daughter in Hindi Short Stories by अशोक असफल books and stories PDF | बिटिया

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बिटिया

इजलास में जज के आगे गुड्डू खड़े थे, उनके पीछे ज्योति, दूसरी ओर क्लाइंट। क्लाइंट ने गुड्डू से कहा, "नए वकील साहब ने जमानत करा दी, आप नहीं करा पाते।" और वे पलट कर ज्योति की ओर देखकर मुस्कराए। इस बात पर वह भी मुस्कुरा उठी।
एक दिन और, जब गुड्डू ड्राफ्ट बना रहे थे, अचानक धाराएं भूल गए और उसने कोहनी मार याद दिला दी तो दर्ज करते हुए वे मुस्कुरा पड़े। क्योंकि वे तो किताबों में देख कर लिखते थे और वह मोबाइल से निकाल लेती थी।
ज्योति गुड्डू के बगल में ही बैठती थी। अभी हाल में ही तो आकर बैठी थी। उसे उसके पिता शास्त्री ने आकर वहां बिठाया था। क्लाइंट सामने खड़ा था। उसने पूछा, "नए वकील साहब का वकालतनामा लगेगा?"
गुड्डू ने कहा, "नहीं, अभी नहीं।"
"क्यों?" उसने पूछा।
और वे ज्योति की ओर देख मुस्कुराते बोले, "अभी तो इन्होंने सेकंड सेमेस्टर का एग्जाम दिया है, लॉ कंप्लीट हो जाए तब इन्हीं का लगाया करेंगे।"
सुनकर वह मुस्कुरा पड़ी क्लाइंट की ओर देखती कि वह दिन भी आएगा।
दिनभर की ऐसी ही छोटी-छोटी बातें अपने पिता से आकर शाम को साझा करती और बाप बिटिया खूब मगन हो लेते। याद कर लेते कि बी.एड. तो बेकार गया, लॉ जो अभी हुआ नहीं, काम में आने लगा। गुड्डू अभी से चौथाई मेहनताना देने लगे!
कुछ दिन पहले गुड्डू दिन भर की थकान के बाद रात में खूब छक कर सोते थे। लेकिन अब सपने में कई बार वह आ जाती और रात को नींद खुल जाती।
वैसे सब कुछ ठीक था...। माँ-बाप के इकलौते लाडले। बीए में ही एमए पास से शादी होने लगी तो खुद को भाग्यशाली समझ उठे। यारों ने उंगली उठाई कि- गुड्डू, सुना है भाभी बड़ी हैं! तो उन्होंने छाती फुलाकर कह दिया कि- हाँ, हम से ज्यादा पढ़ी हैं।
बढ़िया कार्ड छपाए, धूमधाम से ब्याह रचाया, यादगार दावत दी।
और उसके बाद लॉ करते हुए अपनी नव ब्याहता की पीएचडी में खूब मदद की। उसके बाद उसे कॉलेज तक पहुंचाने में दिन रात एक कर दिया। इस बीच एक बेटी भी हो गई जो अब दसवीं में पढ़ती है। शिखर पर तो तब पहुंचे जब बार एसोसिएशन के सचिव बन गए। सीनियर्स ने अचरज से कहा, "अब तक के इतिहास में इतनी कम आयु का सचिव नहीं बना!"
अब तो कार भी है और घर भी रेनोवेट करा लिया। हर दृष्टि से सम्पन्न। जॉब से संतुष्ट। स्त्री-सन्तान से भरे-पूरे। बढ़िया स्टेटस। शहर भर में कार से पत्नी-बिटिया को लेकर आते-जाते। मित्रों सँग मौज-मस्ती करते। उत्सवों में बढ़-चढ़ कर भाग लेते। वकालात में खूब मेहनत करते। अच्छा खाते। अच्छा पहनते। और जमकर सोते...। लेकिन जब से ज्योति साथ आ गई है, जाने क्यों उसका ख्याल दिमाग पर छाया रहता है।

