Agnija - 38 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 38

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अग्निजा - 38

प्रकरण 38

यशोदा बर्तन मांज रही थी और उसके कानों पर रणछोड़ दास के ये वाक्य अभी भी गूंज रहे थे, ‘बस झालं तिचं शिक्षण.. मी किती दिवस तिचा खर्च करू?.. मी म्हणून एवढं तरी केलं... नाहीतर कोणी केलं नसतं.’

क्या हुआ भगवान जाने, पर यशोदा एकदम उठ कर खड़ी हुई. रविवार की दोपहर थी। शांति बहन और रणछोड़ दास खाना खाकर सौंफ चबा रहे थे। यशोदा उनके सामने जाकर खड़ी हो गई। दोनों हाथ जोड़ कर बोली, “मैंने आज तक आपसे कुछ नहीं मांगा है, कभी कोई शिकायत नहीं की...आज कृपा करके मेरी एक बात मान लें...”

सुपारी कतरते हुए शांति बहन ने वाग्बाण छोड़ा, “लो...चींटी को भी पंख निकल आए और इसको जुबान...”

रणछोड़ दास ने मुंह बिचकाया। “जो कुछ कहना हो, जल्दी से कहो..मुझे निकलना है तुरंत।”

“केतकी को पढ़ने दें...थोड़ा सा पढ़ लेगी तो उसका भविष्य सुधर जाएगा।”

शांति बहन चिढ़ कर बोलीं, “देख लो इस महारानी को...मेरी जयश्री शिक्षिका बनने वाली है यह सुनकर इसके पेट में दर्द होने लगा...”

रणछोड़ दास को गुस्सा आ गया, “दो-दो के होस्टल का खर्च मैं कैसे उठा पाऊंगा? उस करमजली के लिए उसका या तेरा बाप पैसे छोड़ कर नहीं गया है...बड़ी आई...”

“डीएड नहीं...पर कुछ तो पढ़ाइए न आगे...”

“सुनो, जयश्री होस्टल में चली जाएगी, वह पनौती कॉलेज में जाएगी, तो घर के काम कौन करेगा? मैं?”

यशोदा ने याचना की,“घर के सब काम मैं करूंगी, केतकी भी करेगी। आपमें से किसी को भी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा इसका विश्वास मैं दिलाती हूं.. ” इतना कहते हुए यशोदा का गला भर आया।

शांति बहन बीच में ही बोल पड़ीं, “ये तुम्हारा स्त्री चरित्र अपने पास ही रखो...रोकर दिखाने का...”

“लेकिन उस लड़की का भविष्य...”

रणछोड़ दास गुस्से में ही उठा। “ठीक है, ठीक है...अब बकवास बंद करो...मैं देखता हूं आसपास कोई सस्ता कॉलेज होगा तो...” इतना कह कर वह दो कदम आगे बढ़ा ही था कि फिर से पीछे पलटा और यशोदा से बोला, “जयश्री के साथ उसकी तुलना कभी मत करना...आखरी बार तुमको बता रहा हूं...नहीं तो ठीक न होगा...”

रणछोड़ दास के निकल जाने के बाद शांति बहन ने यशोदा को गुस्से से देखा, मानो यशोदा ने उसके बेटे से रो-धोकर कोहिनूर का हीरा ही अपने आंचल में भर लिया है..

केतकी आगे पढ़ेगी, इस कल्पनामात्र से भावना खूब खुश हुई। लेकिन अन्यमनस्कता की अवस्था में जी रही केतकी को लगा कि पढ़ाई की झंझट नहीं होगी तो कम से कम घर के कामकाज तो ठीक से कर पाएगी, फिर किसी को कोई शिकायत भी नहीं रहेगी। असहनीय अत्याचार, अमानवीय कष्ट, अन्याय और जानवरों से भी बदतर जीवन जीते हुए भी उसे दो वक्त का खाना और अपने सिर पर छत-यह ज्यादा जरूरी लग रहा था।

दूसरे दिन रणछोड़ ने एक फॉर्म लाकर टेबल पर रख दिया और यशोदा को आवाज लगाई, “उस बदनसीब के लिए यह फॉर्म लेकर आया हूं...पढ़ना होगा तो यहीं पढे...नहीं तो रहने दे...” यशोदा को खुशी हुई। भावना पीछे पड़ी तो केतकी ने वह फॉर्म भर दिया। भावना गर्व के साथ बोली, “मेरी केतकी दीदी कॉमर्स पढ़ने वाली है...कॉमर्स...” यशोदा ने केतकी को पूछा, “मतलब, इसमें क्या पढ़ना पड़ता है?”

फॉर्म देख कर केतकी विषय बताने लगी। केतकी को खुद भी इसके बारे में अधिक मालूम नहीं था तो वह केतकी को क्या समझ में आता भला?

