Nakshatra of Kailash - 28 in Hindi Travel stories by Madhavi Marathe books and stories PDF | नक्षत्र कैलाश के - 28

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नक्षत्र कैलाश के - 28

                                                                                              28

अब अचानक समाप्त का बोर्ड लगते ही अजीब लगा। एक खालीपन सताने लगा। लेकिन उस खाली पन पर सांसारीक मोह माया ने कब्जा कर लिय़ा। संसार के आकर्षण ज़ाल में मैं धीरे धीरे फँसती गई। मुझे शांत देखकर सब चिढाने लगे। ऐसे बदले हुए माहोल में झट से घुल ज़ाना मुझे मुश्किल लग रहा था। हँसते हुए बात पलटकर मैं चली आ गयी।दुसरे दिन किसी आवाज से नींद खुल गई। दो तीन सहेलियाँ आपस में बात करते कुछ ढुँढ रही थी। मैं बाहर आकर पर्बतों की कतार निहारने लगी। हरियाली से भरा इलाका,पर्बतों से लिपटे, बहती हुई काली नदी , भोर की बेला, सब सुखावह लग रहा था। घुमते घुमते दूर तक निकल गई। आने के बाद झटसे तैयार होकर सामान गाडी के सामने रख दिया और नाश्ते के लिए गई। मेरे लिए क्षितीज रूकी हुई थी। अब नाश्ते में नानाविध व्यंजनों का स्वाद था।

