डॉ.श्रीनारायण तिवारी जी की शोध परक दृष्टि
रामगोपाल भावुक
डॉ.श्रीनारायण तिवारी जी की अधिकांश प्रकाशित कृतियाँ मेरे सामने हैं। श्रीनारायण तिवारी जी ने जिन- जिन विषयों पर कलम चलाई है उनमें अधिकाश विषय शोध परक ही रहे हैं।
प्रो0बजरंग विहारी तिवारी के सहयोग से डॉ0महाराजदीन पाण्डेय के नेत्त्व में मातेश्वरी रत्नावली की खोज में रगड़गंज के निवासी रामकिशोर त्रिपाठी के साथ मोटर साईकल से जब मैं त्रिमुहानी वाले तीर्थ के दर्शन करते हुए पसका पहुँचा तो नरहरिदास के आश्रम में वर्तमान के महन्त तुलसीदास से मिलने का अवसर मिला। उन्होंने मुझे मानस की उस प्रति के दर्शन कराये जो जीर्णशीर्ण हालत में उनके पास सुरक्षित है। वहीं गोस्वामी तुलसीदास के द्वारा लगाया हुआ बरगद का पुराना वृक्ष भी देखने को मिला। इसके कुछ कदम की दूरी पर भगवान बराह का मन्दिर भी यहीं स्थित है।
उसी दिन डॉ0 महाराजदीन पाण्डेय के निर्देशन में डॉ0 श्रीनारायण तिवारी के द्वारा की गई शोध ‘गोण्डा जनपद की विद्वत्परम्परा एक सर्वोक्षणात्मक अनुशीलन’ पर भी गहरी द्रष्टि डालने का अवसर मिला। गोण्डा जनपद की विद्वत्परम्परा का लम्बा इतिहास है किन्तु वर्तमान में संस्कृत के विद्वानों में स्वामी नारायण अर्थात् घनश्याम दास छेविया, राजेश्वर दत्त मिश्र शास्त्री, डॉ. महाराजदीन पाण्डेय,डॉ.कृपाराम त्रिपाठी पं.रामतेज पाण्डेय तथा योगेश ब्रह्मचारी जैसे सैकड़ों संस्कृत के विद्वान गोण्डा की इस धरती पर संस्कृत साहित्य का सृजन कर रहे हैं।
हिन्दी साहित्य को सरसब्ज बनाने वाले साहित्यकारों में, डॉ.सूर्यपाल सिंह, डॉ.बजरंग बिहारी तिवारी, डॉ. भगवती सिंह, रामनाथसिंह अदम गोण्डवी,सतीश आर्य जैसे अनेक नाम हैं। जो आज हिन्दी को सरसब्ज करने में लगे हैं।
यहाँ उर्दू भाषा के साहित्यकारों ने भी अपनी पहचान बनाई है। प्रमुख रूप से उनमें असगर गोण्डवी, जिगर मुरादावादी, अली असगर जाफरी तथा बेकल उत्साही के साथ अनेकों साहित्यकार उर्दू जुवान की खिदमत कर रहे हैं।
गोण्डा जनपद की विद्वत्परम्परा एक सर्वोक्षणात्मक अनुशीलन’ में स्वीकार किया है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,डॉ श्यामसुन्दर दास, जैसे अनेक विद्वानों ने विभिन्न तर्कों द्वारा एटा और सोरों क्षेत्र की तुलसी के जन्म स्थान वाली परम्परा का खण्डन करते हुए असली सूकर खेत गोण्डा जिले में त्रिमुहानी वाला ही कहा है। जहाँ भगवान वारह का प्रसि़द्ध मन्दिर है।
वहीं नरहरिदास के आश्रम में टोडरमल से प्राप्त गोस्वामी जी की रामचरित मानस के सातों काण्ड आज भी देखे जा सकते हैं।
रागेय राघव जी ने गोस्वामी तुलसी दास’ को अपनी कृति में सरयूपारीय ब्राह्मण स्वीकार किया है। यानि वे सरयू नदी के पार रहने वाले सरयूपारीय ब्राह्मण थे। इससे भी वे सरयू नदी के किनारे बसने वाले सिद्ध हो जाते हैं।
