Agnija - 51 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 51

Featured Books
  • ભીતરમન - 58

    અમારો આખો પરિવાર પોતપોતાના રૂમમાં ઊંઘવા માટે જતો રહ્યો હતો....

  • ખજાનો - 86

    " હા, તેને જોઈ શકાય છે. સામાન્ય રીતે રેડ કોલંબસ મંકી માનવ જા...

  • ફરે તે ફરફરે - 41

      "આજ ફિર જીનેકી તમન્ના હૈ ,આજ ફિર મરનેકા ઇરાદા હૈ "ખબર...

  • ભાગવત રહસ્ય - 119

    ભાગવત રહસ્ય-૧૧૯   વીરભદ્ર દક્ષના યજ્ઞ સ્થાને આવ્યો છે. મોટો...

  • પ્રેમ થાય કે કરાય? ભાગ - 21

    સગાઈ"મમ્મી હું મારા મિત્રો સાથે મોલમાં જાવ છું. તારે કંઈ લાવ...

Categories
Share

अग्निजा - 51

प्रकरण-51

उस रात केतकी को न जाने कितनी देर तक नींद ही नहीं आई। क्या परिवार के लोग मुझे दुःख देने के लिए मेरी मां को सताते हैं? क्या मेरा अस्तित्व ही इन लोगों को इतना परेशान कर करता है कि वे मुझे देखते साथ इतना अमानवीय बर्ताव करने लगते हैं? यदि मैंने घर छोड़ दिया तो शायद मां को मिलने वाली तकलीफ कम हो जाएगी। और फिर मुझे भी यहां रह कर कौन-सा सुख मिल रहा है? रोज-रोज की इस परेशानी से छुटकारा पाने का एक ही उपाय है, और वह है घर छोड़ कर निकल जाना। शादी कर लेने से ऐसा संभव हो पाएगा।

सच पूछा जाए तो इतने सालों से कष्ट झेलते और काम करते-करते उसका शरीर भी थक गया था। और लगातार ताने सुनते-सुनते मन भी त्रस्त हो गया था। उसके मन पर तिरस्कार और द्वेष भावना के कांटे उग आए थे। इन सब बातों के कारण अनेक बार तो उसका दिमाग ही काम नहीं कर पाता था। स्वयं को यदि स्वाभिमान से जीना है तो, इन सब जंजीरों को तोड़ना ही होगा। ये बेचैनी, ये बेडियां, ये कैद...इन सबसे यदि जल्दी छुटकारा नहीं मिला तो पागल होने की नौबत आ जाएगी किसी दिन, या फिर उसके हाथों से अनहोनी घट जाएगी-केतकी को ऐसा लगने लगा था। इन्हीं विचारों के बीच देर रात उसे नींद आ तो गई लेकिन उसे भयानक सपने दिखाई देने लगे। कोई उसकी मां के हाथ-पैर काट रहा है, लेकिन मां रो नहीं रही है, चीख-पुकार भी नहीं कर रही है और अपनी जगह से हट भी नहीं रही है, ये सब दृष्य वह दूर खड़ी होकर देख रही है...दूसरे सपने में चारों तरफ आग लगी हुई है और उस आग में वह फंसी हुई है, ऐसा दृष्य दिखाई दिया। आग से दूर खड़े होने का प्रयास किया तो दूसरी ओर एक अजगर उसे निगलने के लिए तैयार बैठा था...भाग कर किसी पेड़ के नीचे खड़े होने गई तो वहां जहरीला सांप फन निकालकर उसे डंसने के लिए आ रहा था...वह दौड़ती है...दौड़ती रहती है...क्योंकि कुछ अजनबी लोग कुल्हाड़ी लेकर उसका पीछा कर रहे थे...अपनी जान लेकर भागते-भागते ही वह एक खाई में जाकर गिर जाती है...खाई में एक नदी है...उस नदी में कई मगरमच्छ हैं जो मुंह फाड़ कर बैठे हैं।

“नहीं...नहीं....” चीखते हुए केतकी अपने बिस्तर पर उठ बैठी। उसकी आवाज से भावना भी जाग गई। वह अपनी दीदी की तरफ देखती रह गई। और फिर कुछ भी न कहते हुए बाजू के टेबल पर रखा हुए पानी का गिलास उसे लाकर दे दिया। केतकी गटागट पानी पी गई। भावना ने रुमाल से उसके माथे के पसीने को पोंछा। धीरे-से उसे अपनी तरफ खींचा और उसका सिर अपनी गोद में रखकर सहलाने लगी। बड़ी देर तक।

........

