उठो लेखक!
तुम्हें बांधने हैं-
एक ‘साहेब’ के लाल टाई से
एक फौजी की बेवा के वो जूते
जो फट चूके हैं,
कार्यालयों के चक्कर काटते-काटते।
लेखक!
इस चकाचौंध के बीच -
कुछ लोग हैं,
जो अपने सपनों के मर जाने से,
लगभग मर ही गयें हैं।
उठो! तुम्हें उन चलती फिरती लाशों में
फिर से दम भरना है।
उठो! तुम्हें लिखना है –
उन बिन चप्पलों के घिसते पावों के लिए,
जो ठान रखे हैं-
पूरा करना ही है सफर।
उठो! लिखो कुछ ऐसा –
कि शब्द तेरे मरहम बन जाएं
और भर दें, सफर की घावों को,
खुशियों से, एक साथी की तरह।
उठो लेखक!
देखो उस अमीरजादे को
जो नाश्ते के नाम पर,
फलों से भरी थाली ले,
गद्देदार सोफे पर,
सुबह – सुबह ही बैठ गया है।
वो, कल कुछ मजदूरों को खाते देख,
बुदबुदा रहा था –
“कितना सारा चावल, खा जाते हैं ये लोग”
लेखक! उठो तुम्हें लिखना है कुछ ऐसा
कि ऐसे लोगों की जुबानें सिल जाएं।
लेखक! अब जरा उसे देखो –
जो बैठा है सरकारी कुर्सी पर;
और एक-एक कर,
अपनी उंगलियों पर,
गिना रहा सरकार की हीं नाकामियां,
उसने इसी साल,
सालगिरह पर,
खरीदी है,
पत्नी के नाम पर,
‘रोड के किनारे की जमीन’
जिसकी लम्बाई,
उसकी हैसियत से कहीं बड़ी है।
उठो लेखक! कुछ लिखो ऐसा,
नीम के पत्तों जैसा,
कि देश को खोखला कर रहे,
ऐसे दीमक, मर सकें।
लेखक! वो जो वाह वाही लूट रहा,
कि कैसे बस उसके इशारे भर से,
वो भारी भरकम हाथी,
दो पैरो पर खड़ा हो- सलाम करता है
लेखक! ट्रेनिंग के नाम पर,
उस बेजुबान की,
उस आदमी ने,
महीनों पिटाई की है।
उठो लेखक! तुम्हें बेजुबानों को भी,
जुबान देने हैं।
लेखक! और उसे देखो-
जो दुसरों की बहू-बेटियों की
चाल-चलन का हिसाब करता फिर रहा है।
और उगलता है जहर,
देख छोटे कपड़े ।
लेखक! ये वही है जो अकेली नाबालिग को देख -
जाँघ ठोकता है।
उठो! अपनी डायरी निकालो।
तुम्हें उस हवसी के चाल चलन के हिसाब करने हैं ।
उठो लेखक! देखो उसे
जो माइक पकड़े, हर दो दिन पर
कर रहा ऐलान, चिल्ला-चिल्ला कर
"लो मैं करोड़ो रूपये दान करता हूँ "
यह वही है जो -
आखिरी तारीख को,
अपने नौकरों से किच-किच करता है।
लेखक! उठो! तुम्हें लिखना है
इस नामी कर्ण की निचाई की कहानी।
और वो जो बॉर्डर पर हमारे फ़ौजी खड़े हैं
अगर मैं उठाऊ उनकी देशभक्ति पर सवाल
ईश्वर! मुझे मौत आये
पर वे लगभग सारे के सारे गरीबों के ही बच्चें क्यों ?
मैं जलते पेट की हर लड़ाई से वाकिफ़ हूँ
लेखक!
कराहें सुन कर भी,
अनसुना कर देने में,
लगता है समन्दर भर का साहस।
पर वो –
जो बैठे हैं सिर पर ताज लिए,
रोज ही ऐसा कैसे कर लेते हैं?
लेखक! उठो! कुछ ऐसा लिखो,
कि हम फिर से, हौसला कर सकें
जो गलत हैं, उनको गलत कह सकें।
उठो लेखक!
कुछ जहरीले ज़ुबान वाले,
मसीहे बन बैठ गयें हैं,
धर्म की कुर्सियों पर,
और न सिर्फ, बोल रहें, अधर्म की भाषा,
बल्कि, बदनाम कर रहें,
उन किताबों को भी,
जो मूल सत्य हैं।
लेखक! लिखो कुछ ऐसा
कि धर्म के ऐसे ठेकेदारों के,
नकाबें गिरा सको।
लेखक! उठो कि कुछ नासमझ कह रहे -
"मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है",
उठो कि फिर एक धर्मांध ने,
उनके पुतले पर गोलियां दागी है।
उठो कि गांधी फिर,
अपनों के हीं निशानें पर हैं।
उठो लेखक! ऐसे लोगों पर, कुछ तरस खाओ,
जो अपने अमर पिता तक को,
पहचान न पा रहें।
लेखक!
ये तेरा यूं -
नित नई माशुकाओं के बालों में
तारें सजाना,
ठीक नहीं है ।
एक लेखक हो तुम,
तेरे ऊपर, जिमेदारियों का पहाड़ है।
पीढ़ियों पीढ़ियों को जवाब देना है।
लेखक!
ये जो अपनी कलम में,
स्याही भर रहे हो – बारूद भरो
कि शब्दों से ही उड़ा सको,
उन आसमान छेदते किलों को,
जो बनाई गयी हैं,
गरीबों की रोटियां बेच कर।
लेखक! और ये बात बात पर,
अपनी गर्दन झुका,
‘जी हुज़ूर’ कहना बंद करो
और बंद करो राजसी चौखटों पर
जीभ रगड़ना,
फिर चाहे सिर बचे या न बचे।
लेखक!
जिन्हें इस तंत्र के नौकर होने थें
- वो ‘ मालिक ‘ हुवें,
और अब भगवान होते जा रहें हैं,
उठो! यही वक्त है
कमरे की चारदीवारी तक ही,
सीमित रहना बंद करो।
उठो!
देखो बाहर,
कैसा घना अंधेरा छाया है,
उठो लेखक!
जीवन-संग्राम के बीच में आओ।
शब्द बाण दागो,
और क्रांति का आह्वान करो।
प्रभात कुमार