जिला कचहरी में बैठते थे, लेकिन हाई कोर्ट में भी अपील वगैरह कराया करते। इसलिए हाईकोर्ट आना-जाना बना रहता। और पहले तो अकेले ही दौड़ जाते थे। जब कार न थी, बस से ही! मगर अब इच्छा होती कि ज्योति को साथ ले जाएं। कोई साथ हो तो बोरियत न हो, साहस रहे।
जब पहली बार शास्त्री उसे बिठाने आए थे। किसी के माध्यम से बात हुई थी। और एक तिलकधारी, धोती-कुर्ते वाला भारी भरकम पंडित उनके सामने खड़ा था, परिचय देते ही उन्होंने सीट से उठ कर उसके पांव छू लिए थे, जिसके बगल में गेहुआं वर्ण की अल्हड़-सी लड़की खड़ी थी, उसे उन्होंने बिटिया कहा था। लेकिन अब ज्योति कहकर बुलाते थे। वह पुराना संबोधन भूल गए थे, तो भी यह ख्याल तो बना ही रहता कि यह बिटिया दाखिल है।
मगर इस खयाल के बावजूद एक दूसरा ख्याल भी तारी था, जिस कारण यह लड़की सपने में आती तो बिटिया नहीं रह जाती। उम्र में इतना फर्क न था कि वह बिटिया हो सकती! पर छोटी बहन को भी आमतौर पर बिटिया कह लेते हैं, इसी नाते उन्होंने उस दिन कह दिया था और लगभग भूल गए थे।
हाईकोर्ट जाते। हर बार इच्छा होती कि उसे ले जाएं। और हर बार दबा जाते। लेकिन उस बार जब गर्मियों में छुट्टियां हो गईं और पत्नी बेटी को लेकर मायके चली गई, चौका-बर्तन वाली पहले से थी, रोटी बनाने ज्योति आने लगी। खाने शास्त्री जी भी आ जाते। क्योंकि उधर कोई बनाने वाला न होता! दोनों को बनाते वक्त ही गर्मागर्म खिलाकर वह बाद में खाती। तब तक पिता निकल जाते। तब वह कार में गुड्डू के बगल में बैठ बड़ी सहजता से कोर्ट जाती।
सामीप्य इतना बढ़ गया कि- उस बार हाईकोर्ट जाते इच्छा ने इतना जोर मारा कि उन्होंने ज्योति से कहा, "कल हाईकोर्ट चलोगी!"
उसका चेहरा चमक उठा कि हाईकोर्ट देखने को मिलेगा! उसका बड़ा मंसूबा था, काला कोट पहनने का, वकालतनामा लगाकर वकालत करने का। बीए-बी.एड. के बाद भी सरकारी न मिली और प्राइवेट स्कूल में एक साल पिसना पड़ा तो उसने पिता से कह दिया, हम मास्टरनी नहीं वकील बनेंगे।' और शास्त्री ने पूछा कि- फिर बी.एड. काहे किया?' तो उसने कहा, पहले अकल नहीं थी...।'
हाईकोर्ट जाने की सुन खुशी से झूम उठी। शाम को उसने अपने पिता से कहा, "कल हम हाईकोर्ट जाएंगे!" और वह गर्व कर उठे कि बिटिया के कदम अब हाईकोर्ट की सीढ़ियां नापेंगे।