गोण्डा जनपद में सरयू नदी के किनारे पर एक राजापुर नाम का प्रसिद्ध गाँव है। उस गाँव से सरयू नदी के पार पाँच किलोमीटर की दूरी पर कचनापुर गाँव स्थित है। इसमें ही पठकन पुरवा नामक मोहल्ला है। कहते हैं-पण्डित दीनबन्धु पाठक उसी गाँव के रहने वाले थे। वहाँ आज भी इन्हीं के गौत्र के कुछ पाठक परिवार रहते हैं।
इस तरह डॉ0 श्रीनारायण तिवारी ने अपनी शोध में गोण्डा जनपद के राजापुर को ही इन प्रमाणों के आधार पर गोस्वामी तुलसी दास की जन्म स्थली स्वीकार कर लिया है।
डॉ0 श्रीनारायण तिवारी के अनुसार गोण्डा स्थित राजापुर अयोध्या के सबसे अधिक निकट है। यह पूर्णरूप से अवधी भाषी क्षेत्र है।यहाँ से बांदा स्थित राजापुर 350 किलोमीटर की दूरी पर एवं सोरों की यहाँ से दूरी 300 किलोमीटर है। तुलसी के जन्म के सात-आठ वर्ष की उम्र तक इतनी दूर के प्रवास का कहीं कोई अवधी भाषा का समन्वय नहीं बैठता।
गोस्वामी तुलसी दास की जन्मभूमि गोण्डा स्थित राजापुर ही है। इसका सबसे प्रबल प्रमाण तो यह है कि गोस्वामी जी ने अपने सम्पूर्ण साहित्य की रचना गोण्डा जनपद की क्षेत्रीय भाषा अवधी में की है। अवधी गोण्डा जनपद की आँचलिक भाषा है। प्रत्येक आँचलिक अथवा क्षेत्रिय भाषा में बोलने और लिखने का ढंग अलग-अलग होता है। आँचलिक भाषाओं का टकसाली प्रयोग वे ही लोग कर पाते हैं जिनका बाल्यकाल सतत् आँचलिक क्षेत्रों में बीतता है। हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी जैसी भाषाओं की बात और है। ये अंचलोत्तर भाषायें हैं। इनका प्रयोग सभी अँचलों के लोग करते हैं।
गोस्वामी जी का सारा साहित्य खाँटी अवधी में है। अकेले यही तथ्य इस बात की घोषणा करता है कि गोस्वामी जी का बचपन अवधी क्षेत्र में बीता होगा।
डॉ0 श्रीनारायण तिवारी की शोध ‘गोण्डा जनपद की विद्वत्परम्परा एक सर्वोक्षणात्मक अनुशीलन’में यह भी स्वाकार किया है कि तुलसी की कर्म स्थली चित्रकूट के निकट राजापुर है।
आपका केवल गोण्डा जनपद की विद्वतपरम्परा- एक सर्वेक्षण अनुशीलन ही अकेला शोध पूर्ण ग्रंथ नहीं है बल्कि गोनर्दीय पतंजलि में योग शास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि के जीवन को गोण्डा की धरती से समन्वय ने इस कृति को पढ़ने में रुचि पैदा कर दी। वे इस कृति में स्वीकारते है कि पतंजलि के काल के बारे में विवाद नहीं रह गया है। आपने पतंजलि के जीवन पर एतिहासिक परिपेक्ष में भी गहरी दृष्टि डाली है। आपने पतंजलि को पुष्यमित्र शुंग के काल से जोडकर प्रमाणिक तथ्यों को पाठकों के समक्ष रखने का प्रयास किया हैं।
पतंजलि का निवास स्थान- कुछ लोग इनका निवास स्थान दक्षिणात्य कहा है। लधु शब्देन्दु शेखर के कथित इतिहास पर विश्वास कर लिया जाये तो वे पतंजलि का गोनर्दीय मानते हैं। ऐसे अनेक प्रमाणों के आधार पर श्री नारायण तिवारी जी ने इन्हें गोनर्दीय ही माना है। इस शोध कृति के लिये भी तिवारी जी बधाई के पात्र हैं।
