वैसे नाम तो मेरा पप्पू है पर अब पप्पू कम लोग कहते हैं मुझे, क्योंकि मैं बड़ा हो गया हूं और इतने बड़े लड़के को पप्पू कहना शायद लोगों को अजीब सा लगता हो, इसलिए पिछले कुछ सालों से लोग मुझे मेरा वास्तविक नाम यानी कि "प्रणय" कह कर ही पुकारने लगे हैं।
वैसे आपके लिए यही बेहतर होगा कि मुझे प्रणय न कह कर पप्पू ही पुकारें। इसके दो कारण हैं। पहला तो यह कि मैं जिस समय की बात आपको बताने जा रहा हूं तब मैं इतना छोटा सा था कि अगर इतने छोटे लड़के का नाम भीम भी हो तो उसे प्यार से, इत्मीनान से पप्पू कहा जा सकता है। दूसरी बात, प्रणय न कहलवाने के पीछे एक मकसद यह भी है कि मेरी जिंदगी ने जिस बात का मज़ाक सबसे ज़्यादा उड़ाया वह मेरा नाम ही है। तात्पर्य यह कि प्रणय मेरा नाम ही रहा बस। न तो किसी का प्रणय मेरे पैदा होने की वजह रहा और न ही मैंने अपने शैशव में अपने मां - बाप का प्रणय कभी देखा या जाना।
मैं जानता हूं आपके दिमाग़ में खटका हुआ है। इतना छोटा बच्चा प्रणय और दाम्पत्य की बातें भला कैसे कर सकता है, कैसे समझ सकता है? यही सोच रहे हैं न आप?
देखिए, आपकी इस शंका का मेरे पास कोई समाधान नहीं है। आप चाहें तो उस अभिमन्यु को स्मरण करके मेरी कहानी सुन लें, जिसने चक्रव्यूह का खण्डन करना गर्भ में ही सीख लिया था। हां, यदि आपको बीसवीं शताब्दी में पैदा होने का दर्प है और आप महाभारत के ज़माने की बातों को निहायत बेहूदा और दकियानूसी मानते हों तो बेशक छोड़ दीजिए, मत पढ़िए। मुझे ऐसे लोगों को अपनी कहानी सुनाने का शौक़ भी नहीं है जो अपने समकालीन वक्त को ही प्रगतिशीलता मान कर फख्र से जीने का ढोंग करते हैं। ऐसे लोग क्या दे सकेंगे मुझे? क्या ले सकेंगे मेरी कहानी से? ऐसे लोगों से मेरा कोई वास्ता नहीं!
नहीं, एक मिनट ठहरिए।
दुर्भाग्य से दुनिया में पैदा होते ही मेरा साबका ऐसे ही लोगों से पड़ा। वह पहला पुरुष जो मुझे दुनिया में ले आने का कसूरवार है, बोलचाल की भाषा में कहूं तो मेरा बाप, एक ऐसा ही आदमी था। वह बीसवीं सदी में पैदा होने को ही प्रगतिशीलता मानता था शायद। स्कूल कॉलेज में काले अक्षर बांच कर डिग्री ले लेने को ही आभिजात्य समझता था। चार टके कमाकर इस बालिश्त भर ज़िंदगी को कामयाब मानने में ही वह विश्वास रखता था।
पर पता नहीं उसकी यह प्रगतिशीलता, वह पढ़ा- लिखापन, वह आभिजात्य तब कहां चला गया जब वह सेहरा बांधकर शाहनाइयों के बीच मेरी अम्मा की देहरी पर खड़ा हुआ था। उसकी आंखें लाल वसन में लिपटी दुल्हन बनी मेरी अम्मा के पांव पर लगे ताज़ा महावर पर थीं पर कान उस खुसर- फुसर की ओर लगे थे जो शामियाने के पिछवाड़े अंधेरे में से उठ रही थी।