आज कालापानी से गुंजी ऐसा 9 कि.मी. का सफर था। जब हम सफर के लिए निकलते हैं तब मानसिक स्थिती अलग होती हैं और वापिस आते वक्त की स्थिती अलग। ज़ाते समय प्रकृति का रौद्र रूप देखकर मन में ड़र उत्पन्न हुआ ,पर अब उससे मुक्तता पाकर निसर्ग का आस्वाद लेने में मज़ा आ रहा था। काली नदी की रौद्रता भी अब सौम्य लगने लगी। गुंजी के पहले ITBP के जवानों ने सफल यात्रा की बधाई दी और यात्रा चालू हो गई। कालापानी से 500 फीट नीचे उतरते हुए गुंजी पहुँच गए। वहाँ हाथ में शरबत के गिलास देते हुए स्वागत किया। थोडे दिन की महारानीयाँ ऐसे एक दुसरे को चिढाते हुए कमरें में सामान रखने के लिए गए। आज रात यही रूकने वाले थे। अभी तक सबका अता पता फोन नंबर ले चुके और परिवार की ज़ानकारी हो चुकी थी। मैं फोन करते हुए वापिस आ गई। मेरा परिवार उत्कंठा से मेरी राह देख रहा था। शाम को उसी गाँव के मंदिर की ओर घुमने चले गए। वहाँ की लोकसंस्कती के भजन सुनते अच्छा लगा। कुछ अलग नजर आते ही अच्छा लगना यह तो मनुष्य स्वभाव हैं। वहाँ से आने के बाद फिर खाना और सोना। आज यात्रा बुधी कँम्प के तरफ बढने वाली थी। यह दूरी 20 कि.मी. और 6 घंटे का मुश्किल सफर था। गरब्यांग तक का रास्ता ठीक से गुजरा  उसके बाद छियालेक तक का रास्ता गीली सफेद मिट्टी से भरा पैर फिसलाऊ था। अभी तक तो मैं घोडे पर ही बैठी थी। उसके पैर फिसलते ही मेरी धड़कन बढ ज़ाती। ऐसी सफेद मिट्टी बहुत कम जगह देखने मिलती हैं। प्राकृतिक वैविध्यता का यह एक अमुल्य नजराना था। अब छियालेक पठार दिखाई देने लगा। नानाविध फुलों से वह सज़ा हुआ था। पठार के उपर फुलों की नक्काशी खत्म करते ही एक तीव्र ढ़लान सामने आ गई। वह देखते देव पोर्टर को घोडे से उतारने के लिए बार बार कहने लगी। लेकिन मुझे उतारने के लिए वह तैयार ही नही हुआ। मेरा ढाँढस बढाते हुए घोडे के लगाम हाँथ ले कर सावधानी से नीचे उतर रहा था। मुझे तो एक क्षण के लिए भी रास्ते पर से नजर हटाना मुश्किल हो गया। धीरे धीरे हम लोग नीचे आ गए। अब बीच बीच में भेड़ बकरीयाँ ,चवरगाय दिखने लगे। कितना विरोधाभास दिखता हैं अपने और पहाडी में रहनेवाले लोगों के जीवन में । एक एक करते कितने कर्म सामने आ ज़ाते हैं। काम की चिंता अलग, बच्चे,समाज ,देश,सृष्टी कितने कर्मों से हमे झुंझना पड़ता हैं। नेट के मायाज़ाल ने तो पुरे विश्व की चिंता अब हमे सताने लगी हैं। ऐसे प्रश्न तो यहाँ के लोगों के तो खयाल में भी नही आ सकते। नैसर्गिक संपत्ती या आपत्ती के साथ, यह अपना जीवन आराम से गुज़ारते हैं। हम लोग तो प्रदुषण, अन्न भेसल,रसायनिक द्रव्यों से बने कपडे, उनसे निर्माण हुई गरमी,और न जाने क्या क्या ऐसे रोज मरते हैं। आधे घंटे बाद एक चाय की दुकान दिखाई दी। चाय पिते पिते वहाँ बैठे जवानों ने और स्थानिय नागरिकों ने बताया की यहाँ पर नेपाल सरहद्द के पर्बतों से माओवादी कभी भी हल्ला बोल देते हैं। यकायक वृत्तपत्रों की खबरे सामने आने लगी। आज वही इलाके से हम गुजर रहे थे। सीतापूल लाँघकर मैं पैदल चलने लगी, घोडे पर बैठकर बदन अकड़ गया था। थोडी दूर चलते सामने से एक बॅच आती दिखाई दी,उसमें युवा और बूढे भारी संख्या में दिखाई दे रहे थे। युवाओं का जोश नजर आने लगा। कुछ कारण न होते हुए भी उछलते हँसी के फवाँरे इसी उमर से फूटते हैं। ऐसे माहोल में बुढे भी जवान हो ज़ाते हैं। बॅच में से दो तीन लोग अगत्यतापूर्वक सामने आ गए। सबके मन में, आगे के यात्रविषयक ज़ानने की उत्सुकता थी। सौंदर्य और कठिनाईयों के बारे में बताते हुए  सब अपने अपने रास्ते चल पड़े। यहाँ से आगे पूरा फुलों का नज़ारा दिखने लगा। ज़ाते वक्त इसी रास्ते से गुजरे ? ऐसा सवाल मन में आ गया। ऐसे लग रहा था जैसे सफेद,पीले,नीले,फुलों को ओढकर सृष्टी आराम फर्मा रही हैं। फुलों के कलिनों पर से गुजरते, पैरों में गुदगूदी हो रही थी। हवाँ के साथ बाते करते वे अपने आप में झुल रहे थे। फोटो निकालते हुए आगे बढना पड़ा। अब गाँव के मकान दिखने लगे। कैसी श्रेणियाँ थी, पहिले पर्बत, मिट्टी, पत्थर के सिवा कुछ नही दिख रहा था। फिर पंछी, पेड़ ,पौधे दिखने लगे और अब मानवी बस्ती के निशान चालू हो गए। बुधी गेस्ट हाऊस आते ही एक जगह देखकर मैं तो पैर फैलाकर बैठ गई। ढ़लान के कारण घुटनों में दर्द होने लगा था। थोडा आराम करने के बाद खाना खाकर कमरें में गई।

