एक अजीब सी बदबू से पूरा कमरा भर गया था। जैसे कमरे में कई दिनों से कोई सड़ी हुई चीज़ रखी हो। ओह सांस लेना जैसे दूभर हो गया है। जावेद नाक मुँह सिकोड़ते हुए उठ बैठा।
नींद तो उसकी पहले ही खुल गयी थी। कब से उसे महसूस हो रहा था कि उसके जिस्म में चीटियां रेंग रही है, वो हाथ से भगाता तो थोड़ी देर के लिए सभी चीटियां भाग जाती और फ़िर कुछ देर बाद वापास वहीं सिरहन। अब तो इस बदबू ने उसे उठकर बैठने को मजबूर ही कर दिया।
अपने दोस्तों के साथ वो अक्सर घर से बाहर ही रहा करता था। कभी अपने एक कमरे के घर मे लौटता कभी हफ़्तों नहीं आता। घर में था भी कौन जिसके लिए वो यहां आता। इसी वजह से हमेशा ही उसे घर में कभी सड़े हुए अंडे कभी टमाटर तो कभी मरे हुए चूहों की बदबू से रूबरू होना पड़ता था।
उसने उठकर फ्रीज़ खोला, फ़्रीज़ में महीनों पहले रखा हुआ एक बोतल पानी और सुखी हुई कुछ सब्जियां थी। हालांकि फ़्रीज़ में से भी बदबू आ रही थी लेकिन इस वक़्त जिस बदबू ने कमरे का बुरा हाल कर रखा था ये वो नहीं था। जावेद अब संशय में पड़ा था। वो कमरे में इधर उधर कुछ ढूंढ ही रहा था जब कूलर के पीछे उसे वो दिखा। कमरे की डिम लाइट की रौशनी में वो एकटक जावेद को ही बैठा घूर रहा था।
जावेद को समझते देर नहीं लगी ये घिनु था। जावेद के कदम पीछे होने लगे। वो कमरे से भाग जाना चाहता था। धीरे धीरे वो उल्टे कदमों से दरवाज़े तक पहुँचा ही था कि बड़ी तेज़ी से बाहर निकलकर घिनु ने उसपर हमला कर दिया। उसके दोनों पैरों को खींचकर उसे घसीटते हुए कमरे के बिल्कुल बीच में फर्श पर पटक दिया। और ख़ुद जाकर उसके सीने में बैठ गया। जावेद की आँखे चौड़ी हो गयी। वो इतने करीब से घिनु के इस घिनौने रुप को देख रहा था कि घिनु अगर इस वक़्त उसे छोड़ भी दे फ़िर भी वो मर जायेगा। घिनु कि छाती का हिस्सा अजीब सा लचीलापन लिए था और उसके पीठ के बालों से निकलकने वाले कीड़े उसके छाती के गीलेपन में चिपके हुए थे। दांतो के बीच फंसे इंसानी मांस और इसकी बदबू। फ़र्श पर लेटे लेटे ही जावेद उल्टियां करने लगा। लेकिन...घिनु गुर्राते हुए उसे बोल रहा था। "..तुम्हे पुलिस के पास नहीं जाना चाहिए था, मैंने तुमसे मदद मांगी थी। अब तुम तो जाओगे ही तुम्हारी दोस्त भी नहीं बचेगी अब.."।
इधर घुटी घुटी आवाज़ में जावेद घिनु को बता रहा था कि वो जिसे ढूंढ रहा है, वो बच्चा उसे मिल गया है। लेकिन अपनी ही गुर्राहट की आवाज़ में घिनु कहां सुन पा रहा था जावेद की लगभग मरी हुई आवाज़। काश घिनु ने एक बार जावेद को सुन लिया होता।
और तभी कमरे में से एक भयानक चीख उभरी और दरवाज़े के नीचे हल्की सी खाली जगह से निकलकर खून बाहर निकलने लगा। जावेद मर चुका था।
दूसरी तरफ़ कुएं के पास उस खाली वीरान मकान में लिली फंस चुकी थी। कभी जावेद को कभी अमर और कभी कनक को आवाज़ लगाते-लगाते उसके भीतर का सारा पानी सुख गया था। हा इस वक़्त वो हद से अधिक प्यासी थी।
रात के अंधेरे में वो मकान और अधिक डरावना लग रहा था। सालों पहले यहां प्रज्ञा का परिवार रहा करता था। लिली अब तक समझ चुकी थी इस खंडहर में वो अकेली नहीं थी। कोई था बिल्कुल उसके आस-पास। कभी उसके कदमों की आहट, कभी आहिस्ते से उसका हँसना और कभी बेहद ठंडी रुलाई। लिली महसूस कर रही थी ये सब। कभी यूँ ही चमगादड़ अचानक से फड़फड़ाकर उड़ने लगते तो कभी बाहर बने कुएं में किसी चीज़ के गिरने की छपाक की जोरदार आवाज़ आती। लिली चौक पड़ती।