संस्कृत वाङ्मय का खोज पूर्ण इतिहास में सहज सुलभ सामग्री के आधार अपनी संस्कृति को समृद्ध करने का प्रयास किया है। श्रावस्ती और अयोध्या, इन दो संस्कृति केन्द्रों के बीच का यह भू भाग होने से कभी सांस्कृतिक दृष्टि से शून्य नहीं रहा। इस कृति में भी गोण्डा की विद्वतपरम्परा भी जुडी रही है। इस ग्रंथ के अन्तिम भाग में अवधी जनपद के हिन्दी उर्दू रचनाकारों पर भी प्रकाश डाला है।
आपने तो गोण्डा जनपद का इतिहास और विद्वत्परम्परा हो,जनपद गोण्डा और तुलसीदास कृति हो, साथ ही आपका अवधी भाषा एवं साहित्य का इतिहास लेखन हो में अवधी भाषा और उसके इतिहास पर गहरी दृष्टि डाली है। आपने संस्कृत वाङ्मय का खोज पूर्ण इतिहास भी प्रस्तुत किया है।
अवधी भाषा और उसके इतिहास पर भी डॉ0 श्रीनारायण तिवारी ने गहरी दृष्टि उाली हैं। अवधी का विकास अर्द्ध माधवी से हुआ है। इसका केन्द्र स्थान कोसल रहा है। इसमें स्वरों की मात्रा कम है। इसमें ध्वनिगत ई तथा उ अघोश रूप में मिलते हैं। ण के स्थान पर न हो जाता है। इस प्रकार इस कृति में श्री नारायण तिवारी जी ने अवधी भाषा की बनावट पर गहरी पड़ताल की है।
इस कृति को दो खण्डों में विभक्त कर पुस्तक की पठन साम्रगी को ‘अवधी भाषा और व्याकरण तथा अवधी साहित्य का विकास का वर्णन’ प्रमाणिक तथ्यों के साथ किया गया है।
अवधी भाषा के अध्येताओं के लिये यह एक महत्वपूर्ण कृति है। कोई अवधी भाषा पर शोध करना चाहे तो इस कृति के विना यह कार्य सहज नहीं हो सकेगा।
स्पन्दन, अवध अर्चना,संग्रह टाइप्स,ब्रहमण एवं अन्य पत्र पत्रिकाओं में आपके शोध आलेख प्रकाशित होते रहें हैं। इनमें वर्तमान में पाँच- छह बर्षों के मध्य लिखे गये शोध आलेखों का संग्रह ‘शोध मंजरी’ में प्रकाशित किया गया है। इसमें गीता का निष्काम कर्म,ऐतिहासिक दृष्टि से स्त्री विषयक अवधारणायें,कालिदास की सीता और शकुन्तला का पर्यावरण में योगदान, अवध और अवधी लोक संस्कृति तथा भारत और इस्लाम जैसे इक्कीस विषयों पर सरल भाषा में पठनीय शोध आलेख समाहित किये गये हैं।
इस समय डॉ0 श्रीनारायण तिवारी जी की अवधी लोकगीत कृति मेरे सामने है। किसी भी क्षेत्र के लोकगीतों को पढ़ने में मेरा मन रमता है। लोकगीतों में वहाँ की बोली तो रहती ही है साथ ही उनमें वहाँ की संस्कृति मुखर होकर पाठक से बोलने बतियाने लगती हैं। यहाँ मैं इसी कृति का अवलोकन करने बैठा हूँ। इस कृति में एक सौ सत्तर लोक गीत संग्रह किये गये हैं। जब भी समय मिलता है, दैनिक जीवन की थकान मिटाने के लिये इसके लोक गीतों को गुनगुनाने लगता हूँ।
