरकर मौत हो गई है तो उन्होंने ख़ुद को बेहद ठगा हुआ महसूस किया। वे बेहद उदासी के साथ वहां से चले गए एक बार और लौट के आने के लिए......आख़िर उनका असली और बेहद जटिल काम तो अब शुरू होगा।
दूसरी तरफ़ घाटी की ओर...कहीं कोई मां अपने बच्चे को प्यार से जगा रही थी, कहीं कोयले के चूल्हे से धुएं की कतार आसमान की तरफ़ जा रही, तो कहीं अदरक और तुलसी वाले चाय की सुगन्ध नथुनों को भा रही थी। ये वहीं वक़्त था जब बेहद समान्य सी दिनचर्या शुरू हो रही थी। कोई खेतों में जाने के लिए कुदाल और बेलचा निकाल रहा था तो कहीं दिन का पहला भोजन पक रहा था। ये सुबह सुबह का वक़्त था। अचानक घाटी में एक भयानक आवाज़ उभरी ऐसा लगा जैसे घाटी के तमाम छोटे बड़े पहाड़ कांपने लगे हो। जैसे कोई मरने से ठीक पहले होने वाले दर्द को झेल रहा हो।
उस आवाज़ में इतना डर था कि सुनने वाले हर शख़्स ने ख़ुद को घर के भीतर छिपाकर महफूज़ कर लिया। दोपहर के बाद जब लोगों में थोड़ी हिम्मत जुटी तो सबने मिलकर घीनु की तलाश की। सभी जानते थे ये आवाज़ घीनु की ही थी। और वो मिला भी...कुएं के पास बेजान पड़ा हुआ। वो मर चुका था... हां ये सच है कि घीनु ने अपना शरीर छोड़ दिया था लेकिन...आत्मा भी आख़िर कोई चीज़ होती है। और आत्मा शरीर से कहीं अधिक ताकतें रखती है।
घाटी में उत्सव सा माहौल हो गया था। सभी जश्न मना रहे थे, आख़िर सबकी जान बेरहमी से लेने वाला घीनु अब मर चुका था। घाटी में जहां खुशियां मनाई जा रही थी वहीं दूसरी तरफ़ बर्मन विला में बेबसी,उदासी,पछतावा और दर्द हिलोरें ले रहा था। ख़ैर घाटी के लोगों ने घीनु के मरे हुए शरीर का बहुत बुरा हाल किया उन्होंने उसे बांस के लंबे डंडे में बांधकर घाटी की सबसे ऊंची पहाड़ी पर लटका दिया। ये उनके लिए मिसाल था बुराई से जीतने का लेकिन शायद ये थोड़ी ज़ल्दबाज़ी हो गई थी। लड़ाई तो अभी शुरू होने वाली थी।
तीन दिन गुजर गए थे कुणाल को मरे। सकुंतला जी को मेंटल हॉस्पिटल भेज दिया गया था। अखिलेश जी तो वैसे भी कम बोला करते थे अब बिल्कुल ही चुपचाप रहने लगे। लेकिन तीन दिनों बाद उनके घर फ़िर दस्तक हुई...वहीं बुजुर्ग एक बार और आए थे जो कुणाल की मौत वाले दिन भी आए थे।
इस बार अखिलेश जी उनसे मिलें...अजीब सा व्यक्तित्व था उनका। चेहरे पर दैविक चमक थी। आंखों में दूर तक देखने की परख। थोड़ी सफ़ेद दाढ़ी थी लेकिन कहीं से भी वो बाबाओं की तरह नहीं लगते थे। उनको देखकर ही लगता था जैसे समाजिक ज्ञान उनके भीतर कुट कुट कर भरा था। बड़े सम्मान से मिलें थे अखिलेश जी उनसे। उनका नाम "सोमनाथ चट्टोपाध्याय" था। उनकी नागरिकता जर्मनी की थी लेकिन थे वे भारतीय ही। सालों पहले उन्हें जर्मनी के किसी महान जोड़े ने गोद लिया था। उस से पहले वे भारत के ही किसी शहर में अनाथालय में रहते थे। उस वक़्त उनकी उम्र करीब छह या सात वर्षो की थी। उन्होंने बताया:-
"भारत से जर्मनी जाते वक़्त मेरे पीठ में एक थैला रखा गया था। वहां पहुंचने के बाद जब उन्होंने उस थैले के समान को देखा तो उसमें उनके वो कपड़े थे जिन्हें पहनकर ही वे पहली बार उस अनाथालय में लाए गए थे। उनकी कोई पुरानी ताबीज़ थी, हाथ में पहनी चांदी की कोई बेहद पुरानी दो चूड़ियां थी और...और थी एक किताब। बस यहीं किताब थी जो उन्हें भारत से जोड़े रखी थी। असल में ये भारतीय पौराणिक कथाओं का एक संग्रह था। भुत,चुड़ैल,देवी देवताओं,पिशाच और राजा महाराजाओं का इतिहास दर्ज़ था। ये बिल्कुल परीकथाओं सा ही था लेकिन कुछ था...कुछ तो था इसमें जिसने मेरे अंदर से कभी उत्सुकता को मरने नहीं दिया, और मै उतनी दूर बैठा भी भारत के अजीबों रहस्यों पर गहन अध्ययन करता रहा। फ़िर मैंने एस्ट्रोलॉजी की पढ़ाई की और फ़िर मुझे तारीखों से खेलना आ गया। मै हजारों वर्ष पूर्व की किसी भी तारीख़ के बारे सबकुछ पता कर सकता हूं, कि उस दिन उस तारीख़ में सूर्य और चंद्रमा की गति क्या थी। वगैरह वगैरह.... फ़िलहाल एक ऐसी ही किताब को पढ़कर मैं यहां आया हूं। आपको शायद यकीन नहीं होगा मेरी बातों पर। लेकिन अपनी सच्चाई के नमूने भी मैं बख़ूबी पेश करूंगा। अब मै जो कहानी सुनाऊं उसे ध्यान से सुनना। इस कहानी का नाम है श्राप...!!!!"
क्रमश :- Deva sonkar