तभी उस कमरे में अचानक से ठंड बढ़ने लगी। इतनी ठंड की उस अंधेरे कमरे में ठंड की एक मोटी परत यानी की धुंध नज़र आने लगी। लिली कांप रही थी। लिली ने देखा दरवाज़े पर जहां चांद की हलकी हलकी रौशनी आ रही थी, वहां कोई बैठा था। सफ़ेद फ्रॉक पहने,खुले हुए बेतरतीब से बिखरे बाल, वो अपना सर घुटनों में रखकर बैठी थी, उसके हाथ में एक गुड़िया भी थी। लिली भी तो इस वक़्त कुछ इस तरह ही बैठी थी। लेकिन वो कोई पारदर्शी सी आकृति लग रही थी,हवा चलती तो वो किसी सूखे पत्ते की तरह हिलने लगती। लिली को याद आया ऐसी ही तो कोई बच्ची कल उसे यहां लेकर आयी थी। लेकिन वो कितनी जीवंत लग रही थी और ये जैसे सालों से मौत का सन्नाटा ओढ़े बैठी है।
बहुत देर तक लिली उसे उसी तरह बैठी हुई देखती रही। और फ़िर उसने सवाल किया..."तुम कौन हो, देखो मुझे बता दो मेरे दोस्त कहां है...? मुझे क्यों यहां फंसाकर रखा है तुमने..?" लिली का विद्रोह उसके शब्दों में झलक रहा था। लिली के ये जहरीले शब्द भी वातावरण के इस सन्नाटे को तोड नहीं पाएं।
वो अभी भी दरवाज़े पर वैसी ही बैठी थी। लिली ने एक बार फ़िर उसके बगल से दरवाज़े से बाहर निकलने की कोशिश की लेकिन इस बार भी वैसा ही हुआ जिससे कि उसका यहां से निकलना मुश्किल हो गया। जैसे ही वो उठकर दरवाज़े की तरफ़ जाती अचानक से बाहर से अनगिनत चमगादड़ों का झुंड भीतर आने लगते, दरवाज़े आपस में ज़ोर ज़ोर से टकराने लगते और लिली डरकर चार कदम और पीछे चली जाती। इस बार भी ऐसा ही हुआ।
इसके बाद लिली ने देखा वो आकृति भी इस वक़्त दरवाज़े से गायब थी। कमरे में अनचाहा ठंड भी नदारद था। लेकिन तभी कुछ हुआ और किसी सिनेमा के चलचित्र की तरह दीवारें बदलने लगी। अंधेरे, सीलन से भरा कमरा अचानक जगमगा उठा। लिली जिस कमरे में थी वहां बहुत से लोग दिखने लगे, कोई फूल के मालाओं को हाथ में लिए, कोई कटे हुए फल और मिठाई के साथ। कोई दरवाज़े में तोरण लगा रहा था। कमरे के बिल्कुल बीच में कोई पूजा चल रही थी। पंडित जी आसन में बैठकर मंत्रोच्चारण कर रहे थे। बड़ा भक्तिमय माहौल था। लिली तो जैसे कल्पना और वास्तविकता के बीच का फ़र्क ही भूल बैठी थी।
वो आंखें घुमाकर चारों तरफ़ देख रही थी, और उसे दरवाज़े के किनारे फ़िर वो दिखी, वहीं सफ़ेद फ्रॉक पहने वहीं सात आठ साल की प्यारी सी लड़की लेकिन थोड़ी घबराई हुई भी थी। ऐसा लग रहा था जैसे मन्त्रों की आवाज़ अगरबत्तियों की खुशबू उसे परेशान कर रही हो। पूरा घर इस वक़्त लोगों से खचाखच भरा था। लेकिन इतने लोगों में वो अकेली उदास क्यों है। लिली ने देखा वो दरवाज़े हटकर जाने लगी। लिली भी उसके पीछे चल पड़ी। वो छोटी लड़की प्रज्ञा थी। उसके हाथ में एक प्यारी सी गुड़िया भी थी, वो कुएं के पास खड़ी खेल रही थी। ऐसा लगता जैसे उस गुड़िया में ही उसकी जान बसती हो। वो उस से बातें कर रही थी, उसके साथ मुस्कुरा रही थी और कभी कुछ सोचकर ख़ामोश भी हो जाती थी। उसके आंखों से लुढ़ककर आंसुओ के कुछ बूंदे नीचे टपकने लगती। लिली एकटक उसे ही देख रही थी। और तभी प्रज्ञा के हाथो से फिसलकर उसकी गुड़िया नीचे जा गिरी। और इसके लगभग चंद सेकंड्स बाद ही एक ज़ोरदार छपाक की आवाज़ हुई और प्रज्ञा ख़ुद ही उस कुएं में कूद गई। लिली को लगा जैसे किसी ने उसके शरीर से आत्मा को एक झटके में खींचकर बाहर निकाल दिया हो।
क्रमश :- Deva sonkar