शाला की छुट्टी होते ही प्रसन्न शर्मा जल्दी-जल्दी बस स्टॉप पर पहुंचा, लेकिन उसका ध्यान पीछे की तरफ ही था। थोड़ी ही देर में उसे केतकी की स्कूटी दिखाई पड़ी। प्रसन्न ने उसे हाथ दिखा कर रोका। “ मैं थोड़ा जल्दबाजी में हूं। मुझे आपके रास्ते पर ही एक जगह जाना है, मुझे लिफ्ट देंगी क्या?” केतकी उसकी तरफ देखती रही। चेहरे पर बिना किसी भाव के बोली, “बैठिए।” स्कूटी चालू हो गई। प्रसन्न कुछ गुनगुना रहा था। वह क्या गा रहा था, वाहनों की आवाज में कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था, और केतकी को उसमें रुचि भी नहीं थी। अचानक प्रसन्न जोर-जोर से खांसने लगा। वह जैसे-तैसे बोला, “अचानक खूब एसीडिटी हो गई ऐसा लगता है...ओह..सीने और पेट में बड़ी जलन हो रही है...” क्या किया जाए, केतकी को समझ में नहीं आ रहा था। प्रसन्न ने उससे बिनती की, “आपको यदि एतराज न हो, तो सामने के होटल में बैठ जाएं दस मिनट के लिए? सुबह से भागदौड़ में कुछ खाया-पीया नहीं...कुछ खा लूंगा तो ठीक लगेगा।” केतकी जरा चकरायी, लेकिन कोई रास्ता भी नहीं था। वह आगे चलने लगी, प्रसन्न पीछे। होटल की बोर्ड पर केतकी का ध्यान गया... ‘दख्कन सेंटर...प्योर साउथ इंडियन...’

उसे देखकर केतकी का मन खुश हो गया। दोनों जाकर बैठे। प्रसन्न ने मेनू कार्ड केतकी के हाथों में दिया, “मैं इडली-चटनी लूंगा। आप क्या लेंगी?”

“पहले इडली-चटनी और सांबर।”

इडली आई। उसके साथ सांबर से भरा हुआ बड़ा जग था। प्रसन्न धीरे-धीरे खा रहा था लेकिन केतकी बहुत मन लगाकर खाने लगी। सांबर बड़ा स्वादिष्ट था। उसने अपना खाना खत्म करने के बाद सिर ऊपर उठाया, तो देखा अभी प्रसन्न ने जैसे-तैसे आधी इडली की खत्म की थी। उसे देख कर केतकी शरमाई। प्रसन्न बोला, “जीभ पर स्वाद नहीं है... मैं दोसा मंगवाता हूं। आप भी लें। यहां का दोसा बड़ा प्रसिद्ध है।” केतकी ने हां कहा। प्रसन्न ने अपने लिए सादा और केतकी के लिए मसाला दोसा मंगवाया। प्रसन्न धीरे-धीरे दोसा खा रहा था। केतकी ने एक बड़ा टुकड़ा मुंह में रखते ही कहा, “वाह, एकदम टेस्टी है... थैंक्यू..”। प्रसन्न वह दोसा भी खत्म नहीं कर पा रहा था। उसने केतकी से बिनती की, “मुझे लगता है मिक्स वेज उत्तपम मंगवाया जाये। खाएंगी न?” केतकी का मन तो खूब कर रहा था, लेकिन उसे अच्छा नहीं लग रहा था। “मैं पूरा नहीं खा पाऊंगी।” “तो एक मंगवाते हैं, आधा-आधा खाएंगे।” ऐसा कहते हुए प्रसन्न ने मिक्स वेज उत्तपम का ऑर्डर दिया और अपने लिए एक नींबू पानी मंगवाया। उत्तपम आने के बाद उसने उसके दो भाग किये, एक हिस्सा केतकी की प्लेट में रखा और नीबू पानी पिया। उत्तपम का पहला ग्रास मुंह में डालते ही केतकी बोली, “अफलातून, आफरीन” प्रसन्न केवल नीबू पानी पी रहा था। “वास्तव में मुझे अपने लिए पहले ही नीबू पानी ही मंगवाना था, पता नहीं क्या-क्या मंगवाता रहा।” इसे पी कर अच्छा लग रहा है। एक और गिलास मंगवाता हूं...प्लीज इस उत्तपम को आप ही खत्म कर लें। केतकी ने बचा हुआ आधा उत्तपम भी खाया और तृप्त को होकर डकार ली। प्रसन्न ने एक और नीबू पानी पिया। बिल आते ही केतकी ने जल्दी से वह अपने हाथ में ले लिया। प्रसन्न के बार-बार मना करने के बावजूद वह नहीं मानी। बिल उसने ही चुकाया।