रणछोड़ तो उसके साथ जाने से रहा, इस लिए कॉलेज में एडमिशन लेने के लिए पहले केतकी और भावना गईं। घर का काम खत्म करके पीछे से यशोदा भी वहां पहुंच गई। फीस अधिक नहीं थी और एडमिशन भी मिल गया।

पढ़ने के लिए जयश्री मानो कई दिनों के लिए परदेस जा रही हो, इस तरह से उसके साथ बहुत सारी खाने-पीने की चीजें, अचार और ढेर सारे नये कपड़े दिए गए। किसी को बिना बताए ही शांति बहन ने उसके बैग में आधा-आधा किलो काजू-बादाम और दूसरे सूखे मेवे की पैकेट रख दिए। रणछोड़ दास और शांति बहन को उसके जाने का इतना दुःख हो रहा था कि वे दोनों उसे होस्टल तक छोड़ने के लिए गये।

और केतकी के लिए एक भी नया ड्रेस नहीं लिया गया। टूटी हुई चप्पल रास्ते के मोची से सिलवाकर वह कॉलेज में गयी। वह कॉलेज सिर्फ लड़कियों के लिए ही था। कॉलेज पहुंच कर वहां के वातावरण से केतकी स्तंभित रह गई। वहां प्रत्येक लड़की के चेहरे पर उत्साह, चमक, जोश, आशा और सपने दिखाई दे रहे थे। केतकी डर गई। उसे ऐसा लगने लगा कि इन सबके बीच वह कैसे रह पाएगी...चलो जितने दिन निकल जाएं, उतने ही सही...

केतकी की दिनचर्या पूर्ववत चलती रही। ग्यारहवीं के नए विषयों को समझना, घर के कामकाज को निपटाना और मां की असहाय अवस्था देखते रहना। दिन इसी में गुजर रहे थे। भिखाभा नगरसेवक बन गए और रणछोड़ दास के काम और बढ़ गए। उनसे मिलने-जुलने आने वालों की भीड़ बढ़ गई। रणछोड़ दास घाट-घाट का पानी पी चुका पहुंचा हुआ आदमी था। काम का आदमी हो तो उसे चाय-नाश्ते के बगैर जाने नहीं देता था। आने वाले सभी लोगों की आवभगत यशोदा और केतकी को करनी पड़ती थी। प्रत्येक रविवार को भिखाभा के इलाके के दस-बारह लोग मिलने के लिए आते, विचार-विमर्श करने के लिए आते थे। उन सभी लोगों को खाना खिलाना पड़ता था। एक बार यशोदा किसी काम से बाहर गई तो केतकी ने अकेले ही सब लोगों का खाना बनाया और उन्हें परोसा भी।

इधर जयश्री का लाड़-दुलार बढ़ता ही जा रहा था। उसको जो कुछ खाने-पीने की चीजें भेजी जातीं उन्हें वह दिखावा करने के लिए अपनी सहेलियों में बांट देती थी। सहेलियों के साथ उसकी पार्टियां बढ़ती ही जा रही थीं। उसको खाने-पीने की सब चीजें बाहर की पसंद थीं लेकिन खाखरा घर के मांगती थी। इस लिए प्रत्येक सप्ताह केतकी को अकेले ही सौ-सौ खाखरे बनाने पड़ते थे। यशोदा या फिर भावना उसकी मदद करने के लिए जातीं तो रणछोड़ या शांति बहन टोक देती थींष “क्यों...कह रही थी न कि उसे पढ़ने दो...वह घर के सब काम करके पढ़ाई करेगी? तो अब करने दो उसको अकेले...”

तवे पर खाखरे के साथ केतकी का कलेजा भी भुन जाता था...और बाहर यशोदा तक उसकी आंच पहुंचती थी। उसको कभी-कभी खुद पर ही गुस्सा आता था, चिढ़ होती थी कि वह चुप रह कर कहीं केतकी पर अन्याय तो नहीं कर रही है, लेकिन यदि वह कुछ बोली तो ये लोग उसे घर में ही नहीं रहने देंगे। बेचारी कहां जाएगी

सौ-सौ खाखरे बनाते हुए केतकी का जीवन अत्याचार की आग में जल रहा था और प्रेम और ममता न मिलने के कारण रूखा और कठोर बनता जा रहा था।

कॉलेज में सभी लड़कियां अपने उज्जवल भविष्य के सपने बुनती हैं। अपनी ही धुन में खोई रहती हैं लेकिन केतकी के मन में बस दो ही बातें चलती रहती थी-बिना किसी की डांट सुने सभी काम खत्म हो जाएं और दो समय बचा-खुचा खाना मिल जाए। यातनाओं की इस तप्त धरा पर सुख की छोटी-सी बौछार बरस गई, पर केतकी को इसका महत्व महसूस ही नहीं हुआ। वह जैसे-जैसे ग्यारहवीं पास हो गई। कैसे हुई, यह उसे भी समझ में नहीं आया।

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह