रागिनी भारद्वाज श्रीकांत भारद्वाज और वैशाली भारद्वाज की छोटी बेटी और भारद्वाज परिवार के दो पुश्तों में एक लौती बेटी।
रागिनी का आगमन मतलब लोगो के लिए कोई खुशियों से कम नहीं था।
भारद्वाज खानदान को भी था और भारद्वाज गारमेंट और साड़ीझ के फैक्ट्रिस के कामगारों को भी, सबको रागिनी की जन्मदिन का बोनस जो मिला था।
रागिनी को उम्र की दस साल तक वो सब खुशियां मिली, जिसे सिर्फ सपने में जीकर कर छोड़ दिया करते है।
उसकी सब खुशियां मानो कही खो सी गई जब भारद्वाज गारमेंट्स को करोड़ों का नुकसान उठाना पड़ा।
उन्होंने सब पैंतरे आजमाए लेकिन कुछ नही हुआ। फिर दोनों भाई, प्रतापकुमार भारद्वाज उर्फ प्रताप भारद्वाज बड़े और श्रीकांत छोटे ने मिलकर पंडित नारायण प्रेमप्रताप शास्त्री को बुलाया।
उन्होंने सबकी कुंडलियां देखी जिससे उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला।
"ग्रह-दशा का अनुमान लगाते हुए यह पता चल रहा है की दोष आपकी बेटी रागिनी की कुंडली में है और मंगल भी भारी है। यह संकेत दे रहा है की आगे के समय में अशुभ घटनाएं होने वाली है, अकस्मात मृत्यु की भी संभवना है।
लेकिन यह कुछ ही सालो के लिए है। अगर आज पूरी सावधानिया बरती गई तो आगे जाकर सब सुख-समृद्धि से भरपूर होगा और रही बात रागिनी की शादी की तो मंगल को काटा भी जा सकता है।"
"पंडित जी ग्रह शांति जैसा कोई उपाय नहीं है।"श्रीकांत ने आतंकित होते हुए पूछा।
"फिलहाल ग्रह शांति हो सकती है पर यह सब सिर्फ कुछ वक्त के लिए टलेगा यह उपाय समस्या को खत्म नहीं करेगा।" पंडित जी ने बड़े शांती एवम सलीके से जवाब दिया।
ग्रह शांति करवाई गई।
रागिनी के पूछने पर बताया गया की "यह तुम्हारे जन्मदिन की पूजा है, इसलिए तुम्हारा इस पूजा पाठ पे बैठना जरूरी है, जिससे तुम अपनी जीवन में खुश रहो।" – वैशाली ने बड़े प्यार से समझाया।
"लेकिन जुलाई में?" रागिनी ने जिज्ञासा से पूछा।
"तुम्हे मीठा–मीठा प्रसाद चाहिए?" गौरी, प्रताप की पत्नी ने बात संभाल ली।
रागिनी अपने दोनो हाथो से तालिया बजा, "हा... हा..." का मंत्र जापने लगी।
"फिर यह पंडित जी तुम्हे जो भी बताएंगे वो ठीक से करना फिर यह सारा प्रसाद तुम्हारा।" गौरी ने रागिनी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
रागिनी की आंखे चमक उठी, वो खुश थी। उसने बताए गए सारे काम बिना किसी गलती के किए।
और काम के बदौलत बोहोत सारा प्रसाद भी खाने को मिला जिससे उसका दिमाग और कुछ पूछ भी नही पाया।
ग्रह शांति के तुरंत बाद, बोर्ड मीटिंग बुलवा कुछ नए बदलाव लाए गए।
एक साल तक सब ठीक था। लोगो को ओवरटाइम करवाया गया, नए नियम कानून लागू कर दिए गए लेकिन फिर भी कुछ ज्यादा मुनाफा नही हो रहा था।
कंपनी को अपने आखरे दिन दिखाई दे रहे थे।
इसी बीच प्रताप के पिता श्री रघुवीर भारद्वाज की मृत्यु हो गई, जो श्रीकांत के ताऊजी थे।
