कभी - कभी जब मेरी बुआ मूड में होती तब मुझसे खेला करती थी। पलंग पर लेट कर घुटनों पर मुझे चढ़ा लेती और झूला झुलाया करती, कहती -
"झू- झू के, पाऊं के
पान पसारी के
खट्टे - खट्टे पप्पू के
मीठे - मीठे...
तभी मैं बोल पड़ता - अम्मा के।
तीन - चार साल का मैं ऐसा बोलकर खुश तो हो जाता लेकिन ये खुशी ज्यादा देर नहीं रह पाती। क्योंकि तभी किसी न किसी काम में जुटी मेरी अम्मा पास से गुजरती तो मैं उसके चेहरे पर अपनी इस खुशी के लिए कोई स्वीकार नहीं देख पाता। वह निर्विकार रहती थी। सपाट आंखों से शंकित सी ऐसे मुझे देखते हुए गुजरती थी मानो बिल्ली की गोद में कोई चूहा खेल रहा हो। खेल कब तक चले, अंजाम क्या हो, यह सब जैसे बिल्ली के मूड पर निर्भर हो। अम्मा की इस भयभीत असहायता में मेरी अपनी विवशता घुल जाती थी।
दिन भर काम में जुटी रहती थी अम्मा।
एक दिन न जाने क्या हुआ, दौरा सा पड़ा अम्मा को। किसी बात पर कहा - सुनी होकर चुकी थी और प्रताड़ना -लांछन के बाद हलकान होती अम्मा का रोजाना का सा कलपना - सुबकना चल रहा था, कि हिचकियां बढ़ने लगीं। आंखें उलटने सी लगीं, मुंह लाल हो गया, हाथ - पैर जैसे थरथराने से लगे।
बहुत देर तक घर में किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी। थोड़ी देर बाद छोटी बुआ ने मेरी दादी के कान में फुसफुसा कर कुछ कहा। पर कोई असर, कोई हलचल किसी कोने से नहीं सुनाई दी। दादी का रूखा सा जुमला - "त्रिया - चरित्र का कोई एक ढंग थोड़े ही है, अब ये हाथ - पांव फेंकने का नया टोटका हाथ लगा है" आंगन में बिछ गया।
मैं अम्मा के पास बैठा था। चुपचाप उसे देखता रहा। थोड़ी देर बाद जब अम्मा ने आंचल से मेरा मुंह साफ़ किया तो मुझे भरोसा हो गया कि अम्मा को जो भी दौरा या बीमारी का आवेग था वह अब समाप्त हो गया है। वह उठ कर रसोई में चली गई। सब की शाम की चाय का वक्त हो रहा था।
उस दिन से मैंने अम्मा में एक बदलाव देखा। वह शाम को रोज ठाकुर जी के सामने दिया, अगरबत्ती जलाने के बाद अब थोड़ी देर वहां चुपचाप खड़ी भी रहने लगी थी। कभी - कभी यदि वहां आसपास कोई न होता तो एकाध भजन भी गुनगुना लेती थी।
एक दिन मुझे बहुत अच्छा लगा। शाम के समय घर में कोई नहीं था... दादी भी नहीं। अब अम्मा ने सांझ की पूजा- बेला में मुझे भी अपने साथ खड़ा कर लिया। दीपक की लौ दिप - दिप करके जल रही थी। मैं अम्मा के साथ हाथ जोड़े खड़ा हुआ अगरबत्ती के धुएं से उठते छल्लों को चुपचाप देख रहा था। अम्मा अपनी हल्की पानीदार आवाज़ में गुनगुना रही थी -
"तेरी धरती मुकम्मल नहीं
अंबर पे जगह दे मुझे
मैं जीना नहीं चाहती
दुनिया से उठा ले मुझे..."
मैं बार - बार सिर उठा कर अम्मा की ओर देख लेता था। तब अम्मा मेरे बालों में हाथ फेरती और फिर मुझे अपने से सटा लेती। मैं उसके आंचल में दुबक जाता। वह यथावत प्रणाम की मुद्रा में खड़ी हो जाती और उसकी स्वर - लहरी किसी अरण्य- निर्झर सी बह उठती-
"दुनिया है तेरी रहने के काबिल
उनके, कि जो तुझको भूल सकें
तेरे शिवालय को पत्थर बता कर
खुद को जो भगवान कहें!