देखिए, बात मेरी अम्मा के ब्याह की है तो जाहिर है कि मैं कहीं नहीं था, और इसीलिए मेरे पास अपने कहे का कोई वैध सबूत नहीं है। लेकिन मैं आरंभ में ही स्पष्ट कर चुका हूं कि आप इन छोटी - मोटी बातों पर मत जाइएगा वरना खाली हाथ लौटेंगे मेरी चौपाल से। जो कहूं, सुनते- गुनते- मानते रहेंगे तो कुछ मकसद हल हो सके, आपका भी और मेरा भी।
हां, तो वह फुसफुसाहट जो शामियाने के पिछवाड़े उगी थी मेरे दादा और नाना की थी जो थोड़ी ही देर में बरसाती बेल सी मंडप के तले दमकते थिरकते हुजूम पर छा गई।
कहते हैं देखते - देखते मुर्दनी सी छा गई। हौसले मर गए लोगों के। उमंगें ताबूत बंद होकर मरघट जाते शव के सदृश मुरझा गईं। कारण यह था कि मेरी अम्मा के साथ सहेजा जुटाया गया असबाब बहुत कम था जिस पर मेरे बाप यानी कि अब्बाजान के पूरे कुनबे को आपत्ति थी। मैं जो रहा होता तो पूछता अपने बाप और दादा से कि क्या मेरी अम्मा इतनी सस्ती थी कि उसे डोली में बैठा ले जाने के लिए हरजाने के तौर पर मालमता चाहिए था।
क्या कीमत लगी उस दिन मेरे पिताश्री की ये तो उन्हें भी ठीक से नहीं पता लग पाया जो बाराती बन कर उनके साथ गए थे। फिरभी इतना तय है कि जब अम्मा की डोली ससुराल में आकर उतरी तो उससे कोई खुश नहीं था। मेरे नाना ने मां के ब्याह की तैयारी बरसों पहले से की थी, और कहते हैं कि बाद में बरसों तक ही वह ब्याह का कर्जा चुकाते भी रहे, पर बेचारे समधियों को खुश नहीं भेज पाए अपने दरवाज़े से। बड़ी बेदम सी दुआएं साथ लेकर गई मेरी अम्मा बाबुल से।
तरस मुझे अपने पिता पर भी आता है जो सात वचन भर कर अर्धांगिनी बना तो लाया मेरी अम्मा को,पर उसका वो आधा अंग रोज- रोज ही सताया जाने लगा घर में। जब अम्मा का दहेज का सामान खुला, कपड़ों का बक्सा उल्टा- पलटा गया, रुपया गहना आंका गया तो एक ही राय बनीं - खाली हाथ चली आई।
फिर तो चारों पहर जैसे घर में कोई मां को कोंचने- सताने का हवन ही शुरू हो गया। जिसमें गाहे - बगाहे सभी आहूति देते रहते। दादी, मेरी तीनों बुआ, चाचा, ताई और कभी कभी ख़ुद पिता, बारी- बारी से हवन सामग्री डालते रहते उस यज्ञ में।
एक कहावत है, हर मां की ये साध होती है कि जब उसका लाल जवान हो जाए तो वो उसके लिए चांद सी दुल्हन लाए। पर मेरी समझ में ये नहीं आता कि चांद जैसी दुल्हनिया को बिसरा कर लोग वक्त आने पर सितारों की गिनती के फेर में क्यों पड़ जाते हैं? पिता ने कभी सीधे मुंह बात नहीं की अम्मा से।
चांद सी ही तो थी अम्मा मेरी। आसमान से ज़मीन पर झांकता चांद। इसीलिए झुकी पलकें। हमेशा नीचे ही रही मेरी अम्मा की पलकें। उन्होंने उठना सीखा- जाना ही नहीं कभी। धीरे- धीरे अपने परायों की पहचान खोजती- तलाशती मेरी अम्मा उस घर में पुरानी होने लगी।
तभी आया मैं।