रागिनी के छोटे दादा देवेंद्र को इस बात का गहरा सदमा लगा।
रघुवीर और देवेंद्र के माता–पिता छोटी उम्र में ही गुजर चुके थे।
छोटे देवेंद्र की जिम्मेदारी पुरी तरह रघुवीर ने संभाल ली।
रघुवीर ने सिर्फ एक टेलरिंग के काम से, एक छोटेसे टिन के झोपडे से 1500 sq feet के कंपनी का सफर तय किया था, जिसका साथ देवेंद्र ने दिया था।
देवेंद्र ने बिजनेस मैनेजमेंट में स्नातक किया था।
आज अपने साथी से कम पिता से ज्यादा वाले भाई को गवा देवेंद्र का जीवन असहनीय हो चुका था।
आखिरकार पंडित शास्त्री की बात सच होती देख श्रीकांत और प्रताप ने मिलकर एक बोहोत बड़ा फैसला लिया, रागिनी को घर से दूर भेजने का फैसला।
वैशाली इस बात पर बहुत रोई, श्रीकांत को भी यह फैसला कुछ जच नही रहा था पर उसने अपने दिल पर पत्थर रख लिया था।
"रघुवीर काका कोई 20 साल के नौजवान नही थे, 70 साल बुढ़े के थे जिनकी अमरधाम से लौट के आते समय मृत्यु हो गई। दिल का दौरा पड़ा था उन्हें,
कभी न कभी तो मर ही जाते अभी मर गए तो मेरी बेटी का दोष कैसे है हा!"
वैशाली चीख रही थी चिल्ला रही थी, अपना आक्रोश आंसू के जरिए बया कर रही थी।
गौरी के भी आंखो में आंसू भर चुके थे पर तभीभी वो वैैैैशाली को संभालने का काम कर रही थी। श्रीकांत के भी आंसू नही थंब रहे थे।
दूसरी तरफ रागिनी अपने दादा देवेंद्र के साथ,अस्थि विसर्जन करने घाट पर गई थी।
दादा देवेंद्र को रघुवीर के जाने का भले ही दुख हो पर उनको रागिनी से किसी बात की कोई शिकायत नहीं थी।
शायद रागिनी के कुंडली के कांड के बाद वो ही ऐसे इंसान थे जिनके लिए रागिनी अभी भी बच्ची ही थी, मासूम बच्ची।
उस दिन जब दादा–पोती घर आए तो भयंकर बहस छिड़ी।
श्रीकांत तो वैसे खासा चुप था पर प्रताप ने फैक्टरी,घर, और रागिनी के आलावा जो सुपुत्र घर में थे उनका वास्ता देकर बात को मनवाने की कोशिश की।
दादाजी भी एक शर्त पर मान गए, वो दिवाली और रागिनी का जन्मदिन रागिनी के साथ बिताएंगे।
यह बात हजम करना थोड़ा मुश्किल था लेकिन सब का ख्याल आते ही, श्रीकांत और प्रताप मान गए।
आखिरकार रागिनी को भेजने का फैसला हो गया।
रागिनी की मौसी देवकी महेश शर्मा के यहां।
देवकी शर्मा एक 31 वर्षीय विधवा स्त्री।
महेश आर्मी रेजिमेंट में सिपाही था।
कारगिल में चल रहे युद्ध की दौरान पाकिस्तानियों के हाथो मारे गए।
देवकी ने फिर भी कभी दूसरी शादी नही की इसके बावजूद की उसने सिर्फ अपने पति के साथ एक साल 20 दिन ही बिताए थे बस।
रागिनी को तो पहले किसी बोर्डिंग स्कूल में डालने के बारे में ही सोचा गया पर फिर वैशाली के जिद्द करने पर उसे देवकी के यहां दिल्ली भेजा गया।
ताकि वो अपने मां बाप के नजर में ना होने के बावजूद भी महफूज रहे।
ऐसा नहीं है, रागिनी रोई नही वो बोहोत रोई चिल्लाई बिल्कुल फुल कॉन्फिडेंस के साथ पर जब एक मां रोई तब ही सुनने वाला कोई नहीं था तो बेटी की सुनने वाला कौन मिलता?