मुझसे ये नहीं होगा..
जो चाहे सज़ा दे मुझे!"
उस रात को सब काम से निबटने के बाद अम्मा जब सोने के लिए बिस्तर पर आई तो मैंने उससे पूछा - मां, तू जीना क्यों नहीं चाहती?
वह चुप रही। उसकी देह गरम थी। मैंने उसका पेट छूकर देखा - ताप था।
उसका माथा भी भट्टी की तरह तप रहा था। अम्मा की आवाज़ को न जाने क्या हो गया था? कुछ बोलने को होती फिर चुप हो जाती। कभी रोने लगती फिर चुप हो जाती।
दूसरे दिन दोपहर में फिर पहले दिन जैसा ही दौरा अम्मा को पड़ा। वह कराहती रही, थोड़ी ही देर बाद अचेत हो गई। मैं दौड़ कर बुआ को बुला लाया। बुआ ने देखा तो दादी को बुलाने गई।
तभी अम्मा को होश आ गया। उसने दादी को आते देखा तो धोती का पल्ला सिर पर ले बिस्तर से उठने की कोशिश करने लगी। लेकिन वह उठ नहीं पाई, फ़िर से पसर गई। दादी थोड़ी देर कमरे में रुकी, फिर चली गई।
उसके बाद अक्सर ऐसा होने लगा। अम्मा को दौरे जब- तब पड़ने लगे। कभी घबरा कर कमरा बंद कर लेती तो कभी तानों - कोसनों से बचने को छत पर या गुसलघर में जाकर बंद हो जाती। एक- दो बार अचेत भी हो गई। बातें तो इस बारे में होने लगी थीं लेकिन दवा - दारू की बात कभी अम्मा के लिए किसी ने नहीं सोची।
एक दिन दादी ने भी मुझे बताया कि अम्मा पागल है।
मैंने बुआ से भी पूछा तो वह भी यही बोली कि हां, वह पागल ही हो गई है।
अब जब भी पिता के हाथों मारपीट होती तो अम्मा को मक्कार, निर्लज्ज वगैरह के साथ पागल भी कहा जाता था।
मेरी समझ में ये नहीं आता था कि पागल कैसे होते हैं? अम्मा तो पहले की तरह ही मुझसे कभी- कभी चुपचाप पूछा करती - खाना खा लिया? मेरे कपड़े मैले होते तो कमरे में ले जाकर बदल देती। मुझे गोद में बैठा कर प्यार भी करती। हां, अब गुमसुम ज़्यादा रहती थी वह।
पिताजी से पूछने का तो साहस नहीं होता था, क्योंकि उनसे डरता था मैं, पर अम्मा से एक दिन पूछ ही लिया मैंने - अम्मा, तू पागल हो गई है क्या?
अम्मा ने मेरे गाल पर कस के एक चपत जमा दी। मैं रोने लगा। दूसरे ही पल मेरे गिर्द अपना पल्लू लपेट कर मुझे छाती से भींच रही थी अम्मा। पर इससे मेरा रोना कम नहीं हुआ। आवाज़ सुन कर दूसरे कमरे से मेरी बुआ धड़धड़ाती हुई आई और अम्मा की गोद से मुझे छीन कर ले गई। मैं भी चुप होकर बुआ के साथ चला गया। हालांकि मुझे पता था कि दूसरे कमरे में ले जाकर एक ओर को पटक दिया जाऊंगा मैं। पर अम्मा की गोद से मुझे छीनते हुए बुआ के चेहरे पर ठीक वैसा ही भाव था जैसे कोई सती - साध्वी पापी बाज से किसी घायल परिंदे को बचाने चली आई हो।
अम्मा अब दो - दो दिन खाना नहीं खाती थी। कमरा बंद करके बैठी रहती। कोई खाने के लिए उससे कहता भी नहीं था। न जाने क्या हो गया था उसे?
( .... क्रमशः)