एक रात को कोठरी खोल कर अम्मा फिर बाहर निकल गई। थोड़ी ही देर बाद छत पर से किसी की निगाह पड़ी। पिता ने दौड़ कर पकड़ लिया और एक रस्सी से बांध कर फिर से कोठरी में डाल दिया। अब अम्मा को पेशाब - पाखाने - गुसल के लिए भी कोठरी से बाहर नहीं निकाला जाता था।
मैं अब अम्मा के पास जाने से डरता था। कभी - कभी खिड़की से चुपचाप देखता था जाकर। हरदम अम्मा के मैले कपड़ों में से बदबू आती रहती थी। अम्मा के तन पर मक्खियां भिनभिनाती रहती थीं। मैं देख नहीं पाता, रो भी नहीं पाता था।
थोड़े दिन के बाद मैं ताऊजी के घर भेज दिया गया। अब मैं वहीं रहने लगा। मैंने दाखिला भी वहीं ले लिया था। वहां भी सबको पता चल गया था कि अम्मा पागल हो गई है... जंजीर से बांध कर रखनी पड़ती है... पेशाब- पाखाना कपड़ों में ही कर लेती है आदि- आदि। मुझे सबका ये बातें करना अच्छा नहीं लगता था। कभी यदि मैं कहता कि अम्मा पागल नहीं है, तो सब हंसते थे।
बुआ जब ताऊजी के घर आती तो देर - देर तक ताईजी को अम्मा के किस्से सुनाया करती थी। वह मुझे वहां से हटा देती थी, पर फिर भी मैं अम्मा की बात छिप- छिप कर सुनने की कोशिश करता।
बुआ ने बताया कि जब मेरी अम्मा को बच्चा हुआ तो वो कोठरी से बाहर निकली हुई थी। रात में बाहर देहरी पर ही हो गया बच्चा। न जाने दरवाज़ा किसने खोला, कैसे खोला! अम्मा ड्योढी पर अचेत पड़ी थी और गली के दो- तीन कुत्ते आकर अम्मा के बच्चे को चाट रहे थे। तड़के ही दूध वाले ने देखा।
मेरे रोंगटे खड़े हो गए सुन कर। अच्छा हुआ, जो वह मेरा भाई नहीं था, गंदा ... कुत्ते चाट रहे थे उसे...पर वह मेरी अम्मा का लड़का तो..!
बच्चा होने के थोड़ी देर बाद ही मर गया था। अम्मा सुबह होश में आई। वह बिलकुल कृशकाय हो गई थी। घंटों चिल्लाती रही।
मैं स्कूल जाता था इसलिए ताऊजी बार- बार कहने पर भी मुझे अम्मा के पास नहीं भेज रहे थे। वे मुझे समझाते - जब अम्मा ठीक हो जाएगी तो उसे यहीं बुला लेंगे, तुम फिक्र मत करो।
- कौन करेगा अम्मा को ठीक? मैं पूछता, फ़िर अम्मा के पास जाने के लिए मचलने लगता। मैं खूब जिद करके रोया भी था। मैं अम्मा को एक बार देखना चाहता था कि वह अब कैसी है। परंतु ताऊजी ने प्यार से मुझे चुप करवा दिया।
ताई ने गोद में बैठा कर मुझे दुलराया। बोली - यह तो राजा बेटा है। जिद थोड़े ही करता है। रोज़ स्कूल जाता है। जब बड़ा हो जायेगा तो इसकी चांद सी दुल्हन आयेगी...
- खूब सारा पैसा लेकर... खाली हाथ नहीं आयेगी न? मैं पूछ बैठा था।
ताई ने गोद में मुझे भींच लिया, पर बोली कुछ नहीं। मैं सब भूल गया।
थोड़े दिनों बाद पता चला कि मेरी अम्मा मर गई। तब मैं किसी के रोकने से नहीं माना। उसी दिन ताऊजी को मुझे साथ लेकर घर जाना पड़ा।
घर में सब थे पर अम्मा नहीं थी। अम्मा के पास मैं बहुत दिनों से डर और बदबू के कारण जाता भी नहीं था, पर एक बार ... सिर्फ़ एक बार.. बदबू ही सूंघने को.. सब कुछ फिर से देखने को तड़प गया मैं।
घर धुला- धुला सा था। अम्मा की कोठरी भी साफ़, ठीक- ठाक कर दी गई थी। पर सारे में फैले साफ़- सुथरेपन में कहीं गंदगी- घिनौनापन ढूंढता फिरता रहा मैं।
गली के बाहर कुत्तों को गौर से देखता, जिन्होंने मेरे भाई को चाटा होगा...पर ..
मैंने ताऊजी के साथ लौटने से इंकार कर दिया। फिर वहीं रहने लगा।
... बहुत साल बीत गए। गर्द गुबार में दुबक कर दिन- रात ओझल होते चले गए। सब कुछ फिर से यथावत चलने लगा। मेरी दूसरी मां घर में आ गई। इस नई मां को मेरी दादी पहले की तरह कुछ कहती नहीं थी। शायद ये पहले वाली अम्मा जैसी गरीब भी नहीं थी। बहुत तेज़ भी थी। दादी की हर बात को किसी न किसी जवाब से बांध कर रखती थी।
मुझे इस बात से अनजानी सी खुशी होती थी कि यह मां खाली हाथ नहीं आई थी। इसलिए अब इसके पागल हो जाने या मुझे छोड़ कर चले जाने का सवाल नहीं था। मैं सोचता, अब इसके पेट से मेरा भाई होगा तो मैं यहीं रहूंगा.. उसे गली के कुत्तों को चाटने नहीं दूंगा। यह नई मां प्यार करती थी मुझे।
फिर भी कभी- कभी मुझे अपनी वही, खाली हाथ वाली अम्मा याद आती थी। बस वही अम्मा। फिर रोने को दिल चाहता था। पर मैं रो नहीं पाता था... चुप करवाने वाली अम्मा जो नहीं थी।
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