वाराणसी ने दिल्ली पार कर ली।
ठीक 5 घंटे बाद वैशाली और श्रीकांत देवकी के घर में थे।
वैशाली ने देवकी को सारी सच्चाई बताई।
"इतनी छोटीसी बात पर तुम उसे यहां रख रहे हो?"
देवकी प्रश्न और आश्चर्य दोनो से गुजर रही थी।
"मैं क्या कर सकती हु भला मैंने इन्हें समझने की बेहत कोशिश की पर मेरी सुनता..."
वैशाली एक बार फिर रोने लगी।
यह देख बड़ी बहन देवकी ने उसे सीने से लगा लिया।
"तू चिंता मत कर आज से रागिनी मेरी ज़िम्मेदारी है।
तू बस रोना बंद कर रो–रो के शक्ल देख सुअर के जैसे सामने से लाल हो गई है।"
"दीदी...प्लीज! आप उसे जरूर बताना की उसकी मां उससे कितना प्यार करती है, बस वो मजबूर है, बुजदिल है।"
एक बार फिर यह कह वैशाली सिर नीचे कर रोने लगी।
हाथ साड़ी के पल्लू से कसके बंध घुटने पर टिके थे।
देवकी अपने बहन के सिर पर हाथ फेरते हुए, "तुम रागिनी की चिंता छोड़ दे। रागिनी की मौसी उसका अपने तरीके से बोहोत अच्छा ध्यान रखेगी और उसे यह
बताएंगी की उसकी मां दुनिया में उसे कितना प्यार करती है।"
"अभी हस दो, वरना अगर मैने रोना शुरू कर दिया तो ऊपर से पापा को ही बुलाना पड़ेगा तुम्हे मेरे टेंट्रम बंद करवाने के लिए, क्योंकि मां और तुमसे तो कुछ हो नहीं पाएगा।"
वैशाली देवकी के इस वाक्य पर थोड़ा हल्का महसूस करने लगी।
श्रीकांत तब तक रागिनी के साथ बाहर ही बैठा था।
रागिनी अपनी रिमोट कंट्रोल की कार से खेल रही थी।
B.P.L का बटन वाला T.V., लकड़े का तीन सीटर सोफा, दो छोटी कुर्सियां, एक प्लास्टिक की कुर्सी, जगह जगह निकल आए दीवार के पोपड़े, किचन के नाम पर 10 फिट की छोटी सी जगह, दरवाजे पर प्राइवेसी के नाम पर पुरानी साडियो के लगाए हुए परदे।
ऊपर खड़-खड़ की आवाज करता फैन, एक बेडरूम जो फिलहाल अंदर से बंद था।
और हॉल कहे जाने वाले इस कमरे में एक लोहे का बेड जिसपर एक पतली सी चादर बिछाई हुई थी।
शरीर पर लेने के लिए चादर और जाड़े में ठंडी भगाने के नाम पर हर साल जो देवेंद्र भारद्वाज भिकारियो को मुफ्त में देते है वो ब्लैंकेट।
यह देखकर सिर्फ एक भाव श्रीकांत के चेहरे पर था, वो थी घृणा, द्वेष और कही कुछ भाव जो दिल को किसी के प्रती मलिन करने के लिए काफी थे। गरीबी–अमीरी बस वही उस चीज का नाम था।
श्रीकांत ने देवकी को कुछ पैसे दिए ताकि वो, रागिनी का अच्छे से ख्याल रख सके।
"यह पैसे रागिनी के एज्युकेशन के लिए, बीमारी में खर्चे पानी के लिए हम पैसे भेजेगे। बिल्कुल कोशिश भी मत करना यहाँ के सरकारी स्कूलों में दाखिला दिलवाने की, मेरी तुम पर नजर रहेगी।"
"और एक बात दिवाली और रागिनी के बर्थडे के दिन उसके दादाजी इसीसे मिलने आयेगे उनका खास ख्याल रखना चाहे तो पैसे मांग लेना।"
आखिरकार देवकी सिर्फ हंस दी।
देवकी को यह पिता के चिंता से ज्यादा इगो ज्यादा महसूस हो रहा था। उसने पलट के जवाब दिया-
"नही मुझे हर एक बात के लिए पैसे की जरुरत नही। एटलीस्ट एक छोटी बच्ची पर प्यार लुटाने के लिए तो बिलकुल भी नहीं। क्या पता अगर आगे जाकर जैसे आपके लिए भावी भविष्य में पैसा कमाने का जरिया बनेगी, मेरे लिए अभी बन जाए।"
"देवकी तुम कुछ ज्यादा ही नहीं बोल रही हो!"