अगले दिन वह गुड्डू की कार में आगे बैठकर हाईकोर्ट चली गई। वहां दोनों साथ-साथ हाईकोर्ट की सीढ़ियां चढ़े-उतरे। बाबुओं के पास गए। जज के पास गए। होटल में खाना खाया। और साथ-साथ ढेर सारी बातें करते हुए लौटे...। तब से तो यह आलम हो गया कि वह दिन में भी उनके ख्यालों में छाई रहती।
गर्मी गई। पत्नी लौट आई। बरसात का सीजन आ गया। और इस बार वे हाईकोर्ट से भी आगे, स्टेट बार एसोसिएशन के चुनाव में जाने लिए सज गए। क्योंकि जिला सचिव / अध्यक्ष को वोटिंग पॉवर है। अध्यक्ष अपनी उम्र की वजह से शहर से बाहर कम ही जाते। उन्होंने गुड्डू से कहा आप चले जाओ। वैसे तो उनकी भी घूमने फिरने में कोई खास रुचि न थी। एक जगह जमकर रहते हुए काम करना अच्छा लगता था। पर दिल ने कहा कि यह एक मौका है! ज्योति से कहेंगे, अगर वह चले तो सफर सुहाना हो जाएगा...। और उन्होंने जैसे ही पूछा कि चलोगी! तो उसके चेहरे पर खुशी के बाजे बज गए। शाम को उसने घर आकर पिता से कहा- परसों हम राजधानी जाएंगे, चुनाव में वोटिंग करने! पिता की छाती चौड़ी हो गई, चलो बिटिया कहां तक पहुंच गई, हम तो जिले से बाहर न निकल सके! सचमुच बच्चों में हम अपने सपनों को ही पूरा करते हैं।
"कार से चलेंगे?" अगले दिन हँसती आंखों उसने गुड्डू से पूछा। बदले में मुस्कुराते हुए उन्होंने शताब्दी के टिकिट दिखा दिये, "इतनी दूर कार से जाएंगे तो बेहाल नहीं हो जाएंगे!"
अगले दिन दोनों शताब्दी में जाकर बैठ गए। दिन भर का सफर। सुहाना बरसात का मौसम। खिड़कियों से बाहर के नजारे देख-देख मन मोर की तरह नाच रहा था। गुड्डू बगल में। किसी पुराने केस की जीत की कहानी सुनाते, उत्साह में कभी-कभी जींस पर हाथ मार देते। कभी गले में हाथ डाल कान में कोई बात करने लगते। कभी सीने से कलाई सटा खिड़की की ओर उंगली कर बाहर का कोई नजारा दिखा उठते। इसी तरह मगन मन साथ नाश्ता, साथ-साथ खाना, चाय में दिन यादगार बन गया।
राजधानी पहुंचकर रात को एक बढ़िया होटल में बढ़िया रूम लेकर ठहरे। फ्रेश होने के बाद हॉल में खाने पर बुलाया गया। सज-धज कर हाथ में हाथ डाले कपल की तरह वहां पहुंचे। बैठकर स्वादिष्ट खाना खाया। उसके बाद कॉफी। तब तक स्टेज पर म्यूजिक प्रोग्राम शुरू हो गया। बहुत अच्छे कलाकारों ने एक घंटे तक मनमोहक संगीत का जादू बिखेरा। दोनों ने झूम-झूम कर सुना। और एक दूसरे की कमर में हाथ डाले अपने रूम में आ गए। चेंज कर दोनों बिस्तर पर पहुंचे। गुड्डू ने पूछा, बत्ती बंद करदें? ज्योति ने मुस्कुरा कर कहा, हां और क्या, हमें तो उजाले में नींद भी नहीं आती!
बत्ती बंद कर दी, लेकिन खिड़कियों से हल्का उजास आने लगा। यह चांदनी का आभास दे रहा था। बेड डबल था मगर था तो एक ही! दोनों अपना-अपना चादर ओढ़ कर अगल-बगल लेट गए। और सफर के थके, जमकर खाना खाए सो, पड़ते ही बिस्तर पर नींद के आगोश में! मगर रात के पौन बजे गुड्डू की नींद अचानक उचट गई। क्योंकि सोते सोते दोनों एक-दूसरे से सट गए थे। दिल में हलचल और वदन में सर्दी महसूस करते उन्होंने ज्योति के चादर में शरण ले ली।

सोते में होश नहीं रहा... ज्योति को लगा, बचपन में पिता के साथ सो रही है! टांग उठा कर उनकी कमर पर रख ली और हाथ गले में डाल लिया।
सोते वक्त उसने फैशन में स्लीवलैस और घुटनों तक का नाइट वियर पहन रखा था, जिसे पापा के साथ ही लेकर आई थी। और दिलाते वक्त वे मुदित हुए थे कि इसे पहनकर बिल्कुल बच्ची लगेगी! मगर वह बच्ची नहीं पच्चीससाला युवती थी, जिसकी देह से भीनी-भीनी सुगन्ध उठती थी। उसके उभार अपने सीने में महसूसते गुड्डू कई बार उसका कपोल चुपके से चूम चुके थे।
मुतवातिर जाग रहे गुड्डू का हाथ जब अपार भावुकता में ज्योति के बालों को सहलाता पीठ तक चला गया, वह बचपन के सपने में प्रवेश कर गई! और वह पिता की जगह गुड्डू के ऊपर आ गई।
दिल जोर से धड़क उठा और उन्होंने दाँव लगा उसे अपने नीचे दबोच लिया...। नींद झटके से टूट गई। घबराहट में उसने उन्हें परे धकेलते कहा, "हम तो आपको पापा समझते रहे...!"
गुड्डू का नशा उतर गया। उन्हें उसमें अपनी बेटी नजर आने लगी।
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