बड़ी बुआ ने शायद अम्मा और पिताजी के जले पर नमक छिड़कने के इरादे से मेरा नाम रख दिया प्रणय। अम्मा और पिताजी देह से मिल कर लाए थे मुझे.. मन से नहीं। उन्हें क्या चाव मेरा नाम रखने का? जो पड़ गया, सो ठीक।
पिताजी ने ब्याह की वेदी पर लिए वचन एक दिन भी नहीं निभाए। अम्मा को सुख - दुख का साथी बनाना तो दूर, उस पर हाथ भी छोड़ बैठते थे जब तब। जब पहली ही बार मेरी अम्मा ने मार खाई और मूक साक्षी बने घर के सब लोग, तभी वह समझ गई कि खाली हाथ चले आने का यह दंश ज़िंदगी भर ढोना- सहना है। और अपनी नियति खामोशी से गांठ में बांध बैठी अम्मा।
रात के अंधेरे में मां मुंह छिपा कर रोती। पर जब हंसने का ही सहारा वहां कोई नहीं था तो रोने पर हाल पूछने भला कोई क्यों आता? घंटों रोती, चुप हो जाती। अपने पिछले जन्मों को कोसती, कभी मां - बाप को भी कोस बैठती जिन्होंने जन्म दिया। कोसती उस सीख को जो देहरी लांघते समय अपने नैहर से मिली। कोसती उस विवशता को जो पढ़ी - लिखी न होने का अहसास जब तब करवाती रहती।
मंझली बुआ की सगाई तय हुई थी। तैयारी चल रही थी। दादी पुराने संदूक से एक जोड़ा कंगन पल्लू से पौंछती दादा को दिखाने के लिए उनके पास लाई- इन्हें ही चढ़ा दें?
ये अम्मा के वही कंगन थे जिन्हें पीतल के नकली या घटिया बता- बता कर अम्मा के नवेली दुल्हन वाले दिनों में ताने कोसने दिए गए थे। चुप नहीं रह पाई अम्मा। बुआ के सामने जबान खोल कर धीरे से कहा - दीदी, हंसाई न होगी तुम्हारी, ये नकली गहना चढ़ेगा तो?
बिफर पड़ी बुआ। जैसे बारूद को जलती दियासलाई दिखा दे कोई। धधक उठी दादी। जैसे आसमान से आग उगले सूरज। वैसे व्यंग्य बाण तिरने लगे अम्मा के गिर्द। जैसे खड़ी फसल पर घुमड़ते बादलों को कोसे किसान, वैसे ही जन- जन के हाथों कोसी गई अम्मा। दादी ने कसर नहीं छोड़ी, बोली - कमीनी, बदजात, अब यही तो बाकी रहा है कि बूढ़े सास - ससुर से जबान लड़ा। हमारे घर को एक यही रह गई थी जबान की धनी, जेब की कंगाल। कैसे- कैसे घरों के रिश्ते आ रहे थे पर करम तो इस कलमुंही के हाथों फूटने थे।
पिता को पुरुषार्थ दिखाने का एक और मौका हाथ लगा था। अम्मा की कलाई पकड़ कर कमरे से घसीटा, छड़ी उठाई और ऐसी चमकाई अपनी मर्दानगी, जैसे कोई कपड़े से रगड़ कर पुराने सामान को चमकाए। अधमरी सी हो गई अम्मा।
मैं दहाड़ मार कर रोया। बुआ उठा ले गईं। लेकिन ये बुआ का वात्सल्य नहीं था जिससे मैं उठाया गया था गोद में। बल्कि उनकी अपने भैया को सहूलियत देने की कोशिश में हटाया गया था मैं। मैं दूसरे कमरे में लेजाकर पटक दिया गया। बिलखता रहा, चीखता रहा। बुआ फुंफकारती सी बाहर निकल आईं।
बित्ते भर की दीवार बीच में थी। उधर कलपती मेरी अम्मा, इधर चीखता मैं, घर भर में फैले थे हमारे अपने!
( ...क्रमशः)