इस कृति के पुरोवाक् में अवध की संस्कृति में राम इतने रचे बसे है कि यहाँ की भूमि पर जन्म लेने वाला हर शिशु राम होता है। हर माता कौशिल्या। वहाँ के बालकों के संस्कार राम मय बनते चले जाते हैं। वे तराजू से तौलते समय एक को राम कहते हैं। यह चलन देश के दूसरें कोनों में भी पहुँच गया है। आज सारें देश में अपने बालकों के नाम राम और कृष्ण के नाम पर रखने की परम्परा चल निकली हैं।
इन लोकगीतों में पारिवारिक सम्बन्धों में मिठास हैं। शादी-ब्याह के अवसरों पर गाँव के प्रत्येक सेवक की हिस्सेदारी रहती है। वर कन्य को तेल उवटन करना हो तो तेली के यहाँ से तेल मांग कर लाना पड़ता है। इसी प्रकार नाई,धोवी, बरार इत्यादि को भी उतना ही महत्व प्रदान किया जाता है। प्रत्येक से सम्बन्धित लोकगीत भी हैं। सम्बन्धित के यहाँ जाते समय वही लोग गीत गाते हुए जाया जाता है।
ऐसे लोग गीतों का संग्रह करना बहुत ही दुस्तर कार्य रहा होगा लेकिन तिवारी जी ने अपने संपादन में यह कर दिखाया है।
दलित विमर्श के प्रवक्ता बजरंग बिहारी तिवारी ने अवधी लोकगीतन कय दुनिया में अपनी अवधी भाषा में ही अपनी बात रखी हैं-अवधी लोकगीतन कय बिसय बस्तु लगभग वहै है जौन हिंदी छेत्र के दोसर जनसभा मा मिलत हैं अलगाव दुइ मामला मा देखय पड़े। पहिल भिन्नता अवधी लोक जीवन मा राम कय मौजूदगी के कारण है औ दोसर वहके मिली- जुली संस्कृति के कारण।
इस आलेख के अन्तिम पेरा ग्राफ में बजरंग बिहारी तिवारी लिखते है कि श्रीनारायण तिवारी उत्साही अध्येता हैं। आपने जनता इन्टर कालेज अमदही गोण्डा में लम्बे समय तक अध्यापन कार्य किया हैं। वे स्वयम् भी आपके विद्यार्थी रहे हैं। आपके आदेश से ही उन्होंने यह आलेख लिखा है। आपने उम्मीद की है कि अवधी भाषी जनता इस लोकगीत संग्रह का स्वागत जरूर करेगी।
परसपुर गोण्डा के समीप गाँवों में गाया जाने वाला लोकगीत देखें जिसमें अवधी भाषा के साथ वहाँ की संस्कृति के दर्शन के साथ गोस्वामी तुलसीदास जी का लोक से समन्वय प्रकट होता है।
ये ई पाँच पान नौ नरियर हो।
आत्माराम बाबा तोहरउ नेउता है आजु।
माई हुलसी तोहरउ नेउता है आजु।
बाबा तुलसी तोहरउ नेउता है आजु।
भुईयाँ भवानी देवी देउता सबै चलि आवौं
कुसल मनाओं तोहरउ नेउता है आजु।
इस कारण बजरंग बिहारी तिवारी का पूरा आलेख पाठकों में इस अवधी लोक गीत संग्रह को पढ़ने की प्रेरणा देता है।
डॉ0 श्रीनारायण तिवारी जी की साहित्यिक यात्रा में रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास की जन्म स्थली गोण्डा जिले में स्थित राजापुर के साथ में, मैं भी मातेश्वरी रत्नावली के जीवन रूपी तीर्थ यात्रा का आनन्द लेता रहा। मैं चाहता हूँ यदि आप इस जीवन्त तीर्थ की यात्रा करना चाहते हैं तो डॉ0 श्रीनारायण तिवारी के साहित्य पर दृष्टि जरूर डालें तब ही आप ऐतिहासिक धरोहर त्रिमुहानी वाले सूकर तीर्थ की भाषा, संस्कृति और जनजीवन की वास्तविक गतिविधियों से रू-ब-रू हो पायेंगे।
0000