"आप हमारे घर के दामाद है। हमारे बाप नहीं जो हमें क्या करे या न करे यह आर्डर दे और अगर आपको इतनी ही तकलीफ हो रही है, आप रागिनी को यहाँ से लेकर जा सकते है।"
"अजी!!" इस बार श्रीकांत के वाक्य को वैशाली ने रोक लिया।
"यहां से चलते है, मुझे पूरा विश्वास है दीदी रागिनी का ख्याल मुझसे भी अच्छा रखेगी।"
आखिरकार श्रीकांत वैशाली की बात मान गया। दोनो ने रागिनी को छोड़ दिया।
रागिनी दिन को कैसे-तैसे दिन काट लेती लेकिन रात में माँ के लिए चिल्लाती रहती।
कितनी बार तो भी देवकी मौसी ने उसे समझाया की, "घर में कुछ बहुत बड़ी प्रोब्लम हो गई है, जिस वजह से दोनो का फिलाल आना मुश्किल है, पर वैशाली मुझे हर रात फोन करती है की, मेरी गुड़िया कैसी है? आज भी किया था, उसने मुझसे वादा किया है,वो जल्दी तुम्हे यहां से लेकर जाएंगे।"
हमेशा देवकी वैशाली–श्रीकांत के ना आने का बहाना बनाती और हमेशा ही रागिनी मान जाती।
धीरे-धीरे साल बिते। दादाजी वादे अनुसार दिवाली में रागिनी से मिलने आए, " मम्मी–पापा नही आए, अभी भी प्रॉब्लेम खत्म नहीं हुई।"
इस बात पर पहली दफा दादाजी ने देवकी की तरफ देखा।
देवकी ने रागिनी के रोने से लेकर, रागिनी के बात-बात पर पूछे जाने वाले सभी सवालों के बारे में बताया तब दादाजी पहली बार इतना हताश और हतबल महसूस कर रहे थे।
काश रघुवीर भैया के दिमाग में कभी बिजनेस की कल्पना आईं ही ना होती, काश रागिनी का जन्म़ भारद्वाज परिवार में हुआ ही ना होता।
दादाजी ने रागिनी को ढेरो गिफ्ट दिए, देवकी को भी कुछ
गिफ्ट दिए पहले तो उसने इन्कार कर दिया लेकिन फिर वो रागिनी के जिद्द के सामने मान गई।
जो भी देवकी परोसती वो दादाजी चुपचाप खा लेते।
देवकी के रूप में उन्हें अपने मां की छबि महसूस होती थी।
मेला घूमना, ढेर सारे फोटो खिंचवाना, ढेर सारे खिलौने खरीदना, रागिनी के दोस्तो को भी उसमे शामिल करना।
हा और एक बाद जो रागिनी के जीवन में बदल चुकी थी वो थे दोस्त, नया मोहल्ला नई यादें नए दोस्त।
दोस्तो को दादाजी बहुत पसंद थे, और उनके मन में उनकी माओ ने जो तस्वीर देवकी की बनाई थी वो भी धीरे–धीरे मिट रही थी। अब देवकी एक दयालु समय से मारी हुई औरत थी नाकी उनकी माओ के अनुसार घमंडी चेटकिन और पता नही क्या-क्या?
लेकिन इन सब में रागिनी हमेशा दिल्ली 6 के द्वार में खड़ी रह उस सफेद फैमिली कार का इंतजार करती जिसे उसने यहां तक लाकर छोड़ा था।
दादाजी से पूछे गए सवालों के जवाब अधूरे थे।
और जो अधूरे जवाब होते है, वो नाही देने वाले को संतुष्ट कर सकते है, नाही पाने वाले को।
एक बार बहुत जिद्द करने पर दिवाली में वैशाली दादाजी के साथ आई थी।
रागिनी बोहोत खुश थी, वो वैशाली से ढेरो सवाल पूछना चाहती थी।
लेकिन कहा से शुरू करे उसे पता ही नही था।
"पापा कहा है?"
"वो काम में बिजी है, बेटा वो जल्दी आ जाएंगे।"
"आप मुझे यहां से कब लेकर जाएंगे?"
"बहुत जल्द मेरी बच्ची, आ!अब मम्मी को एक किस्सी दे दो।"
"हमारे घर में बोहोत टेंशन है क्या मां? वो टेंशन मेरे यहां रहने से कैसे दूर होंगी?"
इस बात पर बस वैशाली फुट–फुट कर रोने लगी।
उसके पास जवाब नही था।
वो क्या बताती पंडित जी की भविष्यवाणी सच होते देख तुम्हारे खुदके पिता ने तुम्हे यहां भेजा है। तुम हमारे घर के लिए अपशगुन हो और तुम्हारे जाते ही धीरे-धीरे परिस्थितियों में सुधार आ रहा है। वो कुछ भी नही बता पा रही थी।
वैशाली को रोता देख सिर्फ "मां रोओ मत, मै आपसे कभी कुछ नहीं पूछूंगी, I promise."
उस दिन चाहे रागिनी खुदका दिन मां के साथ बिताना चाहती थी लेकिन हर एक बात के लिए वो देवकी की इजाजत ले रही थी।
इस बात से वैशाली को पता चल चुका था, वो कितने तो भी मायनो में पराई हो चुकी थी अपनी बेटी से।
उसके अगले साल की बर्थडे में जब सिर्फ दादाजी आए।
तो रागिनी ने पूछा, "मां नही आई?"
दादाजी ने सिर्फ उदास हो ना मैं जवाब दिया।
शायद ही कभी फिर रागिनी ने यह सवाल पूछा हो।
रागिनी का स्कूल इंटरनेशनल ही था, पर दोस्त पूरे गावठी, आदते चाहे नवाबों की सिखाई जाए लेकिन लगती वो है जो देखी जाती है।
एक अरसा होता जब शक्श और शख्सियते दोनो जिंदा होती है।
दूसरा अरसा जब शक्ले धुंधली पड़ जाती है पीछे छोड़ जाती है परछाई।
तिसरा अरसा आते ही परछाई अंधेरा पकड़ लेती है।
चौथे अरसे में अँधेरे से डर लगने लगता है, जो अपनों को ले डूबा।
और एक अरसा बित जाता है। जहा शक्श और शख्सियते न होने से फर्क नहीं पड़ता, जैसे कभी उनका देर तक चलना लिखा ही नहीं था।
फिर भी कभी दिख जाए कोई तो सवाल नहीं आते मन में, जवाब देने की उमीद्द नहीं होती।
दिमाग तो गिनती ही नहीं कर पाता, क्या करे? यह हक़ तो मैंने पहले ही किसीको दे दिया है।
और इसे ही कम्बख्त जमाना मूव–ऑन कहता है।
और शागिर्दे ग़ालिब समय का क़सूर।
रागिनी अब बनारस के बारे में अपने परिवार के बारे में धीरे-धीरे सब भूलती जा रही थी। याद थे, तो वो बस दादाजी। चाहे बढ़ती उम्र के कारण उन्हें सफर करना बोझर लगे तभी भी पोती से मिलना उनके लिए जवान होने का दूसरा मौका था।
और दूसरी महत्वपुर्ण व्यक्ति थी देवकी मौसी जिसके साथ वो अपनी पूरी जिंदगी काट लेना चाहती थी।
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अभी रागिनी की कहानी आगे जारी है।
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