दोपहर में सब गाँव में घुमने के लिए निकल गए। वहाँ एक छोटा बाज़ार था। स्वेटर मालाएँ,कपडों के साथ औषधी जडीबुटीयाँ भी बिकने  के लिए रखी थी। उनसे बात करने के बाद पता चला यहाँ आसपास औषधी वनस्पतीयों की खेती की ज़ाती हैं। तब याद आ गया हनुमानजी लक्ष्मणजी के लिए संजीवनी बुटी हिमालय से ही लेकर आए थे। यहाँ ऐसी भी वनस्पतीयाँ हैं की जिन्हे खाने से, छे महिनों तक भुख नही लगती। अखंडानंदजी की एक किताब पढने में आय़ी थी ,उन्हे एक तिबेटीयन योगी ने ऐसे योगासन सिखाएँ की वह करने से शरीर में गर्मी उत्पन्न हो ज़ाती हैं और इससे हिमालय के ठंड़ में वह आराम से रह सकते हैं ,साधना कर सकते हैं। और एक बात याद आ गई जब हम केदारनाथ गए थे तब सुबह, इतनी ठंड़ में,आरती के समय एक आदमी कमर में सिर्फ कपड़ा बंधे हुए घंटा बज़ा रहा था। हम सब लोगों ने कितने कपडे पहने थे फिर भी अंदर से कपकपाँ रहे थे और वह आदमी आराम से खडा घंटा बज़ा रहा था। उसका पूरा बदन भस्मांकीत था। उस में भी विज्ञान हैं। भस्म शरीर पर लगातेही रोमछिद्र बंद हो ज़ाते हैं। इस कारण बाहर के तापमान का असर व्यक्ति पर नही पड़ता हैं। इसिलिए आज्ञाचक्र पर भस्म टीका लगाते हैं। इससे बाह्य शक्ती अंदर प्रवेश नही कर सकती। तिबेटीयन लामा, योगी इनके पास बहुत योग सामर्थ्य होता हैं। बाज़ार में एक चक्कर लगाकर गेस्ट हाऊस वापिस आ गए। कुछ दिन बाद सफर खत्म होनेवाला था ,इसीलिए आज कँम्पफायर का आयोजन किया हुआ था। स्थान महात्म्य का असर देखो ,कैलाश के वातावरण में जब हम थे तब एखाद शब्द उच्चारण से भी मनःशांती विचलीत हो ज़ाती। वहाँ से हम जैसे जैसे नीचे आने लगे वैसे वैसे मन में परिवर्तन आने लगा। वह बहिर्मूख होता गया, और आज तो गाना गाने के मनोदशा तक पहुँच गए। कितनी जल्दी व्यक्ति अपने स्तर पहुँच ज़ाती हैं। खाना खाने के बाद सब एक दुसरे के हाथ थामते हुए नाचने लगे। जली हुई आग के कारण ठंड़ नही लग रही थी। उमंग, जोश के साथ गाने की शुरवात हुई। निःशब्द चाँदनी रात लयकारी में बदल गई। किसी ने दर्द भरे नगमें चालू किए तो उसे चिढाने में मज़ा आने लगा। देश भक्ती के गाने वीरता के स्फुरण दे रहे थे। बाद में तो दो समुह बनाते हुए दोनों में जीतने की होड़ लग गई। कोई किसी से हार मानने के लिए तैयार नही था। लेकिन मैफिल का अंत करना पड़ा। कल का सफर कठिनाईयों से भरा था इस कारण मैफिल खत्म कर दी। गान एक ऐसी चीज हैं जो हर एक को अपने से बाँधे रखती हैं। बिस्तर पर लेटे लेटे पहले तो नींद नही आ रही थी और बाद में गहरी निद्रा में कितनी देक तक सोती रही। क्षितिज ने उठाया तभी आँख खूली। आज सुबह ही निकलना था एक बार रमणिय प्रकृति पर नजर फेरते तैयार होने में जुट गई। आज बूधी से गाला यह 24 कि.मी.रास्ता तय करने में 8 घंटे लगनेवाले थे। यहाँ से मालपा तक ढ़लान का रास्ता था और मार्ग में बहुत झरने लाँघने थे इस कारण रेनकोट पहनना जरूरी हो गया। अभी तक तो आकाश साफ था। वहाँ के जवानों से विदाई लेते हुए चलना आरंभ हो गया। आज हिमालय दर्शन खत्म होनेवाले थे। हिमालय शब्द उच्चारण से ही वलयांकीत ज़ादू में प्रवेश किया हो ऐसे लगता हैं। हम तो अभी तक अध्यात्मिक तरंगों में विहार कर रहे थे। इतनी जल्दी उससे बाहर आने के लिए मन तैयार नही था। कुछ हाँथ से छुट रहा हैं इस भावना से बेचैनी होने लगी। ऐसा लग रहा था जैसे आए हैं वैसे ही वापिस ज़ा रहे हैं। पर नही पहिले हमारी झोली खाली थी और अब तो ईश्वर के आशिर्वाद का भंडार हम लेकर ज़ा रहे थे।

(क्रमशः)