बाहर निकलते ही उसने प्रसन्न को दिल से धन्यवाद कहा। प्रसन्न ने धीरे-से पूछा, “आप कई बार विचारों में खोई हुई नजर आती हैं। कुछ समस्या हैं क्या?आपके घर में कौन-कौन हैं?”

केतकी उठ खड़ी हुई। “हमारी मुलाकात एक बार होटल में हुई और आज फिर एक बार विवशतावश होटल में आए हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि हम दोस्त बन गए हैं। मैं अपनी व्यक्तिगत बातें सभी के साथ नहीं बांटती। हम एक जगह पर साथ काम करते हैं, बस इतना ही...”

इतना कह कर केतकी बाहर निकली। और अपनी स्कूटी पर सवार होकर निकल गई। प्रसन्न उसकी तरफ देखता ही रह गया। वह अपने पसंदीदा गायक जगजीत सिंह की एक पंक्ति अनजाने ही गुनगुनाने लगा. ‘तुमसे इतना है प्यार क्यूं... ये ना बता सकूंगा मैं...’

.........

घर पहुंच कर केतकी ने खाने के लिए मना कर दिया तो यशोदा को चिंता होने लगी। भावना ने उसके माथे पर हाथ रख कर उसकी तबीयत तो ठीक है, यह देखा। केतकी मुस्कुराई। भावना ने पूछा, “क्यों क्या हुआ? आज खाना क्यों नहीं खाना है?”

“हे भगवान, कुछ नहीं हुआ है। ये देख...” ऐसा कहते हुए उसने पर्स में से दख्खन सेंटर का बिल निकाल कर भावना के हाथ में रख दिया। “मां, तुम चिंता मत करो। दीदी बाहर खाकर आई हैं...” यशोदा की चिंता दूर हुई और वह वहां से चली गई।

“खूब मस्त होटल है, ऐसा सुना है... तारिका दीदी के साथ गई थी?”

“अरे नहीं...उस प्रसन्न शर्मा ने लिफ्ट मांगी थी। रास्ते में अचानक उसे एसीडिटी का अटैक पड़ा इस लिए कुछ खाने के के लिए होटल में गए। लेकिन उसने तो कुछ खाया ही नहीं, केवल नींबू पानी लिया। लेकिन मैंने सब खाया, मस्त मजा आ गया। ”

“खाने में मजा आया...या कंपनी के साथ...?”

“कुछ भी मत बोल...” इतना कह कर केतकी उठ गई। भावना बोली, “उस दिन होटल में उसने मुझसे पूछ लिया था कि तुम्हारी दीदी को क्या-क्या पसंद है? मैंने उसको बताया था कि तुम्हें साउथ इंडियन डिश खूब पसंद हैं....”

“तुझे ये होशियारी दिखानी की क्या जरूरत थी?” केतकी वहां से निकल तो गई, लेकिन उसके मन से प्रसन्न का विचार नहीं जा रहा था। भावना ने शरारती हंसी हंस रही थी। “एसीडिटी नहीं....मुझे तो प्रेम की एबीसीडी लगती है...एबीसीडी...नॉट बैंड....नॉट एट ऑल...”

............

रणछोड़ घर में घुसते ही यशोदा पर नाराज हुआ, “मेरे सफेद शर्ट की हालत देखो जरा...पीला पड़ गया है... प्रेस भी नहीं है ठीक से. दो-चार दिनों के मैले कपड़े पहन रखे हैं, ऐसा लग रहा है... घर में इतनी औरतें मुफ्त में बैठ कर खा रही हैं, लेकिन किसी को भी मेरी चिंता नहीं है...बाप ने और नाना ने यहां तुम लोगों के लिए खजाना छोड़ रखाहै न...मौज करो...और यशोदा, तुम तो उसको कुछ कह ही नहीं सकती न...मरे हुए पति को बुरा लगेगा ...? ये पति भले ही मेहनत-मजदूरी करते-करते मर जाए... अब भी समय है सुधर जा...नहीं तो किसी एक की जान ले लूंगा मैं...बता देता हूं.”

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह